01 सितंबर, 2020

लोक भाषाओं के साहित्य में इंकलाबी स्वर - (४)

 

सतीश छिम्पा


संतराम उदासी और पारस अरोड़ा
(पंजाबी और राजस्थानी)

 


संतराम उदासी

                                              

           पंजाबी कविता का एक भरा पूरा दौर सूफ़ियाना मिजाज़ और इश्किया और हिज्र की कविताओं- गीतों का रहा है। जिसमे शिव कुमार बटालवी, अमृता प्रीतम, गुरबख्श सिंह, मोहन सिंह आदि नाम मुख्य है। बहुत ऊंचा, और महान स्थान मिला इनमे से कुछ को जैसे शिव बटालवी और अमृता प्रीतम। जाने कैसा उदास सा रचाव था इनका- जबकि वो दौर जीवंत था। मर चुके अर्थों को ढोते हुए अधमरे शब्द जैसे आदमी के मुंह पर थूक करके जैसे ओढ़ लेते है खापण, हर तरफ  चुप ही पसरी थी और वो भी शब्दों के होते, लाशें या बेवफ़ाओं का शोकगीत..... जाने क्यों था। यह बहुत लंबा चलते हर गंभीर रोग बन जाता अगर बीच का दौर इंकलाबी ना होता।

          पंजाबी की इंकलाबी लहर की इंकलाबी कविता जो नक्सलबाड़ी कम्युनिष्ट उभार का परिणाम थी के कवियों की कविताओं का स्वर तीखा और मार्क्सवादी राजनीतिक चेतना का क्रांतिकारी रेडिकल रूप था। वे सृजक और अन्नदाता (दोनों मजदूर) जो हकीकतन मालिक है संसाधनो का के शोषण, अन्याय, जबर , जुल्म और अत्याचार को संघर्षमय तरीके से मिटाना चाहते थे ताकि जीवन के सबसे सुंदर पक्ष में लोक टिका रहे। उन्होंने अक्टूबर क्रांति की रूपरेखा पर देश भर में हो रहे सर्वहारा के क्रांतिकारी अमल और उसमें आगामी पीढ़ियों और समूचे देश का आधार और संभावनाओ को देखा। इसलिए उनकी कविताएँ कलावादी या अशोक वाजपेयी की रखैल नही हुई। जीवन में बसनेवाले किसी जुझारू कवि का सत्य बन गई  ना केवल सत्य बल्कि क्रूर सत्य जो दमन और शोषण और अन्याय पर टिकी व्यवस्था को खुली चुनौती हैं। किंतु ये कवि कई कारणों से अपनी रचनाशीलता को कविता में बनाए नहीं रख सके। कुछ की असमय मौत हो गई और कुछ साहित्य की अन्य विधाओं की ओर मुड़ गए। इनके बाद पंजाबी ही नही हिंदी में भी हलचल मची। खटकड़, पाश, लालसिंह दिल,  जयमल पढा, अचरवाल आदि कवियों की एक नई और मजबूत पीढ़ी सामने आई जिसने कविता के क्षेत्र में कविता की रेडिकल धारा की बुनियाद को न सिर्फ मजबूत किया बल्कि उस पर भव्य इमारत भी खड़ी की।

 


     'लोक' के कवि कोई तटस्थ कवि नहीं थे बल्कि रेडिकल क्रांतिकारी चेतना से लैस कवि थे। उनका मानना था कि क्रांतिकारी साहित्य जनांदोलनों और जनसंघर्षों की उपज होता है।  प्रगतिवादी आंदोलन के बाद दूसरी बार किसान-मजदूर व निम्न वर्ग उनकी कविता में अपनी आशा-निराशा, कुंठा-पराजय, आकांक्षा-सपने और संघर्ष के बहुतेरे रंगों को ले कर प्रकट हुए। यहाँ कुछ अतियाँ भी हुई। जैसे, संघर्ष के लॉजिकल चित्रण का मुख्य स्वर सशस्त्र क्रांति का रहा मगर भटकावों का भी आना जाना लगातार था।

 

