04 नवंबर, 2018


निदा नवाज़ की कविताएं



निदा नवाज़ 



 कर्फ्यू 

चील ने भर दी है 
अपने पंजों में
शहर की सारी चहल-पहल
सड़कों पर घूम रही है
नंगे पांव चुप्पी की डायन
गौरैया ने अपने बच्चों को
दिन में ही सुला दिया है
अपने मन के बिस्तर पर
और अपने सिरहाने रखी है
आशंकाओं की मैली गठरी
दूर बस्ती के बीच
बिजली के खम्बे के उपर
आकाश की लहरों पर
कश्ती चलाता एक पंछी
गिर कर मर गया है.
मत जगाओ मेरे बच्चों को
 (मृत स्कूल बच्चों को देखकर)

मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ
यह किताबों के बस्ते रहने दो इनके सिरहाने
रहने दो इनकी नन्ही जेबों में सुरक्षित
ये क़लमें, पेंसिलें और रंगबिरंगे स्केच पेन
ये निकले थे स्कूलों के रास्ते से
इस विशाल ब्रम्हांड को खोजने,निहारने
ये निकले थे अपने जीवन के साथ-साथ
पूरे समाज की आँखों में भरने सुनहले सपने
अभी इनका अपना केनवस कोरा ही पड़ा था
और ये सोच ही रहे थे भरना उसमें
विश्व के सभी ख़ुशनुमा रंग
लेकिन तानाशाह के गुर्गों ने इन्हें
रिक्तिम रंग से रंग दिया
मत ठोंसो इनके बस्तों में अब
चॉकलेट कैंडीज़ और केसरिया बादामी मिठाइयां
अब व्यर्थ हैं ये लुभाने वाली चीज़ें इनके लिए
इनके बिखरे पड़े टिफन को रहने दो ज्यों का त्यों
अब यह संसार की भूख से मुक्त हुए हैं
अब इनको नहीं चाहिए गाजर का हलवा,छोले भटूरे
या फिर कोई मन पसन्द सेंडविच
जब रोटी और रक्त की छींटे मिलती हैं एक साथ
आरम्भ होने लगता है साम्राज्य का विनाश
सूखी रेत की तरह सिरकने लगता है
बड़े-बड़े तानाशाहों का अहंकार
मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
मत उतारों इनके लाल-लाल कपड़े
इनके खून सने जूते,लहू रंग कमीज़ें
इनको परेशान मत करो अपनी आहों और आंसुओ से
इन्हें अशांत मत करो अपनी सिसकियों,स्मृतियों से
मत जगाओ मेरे बच्चों को गहरी नींद से
इन्हें सोने दो परियों की गोद में
सुनने दो इन्हें सनातन स्वर्गीय लोरियाँ
ये नींदों के एक लम्बे सफ़र पर निकल पड़े हैं।





मैं तो कविताओं का चरवाहा हूँ
 (अपनी दोस्त के नाम)

