तेज प्रताप नारायण की कविताएँ
अज्ञातवास
हम जितने ज्ञात हैं उससे अधिक अज्ञातवास में हैं
भावनाओं और संवेदनाओं की बहती नदी में
कितनी ही भावनाएं और संवेदनाएं अज्ञात होती हैं
जैसे घने वन में सब कुछ अदृश्य हो जाता है
पेंड़,पौधे,जीव,जंतु,झाड़ियाँ सब कुछ
सिर्फ घना अँधेरा ही दिखाई पड़ता है
अपने शरीर के कितने भाग ही अज्ञात होते हैं
पता नहीं चलता उनका सक्रिय होना
दिल भी धड़कता है पर हम कभी -कभी ही दिल का धड़कना ज़ान पाते हैं
कितने ही रोग अज्ञात वास में पड़े पड़े शरीर में पलते रहते हैं
कितने परिवर्तन करते रहते हैं
अवचेतन मन में ही कितनी बातें अज्ञात पड़ी रहती हैं
जो सपने में ले जाती हैं
न जाने कहाँ -कहाँ
मष्तिष्क के न्यूरॉन्स भी अज्ञात का पहाड़ समेटे -समेटे
इस पहाड़ से उस पहाड़ पर उछल कूद करते रहते हैं
कई बार ज़ब कुछ ऐसा करते हैं
जो मर्यादा के विरुद्ध होता है
तो मन टोकता तो है
पर हम अज्ञात वास में होने के कारण मन की बात नहीं मानते
दाने के अंदर कोंपले फूटने से पहले अज्ञात वास में होती हैं
मिट्टी,पानी,खाद और दाने के संयोग से निकलने वाला पेंड
और फिर फल अज्ञात वास में तो ही रहता है
शहरों में रहने वाला
हमेशा दिखने वाला मनुष्य भी तो अज्ञातवास में है
घर में साथ रहने वाले व्यक्ति अज्ञातवास में रहते हैं
एक दूसरे की भावनाओं ,आवश्यकताओं से अंजान
यूनिवर्स का अधिकांश भाग
गैलेक्सी,प्लैनेट्स और ,स्टार
और उन पर जीवन का अस्तित्व
सब तो अज्ञातवास में है
तिल के अंदर का तेल
बीज के अंदर का पेंड
मनुष्य की प्रतिभा
सब कुछ अज्ञातवास में हैं
जब तक
तिल के अंदर से तेल निकालने के लिए कोल्हू न मिले
और बीज़ के अंदर से पेंड़ के लिए बीज़ को बोया न जाए
वैसे ही मनुष्य की प्रतिभा अज्ञातवास में तब तक रहती है
जब तक उसे सरस ज़मीन में रोपा न जाए
उसे शिक्षा ,संस्कारों और विवेक के
खाद और पानी से सींचा न जाए
तब तक अज्ञातवास ही उसकी नियति होती है
जीवन का अधिकांश सच अज्ञात वास में ही रहता है
पर हम समझते हैं कि सारा ज्ञान हो चुका है ।
आख़िरी छोर
पृथ्वी के आखिरी छोर तक कोई नहीं जाया जा सकता है
जैसे लगता है
आखिरी छोर आ गया
तो पता चलता है
नया छोर शुरु हो गया
गोल चपटी हुई धरती
जिसका आदि ही अंत है
और अंत ही उसका आरम्भ
यूनिवर्स का भी कोई और- छोर नहीं है
सब फ़ैल रहा है
अंत में सिकुड़ने के लिए
जो विलग हो गया है
उससे जुड़ने के लिए
उसी प्रकार विचार के आखिरी छोर तक
पहुंचना मुश्किल होता है
एक विचार खत्म होते ही
दूसरा विचार प्रारंभ
और
विचारों की अनवरत श्रृंखला चलती रहती है
जैसे दीपक के अंदर दीपों की अनंत
अनवरत श्रृंखला जलती रहती है
और विचारों के लिए कच्चा माल होती हैं
भावनाएं और संवेदनाएं
जैसी भावनाएं
वैसी ही संवेदनाएं