     जब पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी ताल्लुक के एक गांव नक्सलबाड़ी से भारतीय शोषक राज सत्ता के विरुद्ध विद्रोह, क्रांति की शुरुआत हुई जिसने हर संवेदनशील युवा को प्रभावित किया था। इसी प्रभाव क्षेत्र में आए पंजाबी के महान क्रांतिकारी कवि गीतकार संतराम उदासी। उस दौर में जब पाश जैसा खतरनाक कवि भी मंच पर पसीने से नहा जाता था क्योंकि सारी की सारी भीड़ चिल्ला उठती थी 'संतराम उदासी' जिंदाबाद के नारों से। संतराम जी नक्सल क्रांन्तिकारी थे, उनकी मीटिंग्स और अभियानों के हिस्सा थे। जिसकी वजह से पंजाब पुलिस ने उनको इतना ज्यादा टॉर्चर किया था कि उनकी दोनों आंखे हमेशा के लिए खराब हो गई थी। उनके सर के बालों के ताण लटकाया जाता था। इस जोर जबर और जुल्म के कारण ही उदासी के गीतों में विद्रोह घुला था। पाश, उदासी और लाल सिंह दिल की यह तिकड़ी जबरदस्त थी। वे मजहबी सिख थे, दलित मगर अम्बेडरवादी नहीं थे, मार्क्सवादी थे। मैं खुश नसीब मानता हूँ खुद को कि पाश को पढ़ने की ललक के कारण जो पंजाबी भाषा पढ़नी लिखनी सीखी उसके कारण संतराम उदासी को समग्र रूप में मूल पंजाबी भाषा मे ही पढ़ा। इनकी कविता और गीत हिंदी में भी अनुदित है। एक बहुत जरूरी गीतकार को पढा जाना चाहिए।       

               संततराम उदासी पंजाबी इंकलाबी कविता की धारा के साथ उठे अन्य जुझारूओं की तरह के कवि नही थे।  उदासी की खासियत थी जो उनकी रचनाओं और जीवन और वैचारिक आधार में स्पष्ट दिखती है। वे दलित थे। उनका  इंकलाबी कविता के सरोकारों और मार्क्सवादी विचार से साम्य रहा था। उन्हें वर्गीय समाज और अपने गांव से अथाह प्रेम था। इसीलिए मार्क्सवादी तौर पर गांव से शुरू होता है उनका क्रांतिकारी जीवन, वे वहां से अन्याय, जुल्म, गैरबराबरी और शोषणपरक सामाजिक व्यवस्था को आमूल-चूल बदलने का सपना देखते थे। एक समतामूलक समाज निर्माण के ज़ज़्बे से ओत-प्रोत है। संतराम उदासी की कविता माओवादी धारा का अच्छा पदर बनी। पाश, लाल सिंह दिल और संतराम उदासी और अमरजीत चंदन, दर्शन खटकड़ की  यह जंडली विशेष महत्व रखती है। जहां पाश और दिल की कविताएं पंजाबी से बाहर के साहित्यिक और क्रांतिकारी जगत में खूब पढ़ी गई, वहीं संतराम उदासी के संगीतमय स्वर ने क्रांतिकारी आंदोलन को निरंतर गर्मी प्रदान की है।

      संतराम उदासी  जन संघर्षों व आंदोलनों का हिस्सा अपने गीत माध्यम, उन्ही में रहे हैं । मजदूरों, किसानों, महिलाओं, छात्रों, कर्मचारियों आदि के संघर्षों में उनके गीत एक प्रेरणा देते हैं।   

     संत राम उदासी का जन्म 20 अप्रैल 1939 को पंजाब के वर्तमान में जिला बरनाला के रायसर गांव में हुआ।  तत्कालीन पंजाब में रियासती और ब्रिटिश, दो भांत का शासन था। पंजाब का कुछ भाग पर सीधा अंग्रेजी शासन के अधीन था और कुछ हिस्सों में देसी रियासतें थी पटियाला, संगरूर, नाभा, कैथल आदि। 


     6 नवंबर 1986 को छोटे साहबज़ादों के शहीदी पर्व के मौके पर गुरुद्वारा नांदेड़ साहिब के निमंत्रण पर कवि सम्मेलन में भाग लेकर रेल से वापिस आ रहे थे तो महाराष्ट्र के मनमाड़ रेलवे स्टेशन के निकट उनके साथ सफर कर रहे डा. बलकार सिंह ने चाय पीने के लिए उठाना चाहा, तो वह उठे नहीं। उदासी जी चल बसे थे। 

