18 जून, 2020

पुस्तक समीक्षा : एस.एस.पंवार



हमारे वजूद को सजगता से खंगालती है डॉ. राजवंती मान की लंदन-यात्रा 



एस.एस.पंवार



हरियाणा अभिलेखागार में डिप्टी डायरेक्टर रहीं डॉ राजवंती मान (इतिहासकार, लेखिका एवं शायरा) द्वारा उनकी लंदन यात्रा लिखी किताब खूबसूरत 'थेम्स तरस इतिहास है' पढ़ी। ये ज्ञान और मनोरंजन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। अमन प्रकाशन, कानपुर से छपी 144 पेजों की इस लंदन पंजिका को 9 अध्यायों में बांटा गया है। जिसके बाद छोटी-छोटी जानकारियों के अनेकों खण्ड विभक्त हैं।  यात्रा को पढ़ते वक्त यूं जान पड़ता है कि हम उनके साथ साथ अनेकों देशों से गुजरते हुए लंदन पहुंच गए हैं जहां एलेक्सा के साथ उनकी बेटी शिक्षा रहती है। बार्बिकन स्टेशन के पास फ़्लोरिन कोर्ट। 

शुरुआती अध्याय में लेखिका देश और गंतव्य तक के बीच के देशों के महत्वपूर्ण इतिहास से रूबरू करवाती हैं। इतिहासकार होने का ये तो फायदा होता ही है कि जब विमान भिन्न-भिन्न देशों की सीमाओं के ऊपर से गुजरता है और कम्प्यूटर हमें बताता है कि हम अमूक जगह हैं, तो उस देश और जगह का इतिहास भूचाल मारने लगता हैं एक साथ कई सदियों की तारीखें मस्तिष्क में इकट्ठी होकर विभिन्न मरहलों का हिसाब तलब करने लगती हैं। पूछने लगती है कि अमूक जगह से हमारा क्या रिश्ता है? इस अध्याय में लाहौर, काबुल, ईरान, कैस्पियन सागर, आस्त्राखान, वोल्गाग्राद, बेलारूस,पोलैंड, जर्मनी कितने ही ऐसे देशों और जगहों के नाम है जिनसे लेखिका हमें रूबरू करवाती है। उन जगहों के इतिहास और हमारे रिश्तों से हम रूबरू होते हैं। 
उसके बाद के अध्याय में हीथ्रो एयरपोर्ट, फ़्लोरिन कोर्ट, लंदन के खूबसूरत मौसम, जिस्म को चीरती वहां की ठंडी हवा और वहां के खूबसूरत कबूतर। जिस महीन निगाहों से लेखिका जगहों का अवलोकन कर रही है; यूं जान पड़ता है कि ये यात्रा सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भोगौलिक और साहित्यिक भी है। नेशनल लाइब्रेरी लंदन के मार्फ़त विश्व के कई ऐतिहासिक जानकारियों से हम रूबरू होते हैं।

महत्वपूर्ण बात ये है कि इस यात्रा के साथ हम अपनी पृष्ठभूमि हरियाणा और भारत को नहीं भूलते, हम अपने स्वाभिमान को नहीं भूलते। लेखिका ने बराबर तुलनात्मक जिक्र हमारी संस्कृति का भी किया है, जिनमें कुछ जगहों पर व्यंग्यात्मक रेखांकन भी मौजूद है। मुझे लंदन टर्मिनल-5 की एक घटना याद है जहां से आउट होते वक्त डॉ. राजवंती मान लिखती हैं "यहां कतारबद्ध 4-5 काउंटर है। लेकिन कतारें भारतीय नहीं है सो मेरा नंबर जल्दी आ गया। सहायक कर्मी ने मुझे जिस काउंटर पर जाने को कहा। वहां एक अधेड़, मंझले भार का अंग्रेज जेंटलमैन आसीन है। वह मुझे कभी लॉर्ड क्लाइव तो कभी वेलजली जैसा प्रतीत हो रहा है गुड विश होती है। वह मेरे लंदन के कागज, पासपोर्ट, वीजा, टिकट आदि की जांच पड़ताल करता है और आने का मकसद पूछता है। मैंने कहा मेरी बेटी लंदन में रहती है। मैं उसी से मिलने आई हूं। वह मुस्कुराता है। ओह, इट्स नाइस। क्या करती है आपकी बेटी और कब से है? मैंने कहा वह अमेजॉन लंदन में काम करती है और पिछले 2 साल से है। उसने अपनी ड्यूटी पूरी की और मुस्कुराकर लंदन का सफर इंजॉय करने को कहा मैं थैंक्स कह कर चल दी। 