और
वैसा ही विचार
अच्छी भावनाएं
अच्छा विचार
और बुरी भावनाएं ,
बुरा विचार
भावनाओं के आखिरी छोर पर पहुंचने की
कोशिश करने के बजाय
भावनाओं को सही दिशा में यदि मोड़ा जाए
और समाज की संवेदनाओं से ज़ोडा जाए
तो विचार भी सही दिशा में मुड़ जाता है
और विचार की अनंत शृंखला
व्यक्ति को शुद्ध बना देती है
गोतम को बुद्ध बना देती है ।
कुंडली मार कर बैठे लोग
जिनको जो अधिकार मिल गया
जिनको प्रभुत्व का उपहार मिल गया
वें अधिकार छोड़ना नहीं चाहते है
समानता से रिश्ता जोड़ना नहीं चाहते है
पितृसत्तात्मक समाज में
पुरुष अपनी सत्ता नहीं छोड़ना चाहता
मर्दवादी सोंच नहीं छोड़ना चाहता है
उसके लिए स्त्री उपयोग की एक वस्तु है
सौंदर्य प्रसाधन है
आंनद का एक साधन है
मातृसत्तातमक समाज में
पुरुष अपने अधिकार की मांग करता है
मातृ सत्ता के सिंहासन से भिड़ता रहता है
उसको अधिकार नहीं मिलते
समानता के पुष्प नहीं खिलते
हिंदुओं में
जातियां अपनी सत्ता नहीं खोना चाहती हैं
अपनी श्रेष्ठता को साबित करना चाहती हैं
वर्ण व्यवस्था हो या जाति व्यवस्था
अपने स्वार्थ हित के लिए बनाए रखना चाहती हैं
सरकारी बाबू भी
दांव पेंच लगा कर
सत्ता के क़रीब दिखना चाहते हैं
बेमोल बिकना चाहते हैं
महत्वपूर्ण पदों पर बैठना चाहते हैं
नेताओं को भी सत्ता चाहिए
चाहे कितनी पार्टियां बदलना पड़े
भ्रष्टाचार करना पड़े
अपराध करना पड़े
वैश्विक शक्तियां भी
अपने प्रभुत्व को बचाए रखने की ख़ातिर
मुनासिब और गैर मुनासिब काम करेंगी
हथियार बेचेंगी
आतंकवाद फैलाएंगी
देशों को लडाएंगी
जो शासक है
जिनको कुछ अधिकार मिल गए
वह सत्ता पर
अपने अधिकारों पर
सांप की तरह कुंडली मार कर बैठ जाते हैं
कभी न हटने के लिए ।
बीवियों की इज़्ज़त
बीवियों की इज़्ज़त सिर्फ इसलिये नहीं होनी चाहिए
कि वो औरतें हैं
इज़्ज़त इसलिए होनी चाहिये
कि वह जीवन संगनियां हैं
जो सच में जीवन में साथ होती हैं
पतियों के दो हाथों के अतिरिक्त दो हाथ होती है
जीवन के कितने रिश्ते नाते
जीवन की नदी में पीछे छूट जाते है
पर नदी के किनारे की भांति
ये हमारे साथ चलती हैं
चाहे नदी सूखी हो
या पानी से भरी हो
बेटा ,बेटी
भाई, बहन
सब अपना आशियाना बनाकर द्वीप हो जाते हैं
लेकिन पत्नी
हरी दूब की भांति
उगती ,सूखती है
पर साथ नहीं छोड़ती
जीवन की नदी में बाढ़ आती है
सूखा होता है
पर वो हर बाधाओं से टकराती रहती है
और पति के जीवन से बेल की तरह लिपटी रहती है ।
राजधानी और गाँव
राजधानी से निकलकर जब जिले में पहुचे
कस्बों में गए ,गांवो में रहे
तो पता चला कि
राजधानी कुछ और है
और गांव कुछ और है
ज़िंदगियाँ दोनों जगह बिखरी हुई हैं
राजधानी में व्यस्तता के भार से
और गांव में बेरोजगारी की मार से
एक जगह खा नहीं पाते
समय के अभाव से