मैंने भला कब चाहा था अपनी कविताओं में
तुम्हारे प्यार के सिवा कुछ भी लिखना
मैंने भला कब चाहा था
बम,बारूद और बंदूकों पर कविता लिखना
या कर्फ्यू,क्रेकडाउन और क्रास फायरिंग की बातें करना
या उन सैंकड़ों नरसंहारों को दर्ज करना
जिनमें हज़ारों निर्दोष लोग मारे गए
मैंने भला कब चाहा था
कि मैं उन सैंकड़ों फ़र्ज़ी झड़पों  की बात करूँ
जिनमें हज़ारों युवाओं का इस्तेमाल हुआ।
और न ही कभी चाहा था उन बेनाम कब्रों पर बात करना
जिनमें मौजूद कंकालों पर भी
कोतवाल की बर्बरता के निशान मौजूद हैं
मैं तो कविताओं का चरवाहा हूँ
भला कब चाहूंगा कि मेरे कोमल शब्दों के रेवड़ पर
आतंकवाद का ज़हरीला साया भी पड़े
न ही चाहा था कि मेरी कविताओं में
कोई कोतवाल मुझे डराए
या कोई नकाबपोश घुसपैठ करे
वही नकाबपोश जिनके फ़्तवों के डर से
रात के भयभीत अंधेरों को फलाँग कर
तुम अपनी मातृभूमि से निकले थे
मैंने ये सब कब चाहा था
मैं तो चाहता था अपनी कविताओं में बस प्यार लिखूं
विश्व भर के प्रेमियों के लिए
और तुम्हारे लिए भी मेरी जानाँ
मैं तो चाहता था तुम्हारे बालों को लहराते बादल लिखूं
लेकिन यहां तो टियरगेस और मिर्चीगेस के गहराते बादल हैं
मैं तो तुम्हारी आँखों को रहस्यमय जंगल लिखता
लेकिन अब तो मेरी पूरी घाटी
अनिश्चिता के आतंकी जंगल में बदल गई है
मैं चाहता था तुम्हारे लाल-लाल होंठों को
सुर्ख गुलाब की पंखुड़ियां लिखूं
लेकिन यहां के सारे गुलाब मुरझाए  गए हैं
मैं चाहता था तुम्हारी मुस्कान को सूर्य उदय लिखूँ
लेकिन यहां सच के सभी सूर्यों पर पहरे बिठाए गए हैं
मैं चाहता था तुम्हारे स्वरूप को दरिया लिखूँ
लेकिन यहां का एकलौता दरया-ए-जहलम भी
लहू रंग हो गया है
जब मैं धार्मिक दलालों ,नफ़रतों के सौदागरों
और तानाशाह प्रशासन के बीच फंस गया हूँ
तो अपनी कविता को
तुम्हारे रेशमी बालों,गुलाबी होंठो,रहस्यमय आँखों
दरिया सी देह ,सूर्य किरण सी मुस्कान से दूर लेजाना
लाज़िमी ठहरता है मेरी जानाँ
और लाज़िमी ठहरता है
शब्दों  के सशक्त प्यालों में कडुवा यथार्त परोसना
हर तानाशाह और आतंकी के ख़िलाफ़
दर्ज करना एक पुरज़ोर विद्रोह
वरना मैंने भला कब चाहा था अपनी कविताओं में
तुम्हारे प्यार के सिवा कुछ भी लिखना।







बौखलाहट 

उनके डराने का हथियार वही है
पुराना,क्रूर और विष-भरा
इतना ज़रुर है कि वे
डराने के तरीक़े बदलते गये
उन्होंने अंधविश्वास का जाल बुना
और आम लोगों को उसी में क़ैद कर लिया
उन्होंने डर के हथियार से तराश ली
धर्म की काल्पनिक शक्तियों के सेंकडो प्रतीक
और रचनाओं की असंख्य पाखंडी पुस्तकें
आम लोगों को डराने का अंतहीन सिलसिला

डर मांसपेशियों में उभरे गुस्से का दुश्मन है
और गुस्सा ही हर क्रांति का आधार
हर विद्रोह की ऊर्जा

क्रांति पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़
असमानता और आज़ादी के हक़ में
क्रांति ब्राह्मणवाद और सादातवाद१ के ख़िलाफ़
जातिमुक्त,धर्म-मुक्त-समाज  के हक़ में
विद्रोह असहिष्णुता के ख़िलाफ़
हर कलबुर्गी,पानसरे,दाभोलकर
इख़लाक़ औ रोहित के हक़ में
विद्रोह हर धार्मिक कट्टरवाद के ख़िलाफ़
विश्व-प्रेम और देशभ-प्रेम के हक़ में
विद्रोह आतंकवाद के ख़िलाफ़
शान्ति और सुहार्द के हक़ में

और डर जहां समाप्त होता है
वहां से ही आरम्भ होता है गुस्सा
वहां से ही आरम्भ होता है
हर विद्रोह,हर क्रांति


