11 नवंबर, 2018

परख पच्चीस

शब्दों से परे बर्फ़ में धूप जैसा !

गणेश गनी


सुधीर सक्सेना

बर्फ और धूप को एक साथ तापने का जो सुख मिलता है, उस सुख की अनुभूति वही कर सकता है जिसने इसे जिया हो। बर्फ में भी ताप है। बचपन में छः माह बर्फ़ में बीतते थे,   छः माह सुहावने मौसम में। परन्तु बर्फ के दिन मुझे अधिक आकर्षित करते थे। धूप खिलने पर घर से बाहर निकलकर देवदार के स्लीपरों के ढेर से बर्फ हटा कर वहां बैठकर धूप सेंकते और बीच बीच मे बर्फ़ में खेला करते। पिता रेडियो चलाते और विविध भारती पर गीत, कहानियां, किस्से आदि सुनने को मिलते। मेले, तीज, त्यौहार और परंपराओं का निर्वहन इन्ही दिनों होता था, तो ज़ाहिर है खान पान का आनन्द भी यही मौसम देता था। आदिवासी इलाकों की अपनी परम्पराएं होती हैं। घरों में दिन भर पुरुष छतों से बर्फ़ हटाते और धूप खिलने पर बुनकरी करते, महिलाएं अखरोट तोड़ती या फिर उन कातती और रात में बूढ़े क़िस्सागोई  करते। हम बच्चों को साहसिक और डरावनी कथाएं हमेशा लुभाती।
अब मैं कोई ऐसी कथा आपको कभी फिर सुनाऊंगा। अभी तो कविता की दुनिया में जाना है। मुझे अपने बचपन के दिन इसलिए याद आए कि लोग कठिन दिनों को बुरे दिन कह देते हैं और आसान दिनों को अच्छे दिन। परंतु ऐसा शायद नहीं होता और मैं तो कहता हूं कि ऐसा होता ही नहीं। वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना का भी यही कहना है -

अच्छे दिनों की नीली आंखों की कोर में
अटका हुआ है आँसू
और बुरे दिनों के स्याह होंठों पर चिपकी है
नन्ही सी मुस्कान।

सुधीर सक्सेना की दृष्टि तो सौ कोस आगे है। वो उड़ान से आगे, रंगों के बाहर, शब्दों से परे और ध्वनियों से परे सोचते, देखते और सुनते हैं। एक कवि का इस प्रकार सोचना अपनी आत्मा से संवाद करना है -

पक्षियों के डेनों से आगे उड़ान
पेंटिंग के बाहर भी रंगों का संसार
संगीत के सुरों के बाहर संगीत
शब्दों से परे निःशब्द का वितान
ध्वनियों से परे मौन का अनहद नाद
कोई भी ग्रह अंतिम नहीं आकाशगंगा में
कोई भी आकाशगंगा  अंतिम नहीं ब्रह्मांड में।

सही कहा एकदम कि कुछ भी अंतिम नहीं इस अनंत ब्रह्माण्ड में, यहां तक कि आकाशगंगा भी नहीं। जो लोग हवन करके धरती को बचाना चाहते हैं, उन पर केवल हंसी ही आ सकती है। यदि वो लोग इस ब्रह्मांड को देखने वाला मन रखते तो उन्हें मालूम पड़ता कि उधर तो सौरमंडल भी रेत के कण जितना नहीं है। सुधीर सक्सेना ने अनिल जनविजय को समर्पित एक कविता में कहा भी है-

किताबें दीवार नहीं हुआ करतीं
और तमाम वैज्ञानिक चमत्कारों के बावजूद
कोई दीवार किताब नहीं हो सकती
अलबत्ता किताबें होती हैं
कभी दरवाज़ा कभी खिड़कियां
कभी रोशनदान
यहां तक कि कभी कभी ताख भी।