दूसरी जगह गरीबी के प्रभाव से
एक ओर बीमारी हो रही है
चर्बी चढ़ जाने से
दूसरी ओर पेट पीठ मिल गए हैं
खाना न खाने से
यदपि
राजधानी में भी कई गांव है ,कस्बे हैं
गांव में भी राजधानी के कुछ ज़ज़्बे हैं
पर दोनों जगह की
ज़िंदगियों की ज़िंदगी में बहुत अंतर है
दोनों के बीच पराएपन की नदी बहती निरंतर है
एक तट पर गांव है
दूसरे तट पर शहर है
एक पर समृद्धि की बारिश है
तो दूसरे पर भुखमरी के सूखे का कहर है
एक दूसरे को गवारुं और मुर्ख समझता है
और दूसरा पहले को चालक और धूर्त समझता है
अज़ीब सा अजनबीपन है दोनों के बीच
एक को उच्च समझा जाता है
दूसरे को नीच ।
कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब आधी से ज़्यादा आबादी
मैदान में लोटा लेकर जाती हो
और खुले आसमान के नीचे सोती हो
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब पैरों तले ज़मीन न हो
और ख्वाब दिखाए जाए आसमानी
डिजिटल इंडिया और बुलेट ट्रेन की बात है कितनी बेमानी
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब औरों का पेट भरने वाले की
भूख न पूरी होती हो
जब आदमी और आदमी के बीच इतनी दूरी हो
धर्म और जाति की इतनी मज़बूरी हो
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब औरत का घर से भी निकलना मुहाल हो
अधिसंख्यक आबादी की हालत बेहाल हो
जब भीड़ का शोर ही लोकतंत्र की आवाज़ बन जाए
आज़ादी आज़ादी न रहकर केवल नारा रह जाए
तब कैसा गणतंत्र दिवस और आज़ादी ?
प्रेम
प्रेम प्रकृति के हर रंग में है
हर कार्य व्यापार और ढंग में है
प्रेम मर्यादा है
प्रेम रिश्ते के हर संग में है
प्रेम हर अणु और अनंत में है
प्रेम सत्य है
प्रेम सुंदर है
प्रेम ही है
यदि कोई ईश्वर है
प्रेम सीमा है
प्रेम विस्तार है
प्रेम ही समस्त जगत का सार है
सागर की लहरों का बार बार सागर के किनारे को चूमना प्रेम है
किसी जोड़े का एक दूसरे के प्यार में डूबना प्रेम है
शिशु को माँ की छुअन का एहसास होना प्रेम है
एक वैज्ञानिक का मानवता के कल्याण के लिए अविष्कार करना प्रेम है
एक नदी का पहाड़ से निकल कर लंबी दूर तय करना
और समुद्र से मिलना प्रेम है
एक किसान का खेत से अन्न पैदा करना और
अपने जानवरों को बच्चों की तरह ख़याल करना प्रेम है
पेंड़ का धूप सहते हुए छाया देना और
ज़ीने के लिए हवा देना प्रेम है
एक सफाई करने वाले का मुँह पर कपड़ा बांधकर
मल मूत्र साफ़ करना
सड़कों से कूड़ा हटाना
समाज के प्रति प्रेम है
देखने की दृष्टि हो तो प्यार दिखेगा
नहीं तो
किसान या सफाई वाले का काम
गंदा कार्य दिखेगा
आज ज़रूरत है सच्चे प्रेम की
जो पीछे छूट गए हैं उनको आगे बढ़ाने की
रूठों को मनाने की
मुहब्बत के नज़्मों को गाने की ।
राष्ट्र और धर्म