इसी अध्याय में एक प्रतिशोध वाला वाक्य लेखिका ने लिखा है जिसमें वे कहती हैं कि "मेरी विचार-बेल वहीं अटकी है कि यही वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर साढ़े तीन सौ साल राज किया। नहीं, कुछ तो खास होगा इनमें या यूं कहें कि हम में कुछ खामियां होंगी, क्योंकि दरवाजे तो हम ही खोलने को तैयार हुए हैं ! अब चवन्नी-अठन्नी या झिड़की-घुड़की से दरवाजा खुल जाए तो घुसने वालों का क्या कसूर !

लेखिका की इस यात्रा में उपन्यास जैसा आनंद है। कहानियों और ऐतिहासिक कथाओं के जिक्र हैं। चार्ल्स डार्विन के जीवन, उसकी यात्रा और इतिहास को अच्छे से व्यक्त किया है मुझे यहां डार्विन का यह विचार प्रभावित करता है "जो आदमी समय का घंटा बर्बाद करने की हिम्मत रखता है उस ने जीवन के मूल्य की खोज ही नहीं की। जब हम किसी चीज का उपयोग बंद कर देते हैं तब वे धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है।" यात्रा में स्मृतियों से ऐसे कोट लिखना पाठक को प्रभावित करता है। अनेकों संदर्भों में थेम्स का इतिहास के साथ बहुत सुंदर वर्णन है। अनेकों सदियों में वक्त के थपेड़ों की शिकार थेम्स का यह अंश मुझे झिंझोड़ देता है। डॉ. मान चार्ल्स डिकन्स का हवाला देकर लिखती हैं कि उन्होंने इस की दयनीय हालत का जिक्र अपनी पुस्तक 'अवर म्यूच्यूअल फ्रेंड' में कुछ यूं किया है "कि एक कूड़ा बीनने वाला आदमी और उसकी बेटी लंदन पुल के पास एक मृत व्यक्ति की तैरती लाश को खींच रहे हैं ताकि उस की जेबों को टटोला जा सके।" डॉ. मान ने थेम्स के गंदे से साफ पानी होने तक की तमाम यात्राओं का जिक्र इस दौरान किया है।



भारत के समूचे इतिहास को ब्रिटिश संग्रहालय में कैद पाकर लेखिका कई जगहों पर भावुक हुई है वह अपना पक्ष भी दर्ज करती है। एक जगह वे अपने देश की स्मृतियों को देखकर कहती हैं 'धम्म चक्र' मुद्रा में बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमा जो सोमनाथ में उनके निर्वाण के प्रथम प्रवचन की बताई जाती है, इसे मूल रूप से पत्थर से तैयार करके स्वर्ण से मढ़ा गया। जमालगढ़ी के समीप इसे पवित्र स्थल पर स्थापित किया जाना था मगर दुर्योग देखिए कि यह यहां स्थापित हो गई।

