06 दिसंबर, 2018



सुकान्त भट्टाचार्य की कविताएं
अनुवाद - मीता दास



मीता दास 


१९४० ...... अनुभव 

अवाक् पृथ्वी | अवाक् कर दिया तुमने |
जन्म से ही देखता हूँ क्षुब्ध स्वदेश भूमि |
अवाक् पृथ्वी | हम लोग हैं पराधीन
अवाक् ,कितनी तेजी से जमा हो रहा है,
क्रोध दिन दिन ---------
अवाक् पृथ्वी  |अवाक् करते हो तुम ,और भी
जब देखता हूँ इस देश में सिर्फ होता है मृत्यु का ही कारोबार|
हिसाब का बही --खाता जब भी लिया है हाथों में
देखा है सिर्फ लिखा हुआ रक्त का ही खर्च उसमे ,
इस देश में जन्म लेकर सिर्फ
पदाघात ही मिला
अवाक् पृथ्वी | सलाम ,तुझे सलाम |






१९४६……..अनुभव

विद्रोह आज विद्रोह चारों तरफ ,

मै लिखता जा रहा हूँ उन्ही दिनों को पंचांग में ,
इतना विद्रोह किसी ने कभी नहीं देखा ,
हर तरफ से उठ रही अबाध्यता की तरंग ,

स्वप्न शिखर से उतर आओ सब
सुनाई देता है ,सुन रहे हो उद्दाम कलरव ?
नया इतिहास लिख रहे ये हड़ताल ,
रक्तों से चित्रित है सभी द्वार |
आज भी घृणित और कुचले लोग हैं ,दलित हैं ,
देखो आज वे तेजी से दौड़ रहे हैं ,
उन्ही के दलों के पीछे मै भी दौड़ रहा हूँ ,
उन्ही के मध्य मैं भी मरता जी रहा हूँ |
तभी तो चल रहा है लिखना इन दिनों पंचांग
विद्रोह आज | विप्लव है चारों तरफ |

           



अभिवादन 

 हे साथी , आज सपनो के दिन गिनना
व्यर्थ तो नहीं हैं , विपुल संभावनाएं हैं
हर तरफ आज है उद्यापन का लग्न ,
पृथ्वी – सूर्य हैं तपस्या में मग्न |

आज के सामने है अनुच्चारित प्रश्न ,
मन के कोमल महल को घेर है उष्णता
क्रमशः बलवती उन्माद ,
क्रमशः सफलता के स्वप्न का दिन गिनना |

स्वप्न का बीज बोया है अभी – अभी { सद्य } ,
विद्युत् वेग से फसलें हुई हैं संघबद्ध { संगठित } !
हे साथी , सुना क्या तुमने फसलों में जीवन के गीत ?
प्रबल वेग से फ़ैल रहा सम्मिलित तान |
बंधू , आज डोल रही है पृथ्वी ,
हम गठित करेंगे नई बुनियाद ;
उसी की शुरुआत के लिए किया है यह उपाय ,
हे साथी , आज रक्तिम अभिवादन { लाल सलाम } स्वीकारो ||







धूप का गान 


यहाँ धूप बिखेरता है मुक्त हस्त
दोनों हाथों से तीव्र सोने सा सुरा { नशा }
उस सोने सा सुरा पान कर धान के खेत
चारों ओर गढ़ लेता एक जनपद |

भारती ! तुम्हारी लावण्यमयी देह को ढांकता है
धूप पहनती है सोने का हार ,
सूर्य सुखाता है तुम्हारे हरे केश
प्रेयसी , तुम्हारा कितना अभिमान |

सूर्य यहाँ बंधक बना रहता पूरे साल
कोई मौन पहाड़ रहता धूप से झुलसा ,
आवेग भरे धूप के दहन से
जलने दो तुम्हारा – हमारा मन भी |

विदेश को दो आमंत्रण धूप के भोज में
और मुट्ठी भर – भर कर दो सोना भरे कोषागार से ,
जंगल और प्रान्त झिलमिलाते हैं धूप में
कितना मधुर है आहा इस धूप में प्रहर को गिनना |

