18 नवंबर, 2018

ऋतु त्यागी की कविताएं

ऋतु  त्यागी 


और एक दिन हम देखेंगे

और एक दिन हम देखेंगे
कि धरती का रंग उड़ गया है ।
वृक्ष स्याह हो चलें हैं ।
सूरज नहीं भेज रहा हमारी खिड़की पर
धूप के कुछ गुनगुने संदेश
चांद मियादी बुखार में है ।
नदिया डूब गयीं हैं कचरे के समुद्र में
पहाड़ों के सिर काट चुका होगा कोई हत्यारा
लापता हो गयीं हैं दुनिया की सारी किताबें
स्वप्न वृद्ध हो गयें हैं
बच्चे अचानक वयस्क हो गयें हैं।
और एक दिन हम देखेंगे
कि हम अपनी संवेदनाओं को जलाकर
उसका धुआँ उड़ा रहें हैं।



एक पागल तारा

रात में अचानक
आसमान की छत से
कूद पड़ता है एक पागल तारा
झुंड में खड़े बे-बस तारें
अफ़सोस में बुदबुदातें हैं ।
रात में गश्त पर निकला थानेदार चांद
प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज़ करता है
एक पागल की आत्महत्या।




ईश्वर और वह

तमाम प्रार्थनाओं के बाद ईश्वर
अब उसके ठीक सामने थे।
उसके हाथ में
एक बदरंग पोटली थी
जिसमें बटन की तरह टूटा विश्वास
कैंची की तरह कटता समय
कागज के कुछ अनलिखे टुकड़े
जिन्हें लिखने से पहले ही मसल कर
फेंक दिया गया था।
कुछ फटे कपड़ों-सी इच्छाएँ
साथ में एक दबी हुई सिसकी।
वह पोटली को छाती से लगाये
भौचक -सी खड़ी रही
और ईश्वर जा चुके थे।






प्रेम और मैं

जब मैंने पाठ्यक्रम की रेत में धँसकर
अपनी हर कक्षा में
पिछली सीट पर बैठने वाली
तमाम बिगड़ी लड़कियों को कनखियों से
प्रेम की शरारतों में मग्न पाया
तब मैंने भी कनखियों से ही मान लिया उनके बिगड़ेपन को
फिर मैंने भी हर एक अच्छे टीचर की तरह उन्हें जोरदार डाँटा और थोड़ा समझाया
पर एक बार मैंने उनके मन के फफोलों पर रख दिये थे जब अपनी उँगलियों के शिखर
उस समय वो हँसी थी पर मेरी चीख कईं इंच ऊपर उछल गई थी
और मैंने तब मान लिया था
उनके लिए प्रेम बर्फ़ का गोला है
जो उनके मन के फफोलों को राहत की झप्पी दे जाता है
ऐसे ही जब मैंने
अपने घर के काम में हाथ बँटाने वाली से सुना
कि भाग गई अपने यार के साथ नौ बच्चों की माँँ
और सुना कि हर दिन वह पति के जूते चप्पलों के नीचे कुचल देती थी अपना स्वाभिमान
तब मुझे लगा कि उस औरत के लिए प्रेम एक चिंगारी है
जो शायद उसके बुझते स्वाभिमान की लौ को जलाये रख सकती है।
हाँ! ये सच है बिल्कुल सच है
कि प्रेम हर जगह नहीं पनपता पर जब पनपता है
तो निरा ठूँठ कभी नहीं होता
घनी छाया के साथ झुकता चला जाता है
इसलिए मैं अब जब भी कभी सुनती हूँ
शब्द "प्रेम"
तो मौन होकर सिर्फ़ उसको सुनती हूँ ।





ठगों की सभा और उसकी पीठ

ठगों की सभा में
वह कछुए की तरह खड़ी थी
उसकी पीठ पर ठगों ने लाद दिए थे
ठगी के कार-नामे
सभा अपनी इस कार्यवाही के बाद स्थगित हो गई
और वह धीरे-धीरे चलकर
मुख्य मार्ग पर आ गई
उसने थोड़ी देर में देखा
कि सड़क के किनारे खड़े लोग
उसकी कुबड़ी पीठ पर
अपनी फूहड़ हँसी के ढेले फेंकने में मशग़ूल हो गये थे ।






बस की झूमती खिड़की और लड़का

बस की झूमती खिड़की पर सिर टिकाये चुप बैठा है एक लड़का
मेरे ख़ुराफ़ाती अनुमानों की बत्ती उसे देख जल गई है।
उसी संदर्भ के धारावाहिक की पहली कड़ी में
वह रात की आधी नींद को ले आया है बस मेें
उसकी नींद अनुमान से कहीं अधिक भारी है
वह खिड़की के शीशे पर सिर की ठोकर मारकर अपने वजूद की मुनादी कर रही है।
दूसरी कड़ी में वह भविष्य को बाँध रहा है योजनाओं में
योजनाओं की मरम्मत करते हुए वह सिर को हल्का-सा झटका भी देता है
पर सभी योजनाएं एक जाल में फँसी हुईं हैं।
तीसरी कड़ी में उसकी आँखों में आ बैठी है रंगीन सपनों की तितली
लड़का आँखें मूंद लेता है
उसके होंठो पर अब मुस्कुराहट टहल रही है
मेरा अनुमान लपककर लड़के के गालों पर तितली के होंठों के निशान बना देता है।





आज उसने पहली बार जाना कि...