"1857 के विद्रोह के बाद भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी से सीधे ब्रिटिश सरकार के पास हस्तांतरित हो गई तुरत फुरत यूरोप की फोटोग्राफी और प्रिंटिंग तकनीक विकसित की गई ताकि कुछ छूट न जाए। अब देखिए मेरे सम्मुख ईस्ट इंडिया कंपनी की नाक में दम करने वाले टीपू सुल्तान की तस्वीर है जिन्होंने फ्रांसीसियों से मिलकर 1780 से 1799 के बीच अंग्रेजों से चार युद्ध लड़े, तब कहीं उसकी मैसूर रियासत अंग्रेजों के हाथों में आ सकी। टीपू को मौत के घाट उतार दिया और उसके महल, सभी शाही चीजों को अपने कब्जे में कर लिया जिसमें ट्रॉफी, टाइगर चित्र और बहुत कुछ शाही सामान शामिल था। टीपू को लोग प्यार से 'मैसूर का शेर' कहते थे इतिहास के झरोखे में हम टीपू सुल्तान का चित्र उसकी तलवार और अंगूठियां देख रहे हैं।"

लंदन के साहित्यिक कूचे में वहां सांसद की सादगी देख भावप्रवणता में विचार उन्हें हमारी सत्ता के मौजूदा स्वरुप तक ले आते हैं। वे लिखती हैं-

'शोषक का सिर्फ खाल का रंग बदलता है शोषण का तरीका नहीं।' मैं यूं ही नहीं लिख रही। यह सब देख भोग रही हूं। सरकारी मशीनरी ध्वस्त हो होती हुई सी है लेकिन रोए कहां जाकर? शिकायत किससे करें? यह दास्तां आलाकमान की भी है जो चाटुकारिता, दिखावे और अहंकार के दास हो चुके हैं। इसलिए उन्होंने अपने चारों और गहरा व्यामोह बना लिया है। उन्हें अपना खुद का डर सता रहा है इसलिए सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने पड़ते हैं। हमारा प्रजातंत्र रजवाड़ों में परिवर्तित हो रहा है। हर रजवाड़े ने सैकड़ों पिल्ले पाल रखे हैं जो विपरीत खबर सुनते ही काटने को दौड़ पड़ते हैं मैंने यहां शिद्दत से महसूस किया है कि हमारा लोकतंत्र किस उल्टे पायदान पर खड़ा है। 

मुझे आश्चर्य होता है कि दीर्घाओं के बहाने लेखिका ने चित्रकारी और कला जगत की कितनी सुंदर दुनियां से रूबरू करवाया है। रेनेसां के दौर की विश्व की महत्वपूर्ण पेंटिंगों के जिक्र समेत अनेकों महत्वपूर्ण जानकारियों को इसमें दर्ज किया है। लिखने को बहुत सारी बाते हैं। मैंने ऐतिहासिक साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन को खूब पढ़ा है। डॉ. राजवंती मान को पढ़ते वक्त कल मुझे यूं लगा कि आज अगर महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जिंदा होते तो वे इस तरह का लिख रहे होते।

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कविताएँ : डॉ अनुराधा 'ओस'




डॉ  अनुराधा 'ओस'

गिलहरी के चावल

आती है सर्र से 
किसी हल्की आहट से
भागती है सर्र से
रसोई में रखे चावल
की गंध खींचती है तुम्हे
वैसे ही जैसे 
बुद्ध को ज्ञान
जैसे धरती को पानी
एक मुट्ठी चावल 
रोज धर देती हूँ
तुम्हारे लिए
अपना प्राप्य तुम्हे प्रिय होगा ही
चिड़िया के लिए
किसान जैसे छोड़ देता है
कुछ दाने खेतों में
जैसे तालाब बचा के
रखता है पानी
अपने आत्मीय के लिए
उसी तरह 
कुछ कर्ज चुका देती हूँ तुम्हारा

   

कभी बतियाते हैं!