धूप में कठिन उज्जवल सा है इस्पात
झकमक इशारे करते हैं उसकी छाती पर ,
शून्य नीरव मैदान में धूप की प्रजा
पता है , जाप सा करते धूप के सन्मुख |

विरल हैं राजपथ पर सूर्य के पथिक
सिर्फ प्रतिनिधि ही हांकते हैं कलरव ,
मध्यान्ह के कठोर ध्यान के अंत में
पता है एक निर्भय उत्सव रहता है |

तभी तो यहाँ सूर्य खदेड़ता है रात को
प्रेयसी , तुम क्या आज भयभीत हो मेघों से ?
कौतुकपूर्ण  छल से क्या तुम्हे मेघ डराते हैं ,
ये क्षणिक मेघ हैं छंट जायेंगे निश्चित |

सूर्य , तुम्हे आज यहाँ बुलाऊंगा ----
दुर्बल मन , दुर्बल है काया ,
मैं हूँ पूर्ण अचल झील का जल
मेरी इस छाती पर जगाओ अपना प्रतिबिम्ब ||



 हे महाजीवन

हे महा जीवन, अब कोई कविता नही
अब कठिन , कठोर गद्य लाओ ,
पद का लालित्य - झंकार घुल जाए
गद्य के शक्त हथौड़े को आज पुकारो !
दरकार  नहीं , कविता की स्निग्धता ------
कविता मैंने देखी  है  .... तुम्हारी छुट्टी ,
भूख के राज्य में पृथ्वी ---- आज गद्यमय :
पूर्णिमा का चाँद लगता है ठीक झुलसी हुई रोटी ||



     
सिगरेट

मै हूँ सिगरेट
पर तुम लोग मुझे  जीने क्यों नहीं देते ?
हमें क्यूँ  जलाकर नि:शेष करते हो ?
क्यूँ इतनी अल्प आयु है हमारी ?
मानवता की क्या दुहाई तुम दोगे ?

हम लोगों की कीमत बहुत ही कम है इस पृथ्वी पर |
तभी तो तुम लोग हमारा शोषण कर पाते हो ?
विलासिता की सामग्री समझ जलाकर ख़त्म कर देते हो ?
तुम लोगों के ही शोषण के खिचांव से हम राख होते हैं :
तुम लोग निविड़ रहो आराम के उत्ताप से |


तुम लोगों का आराम :  हमारी मृत्यु !
इस तरह चलेगा कितने काल तक ?
और कितने काल तक हम नि :शब्द आवाज़ देकर बुलाए
आयु -  हरण कारी तिल - तिल अपघात को ?

दिन और रात्रि ----- रात्रि और दिन :
तुम हमारा शोषण कर रहे हो हर पल ---
हमें विश्राम नहीं पलभर , मजदूरी नहीं ---
नहीं जरा सा भी आराम |

इसलिए , और नहीं ;
और अब नहीं रहेंगे बंदी बन
डिब्बों और पैकेटों में
उँगलियों में और जेबों में ;
सोने से मढ़े सिगरेट केसों में हमारी सांसें रुद्ध नहीं होंगी अब
हम निकल पड़ेंगे ,
सभी एक जुट हो , एकत्र हो -----
उसके बाद हमारे असतर्क समय में
ज्वलंत होकर छिटक पड़ेंगे तुम लोगों के हाथों से
बिस्तरों पर या कपड़ो पर
सारा घर जलाकर उसके भीतर मार देंगे तुम्हे ,
जिस तरह तुम लोगों ने हमें जलाकर मारा है हमें इतने काल से | |






   

                                  

