25 नवंबर, 2018

परख सताइस

पहाड़ घड़ों में छुपी मनुष्य की प्यास है!

गणेश गनी


कुमार कृष्ण

उस वक्त भी गीत गुनगुनाए गए होंगे, उस पल भी कविता बनी होगी, उस क्षण भी संगीत के सात सुर एक साथ गूंज उठे होंगे जब गीत और कविता दोनों थककर बैठ गए होंगे, उस समय खमोशी मुखर हुई होगी जब संगीत भी साधना करने के वास्ते कुछ अधिक ऊंचाई पर झरने के पास लौट गया होगा, ठीक जिस वक़्त पहली बार इस पृथ्वी पर एक नदी दूसरी नदी से आ मिली होगी। दोनों नदियां एक दूसरे का हाथ थामे अपने- अपने सफर के किस्से साझा करती हुई आगे का सफ़र तय करते हुए आगे बढ़ी। उस घड़ी की अनुभूति कैसी रही होगी जब यह नदियां अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर पहली बार सागर में समा गई होंगी। पहली बार घटने वाली हर घटना अद्भुत और अनोखी होती है। कवि कुमार कृष्ण अपनी कविताओं में ऐसे किस्सों का अक्सर ज़िक्र करते हैं-

पृथ्वी पर मनुष्य को
जब पहली बार मिले होंगे
रोटी के बीज, कपड़े के फूल
तब उसे कैसा लगा होगा
जब पहली बार मिली होगी उसे आग
तब कैसा लगा होगा!
जब पहली बार बनाया होगा उसने छोटा-सा घर
जब चाहा होगा उसने किसी को पहली बार
स्त्री की कोख से जन्म लिया होगा
किसी बच्चे ने जब पहली बार
तब उसे कैसा लगा होगा!

कवि के जज़्बात पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफ़ल हुए हैं। यह सच है कि पहली बार घटने वाली हर घटना गजब की होती है। चाहे किसी को चाहना हो या चूमना, पहली बार कुछ भी होना चेहरे पर मुस्कान ला देता है लम्बे समय तक। इंसान फिर अकेले में भी हंस सकता है। पहली बार का कुछ भी होना गज़ब की अनुभूति देता है। कुमार कृष्ण की एक और कविता पढ़ते हैं और सोचते हैं कि जब पहली बार गांव खो गया होगा तो क्या हुआ होगा, जब पहली बार किसी की भाषा गुम हुई होगी तो क्या हुआ होगा-

पहली बार बच्चे ने शहर आकर पूछा- ‘गाँव किधर है बापू!’
मैंने सामने उड़ते पक्षी की ओर इशारा किया-
‘वह देखो, पक्षी की चोंच के दाने में
उड़ रहा है गाँव’
बच्चा बड़ा होता गया
बड़े होते गए उसके सवाल
वह भूलता चला गया
गाय और माँ के दूध का अंतर
वह भूल गया-
जूता खोलने और पहनने का फर्क
अट्ठारह साल बीत जाने पर
मैंने एक दिन बच्चे से पूछा-
‘क्या तुम आज भी बोल सकते हो दादी की भाषा?’
बच्चे ने एक दुकान की ओर इशारा किया-
‘पापा उधर देखो
शायद उस सब्जी बेचने वाली औरत के पास बची हो
थोड़ी-बहुत
क्या करेंगे आप उस भाषा का?’
बेटा, वह मेरे हँसने की, रोने की भाषा है
जागने की, सोने की भाषा
मैंने तुम्हारी जेबों में बिजूका के पैरों वाली
जो भाषा भर दी है
वह डराने-धमकाने की चीज है
तुम्हारे सपनों की भाषा नहीं
उधर देखो उधर उस खिड़की की ओर
तुम्हारी माँ ने-
जिसे सौंप दी हैं अपनी दोनों आँखें
उस खिड़की के सरियों पर
झूल रहा है उसका छोटा-सा गाँव
वह हम सब के इन्तजार में पका चुकी है-
अनगिनत सूरज
फिर भी नहीं भूली सरसों का साग खिलाना
ऐसे समय में जब तमाम स्कूल पढ़ा रहे हैं तराजू की वर्णमाला
फिर कौन याद करेगा नीम का पेड़
कौन पूछेगा-‘गाँव किधर है बापू!’

चैहणी दर्रे की तलहटी में भांति भांति रंगों के फूल खिले थे। इनमें सबसे आकर्षक थे पीले और जामुनी रंग के छोटे छोटे मगर एकदम स्वस्थ फूल और हल्की हवा के साथ मदमस्त लहलहाते हुए और भी आकर्षक लग रहे थे। पहाड़ से जो बर्फ़ पिघलकर नीचे आ रही थी, उसने एक जलधारा का रूप ले लिया था और आसपास से छोटी छोटी पतली धाराएं इसमें आकर मिल रही थीं-

दोस्तो!
जैसे एक नदी में होती हैं सैंकड़ों नदियां
वैसे एक पहाड़ में होते हैं असंख्य आग के घर।

तलहटी में हरी घास के बीच से बहते हुए यह जलधारा चनाब तक पहुंचते पहुंचते बड़े आकार में बदल जाती हैं।
वो आज सोचता है काश! तब उसे इस पहाड़ ने उस पार जाने से रोका क्यों नहीं-

मुझे अच्छे लगते हैं पहाड़
इसलिए नहीं कि पहाड़ पर होते हैं सेब
पहाड़ पर होती है बर्फ
या फिर मैं पैदा हुआ पहाड़ पर