राष्ट्र और धर्म (रिलिजन) में वही संबंध होना चाहिए
जैसे रेगिस्तान का नदी से होता है
नेकी का बदी से होता है
पहाड़ का गहराई से होता है
और सागर का ऊंचाई से होता है
धर्म राष्ट्र को वैसी ही स्पर्श करे
जैसे असिम्पटोट किसी कर्व को
और विनम्रता गर्व को
धर्म यदि धरती हो
तो राष्ट्र आकाश हो
धर्म तड़पता रहे पर
राष्ट्र से कभी मिल न सके
धार्मिक कार्यों में
सरकारी सहयोग न हो
हज़ के लिए सब्सिडी न हो
सरकारी कार्यों में धर्म को मिलाने की अनुमति न हो
मिसाइल छोड़ने से पहले नारियल न
फोड़ा जाए
किसी सरकारी फंक्शन में
किसी ख़ुदा,देवी ,गुरु या गॉड के समक्ष न हाथ जोड़ा जाए
देश के लिए
सरकार के लिए
सबसे पूज्यनीय वस्तु संविधान है
जिसमे मानव व्यक्ति के उत्थान का विधान है ।
एल इ डी जैसी यादें
तुम्हारी यादों का फिलामेंट वाला बल्ब
जब पहले जलता था
तो रोशनी तो देता था
पर
पूरे मन को खरोंच देता है
अपनी गर्मी से ज़ला देता था
कार्बन की काली काली परतें छोड़ जाता था
फिर तुम्हारी यादें सी फ एल की तरह पीली से सफ़ेद होती गईं
यादो की गर्माहट कम होती गई
हां उन सुनहरी यादों की रोशनी अवश्य बढ़ती गई
बिलकुल व्हाइट लाइट
जो मन को उजला कर देती थी
धीरे- धीरे तुम्हारी यादें
एल .इ. डी के वाट की तरह कम होती गईं
ज़िंदगी की व्यस्तताएं बढ़ती जो गई
लेकिन तुम्हारी एल इ डी जैसी यादें
जब भी आती हैं
ज़िंदगी में उजाला ही उजाला फैला जाती है
जैसे एल इ डी कम वाट में अधिक लुमेन्स देती है
वोल्टेज के कम और ज़्यादा होने को सह सकती हैं
बिलकुल उसी तरह ज़ीवन के उतार- चढ़ाव्
में याद आ जाते हो
और जीवन को दिशा दे जाते हो
तुम्हारी एल इ डी जैसी यादें
अहा !
देखो आईं
और कुछ लिखवा गईं।
मैं जनता का नेता हूँ
सत्ता की ख़ातिर खूब अकुलाया हूँ
अपराध का साबुन घिस-घिस कर
भ्रष्टाचार के पानी में नहाया हूँ
मैं जनता का नेता हूँ
चुनाव जीतने आया हूँ
पार्टी कोई भी चुन लो तुम
सपने कैसे भी बुन लो तुम
मिल जाऊँगा मैं तुमको हर दल में
हर दिन में और हर पल में
मैं लोक तंत्र का साया हूँ
घड़ियाली आंसू बहाऊंगा
आदमी को आदमी से लड़ाऊंगा
दीमक की तरह मैं चाटूंगा
समाज को खूब मैं बाटूंगा
जाति की टोपी सिर पर लगाया हूँ
लच्छेदार भाषण हैं मेरे
जुमले फेंकूँ शाम सवेरे
विनम्र दिखता पर कड़ा हूँ
बड़ा चिकना घड़ा हूँ
कभी नहीं शरमाया हूँ ।
००
परिचय
नाम तेज प्रताप नारायण
तेज प्रताप नारायण |
अज्ञातवास
हम जितने ज्ञात हैं उससे अधिक अज्ञातवास में हैं
भावनाओं और संवेदनाओं की बहती नदी में
कितनी ही भावनाएं और संवेदनाएं अज्ञात होती हैं
जैसे घने वन में सब कुछ अदृश्य हो जाता है
पेंड़,पौधे,जीव,जंतु,झाड़ियाँ सब कुछ
सिर्फ घना अँधेरा ही दिखाई पड़ता है
अपने शरीर के कितने भाग ही अज्ञात होते हैं
पता नहीं चलता उनका सक्रिय होना