 माचिस की काड़ी 

मै हूँ एक छोटी सी माचिस की काड़ी  इतनी नगण्य , शायद नज़र ही न आऊँ ;
फिर भी जान लो
 मुँह में मेरे चुभ रहा है बारूद ------
सीने में मेरे जल रहा उठाने को तैयार तेज़ उच्छ्वास ;
मै हूँ एक माचिस की काड़ी |
याद है उस दिन कितना हैरान परेशान हो उठा था ?
जब घर के कोने में ही जल उठी थी आग ------------
मुझे अवज्ञा से न बुझा कर दूर फैंक दिया गया  था  इसलिए !
कितने ही घरों को जलाकर राख किया
कितने ही प्रासादों [ महलों ] को किया है धुलिसात
मैंने अकेले ही ----- मै एक छोटी सी माचिस की काड़ी |
वैसे ही अनेक नगर , अनेक राज्यों को कर सकता हूँ तहसनहस
हम हैं माचिस की काड़ी
तब भी क्या अवज्ञा से देखोगे हमें ?
याद नहीं ? उस दिन -------------
हम जल उठे थे एक संग एक ही डिब्बे में ;
घबड़ा गए थे ------------
हमने सुना था तुम्हारे विवर्ण मुख का अंतर्नाद |
हम लोगों की जो असीम शक्ति है
उसे तो अनुभव किया होगा बारम्बार ;
फिर भी क्यूँ नहीं समझ पाते ,
हम नहीं रहेंगे बंदी तुम लोगों के पॉकेटों मे
हम निकल पड़ेंगे , हम बिखर जाये
शहरों , कस्बों , गाँवों-----------और दिगंत से दिगंत |
हम बार - बार जलते हैं , नितांत अवहेलना में -------
वह तो तुम सब जानते ही हो
किन्तु तुम लोग नहीं जान पाते :
 कब हम जल उठेंगे ----------
 एक संग सब  ---------- आखिरी बार | |



         
 प्राथी 

हे सूर्य ! शीत ऋतु का सूर्य !
हिम शीतल सुदीर्घ रात हम प्रतीक्षा रत हैं
जैसे प्रतीक्षा रत रहते हैं कृषकों के दल के चंचल नयन ,
धान काटने के रोमांचक दिनों के लिए

हे सूर्य  ! तुम्हें पता है ,
हमें गर्म कपड़ों का कितना अभाव है !
सारी रात झाड़ - झंकाड़  जला कर
एक टुकड़े कपड़े से ढांक लेते अपने कानों को ,
कितना कष्ट उठाकर हम ठण्ड को रोक पाते हैं !

सुबह का टुकड़ा भर धूप ------
एक टुकड़े सोने से भी कीमती लगता है |
घर छोड़ हम इधर - उधर चले जाते हैं ------
एक टुकड़ा धूप की चाहत में |

हे सूर्य !
तुम हमारे भीगे - सीलन भरे घर को
उत्ताप { गर्मी } और उजाला देना ,
सड़क के किनारे उस नग्न बालक को |

 हे सूर्य !
तुम हमें उत्ताप { गर्मी } देना ------

सुना है कि , तुम एक ज्वलंत अग्निपिंड हो ,
तुमसे उत्ताप { गर्मी } पाकर ही तो

एक दिन शायद हम सभी एक - एक ज्व
अग्निपिण्ड में परिणित हो जाएँ |

और फिर उस उष्णता से  जब जल उठेगी हमारी जड़ता ,
तब शायद गरम कपड़ों से ढक पायें हम
सड़क के समीप उस नग्न बालक को |
पर आज हम तुम्हारी अकृपणता से भरे उत्ताप { गर्मी } के है प्रार्थी ||



                   
 उपायहीन 

अनेकानेक गढ़ने की चेष्टा व्यर्थ हुई , व्यर्थ हुये मेरे अनेक उद्यम ,
नदी में व्यर्थ मछेरे , बुनकर घर में , निशब्द हैं लोहार ,
आधा महल तैयार है , बंद है छत –पिटाई के गीत ,
किसान के हल व्यर्थ , खेतो में नहीं है परिपूर्ण धान |
जितनी ही बार गढ़ता हूँ , उतनी ही बार होता हूँ चकित बाढ़ में
धृष्ट सृष्टी को तोड़ता पृथ्वी का अबाधित अन्याय |
बार - बार की व्यर्थता से उपजा है आज मन में विद्रोह ,
निर्विघ्न गढ़ने का स्वप्न हुआ चूर ; मोह भी छिन्न – भिन्न |
आज तोड़ने का स्वप्न , --- अन्याय के दंभ को तोड़ने का ,
पर विपत्ति तोड़ने में ही है मुक्ति , और कोई पथ सूझता नहीं |
इसलिए तन्द्रा ही तोड़ दूं , तोड़ दूं जीर्ण संस्कारों के सांकल ,
रुद्ध बंदी कक्ष तोड़ बिखेर दूं आकाश की नीलिमा|
निर्विघ्न सी सृष्टी चाहते हो ? तो तोड़ो विघ्न की वेदी ,
दुर्दमनीय तोड़ने के अस्त्र बिखेर दो चारों ओर ||