पहाड़ पर होते हैं बेशुमार नदियों के घर
पहाड़ पर होती हैं आग की गुफाएँ

सागर का सपना है पहाड़
पहाड़ घड़ों में छुपी मनुष्य की प्यास है।

जो फूल, तितलियां, जलधाराएं और हवा पहाड़ के इधर थीं, वो सब कुछ पहाड़ के उधर नहीं था। वो समझ गया कि पहाड़ ने उसका रास्ता क्यों नहीं रोका। पहाड़ नहीं जानता था कि उसकी पीठ के पीछे कितना कुछ बदल चुका है-

वक्त बहुत कम है-
कविता की जेबों में जल्दी से भर लो
फटे- पुराने रिश्ते
नरगिस के फूलों की खुशबू
चूड़ियों की खनखनाहट
बैलों की घंटियां
चांद तारों की कहानियां
हो सके तो छुपा लो कहीं भी
दादी का, नानी का बटुआ
थोड़ा- सा पानी
थोड़ी- सी आग
थोड़ा- सा छल
थोड़ा- सा राग।

कुमार कृष्ण एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताएं पहाड़ के इर्दगिर्द नहीं घूमती बल्कि अपने अंदर कई कई पहाड़ लिए पाठक के सामने खड़ी रहती हैं। पाठक पढ़ता है तो फिर कविता की कन्दराओं में से होकर गुज़रता भी है। इस सफ़र में पाठक कई चुनौतियां देखता है और उनका सामना भी करता है। पाठक प्रश्नों से दो चार भी होता है और उनके उत्तर भी तलाश करना सीखता है-

पहाड़ पर रहने वाले कवि में
रहते हैं हर वक्त सैंकड़ों पहाड़
जब जब लहराते हैं दरख़्त हवा में
उसे लगता है आग ने करवट बदली
जब जब उतरती है बर्फ पहाड़ पर
उसे लगता है-
जिंदा है मौसम की गर्माहट
जब कभी फूटता है कोई लोकगीत किसी कंठ से
उसे लगता है-
नहीं गली पूरी तरह रिश्तों की फांक।

कुमार कृष्ण अपनी कविता से उतना ही प्यार करते हैं, जितना एक माँ अपने बच्चे से करती है, जितना एक तितली फूलों से करती है, जितना एक किसान अपने खेत से करता है, जितना बर्फ़ का आदमी आग से करता है-

बर्फ में चलते आदमी को मिल जाए
परात- भर आग
भूख में मिल जाए
कटोरा- भर छाछ
लंबे इंतजार में मिल जाए
आंख- पर चेहरा
सपनों को मिल जाए
झपकी-भर नींद।

कवि का अपनी कविता से प्रेम यदि हद से भी बढ़कर हो तो ऐसी कविताएं बनना सम्भव है क्योंकि कुमार कृष्ण जैसा कवि जानता है, शब्द जीवन की आग हैं और धरती का राग हैं। कवि जानता है, शब्दों में ताकत है, शब्द ज़िन्दा हैं, शब्दों को चिड़ियों की तरह उड़ना आता है-

शब्द जब लिखते हैं रिश्तों की परिभाषाएं
वे लगते हैं डरने अपनी ही परछाई से
शब्द जब गाते हैं जिंदगी की ग़ज़ल
वे भीग जाते हैं सिर से पांव तक
शब्द जब करते हैं प्रार्थना
टूट जाती हैं जाति-धर्म की दीवारें
शब्द जब चले जाते हैं हथेलियों के बीच
मौन हो जाते हैं शब्द
शब्द जीवन की आग हैं राग हैं धरती का
तुम चाहे जितना भी छुपा लो उनको शब्दकोषों के भीतर उनको आता है चिड़ियों की तरह उड़ना
शब्द हंसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं
थकना नहीं जानते शब्द।

लाल बादलों का घर कविता एक अद्भुत प्रेम कविता है जो कवि ने अपनी पत्नी के लिए लिखी है। कुमार कृष्ण जी की यह कविता बेहतरीन कविताओं में से एक है, बल्कि सबसे बेहतरीन प्रेम कविता तो है ही। इस कविता का शिल्प और भाषा गज़ब की है। ऐसी कविता लिखने के लिए मात्र हृदय का होना ही काफ़ी नहीं है बल्कि ह्रदय के उस तल तक पहुँचना महत्वपूर्ण है, जहां ऐसी अनूभूति जगती है। इस कविता में वह सब कुछ है जो एक पाठक चाहता और समझता है। कवि ने यह कविता रचकर सब बड़े कवियों को बता दिया कि पत्नी के लिए भी कोई इतनी खूबसूरत कविता लिख सकता है-

वह जानती है तकिए के नीचे
चाँद छुपाने की कला
जानती है रिश्तों की रस्सी से
जीवन को बांधना
उसे आता है उम्मीद के छोटे छोटे
खिलौनों से खेलना
लाल बादलों  का घर है उसकी मांग
वह कभी-कभार खोलती है अलमारियों में
बंद किए सपनें
सर्दी की धूप सेकते सपनें
बच्चों की तरह कूदते हैं उसके बुजुर्ग कंधों पर
एक उदास घर के दरवाजे
खुलने लगते हैं उसके अंदर
वह छुपा लेती है अपनी आंखों में
आस्था की, विश्वास की रंग बिरंगी तितलियां
बांध लेती है साल भर के लिए-
रेशमी दुपट्टे में करवा- चौथ का चाँद
वह दौड़ती है सुबह से शाम तक आग के जंगल में
सींचती है रोटी के पेड़
वह आंखों के किसी कोने में
बचा कर रखती है थोड़ा सा पानी दुखी दिनों के लिए
वह सींचती है लगातार तुलसी की जड़ें
बची रहे हरियाली इस धरती पर।
 ०००

गणेश गनी


परख छब्बीस नीचे लिंक पर पढ़िए

चाहा था समुद्र होना !
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