दिल भी धड़कता है पर हम कभी -कभी ही दिल का धड़कना ज़ान पाते हैं
कितने ही रोग अज्ञात वास में पड़े पड़े शरीर में पलते रहते हैं
कितने परिवर्तन करते रहते हैं
अवचेतन मन में ही कितनी बातें अज्ञात पड़ी रहती हैं
जो सपने में ले जाती हैं
न जाने कहाँ -कहाँ
मष्तिष्क के न्यूरॉन्स भी अज्ञात का पहाड़ समेटे -समेटे
इस पहाड़ से उस पहाड़ पर उछल कूद करते रहते हैं
कई बार ज़ब कुछ ऐसा करते हैं
जो मर्यादा के विरुद्ध होता है
तो मन टोकता तो है
पर हम अज्ञात वास में होने के कारण मन की बात नहीं मानते
दाने के अंदर कोंपले फूटने से पहले अज्ञात वास में होती हैं
मिट्टी,पानी,खाद और दाने के संयोग से निकलने वाला पेंड
और फिर फल अज्ञात वास में तो ही रहता है
शहरों में रहने वाला
हमेशा दिखने वाला मनुष्य भी तो अज्ञातवास में है
घर में साथ रहने वाले व्यक्ति अज्ञातवास में रहते हैं
एक दूसरे की भावनाओं ,आवश्यकताओं से अंजान
यूनिवर्स का अधिकांश भाग
गैलेक्सी,प्लैनेट्स और ,स्टार
और उन पर जीवन का अस्तित्व
सब तो अज्ञातवास में है
तिल के अंदर का तेल
बीज के अंदर का पेंड
मनुष्य की प्रतिभा
सब कुछ अज्ञातवास में हैं
जब तक
तिल के अंदर से तेल निकालने के लिए कोल्हू न मिले
और बीज़ के अंदर से पेंड़ के लिए बीज़ को बोया न जाए
वैसे ही मनुष्य की प्रतिभा अज्ञातवास में तब तक रहती है
जब तक उसे सरस ज़मीन में रोपा न जाए
उसे शिक्षा ,संस्कारों और विवेक के
खाद और पानी से सींचा न जाए
तब तक अज्ञातवास ही उसकी नियति होती है
जीवन का अधिकांश सच अज्ञात वास में ही रहता है
पर हम समझते हैं कि सारा ज्ञान हो चुका है ।
आख़िरी छोर
पृथ्वी के आखिरी छोर तक कोई नहीं जाया जा सकता है
जैसे लगता है
आखिरी छोर आ गया
तो पता चलता है
नया छोर शुरु हो गया
गोल चपटी हुई धरती
जिसका आदि ही अंत है
और अंत ही उसका आरम्भ
यूनिवर्स का भी कोई और- छोर नहीं है
सब फ़ैल रहा है
अंत में सिकुड़ने के लिए
जो विलग हो गया है
उससे जुड़ने के लिए
उसी प्रकार विचार के आखिरी छोर तक
पहुंचना मुश्किल होता है
एक विचार खत्म होते ही
दूसरा विचार प्रारंभ
और
विचारों की अनवरत श्रृंखला चलती रहती है
जैसे दीपक के अंदर दीपों की अनंत
अनवरत श्रृंखला जलती रहती है
और विचारों के लिए कच्चा माल होती हैं
भावनाएं और संवेदनाएं
जैसी भावनाएं
वैसी ही संवेदनाएं
और
वैसा ही विचार
अच्छी भावनाएं
अच्छा विचार
और बुरी भावनाएं ,
बुरा विचार
भावनाओं के आखिरी छोर पर पहुंचने की
कोशिश करने के बजाय
भावनाओं को सही दिशा में यदि मोड़ा जाए
और समाज की संवेदनाओं से ज़ोडा जाए
तो विचार भी सही दिशा में मुड़ जाता है
और विचार की अनंत शृंखला
व्यक्ति को शुद्ध बना देती है
गोतम को बुद्ध बना देती है ।
कुंडली मार कर बैठे लोग