    संतराम उदासी के लोक में प्रसिद्ध होने के कारणों में यह कारण  भले छोटा मोटा हो मगर यमला जट्ट भी किसी कारण इसमे शामिल रहा था, और उनकी लौकिक पकड़, पहचान और शब्द भंडार है और उनकी लोक चेतना में बसे साहित्यिक रूपों का मिश्नभि। आप सहज देख सकते हैं कि लोक संतराम उदासी की रचनाओं की आत्मा है। लोक चेतना व क्रांतिकारी चेतना का स्वर यहां एकमएक हो गया है। संगीत, महेनतकशों की जिंदगी के दर्द और रोह का ऐसा शानदार  मिश्रण था उनका कि तूड़ी से ले कर तंगळी तक सब जीवंत।

 

 

उनके दो गीत

 

  ( गीत)

 

मेरे लहू का केसर, मिट्टी में ना मिलाना।

मेरी भी जिंदगी क्या, बस बूर सरकंड़ों का,

 

सांसों का सेंक काफी, तिल्ली बेशक ना लगाना।

होना मैं नहीं चाहता, जल कर स्वाहा अकेला,

 

जब-जब ढलेगा सूरज, कण-कण मेरा जलाना।

श्मशानों में कैद होना, मुझे नहीं मुनासिब

 

यारों की तरह अर्थी, सड़कों पे ही जलाना।

जीवन से मौत तक, आते बड़े चौराहे,

 

 


 

 (गीत)

 

मां धरतीए! तेरी गोद को चंद ओर बहुतेरे

 

तू चमकते रहना सूरज कम्मियां के वेहड़े

 

जहां तंग ना समझे तंगियों को

 

जहां मिलें अंगूठे बहियों को

 

जहां बाल तरसते कंघियों को

 

नाक बहती, आंखों में सूजन, दांत में कीड़े

 

तू चमकते रहना सूरज….

 

जहां रूह बन गयी एक हावा है

 

जहां जिंदगी का नाम पछतावा है

 

जहां कैद स्वाभिमान का लावा है

 

जहां अक्ल अफसोस मुड़ गई खा थपेड़े

 

तू चमकते रहना सूरज

 

जहां लोग बहुत मजबूर हैं

 

दिल्ली के दिल से दूर हैं

 

और भुखमरी से मशहूर हैं

 

जहां मरके बन जाते चंडाल भूत बडेरे

 

तू चमकते रहना सूरज

 

जहां इंसान जन्मता सीरी है

 

पैसों की मीरी-पीरीहै

 

जहां कर्जों तले पंजीरी है

 

बाप के कर्जे के सूद में पूत जन्मदे जेड़े

 

तू चमकते रहना सूरज

 

जे सूखा पड़े तो यही सड़ते हैं

 

जे बाढ़ आए तो यही मरते हैं

 

सब कहर इन्हीं पर पड़ते हैं

 

जहां फसलों ने भी अरमान तोड़े

 

तू चमकते रहना सूरज..

 

जहां हार मान ली चावां ने

 

जहां कोयल घेर ली कौवां ने

 

जहां अनब्याही ही मांवां ने

 

जहां बेटियां सिसकती बैठ मुंडेरे

 

तू चमकते रहना सूरज

 

जहां रोटी में मन घुटता है

 

जहां गहन अंधेरा उठता है

 

जहां गैरत का धागा टूटता है

 

जहां वोट मांगने वाले आकर रिश्ता जोड़ें

 

तू चमकते रहना सूरज

 

तू अपने आप चमकता है

 

अपने आप ही रोशन रहता है

 

क्यों कम्मियां से शर्माता है

 

यह सदा-सदा ही नहीं रहेंगे भूखे में जकड़े

 

००००००

 

 

कीरत लुटाण वाळेओं सारे इक हो जाओ,इक हो जाओ

जिस्म तुड़ाण वाळेओं सारे इक हो जाओ,इक हो जाओ

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पूंजीपति दी मर्ज़ी है कि,तूं लड़दा रहे,तूं मरदा रहे।