कभी बतियाते हैं 
एकांत में गिरे
उस फूल से
जिसकी झड़ती पंखुरियों ने
बचाया है 
न जाने कितनी मुस्कानों को

और चलना निरन्तर 
उस चींटी की तरह
जिसकी जिजीविषा ने
न जाने कितनी बार
जीना सिखाया है
              
प्रकृति का दिया 
उसे सूद समेत लौटाते हैं
जीवन से कुछ क्षण
बतायाते हैं

मूक रहकर
पर्वत की तरह ,बादलों को
लिखतें हैं पत्र 
नाव के  काठ की
तरह पानी-पानी 
हो जातें हैं
  
फूल सी कोमलता 
हो मन मे हमारे
जितना पाया धरा से
कुछ धरा को लौटाते हैं




हल की धार को याद कर लेती हूँ

बहुत पहले मां ने
कहा था कि
कुछ बनाते समय 
उसको याद कर लेना चाहिए
जो उस काम को
अच्छे से करता हो
तो मैं
खाना बनाते समय
माँ को याद कर लेती हूँ
जिंदगी की कड़वाहट कम के लिए
पानी को याद कर लेती हो
जिंदगी को समतल बनाने के लिए
हल की नुकीली धार को
और दुःख को हराने के लिए
समुद्र को
काँटे हटाने के लिए
हंसिया और दराती को
उधड़ी सीवन ठीक करने के लिए
पेड़ की छाल को
कतरन -कतरन जोड़ कर
तुरपाई करने के लिए
मकड़ी को याद करती हूँ
मन की बर्फ पिघलने के लिए
कुम्हार के आंवा को



नाव  उदास है

नदी के किनारे 
नाव उदास पड़ी थी
नाविक  का मुँह 
उतरा हुआ था ,
आज कमाई नही हुई,
सुबह से एक-दो ग्राहक  
आये मगर उतने से 
रोटी दाल का खर्च 
कैसे चलेगा
जिस घाट के किनारे 
वो यानी कुशल 
अपनी नाव लगाता है
उसके ठीक सामने 
चूड़ियों का बहुत बड़ा 
और सुंदर मार्केट है
उसकी औरत रूपा 
अपने नाप की रंग-बिरंगी 
नए फैशन की चूड़ियाँ 
लाने को कहती है
 मगर इतने  थोड़े पैसे में 
कौन देता उसे?
आज भी कोई ठीक- ठाक 
ग्राहक नही आया
रूपा के हाथ बहुत गोरे हैं 
उसके हाथों में
कत्थई चूड़ियाँ 
बहुत अच्छी लगेंगी
सामने घर की मेम साहब 
ने पुरानी चूड़ियों से 
ऊब कर उसकी लच्छी
कूड़ेदान में फेंकी है अभी-अभी

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 डॉ  अनुराधा 'ओस'
 मिर्ज़ापुरउ.प्र.
 मो. 9451185136


17 जून, 2020

पूर्णिमा मौर्या की लम्बी कविता 'पत्थर' : भाग-१



पूर्णिमा मौर्या

पत्थर

ऑन कैमरों के साथ
हम खड़े हैं उन रास्तों पर
जहां से निकलते हैं
पत्थराये पांवों से  
सड़कें नापते 
मजदूर।

लाकडाउन में जिंदा रहने की जद्दोजहद करते
आजिज हो
दूसरे राज्यों से अपने गाँवो को लौटते
मीलों सफर तय कर चुके
मजदूर।

मजदूर निकल पड़े हैं
शहरों महानगरों को छोड़
अपने गांव-घर की ओर
जैसे निकल पड़ी हो चींटियां
बारिश के अन्देशे से अपने अण्डों को सिर पर उठाए
किसी सुरक्षित ठिकाने।

पर ये चीटियां नहीं
जीते जागते इंसान हैं
जो खतरे में हैं
भूख से मर जाने के खतरे में
इसलिए
ये निकल पड़ें हैं
खतरों से जूझने
खतरों के बीच।

कुछ पूछते ही
संकोच
डर झिझक के साथ
अपनी बोली बानी में
खुश्क रुंधे गले
सुनाने लगते आपबीती।

पैदल चले जा रहें हैं
मजदूर
काली पथराई
दहशतज़दा सड़कों को पार कर
फिर उन्हीं कच्ची पक्की
जानी पहचानी
पगडंडियों की ओर
जो जाएंगी उनके गांव जवार
घर।