आज उसने पहली बार जाना
कि समय का अंदाज बदल गया है
उसकी थकी हुईं आँखों से टपकते पानी ने अचानक घोषणा कर दी
लंबे अवकाश पर जाने की ।
उसने अपने कंधों पर लटकते दर्द को
एक मीठी सी-झिड़की दी
पर वह जिद्दी बच्चे की तरह लटका रहा।
उसकी त्वचा पर झुर्रियां कविताएं लिखने लगी थी
वह समझ रही थी
कि अब उसके भविष्य निधि खाते में उम्र की पूंजी कम हो रही है।
आज मैंने उसे कांपते हुए हाथों से
समय का पृष्ठ बदलते हुए देखा था।




दृश्य: एक

जमाने की तिरछी नजर ने उसे देखा
उसकी गर्दन पर रखे काले तिल पर सौ सौ लानतें भेजी
उसके बालों की आज़ादी पर इशारों के ख़त लिखे
उसके अंदाज पर चरित्र खंगाला।

दृश्य: दो
उसने अपनी पीठ को सीधा किया
बालों को एक झटके से उस पर फैला दिया।
पीठ पर लिखे जमाने के शब्दों ने
वहीं दम तोड़ दिया।





फ़ुर्सत के लम्हों की रेसिपी

फ़ुर्सत को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर
एक टुकड़ा धूप में आहिस्ता से रख दिया जाए
पर ध्यान रहे
टुकड़े की उजली देह काली न पड़ जाए।
दूसरा टुकड़ा
क़िताबों के पन्नों पर चस्पाँ कर दिया जाए
जहाँ वह कल्पना और विचारों के नमकीन स्वाद की
गलियों में उन्मुक्त विचरता रहे ।
फ़ुर्सत के तीसरे टुकड़े के हिस्से में आवारगी दर्ज़ हो
जहाँ वह दुनियावी अनुभव को
अपने स्मृति ख़ाते में बटोरता जाए।
चौथा टुकड़ा गहरी नींद के सफ़र पर निकल जाए
क्योंकि एक रात ही तो है
जहाँ व्यक्ति वही होता है जो वह हो सकता है
और
पाँचवें व अंतिम टुकड़े में
ख़ुद से मुलाकात का समय मुक़र्रर किया जाए ।
ध्यान रहे
इस मुलाकात में एक आईने को साथ जरूर रखा जाए।
तो लीजिए तैयार है फ़ुर्सत के लम्हों की गर्मागर्म रेसिपी ।







आस्तीन का साँप

बहुत गज़ब हो गया जनाब !
मेरी आस्तीन से साँप निकल आया।
कपड़े जब पहने थे
तो झाड़ लिया था क़ायदे से
पर न जाने कैसे चढ़ा साँप ?
मैंने सीधे-सीधे अपनी आँखों को
क़ुसूरवार ठहराया
आँखें दुख में थी
उनमें से आँसू टूटकर गिरने लगे
उन्हें देखकर
मैं थोड़ा शर्म से घायल हुई।
मैंने आँखों से कहा
"छोड़ो दिल से ना लो"
जो भी हुआ हो
पर साँप काट नहीं पाया मुझे"
मैंने कह तो दिया
पर अब दिल कटघरे में था
मैंने उससे कहा
"क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहोगे" ?
दिल ने उदासी से साँप को देखा
तब से साँप
दिल से ऐसे लिपटा
कि दिल बेईमान
और हम दिल के मरीज़





नाम- डा.ऋतु त्यागी
जन्म-1 फरवरी 
जन्म स्थान-मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
शिक्षा-बी.एस.सी,एम.ए(हिन्दी,इतिहास),नेट(हिन्दी,इतिहास),पी.एच.डी
पुस्तक-कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी(कविता संग्रह)
सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय सिख लाईंस मेरठ
पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ
मो.9411904088

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर अभिव्यक्ति। दिल को छूने वाली कवितायें ।

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  2. यथार्थ को जीती हुई बेहतरीन कविताएँ।
    बधाईयां। ��

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  3. आप सभी का हार्दिक आभार

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  4. बहुत अच्छी कविताएँँ मम्

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