धर्म,कानून,जात दा डंडा,तूं चुकदा रहे,तूं धरदा रहे।

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असीं तोड़ियां गुलामी दियां कड़ियाँ

बड़े ही असी दुखड़े जरे

आखणा समै दी सरकार नूं

ओ गैणे साडा देश ना धरे।

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०००००००००००००

 

 

पारस अरोड़ा 

मार्क्सवाद का सच्चा जमीनी सिपाही :- लाल रंग का धूसर  लाल कवि :- पारस अरोड़ा 

 

      एक सजग रचनाकार की लोक चेतना की थाह लेने में पाठक गुरेज नही करता है। वो कविताओं के भीतर के विचार को थामता है।  रचनाकार, एक प्रतिबद्ध और ईमानदार रचनाकार लोक की रग  को ठीक उसी जगह से छुएगा जहां वो जख्मी होती है। सन 1971 ई. राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरा राष्ट्र उथल- पुथल का शिकार था- मुख्यधारा के हिंदी कवि- बुद्धिजीवी वामी (मार्क्सवादी नहीं- मध्य मार्गी सामाजिक जनवादी, बीच के रास्ते वाले) इस उथल पुथल और खतरा टल जाने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि बिलों में से बाहर निकल कर सामाजिक जनवादी की क्रांतिकारिता का लोहा मनवाया जा सके वे लोग पोलिटिकल लाइन को गलत व्याख्या करके अनैतिक स्थापनाएं करते रहे हैं। सन 1970-71 या कहें सत्तर के दशक भारतिय राजनीति का धधकता समय था, नक्सल किसान उभार और महाराष्ट्र में दलित पैंथर का उभार, सहज आक्रोश जो इंकलाबी लाइन को मजबूत कर रहा था।

         


           इस समय काल की जो विशेषता मुझे नजर पारस अरोड़ा की कविताओं में आई- वो उनके समकालीनों से उन्हें ज्यादा परिवक्व, प्रतिबद्ध और निडर बनाती है। सत्तर के दशक में   लिखना राजनीतिक कारणों से जोखिम भरा था। यहां पारस अरोड़ा मुझे एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी कवि के रूप में साहित्यि मोर्चे पर सतर्क खड़े नजर आते हैं। दरअसल एक ही विधा और अलग अलग वैचारिक स्थिति (अंतर्द्वंद्व का बहुत महीन मगर सघन स्तर, कालांतर में कविता की आत्मा बन  जाता है) सतही नहीं, गंभीर भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य की राह और साहित्यिक रूपों व धुनों का प्रयोग भी उसी जरूरत के अनुसार होता है। द्वंद्व को ठीक से निदानात्मक प्रयोग से सहज इस वैज्ञानिक तरीके के साथ, पारस अरोड़ा ही कर सकते हैं। इसके अलावा उनकी कविताओं का लोकरजंकीय स्वर भी  सघन और ठहरे भाव अधीन उन्नत रूप में आता है। बानगी :-

 

आव मरवण, आव !

एकर फेरूं

सगळी रामत

पाछी रमल्यां ।

एकर फेरूं चौपड़-पासा

लाय बिछावां ।

ओळूं री ढिगळी नै कुचरां

रमां रमत रमता ई जावां

नीं तूं हारै, नीं म्हैं हारूं

आज बगत नै हार बतावां

आव,

मरवण एकर फेरूं आव !

सामौसाम बैठजा म्हारै

बोल सारियां किसै रंग री

तूं लेवैला,

पैली पासा कुण फैंकेला ?

 

आ चौपड़, ऐ पासा कोडियां

जमा गोटियां पैंक कोडियां

पौ बारा पच्चीस लगावां

म्हैं मारूं थारी सारी नै

म्हारी गोट छोडजै मत ना

तोड़ करां अर तोड़ करावां

चीरै-चीरै भेळै बैठां

मैदानां में फोड़ करावां

होड जतावां

कोडी अर गोटी रै बिच्चै

हाथ हथेळी आंगळियां

जादू उपजावां

ऐसौ खेल खेलता जावां

दोनूं जीतां, दोनूं हारां

काढ़ वावड़ी खेल बधावां ।

एकर मरवरण आवै


        दरअसल पारस अरोड़ा की सबसे बड़ी खासियत विचारधारा और लोकधर्मिता को एक साथ रखकर द्वंद्वात्मकता का सटीक प्रयोग करना। यथा :-