यह भी सच है कि किताब के पन्नों पर सारी अनुभूतियां नहीं उकेरी जा सकतीं। कुछ यादों को केवल हृदय में रखकर ही आनंद की अनुभूति होती है, इन्हें लिखना असम्भव है। फिर भी कुछ यादों को शब्द मिल जाते हैं।
कोई जादुई नज़ारा। एकदम हराभरा, मनमोहक, शांत और अचम्भित करने वाला। अखरोट के विशाल पेड़ कतारबद्ध खड़े हैं। सुनहरी फसल से लकदक एक खेत के कोने में बने घर के सामने अखरोट के पेड़ के नीचे बैठी मां अखरोट तोड़ रही है और सामने रखे कांसे के थाल को ताज़ा गिरियों से भरती जा रही है।
मां मुझे सामने खड़ा देख अचम्भित है और बधाई देते हुए हड़बड़ा कर खड़ी हो गई है और मुझे गले लगाते हुए कह रही है कि मैं उसे यूं अचानक आकर चौंकाया न करूं। हालांकि वो झूठ कह रही थी, उसे तो यही अच्छा लगता है। माँ की यह भी शिकायत है कि पहले तो मैं हर बरस गर्मियों की छुट्टियों में आया करता था, परंतु अब की बार ऐसा क्या हुआ कि कई बरस बीत गए।
मां के हाथों पानी पी पीकर सेब के पेड़ अब इतने बड़े हुए हैं कि फलों से लदकर झुके रहते हैं। खेत में मक्की के पौधों से लिपटी बेलों पर राजमाह की फलियां झूल रही हैं। रंग बिरंगे कद्दू फूले नहीं समा रहे। मैं देख रहा हूँ कि मां ने तंदूर पर राजमाह पकने के लिए रख दिये हैं और सब्जी के लिए एक गहरे पीले और हरे रंग की धारियों वाले कद्दू को छीलना शुरू कर दिया है। कद्दू के रंगीन छिलकों को खाने के लिए मां की भूरे रंग की गाय भी जंगल से दिन भर चर कर आ चुकी है। मां लंबे कानों वाली बकरियों को बाड़े में बंद कर रही है और छोटे छोटे सींगों वाला बकरा उछल कूद मचाए हुए है। सांझ ढल चुकी है। गाय को दुहने का समय हो गया है क्योंकि पक्षी अखरोट के पेड़ पर लौट आए हैं।
मुझे वापिस लौटने की कोई जल्दी नहीं है। मैं लालटेन की हल्की रोशनी में देर रात तक मां की गोद में सर रखकर बहुत सी कथाएं सुनना चाहता हूँ। कथाएं सुनते सुनते अब मुझे नींद आ रही है और नींद आते ही मेरा सपना भी टूट गया-

अब नींद से नहीं
सपनों से डर लगता है
सपनों में आती नहीं
अब चहचहाती चिड़िया।

कवि ने स्पष्ट कहा है कि स्त्री और दुःख एक दूसरे के साथ बंधे हैं। स्त्री का परिश्रम अनमोल है। वो रोज़ अंधकार होने से पहले पहले दीया जला देती है-

दहलीज़ पर बैठी स्त्री
नहीं जानती है
कर्क विषुवत या मकर रेखा
दुःख की धुरी के इर्दगिर्द
अनादि काल से घूम रही है वह।

इतना कुछ जीवन में छूट जाता है कि जो किया वो बिल्कुल भी ज्यादा नहीं है। कुछ भी तो अंतिम नहीं है। रोज़ सोचते हैं कि सब कुछ कह देंगे आज परंतु बहुत कुछ हर रोज़ ही छूट जाता है-

बहुत कुछ जीने के बाद भी
बचा है बहुत कुछ अनजिया
बहुत कुछ कहने के बाद भी
बचा है बहुत कुछ अनकहा।

उम्र के साथ बढ़ते बढ़ते पता ही नहीं चलता कि कब पाँव पिता के जूतों के बराबर हो गए, कि कब कंधा पिता के कंधे तक पहुंचने लगा, कि कब पूरी छवि ही बदलने लगी-

मैं छड़ी लेकर घूमने निकला
छड़ी बिल्कुल मेरे माप की थी
मैंने आईने में झांका
आईने में मेरा नहीं
मेरे पिता का चेहरा था।

कवि ने तो प्रेम की भी एक अलग ही ऋतु बताई है, सातवीं ऋतु। सच कहा है। सुधीर सक्सेना की कविताओं में आग जैसा मीठा ताप है और बर्फ जैसा ठंडा सेक भी है। कवि कहता है -

ऋतुओं से नाता नहीं है प्रेम का
कि प्रेम अपने आप मे अलग ऋतु है
सातवीं ऋतु है प्रेम
छहों ऋतुओं को समाए अपने आप में।

कवि की प्रेम कविताएं शील हैं, निःस्वार्थ हैं, बंधनमुक्त हैं, निश्छल हैं और खूबसूरत हैं -

कहा प्रिया ने
तुम्हें आता होता अगर गोदना
तो तुमसे गुदवा लेती
सारी देह पर तुम्हारी कविताएं।

कवि को मालूम है कि केवल सच्चा प्रेम ही साथ जाएगा और गोदना तो जाता ही है परलोक में साथ। सुधीर सक्सेना कहते हैं कि एक शर्त पर वो अपने जीवन की सारी मिठास देने को तैयार हैं -

मधुमक्खियों के घरौंदे में
हाथ डाल
और जान जोख़िम में
लाया हूँ
ढेर सारा शहद
पर एक शर्त है
शहद के बदले में
तुम्हें देना होगा
अपना सारा नमक।
०००

गणेश गनी



परख चौबीस नीचे लिंक पर पढ़िए

कविता तब और अब !

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/blog-post_45.html?m=1



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