जिनको जो अधिकार मिल गया
जिनको प्रभुत्व का उपहार मिल गया
वें अधिकार छोड़ना नहीं चाहते है
समानता से रिश्ता जोड़ना नहीं चाहते है
पितृसत्तात्मक समाज में
पुरुष अपनी सत्ता नहीं छोड़ना चाहता
मर्दवादी सोंच नहीं छोड़ना चाहता है
उसके लिए स्त्री उपयोग की एक वस्तु है
सौंदर्य प्रसाधन है
आंनद का एक साधन है
मातृसत्तातमक समाज में
पुरुष अपने अधिकार की मांग करता है
मातृ सत्ता के सिंहासन से भिड़ता रहता है
उसको अधिकार नहीं मिलते
समानता के पुष्प नहीं खिलते
हिंदुओं में
जातियां अपनी सत्ता नहीं खोना चाहती हैं
अपनी श्रेष्ठता को साबित करना चाहती हैं
वर्ण व्यवस्था हो या जाति व्यवस्था
अपने स्वार्थ हित के लिए बनाए रखना चाहती हैं
सरकारी बाबू भी
दांव पेंच लगा कर
सत्ता के क़रीब दिखना चाहते हैं
बेमोल बिकना चाहते हैं
महत्वपूर्ण पदों पर बैठना चाहते हैं
नेताओं को भी सत्ता चाहिए
चाहे कितनी पार्टियां बदलना पड़े
भ्रष्टाचार करना पड़े
अपराध करना पड़े
वैश्विक शक्तियां भी
अपने प्रभुत्व को बचाए रखने की ख़ातिर
मुनासिब और गैर मुनासिब काम करेंगी
हथियार बेचेंगी
आतंकवाद फैलाएंगी
देशों को लडाएंगी
जो शासक है
जिनको कुछ अधिकार मिल गए
वह सत्ता पर
अपने अधिकारों पर
सांप की तरह कुंडली मार कर बैठ जाते हैं
कभी न हटने के लिए ।
बीवियों की इज़्ज़त
बीवियों की इज़्ज़त सिर्फ इसलिये नहीं होनी चाहिए
कि वो औरतें हैं
इज़्ज़त इसलिए होनी चाहिये
कि वह जीवन संगनियां हैं
जो सच में जीवन में साथ होती हैं
पतियों के दो हाथों के अतिरिक्त दो हाथ होती है
जीवन के कितने रिश्ते नाते
जीवन की नदी में पीछे छूट जाते है
पर नदी के किनारे की भांति
ये हमारे साथ चलती हैं
चाहे नदी सूखी हो
या पानी से भरी हो
बेटा ,बेटी
भाई, बहन
सब अपना आशियाना बनाकर द्वीप हो जाते हैं
लेकिन पत्नी
हरी दूब की भांति
उगती ,सूखती है
पर साथ नहीं छोड़ती
जीवन की नदी में बाढ़ आती है
सूखा होता है
पर वो हर बाधाओं से टकराती रहती है
और पति के जीवन से बेल की तरह लिपटी रहती है ।
राजधानी और गाँव
राजधानी से निकलकर जब जिले में पहुचे
कस्बों में गए ,गांवो में रहे
तो पता चला कि
राजधानी कुछ और है
और गांव कुछ और है
ज़िंदगियाँ दोनों जगह बिखरी हुई हैं
राजधानी में व्यस्तता के भार से
और गांव में बेरोजगारी की मार से
एक जगह खा नहीं पाते
समय के अभाव से
दूसरी जगह गरीबी के प्रभाव से
एक ओर बीमारी हो रही है
चर्बी चढ़ जाने से
दूसरी ओर पेट पीठ मिल गए हैं
खाना न खाने से
यदपि
राजधानी में भी कई गांव है ,कस्बे हैं
गांव में भी राजधानी के कुछ ज़ज़्बे हैं
पर दोनों जगह की
ज़िंदगियों की ज़िंदगी में बहुत अंतर है
दोनों के बीच पराएपन की नदी बहती निरंतर है
एक तट पर गांव है
दूसरे तट पर शहर है
