02 अगस्त, 2020

पूनम शुक्ला की कविताएँ

पूनम शुक्ला



1. 

दिन बीतने पर

दिन बीतता है
और मैं खुश होती हूँ
रात के आगोश में अपना सिर रखकर

रात से कहती हूँ कट गया एक और दिन
इस तरह बढ़ती जा रही है उम्र

जानती हूँ उम्र बढ़ने पर होना होता है उदास
कि जीवन का कम हुआ एक और दिन
लेकिन भीतर से आती है एक आवाज़
जो एक दिन कट जाने का जश्न मनाती है
नहीं यह जीवन घटने की खुशी नहीं है
न ही मृत्यु से दोस्ती का फरमान
यह मेरा जीवन से आत्मीय वार्तालाप है
जीवन को मेरा सलाम
कि ऐसे कठिन समय में
जहाँ इतना कठिन हो गया है जीना
जहाँ मृत्यु संगिनी बन हमेशा घूमती है साथ
जहाँ बातों-बातों में ली जा सकती है जान
जहाँ क्षण भर में ही हो सकता है अपराध
अपहरण, बलात्कार
चलो कट गया सकुशल एक और दिन ।




2. 

झूठ के रंग

अब झूठ झूठ नहीं रहा
अब जब जबान झूठ बोलती है
झूठ बोलने वाले की आँखें व चेहरा
सच का लिबास ओढ़ लेते हैं
जिसका रंग सच की ही माफिक सफेद होता है
जिसे वह पहन कर
अलग अलग रंगों को अपने पास बुलाता है
और सभी रंग अपनी खूबियों को बखूबी पहचानते हुए
झूठ के लिबास में अपनी खूबियाँ टाँकते हैं

फिर उन रंग बिरंगे चित्रों की छायाएँ
झूठ के चेहरे के असली रंग को ढ़ापती हैं 
और इस तरह जबान का बोला हुआ झूठ
झूठ की आँखों और चेहरों पर
उड़ती हुई हवाइयों का शिकार
हवा में उड़ते हुए बाज की तरह करता है ।




3. 

हवा हवा

लीजिए अब तैयार हो जाइए
हवा खाने के लिए
हवा पीने के लिए
और हवा पहनने के लिए भी
क्योंकि आधे खाली गिलास के लिए
अब एक नया जुमला तलाश लिया गया है
अाधा गिलास पानी अब आधा खाली नहीं रहा
लेकिन आधा गिलास पानी अब आधा भरा भी नही रहा
अब आधा आधा रहा ही नहीं
क्योंकि अब आधे में हवा भर दी गई है
मुन्ने का दूध का गिलास अब आधा नहीं है
उसमें आधी हवा भरी हुई है
उसका पेट हमें आधा दूध और आधा हवा से भर देना है
गरीबों के आधे भूखे पेट आधे हवा से भरे हुए हैं
भूखे और नंगों के तन आधे हवा से ढ़के हुए हैं
कच्चे पक्के आधे अधूरे मकान
आधे हवा से बने हुए हैं
और हम आधी आबादी वाली महिलाएँ
अब आधी हवा हवा हैं ।




4. 

खरा खारा

नदियों को अपने पेट में निगल जाने वाला समुंदर
बस बटोरने की फितरत लिए
खुद में ही हहराता
चट्टानों पर अपना सर पटकता
इतना खारा हो जाता है
कि किनारे खड़े किसी भी जीव जंतु को
अपने खारेपन में लील लेता है

अब यही खारापन धीरे-धीरे इंसानों में उतरने लगा है
हँसाने वाला माँगता है कुछ दिनों की मोहलत
कि वह खुद ही उदासीनता का शिकार हो गया है
और उससे उबरने के लिए उसे अभी थोड़ा वक्त चाहिए
धार्मिक स्थलों पर बैठे हुए धर्म के पुजारी
धार्मिक अनुष्ठानों के बीच
अपनी सीधी चाल से भटककर
बहन बेटियों की इज्जत लीलने चल पड़ते हैं ।

काश कि यह खारापन थोड़ा खरा भी होता
ठीक किसी कर्मठ की देह से टपकते स्वेद कणों सा
किसी प्रेम भरी आँखों से टपकते अश्रु कणों सा ।




5. 

मेरे सपने

पढ़ी इन दिनों
अमृता प्रीतम की किताब
लाल धागे का रिश्ता
जो बस सपनों की बातें करती है
सपने भी ऐसे जो सोते हुए देखे गए
पूरी नींद बेहोशी में
सुषुप्त अवस्था में
आधे अधूरे, कभी पूरे

सोचती हूँ कब देखा मैंनें पिछला सपना
याद ही नहीं आती कोई घटना
इन दिनों जब रात में सोती हूँ
सीधा सुबह ही जागती हूँ
दिन भर की थकान के बाद
रात भर दस्तक देते हुए सपने
उनींदे निढ़ाल गुम हो जाते हैं कहीं

पर ऐसा नहीं है कि मैं सपनें नहीं देखती
मेरे सपनें दिन के उजाले में
मेरे अगल-बगल से झाँकते हैं
उनके रंग कभी किसी फूल
कभी रंग-बिरंगी तितली से मिलते हैं

मैं जागते हुए सपनें देखती हूँ
मेरे सपनों की फेहरिस्त लंबी है
और वह गल्प और काल्पनिक नहीं
वह तो यथार्थ के चट्टान को तोड़ती हुई
एक ऊँची छलाँग लगा
आसमान छूना चाहती है ।


परिचय

पूनम शुक्ला

जन्म - ज्येष्ठ पूर्णिमा ,२०२९ विक्रमी । 26 जून 1972
जन्म स्थान - बलिया , उत्तर प्रदेश

शिक्षा - बी ० एस ० सी० आनर्स ( जीव विज्ञान ), एम ० एस ० सी ० - कम्प्यूटर साइन्स ,एम० सी ० ए ० । 

कुछ वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में कम्प्यूटर शिक्षा प्रदान की । अब कविता, कहानी, संस्मरण लेखन मे संलग्न ।

कविता संग्रह :  " उन्हीं में पलता रहा प्रेम " किताबघर प्रकाशन , दिल्ली द्वारा 2017 में प्रकाशित
कविता संग्रह " सूरज के बीज " अनुभव प्रकाशन , गाजियाबाद द्वारा 2012 में प्रकाशित ।
"सुनो समय जो कहता है" ३४ कवियों का संकलन में रचनाएँ - आरोही प्रकाशन


प्रकाशन : नया ज्ञानोदय,पाखी, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ,मंतव्य,विपाशा, जनपथ,स्त्री काल ,संचेतना,रेतपथ,युद्धरत आम आदमी, कविता बिहान, परिकथा,लाइव इंडिया,समालोचन,दैनिक जागरण,दैनिक ट्रिब्यून, हरिगंधा,शोध दिशा,भारतीय रेल,जनसत्ता दिल्ली,संवेदना,नेशनल दुनिया,जनसंदेश टाइम्स ,चौथी दुनिया,परिंदे,सनद,एवं कुछ ब्लाग्स में रचनाएँ प्रकाशित । समावर्तन में कविताएँ रेखांकित ।

ई मेल आइडी - poonamashukla60@gmail.com

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