धर्म के निर्माण से आरम्भ हुआ डर
आम लोगों को मूर्ख बनाने का कुकर्म
और उन्हें सदैव ग़ुलाम बनाने का भी
मुट्ठी-भर लोगों के इशारों पर नचवाने का
ख़ुद को राजा और उन्हें प्रजा बनाने का

उन्होंने सभी संसाधनों पर और पूरी पूंजी पर
अपने साम्राज्य का ठप्पा लगा दिया
अपने झंडे गाढ़ दिए
केवल आम लोगों को वंचित करने की ख़ातिर
उन्होंने आम लोगों की बेबसी को
भाग्य का कायर नाम दिया
रंग, जाति, क्षेत्र, धर्म की ज़ंजीरों में उन्हें जकड़कर
ईश्वर-इच्छा का शोषण-भरा नाम किया
अपनी पाखंडी व्यवस्थाओं की स्थापना के लिए
और उन व्यवस्थाओं की सुरक्षा के लिए भी
उन्होने अपने झूठे भगवानों के समक्ष
आम लोगों की बलि तक चढ़ा दी

उनके डराने का हथियार वही है
पुराना,क्रूर और विष-भरा
इतना ज़रुर है कि वे
डराने के तरीक़े बदलते गये

वे आज लोकतंत्र का चोला पहनकर
तानाशाही के सिंहासन पर बैठे
आम लोगों को जागरूक होता देख
बौखलाहट के शिकार हो चुके हैं .

सादातवाद :- मध्य-एशया से पूरी दुनिया विशेषकर उपमहाद्वीप में आये वे मुस्लिम-धार्मिक प्रचारक जिन्होंने विभिन्न देशों में इस्लाम की यह कहकर स्थापना की कि इस धर्म में कोई जातिवाद नहीं है लेकिन उनके वंशज सैयद,जीलानी,हाशमी,क़ुरैशी,बुख़ारी,मसूदी,अंद्राबी,गीलानी,रज़वी आदि जातियों के वर्चस्व तले अपने को पैगम्बर म्यह्म्म्द के वंशज मानते  और सादात कहते हैं और अपने पर नर्क की अग्नि को ( हर कुकर्म करने के बाद भी)हराम क़रार देते हैं.यह इस्लामी तर्ज का ब्र्ह्मन्वाद है .मैंने इसको सादातवाद का नाम दिया है .  