एक पर समृद्धि की बारिश है
तो दूसरे पर भुखमरी के सूखे का कहर है
एक दूसरे को गवारुं और मुर्ख समझता है
और दूसरा पहले को चालक और धूर्त समझता है
अज़ीब सा अजनबीपन है दोनों के बीच
एक को उच्च समझा जाता है
दूसरे को नीच ।
कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब आधी से ज़्यादा आबादी
मैदान में लोटा लेकर जाती हो
और खुले आसमान के नीचे सोती हो
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब पैरों तले ज़मीन न हो
और ख्वाब दिखाए जाए आसमानी
डिजिटल इंडिया और बुलेट ट्रेन की बात है कितनी बेमानी
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब औरों का पेट भरने वाले की
भूख न पूरी होती हो
जब आदमी और आदमी के बीच इतनी दूरी हो
धर्म और जाति की इतनी मज़बूरी हो
तब कैसा गणतंत्र दिवस और कैसी आज़ादी ?
जब औरत का घर से भी निकलना मुहाल हो
अधिसंख्यक आबादी की हालत बेहाल हो
जब भीड़ का शोर ही लोकतंत्र की आवाज़ बन जाए
आज़ादी आज़ादी न रहकर केवल नारा रह जाए
तब कैसा गणतंत्र दिवस और आज़ादी ?
प्रेम
प्रेम प्रकृति के हर रंग में है
हर कार्य व्यापार और ढंग में है
प्रेम मर्यादा है
प्रेम रिश्ते के हर संग में है
प्रेम हर अणु और अनंत में है
प्रेम सत्य है
प्रेम सुंदर है
प्रेम ही है
यदि कोई ईश्वर है
प्रेम सीमा है
प्रेम विस्तार है
प्रेम ही समस्त जगत का सार है
सागर की लहरों का बार बार सागर के किनारे को चूमना प्रेम है
किसी जोड़े का एक दूसरे के प्यार में डूबना प्रेम है
शिशु को माँ की छुअन का एहसास होना प्रेम है
एक वैज्ञानिक का मानवता के कल्याण के लिए अविष्कार करना प्रेम है
एक नदी का पहाड़ से निकल कर लंबी दूर तय करना
और समुद्र से मिलना प्रेम है
एक किसान का खेत से अन्न पैदा करना और
अपने जानवरों को बच्चों की तरह ख़याल करना प्रेम है
पेंड़ का धूप सहते हुए छाया देना और
ज़ीने के लिए हवा देना प्रेम है
एक सफाई करने वाले का मुँह पर कपड़ा बांधकर
मल मूत्र साफ़ करना
सड़कों से कूड़ा हटाना
समाज के प्रति प्रेम है
देखने की दृष्टि हो तो प्यार दिखेगा
नहीं तो
किसान या सफाई वाले का काम
गंदा कार्य दिखेगा
आज ज़रूरत है सच्चे प्रेम की
जो पीछे छूट गए हैं उनको आगे बढ़ाने की
रूठों को मनाने की
मुहब्बत के नज़्मों को गाने की ।
राष्ट्र और धर्म
राष्ट्र और धर्म (रिलिजन) में वही संबंध होना चाहिए
जैसे रेगिस्तान का नदी से होता है
नेकी का बदी से होता है
पहाड़ का गहराई से होता है
और सागर का ऊंचाई से होता है
धर्म राष्ट्र को वैसी ही स्पर्श करे
जैसे असिम्पटोट किसी कर्व को
और विनम्रता गर्व को
धर्म यदि धरती हो
तो राष्ट्र आकाश हो
धर्म तड़पता रहे पर
राष्ट्र से कभी मिल न सके
धार्मिक कार्यों में
सरकारी सहयोग न हो
हज़ के लिए सब्सिडी न हो