मुख्य मार्गों
कच्चे पक्के रास्तों
या रेलवे ट्रैक किनारे
एक कतार में चलते
प्लास्टिक की बोरियां, अटैचियां लादे
औरतों बच्चों बूढों के साथ
मजदूर चल रहे हैं।

चल रहे हैं मजदूर
छोटे सिर पर बड़े पग्गड़ बांध
बच्चों को मई की चिलचिलाती धूप से बचाते।

चल रहे हैं मजदूर
भूख से रोते बच्चे को
कभी बिस्कुट
कभी ढांढस
तो कभी यूं ही रोता लेकर
कलेजे पर पत्थर रख
सफर पर। 

चल रहें हैं मजदूर
कि अब चलने के सिवा कोई रास्ता न था।

इस मुश्किल सफर में क्या क्या बीता
या बीत रहा
लगातार
दर्ज हो रहा है कैमरों में
दुनिया में
इतिहास में
और हर उस शख्स के सीनें में
जिसका दिल अभी पत्थर नहीं हुआ।

मजदूर चल रहे हैं
लगातार
ऑन हैं कैमरें
चल रहीं हैं खबरें भी
लगातार
पर कितनी आएंगी सामने
और किस अंदाज में
कितनी दर्ज रहेंगी इतिहास में
भविष्य तक जाएंगी कितनी सबक की तरह
और कितनी रहेंगी सुरक्षित हम सबके दिलों में
चेतावनी की तरह
संघर्ष की तरह
या बस गैरजरूरी
मुर्दा चीजों की तरह
मिट जाएंगी
या सिरे से मिटा दी जाएंगी
फिर कुछ समय बाद
दर्ज होंगी
इतिहास में
किसी और ही शक्लो-सूरत में
इस भयावह मंजर की दास्तान,
इक्कीसवीं सदी में
मीलों पैदल चलते
मरते मजदूरों की दास्तान।

सब पहले से तय 
हुकूमत द्वारा
और जो तय नहीं
उसे आने वाली हूकूमत तय कर देगी
पुरानी हुकूमत के पदचिन्हों पर चल।

अपने अपने लाभ के हिसाब से
सब सेट किया गया
हुआ सब तय
देश और विदेश में बैठे खास
ऊंचे
बहुत ऊंचे लोगों द्वारा
बहुत ऊंचे पदों पर बैठे लोगों द्वारा।


इस कठिन समय में
जालसाज़ियों और हत्याओं के समय में
महामारी और उसके डर के समय में
षडयन्त्रों और अफवाहों के समय में
मेरा काम है बयान लेना
पैदल चलते मजदूरों के साथ
अपने मीडिया वाहनों में चलकर
उनके बयान लेना।

कभी उनके साथ धूप में तो कभी रात मे
कभी चलते चलते
तो कभी थोड़ा ठहरकर
सिर्फ बयान लेना।

ठीक उस तरह जिस तरह सिखाया बताया गया हमें
क्योंकि
बयान सिर्फ बयान नहीं होता
होता है उसका अपना गणित
अपना विज्ञान
होती है उसकी अपनी राजनीति
अपना समाजशास्त्र
और होती है अपनी
टेक्निक भी।

बयान लेना कोई शगल नहीं
और न ही मज़ाक
काम है या मजबूरी
तरीका है तरक्की पाने का
सच उगलवाने और छिपाने का
या जज्बा है
कत्ल हो जाने की हद तक बेबाक हो जाने का।