मेरी बस्ती के बच्चे

पहले मेरी बस्ती के बच्चे
खेलते थे कूचों में गिली डंडा
अब वे पत्थरों से खेलते हैं
उनके लिए पत्थरबाज़ी
खेल मात्र है
या फिर अपने गुस्से के इज़हार का
एक अलग तरीक़ा
भले ही बड़ों ने लगाया हो
एक-एक पत्थर पर
ढेर सारा पैसा
बच्चे कहाँ जानते हैं
दूसरों के सिरों पर
दांव लगाने की राजनीति।
               *
पूरी बस्ती के लोगों के
एक ही जगह जमह होने को
समझते हैं वे केवल एक त्यौहार
ईद या दीपावली का कोई पर्व
और खेलते-खेलते फलांगते हैं
क्रेकड़ावन की क्रूर सीमाएं
फिर सुनाई देती हैं उन्हें
गोलियों की ख़ौफ़नाक आवाज़ें
और अपनी नन्हीं आख़िरी हिचकियां
क्रेकड़ावन में ऐसे ही दम तोड़ते हैं
मेरी बस्ती के नन्हे बच्चे।
             *
रात का गहराता अंधेरा
उल्लू  के डरावने बोल
चेहरों पर नक़ाब चढ़ाए
चन्द आतंकी परछाइयाँ
पक्षियों का एक प्रसन्न परिवार
और फिर गोलियों की वर्षा
तीन बच्चों के सामने पड़े
ख़ून में डूबे दो बड़ों के शव
मेरी बस्ती के बच्चों की
नन्ही और कोमल आंखें
देखती हैं  दिन रात
ऐसे ही कठोर दृश्य ।
          *
कर्फ़्यू में अपनी पतंग
कहां उड़ा पाते हैं
मेरी बस्ती के बच्चे
और न ही खेल पाते हैं
कहीं कोई लंगड़ी खेल
कर्फ़्यू में पहरे लग जाते हैं
उनके गली कूचों तक पर भी
दिन भर वे सुनते रहते हैं
अपनी उखड़ी सांसों के सहमे सुर
और पढ़ते रहते हैं
बड़ों के चेहरों पर लिखी
डर की अंतहीन इबारतें ।
              *
कुन्न-पोशपोरा के दो जुड़वां गांव    ‎
23 फ़रवरी 1991 की काली नागिन रात
क्रेकड़ावन का भयावह दृश्य
कोतवाल की आंखों में उतर आई एक साथ
वासना,घृणा और साम्प्रदायकता
लोकतंत्र की आड़ में छिपा
साम्राज्यवाद और तानाशाही का क्रूर चेहरा
दर्जनों नाजुक मादाओं की फड़फड़ाह
सहमी सिसकियों का रुदन
रक्तिम स्याह मंज़र और रम की गंध
बूढ़ी औरतों का करहाना
नन्हीं चीख़ें और सहमा अंधेरा
भारी बूटों की आवाज़ों तले दबी
दूध पीते पच्चों की किलकारियां
दो जुड़वां गांव की प्रतिष्ठा
मान मर्यादा का विशाल क़ब्रिस्तान
और फिर
निरन्तर विलापित सन्नाटा।
                *
बस्ती के अंतिम छोर पर
तितलियों को पकड़ने की होड़ में
बच्चे दौड़ पड़ते हैं मन मर्ज़ी
अचानक खेलने लगते हैं
उस पार से दागे गए
किसी पुराने मोर्टार शल से
एक ज़ोरदार धमाका हो जाता है
सीमाओं की फ़ज़ाओं में उड़ते
चील और कौए मुस्कुराने लगते हैं
और मेरी बस्ती के बच्चे
तितलियों के साथ उड़कर
बहुत दूर चले जाते हैं।






अलबेली अप्सरा 
(उसके चित्र को देखकर)

उसके मुख पर ईश्वरीय प्रताप
आँखों में रहस्यमय जंगल का जादू
दूर फ़ज़ाओं की गहरी परतों में
जैसे किसी बिछड़े साथी को ढूंढ रही है
और उसके हाथों की मुद्रा
जैसे आशीर्वाद के लिए उठे हों
या फिर किसी ख़ास दुआ के लिए
उसको देख कर झूम रही हैं
पानी की लहरें
और चूम रही हैं उसके पांव
एक रंगीन नटखट तितली
पानी से उभरी कोई मत्स्यांगना
एक अल्हड़ हिरनी
या फिर एक अलबेली अप्सरा
जो स्वर्ग की सुंदर वादियों से
सरख़ाब के लाल पर लगाकर आई हो
कैसे पानी की पारदर्शी बूंदे
उसको नमन करने को हैं व्याकुल
पानी और रेत की परस्पर मिश्रित लहरियों में
उसको देखने की होड़
काले सुरमई बिखरते मुलायम बाल
चाँद चेहरे को छुपाने की ज़िद्द
मैंने उसी के पास रखी है गिरवी
अपने प्यार और सपनों की पोटली।