अटूट 

हिमालय से सुन्दर वन तक
पद्मा नदी के उच्छ्वास से
काँप – काँप उठता है
अचानक बांग्लादेश ,
उसी की लहरों में रुंधा हुआ पाता हूँ एक उद्देश्य
जल – थल पर ध्वंश का वेग |


हठात निरीह धरती पर कब
जन्म लेता है सचेतन का धान
पिछले अकाल मृत्यु को भूल
फिर लौटा है बांग्लादेश में प्राण |


“ धान या प्राण “ इस शब्द से
दिशाहीन सा है आज सारा देश
एक बार मर कर भूल चुके हैं वे
आज मृत्यु का भय |


शाबाश , बांग्लादेश , यह पृथ्वी
अवाक् हो निहारती है कि
ये जल – भुन कर राख हो जाते हैं
फिर भी शीश नहीं नवाते |


अबकी लोगों के घर जायेगा
सुनहला धान नही , रक्त रंजित धान
सभी देखेंगे जल रहा है वहां
धू – धू कर बंग भूमि के प्राण |




 हम आ गए हैं 

कौन हैं जिन्होंने आज दोनों हाथों से खोल दिए हैं , तोड़ दिए हैं सांकल ,
रैलियों में हम हैं मग्न इसलिए लहरा रहा है जुलूस |
दुखी युग की धारा में
वे ही लेकर आते जान और जो इन्हें गवां देते
वे ही भर देते हिल्लोल ह्रदय नदी के भीतर |
वे ही आये हैं जुलूस में , आज भी चल रहा है जुलूस |


किसीने क्षुब्ध मधुमक्खियों के छत्ते पर दे मारा है पत्थर ,
तभी तो दग्ध , भग्न , पुरानी राहों को दिया छोड़ |
अश्विन से बैसाख तक
हवा की तरह दिशाहीन से भागते – फिरते हैं ,
हाथ के स्पर्श से हो जाते सारे काम , काँप उठता है संसार |
वे ही आये हैं आज तीव्र गति से चल रहा जुलूस ||


आज हलके हवा में उड़े चील ,
जन तरंग में हम क्रोधित फेन युक्त लहर |
गम है रौशनी के नीचे का समारोह ,
एकत्रित प्राणों में ये कैसा विद्रोह !
पलट कर देखने का नही है कायर मोह , और यह कितनी गतिशीलता !
सभी आये हैं , सिर्फ तुम नहीं आये , बुलाओ जुलूस ||


एक ही वाक्य में व्यक्त हो रही है चेतना : आसमान का नीलापन ,
वहीँ , दृष्टि भी है पदध्वनि में शामिल |
सम्मुख है मौत से भरा द्वार ,
रहे अरण्य , रहे पहाड़ भी ,
व्यर्थ है लंगर , खूँटा कितना भी हो शिथिल , होऊंगा नदी पार
हम आ गए हैं जुलूस में , गरज उठा है जुलूस ||

०००

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नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं और उनसे बातचीत
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/1_11.html?m=1


                              

1 टिप्पणी:

  1. बेहतरीन कविताएँ एवं अनुवाद। माचिस की काडी, प्रार्थी, और उपायहीन कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। अटूट कविता में 'एक बार मरकर भूल चुके हैं वे आज मृत्यु का भय' पंक्ति बेहद मार्मिक है और कहीं न कहीं काल मार्क्स की कड़ी को ही आगे बढाती है।

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