सरकारी कार्यों में धर्म को मिलाने की अनुमति न हो
मिसाइल छोड़ने से पहले नारियल न
फोड़ा जाए
किसी सरकारी फंक्शन में
किसी ख़ुदा,देवी ,गुरु या गॉड के समक्ष न हाथ जोड़ा जाए
देश के लिए
सरकार के लिए
सबसे पूज्यनीय वस्तु संविधान है
जिसमे मानव व्यक्ति के उत्थान का विधान है ।
एल इ डी जैसी यादें
तुम्हारी यादों का फिलामेंट वाला बल्ब
जब पहले जलता था
तो रोशनी तो देता था
पर
पूरे मन को खरोंच देता है
अपनी गर्मी से ज़ला देता था
कार्बन की काली काली परतें छोड़ जाता था
फिर तुम्हारी यादें सी फ एल की तरह पीली से सफ़ेद होती गईं
यादो की गर्माहट कम होती गई
हां उन सुनहरी यादों की रोशनी अवश्य बढ़ती गई
बिलकुल व्हाइट लाइट
जो मन को उजला कर देती थी
धीरे- धीरे तुम्हारी यादें
एल .इ. डी के वाट की तरह कम होती गईं
ज़िंदगी की व्यस्तताएं बढ़ती जो गई
लेकिन तुम्हारी एल इ डी जैसी यादें
जब भी आती हैं
ज़िंदगी में उजाला ही उजाला फैला जाती है
जैसे एल इ डी कम वाट में अधिक लुमेन्स देती है
वोल्टेज के कम और ज़्यादा होने को सह सकती हैं
बिलकुल उसी तरह ज़ीवन के उतार- चढ़ाव्
में याद आ जाते हो
और जीवन को दिशा दे जाते हो
तुम्हारी एल इ डी जैसी यादें
अहा !
देखो आईं
और कुछ लिखवा गईं।
मैं जनता का नेता हूँ
सत्ता की ख़ातिर खूब अकुलाया हूँ
अपराध का साबुन घिस-घिस कर
भ्रष्टाचार के पानी में नहाया हूँ
मैं जनता का नेता हूँ
चुनाव जीतने आया हूँ
पार्टी कोई भी चुन लो तुम
सपने कैसे भी बुन लो तुम
मिल जाऊँगा मैं तुमको हर दल में
हर दिन में और हर पल में
मैं लोक तंत्र का साया हूँ
घड़ियाली आंसू बहाऊंगा
आदमी को आदमी से लड़ाऊंगा
दीमक की तरह मैं चाटूंगा
समाज को खूब मैं बाटूंगा
जाति की टोपी सिर पर लगाया हूँ
लच्छेदार भाषण हैं मेरे
जुमले फेंकूँ शाम सवेरे
विनम्र दिखता पर कड़ा हूँ
बड़ा चिकना घड़ा हूँ
कभी नहीं शरमाया हूँ ।
००
परिचय
नाम तेज प्रताप नारायण
शिक्षा :बी टेक
भारत सरकार में अतिरिक्त रेल महा प्रबंधक के पद पर कार्यरत
चार कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित ।
एक साझा उपन्यास ज़िंदगी है हैंडल हो जाएगी का सम्पादन और लेखक ।
चार साझा कविता संग्रह का संपादन
कहानी संग्रह कितने रंग ज़िन्दगी के लिए भारत सरकार का प्रेम चंद पुरुस्कार और कविता संग्रह अपने-अपने एवेरेस्ट के लिए भारत सरकार का मैथिलीशरण गुप्त सरकार ।
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया संदेश कवि ने दिया है अपने कविता के माध्यम से।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट
जवाब देंहटाएंआपकी कविता कल्पना की उड़ान नहीं बल्कि व्यवहारिक पक्ष, वैज्ञानिक सोच और नये बिंबों से लबरेज होती हैं। अद्भुत। साधुवाद।
जवाब देंहटाएं