मैं तुमसे विदा हो रहा हूँ मेरी दोस्त

मैं तुमसे विदा हो रहा हूँ मेरी दोस्त
और विदा करने की प्राचीन रस्म
तुम कैसे भूल सकती हो
अबकी बार जो तुम्हारे शहर आया
जैसे किसी का वनवास भोग कर आया था
लेकिन मेरे वनवास में ,मैं आकेला था
कोई शबरी ,लक्ष्मण ,ऋषि मुनि आदि थे ही नहीं
न वहां कोई पुष्प वाटिका थी
वहां केवल यादों के नुकेले कांटे थे
और मेरी क्तरंजित आत्मा
कल तुम्हारे शहर लौटने पर
मुझे जैसे दूसरा जीवल मिला हो
एक-एक कण जैसे सन्देश दे रहा हो मिलन का
हवाओं ने जैसे तुमसे थोड़ी खुशबू चुरा ली थी
धूप में तुम्हारी मुस्कुराहटें खिल रही थीं
फिर कल रात चांद को छुपाने की
असफल कोशिश करते धनेरे काले बादल
जैसे तुम्हारे बालों से
बिखरने का सलीक़ा सीख रहे हों
आज रात चांद से रूबरू होने का सुख
और फिर से जुदाई के गहराते बादलों का अहसास
और अंतहीन वर्षा
जितनी बाहर दिख रही थी मेरी दोस्त
उसे कही गुना ज़्यादा पलकों की ओट में
बरस रही थी छुप-छुप कर
यह प्यार में जुदाई का कठोर प्रसंग
कभी मेरी समझ में नहीं आया मेरी दोस्त
न जुदाई और आंसुओं की मैत्री
और न ही इन्तिज़ार और बेक़रारी का संगम
क्या प्यार केवल रुलाने का ही पर्याय है
और अपनी आत्मा तक को भी
स्वयं छलनी करने की कठोर क्रिया
मैं तुमसे विदा हो रहा हूँ मेरी दोस्त
तुम्हारी एक-एक याद को छुपाए
अपनी आत्मा की गहराइयों में
जब फिर कभी चांद से रूबरू हो जाऊँगा
उसको दिखाऊंगा दुखों की सभी इबारतें
जो जुदाई के काले बादल
मेरे दिल पर निरन्तर लिखते जा रहे हैं
मैं अब विदा हो रहा हूँ मेरी दोस्त
और विदा करने की प्राचीन रस्म
तुम कैसे भूल सकती हो।




           
  कंफिलक्ट जून
       
एक संघर्ष क्षेत्र(कंफिलक्ट जून) में
सब कुछ बदल जाता है
चेहरे,भाव,प्रार्थनाएं,ख्वाब और उम्मीदें
हर सबुह सड़कों पर बेजान लाशें दौड़ पड़ती हैं
नन्हें बच्चे ढल जाते हैं मृत टेडी बियर में
उदासी बांटी जाती है हर नुकड़ पर
मुस्कुराना हम भूल गए हैं ना जाने कब से
जब किसी चौराहे पर कोई ताकता है देर तक
थर्रा जाता है हमारा वजूद
चींटियों की सेना जैसे फैल जाती है पूरी देह पर
या जैसे फैल जाती हैं पसीने की तेजाबी बूंदें
हम भाग जाते हैं बाज़ार के उस कोलाहल से
छुप जाते हैं घर के किसी अंधेरे कोने में
एक-एक कुंडी बन्द करते हैं पूरे घर की
शंकाओं का मकड़जाल
फैल जाता है आँखों के सामने
अनिश्चिता के बादल बिखर जाते हैं पूरे मन पर
शाम होते ही घर लोहे के पिंजरों में ढल जाते हैं
लोग अपनी धड़कनों से भी डर खाते हैं
रात एक नागिन की तरह
कुंडली मार कर बैठ जाती है
नीदों के हमारे प्राचीन ख़ज़ाने पर
डर ख़्वाबों में भी उतर आता है
आँखों के सामने सदैव छाया रहता हे
किसी मुड़भेड़ या मुहासिरे का दृश्य
एक संघर्ष क्षेत्र के एक-एक क्षण में
हम मर जाते हैं सौ-सौ बार.