बयान हमें लेना होता
क्योंकि लोग चाहते हैं
इन्हें देखना सुनना
देखने सुनने के सबके अपने कारण होते
कुछ लोग
यूं ही देख सुन लेते कुछ भी
क्योंकि इनके पास कुछ भी देखने सुनने का
समय होता है खूब
कुछ लोग जो बोलना नहीं चाहते
देखने सुनने में इस कदर जाते डूब
कि मान लेते हैं इसे देखकर जिन्दगी सार्थक हुई
कुछ लोग
इन्हें बोलता देख इन्सपायर होते
और बोलने लगते इनके पक्ष या विपक्ष में जोरदार
तो कुछ लोग
करते हैं इनकी पहचान
ताकि बोलने की दी जा सके उन्हें
माकूल सजा
कुछ को ये देख सुनकर आता है मजा
वे खुद को महसूसते बड़ा
कुछ देखते हैं इसलिए
कि कर सकें इनका इस्तेमाल
इनके बारे में लिखकर बोलकर
इन्हें अपनी कलाकृतियों में ढालकर
चाहते महानता के तमगे लटकाना
ये चाहते हैं कि लोग यूं ही
रोते बिलखते मरते रहें
संकट में घिरते रहे
ताकि ये जता सके संवेदना
टपका सकें दो आंसू इनके नाम पर
या इनकी मदद से कमा सके कुछ पुण्य
ताकि स्वर्ग में भी इनका बन सके दबदबा।

इन सबसे अलग
कुछ बिरले ऐसे भी हैं
जो संवेदना के दो आंसू से ज्यादा करना चाहते
ताकि बने ऐसी दुनिया
जहां यूं मरने-खपने-जूझने वाला कोई न हो
लाॅकडाउन जैसे भयावह समय में भी
दो दुनिया न बन जाए
जहां कोई तो
स्काटिश ब्रान्ड का सिंगल माल्ट पीते
इन्ज्वाय करने के नित नए तरीके खोजे
तो कोई नमक रोटी से हो बेदखल
जिन्दा रहने की जद्दोहद में
हर पल मरे।

फिलहाल
आजाद उड़ते पक्षी की तरह
उड़ती सोच को
पिंजरे में बन्द कर मैं
मुखातिब हुआ मजदूरों की ओर
कैमरे ने दर्ज किए
तमाम तमाम लोगों के बयान
जिन्दा रहने के लिए
गालियां, लाठियां खाते
तमाम तमाम मेहनतकश लोगों के बयान
पथरीला सफर तय करते
जिन्दा लोगों के बयान
मैं पूछता रहा अपने सवाल
वो सुनाते रहे अपनी जिन्दगी
मैं सुनता रहा
दर्ज करता रहा उनके बयान
मरजीवा लोगों के जिन्दा बयान।

तुम कितने बजे निकले?
कितने किलोमीटर बाकी हैं अभी?
तुम्हें इस महामारी से डर नहीं लगता?
तुमने कबसे कुछ नहीं खाया?
क्या बच्चा बीमार है?
इसे लेकर कहीं रुक क्यों नहीं जाते?
तुम गांव जाना क्यों चाहते हो?
मैं पूछता लोग बताते
बताते क्या
कलेजा चीर सामने रख देते
कि देख लो
जान लो जो भी जानना चाहो
हम बहुत छोटे लोग हैं साहब
आप से क्या छुपा

सही तो कहा
क्योंकि बड़ोंसे हम हर बार
सब पूछते ही कहां
और कई बार लाख पूछने पर भी बचा लेते हैं
सबसे जरूरी बात,
हमारे पूछने
और उनके बताने में
जो छूट जाता 
उसकी साझी समझ से चलता है
पत्थर दिल दुनिया का कारोबार
और उनकी राजनीति।

[नोट – यह लम्बी कविता ‘पत्थर’ का पहला भाग है]


                              

परिचय

पूर्णिमा मौर्या

कविता संग्रह सुगबुगाहट’ 2013 में स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित, ’कमजोर का हथियार’ (आलोचना) तथा दलित स्त्री कविता’(संपादन) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका महिला अधिकार अभियानकी कुछ दिनों तक कार्यकारी सम्पादक रहीं। विभिन्न पत्र, पत्रिकाओंपुस्तकों में लेख तथा कविताएं प्रकाशित।

सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन  

ईमेलdrpurnimacharu@gmail.com

मोबाइल नं - 9449422174

पता - 4/5,  क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान
मानसगंगोत्री, मैसूर
पिन कोड- 570006