 लालचौक रो रहा है
       
हमारे सपनों तक में भी रो रहा है लालचौक
हमारे सपनों तक में भी सिसक रहा है हज़रतबल
हमारे सपने नहीं परोसते हैं अब
झील-ए-डल की लहरियों पर थिरकते हाउसबोटों में
नमकीन चाय और न ही वह पुरानी ख़ुश मिज़ाजी
हमारे सपनों के खेतों में अब कट जाती है भरपूर फ़सलें
हमारी आँखों के सामने बड़े हुए हमारे युवाओं की
और छाया हुआ है हर दिशा हमारी रुलाई का मौसम
असंख्य नरसंहारों की सहमी विलापित प्रतिध्वनियां
हमारे चौराहों,गली कूचों और नुक्कड़ों पर फूटें हैं
हमारे प्रतिरोध के रिक्तिम अंकुर
ठीक उन्ही जगहों पर जहां लाल-लाल ग़ुस्सेले धब्बे
बेतरतीब चपलें ,जूतें ,टोपियां और आहें
शताब्दियों से बिखरी पड़ी हैं इधर उधर
समय की सहमी सिलवटों की सीलन में कहीं
हमारी यादों के अनमोल ख़ज़ाने पर
हिंसा और प्रतिहिंसा का मक्कड़जाल
कुंडली मारे बैठै डर का चितकबरा सांप
जब गुस्सा रगों में बहने लगता है बेख़ौफ़
आँखों में उमड़ ही पड़ता है बेतहाशा प्रतिरोध









 यातनाओं का क़ाफ़िला

हम यातनाओं के एक बड़े क़ाफ़िले के साथ
अनिश्चिता की गहरी और विशाल घाटी में फैले
इतिहास के दहकते रेगिस्तान में सफ़र कर रहे हैं
शांति के किसी चश्मे की तलाश में
हम खोज रहे हैं हमसे छीनी गईं
अस्मिता की हरी भरी चरागाहें
उन्होंने हर युग में,हर क़दम पर
हमारे आत्मसम्मान की सीमाओं को लांघा
और हमें हांकते रहे
अपने उपनिवेश की पाखण्डी लाठी से
वे कभी पैदल आये,कभी हाथी घोड़ों या मोटर गाड़ियों से
कभी समुंदरी रास्तों से अकेले या फिर लश्कर के साथ
कभी उनके जंगी जहाज़ों की गड़गड़ाहट ने
हमारी गहरी नींदों में बसे सुखद सपनों में सेंध लगाई
तो कभी उनके टैंक हमारी छाती को छलनी करते गए
उन्होंने हर युग में अपने भेस बदले,धर्म और नियम बदले
और बदलते रहे शोषण और षड्यंत्र के उनके तरीके
अबकी बार उन्होंने हमारे अस्तित्व को तीन टुकड़ों में बांटा
हमारे तीन गहरे और बड़े घावों में नमक घुल रहा है
तीन फन फैलाये नाग हम से रूबरू हो रहे हैं
तीन हिस्सों में बंटा अपना ही शव हमें सपनों में डरा रहा है
हमारा क़ाफ़िला नंगे पाँव आग उगलते टीलों को फलाँग रहा है
वे हर रात हमारी प्रतिष्ठा के खेमों को उखाड़ते हैं
हमारी सभ्यता की बुनियादों को बारूद से उड़ाते हैं
और हर नई सबुह हम फिर से समेटते हैं
अपनी बिखरी बुनियादों का मलबा
वे हर समय हमारे सहमे सिमटे क़ाफ़िले पर
घात लगाकर हमला करते हैं
उनके तीरों के निशाने पर हमेशा रहते हैं
हमारे क़ाफ़िले के अल्हड़ भावुक घोड़े
कमउम्र मासूम मेमने
और उनकी वासना के निशाने पर सदैव रहती हैं
हमारी मान मर्यादा की बिफरी ऊँटनियाँ
इस दहकते रेगिस्तानी सफ़र में हमारा क़ाफ़िला
हर आगे बढ़ाते क़दम के साथ पीछे छोड़ रहा है
अपनी पहचान के रक्तरंजित पदचिन्ह
और अपने तलवों के जलते छालों की ख़ुशबू।






इतिहास का बदहवास घोड़ा

बस्ती में दनदनाते घूम रहे हैं
मौत के हज़ारों बहाने
जो चट कर जाते हैं
लोगों की संवेदनाओं के साथ-साथ
उनकी संवेग सम्पति तक को भी

उनकी तनी हुई नसों में दौड़ रहा है
नफ़रतों का आदमख़ोर बारूद
और आँखों की ग़ुस्सैली दीवारों पर
लटक गईं हैं फ़तवों की असंख्य सूचियाँ

सभ्यता की आत्मा को भी नोच रहे हैं
साम्प्रदायिकता के पाखंडी चील
क्या आदम इतिहास सदैव ऐसा ही रहा है
क्रूर,निर्दय,स्वार्थी ,बर्बर और हत्यारा
संस्कृतियों की परिभाषाएँ गढ़ी गईं क्या
सुविधा अनुसार,योजनाबद्ध और मनमर्ज़ी

खून से लथपथ हमारी प्रार्थनाएँ
लौट आती हैं दबे पाँववापस
छटपटा रही हैं हमारे देह पिंजरों में
बिन पानी के मछलियों जैसी

समय के बदहवास घोड़े पर सवार
हमारे हाथ से छूट गई है लगाम
और घटनाओं के अदृश्य हाथ
औंधे मुंह गिरा कर मारने से पहले
आत्महत्या के कबूलनामे पर
हमारे हस्ताक्षर ले रहे हैं।
000

परिचय 


निदा नवाज़  
जन्म :- 3 फरवरी 1963
शिक्षा :- एम.ए.मनोविज्ञान ,हिंदी ,उर्दू ,पीएचडी 
प्रकाशन :- “अक्षर अक्षर रक्त भरा”-1997, “बर्फ़ और आग”-2015 ,हिंदी कविता संग्रह. “सिसकियाँ लेता स्वर्ग”-2015,हिंदी डायरी."किरन-किरन रोशनी"-2017,उर्दू कविता संग्रह।साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित“उजला राजमार्ग” में शामिल कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद- जम्मू व् कश्मीर आकादेमी आफ आर्ट ,कल्चर एंड लेग्वेजिज से पुरस्कृत कहानी संग्रह का “घाव-चिन्ह” नाम से कश्मीरी से हिंदी में  अनिवाद .स्वास्थ्य मंत्रालय,भारत सरकार की 35 पुस्तिकाओं का अंग्रेजी से हिंदी,उर्दू और कश्मीरी में अनुवाद.विज्ञान प्रसार, विज्ञान मंत्रालय की रेडियो विज्ञान डाक्यूमेंट्रीज़ का निरंतर पिछले पांच वर्षों से कश्मीरी अनुवाद.आकाशवाणी श्रीनगर केंद्र के सम्पादकीय कार्यक्रम”आज की बात” का पिछले २७ वर्षों से लेखन .
पुरस्कार :- * केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार ,हिंदी साहत्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य प्रभाकर ,मैथलीशरण गुप्त सम्मान ,भाषा संगम,इलाहबाद(उ०प्र०)एवं हिंदी कश्मीरी संगम (कश्मीर)द्वारा युग कवि दीनानाथ नादिम साहित्य सम्मान और ल्लद्यद साहित्य सम्मान .शिक्षा मंत्रालय जे.के.सरकार का राज्यपाल की ओर से राज्य पुरस्कार.2016 का कथा के लिए डा.शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान. 
11 वां अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति-सम्मान-2018.
संपर्क :- डॉ. निदा नवाज़ ,एक्सचेंज कालोनी निकट टेलिफ़ोन एक्सचेंज,पुलवामा कश्मीर -192301 
फोन :- 09797831595 
e-mail:- nidanawazbhat@gmail.com

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