 

लावौ दौ माचिस

चूल्हो सिळगायलां

दोय टिक्कड़ पोयलां

अेक थे खाइजौ/अेक म्हैं खांवूला

पछै आपां सावळ सोचांला

कै अबै आपांनै

कांई, कीकर करणौ है।

 

म्है करूंला अर आप देखौला

तूळी रौ उपयोग फालतू नीं व्हैला

दोय कप चाय बणायर पीलां

पछै सोचां

कै कांई व्हेणौ चाइजै

समस्यावां रौ समाधान

माचीस सूं इण बगत इत्तौ इज काम।

 

   पारस की इस  लौकिक मगर आत्मसंवादात्मक कविता के बीच 'रूपवादी आत्मीय नकार को , वैज्ञानिक दीठ से रखा गया है । दरअसल प्रतिबद्धता का ही यह एक लैकिक रूप है। आप एक सजग पाठक हैं तो राजस्थानी काव्यलोचको की गलत स्थापनाओं को चुनोती देते हुए, वैचारिक और पॉलिटिकल लाइन के अनुरूप तर्क सहित जवाब देंगे... आप अगर बेहतर पाठक हैं, अध्ययन शील और लॉजिकल व्यक्तित्व हैं तो आप पाएंगे कि 'राजस्थानी- एक' की सभी रचनाओं और रचनाकारों की व्यंग्योक्तियों में पारस अरोड़ा की पॉलिटिकल वैचारिकी ज्यादा मुखर और सांइटिफिक है क्योंकि उन्होंने लोक को या लोक की आत्मा को चालू त्तरीक़ों से नहीं बल्कि सैद्धांतिकी के अनुरूप स्पर्श किया है। यहां पंजाबी नक्सल लहर के समानांतर ही प्रतिरोधी कविता संस्कृति पैदा हुई थी- दरअसल हम लोग भाषा, कविता और अन्याय के विरुद्ध इतने ज्यादा भावुक हैं कि बस जो लिखा है एक अवसादग्रस्त से छौह में पढ़- पढा जाते हैं। दरअसल यह भी एक वैज्ञानिक फैक्ट है कि लोक चेतना व क्रांतिकारी चेतना का स्वर  एकमएक हो जाना बुरा नहीं बल्कि फायदेमंद है- क्योंकि इससे साहित्य का सबसे ऊंचा और पवित्र उद्देश्य जो 'राजनीतिक रेखा को मजबूत करना है, आसानी से हासिल कर लिया जाता है। हालांकि यह बहुत साफ और महत्वपूर्ण तथ्य है लेकिन राजस्थानी आलोचक जो प्रगतिशीलता का आवरण तक ओढ़े रखते हैं मगर अपनी सामंती सोच को भी छिपाए रखते हैं :- इस तथ्य को आज तक छिपा कर किसलिए रखा है कि सन 1966 से 1978 तक- राजस्थानी कविता का युवा स्वर इस तरह मुक्ति और पॉलिटिकल सही लाइन के लिए हडबडा, गुस्सा और आक्रोश क्यो व्यक्त कर रहे थे :-  किस लिए अचानक ही रेवंतदान चारण और मनुज देपावत की क्रांतिकारी कविताओं की पंक्तियां मुखरित होकर जनकराज पारीक की कविता - "देखो, बे बादळ उडता जावै।"- कविता में विस्फोट की तरह आता है तो फिर बीच मे राजस्थानीं- एक के सभी पांचों कवि कविता का स्वर ही बदल कर बम के धमाकों की तरह करते हैं । जबकि यही स्थितियां उस समय के समकालीन पंजाबी और बंगाली और कुछ कुछ हिंदी में भी थी। और इसी बहाव में बेहतर पंजाबी के महान नक्सलवादी कवि संत राम उदासी काव्य के बारे आक्रोश क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश ने  लिखा है कि "संत राम उदासी को पहली बार जब गाते हुए सुना तो लोक कला के बारे में मेरे तमाम भ्रम दूर हो गए। संगीत, महेनतकशों की जिंदगी के दर्द और रोह का ऐसा शानदार सुमेल शायद ही पंजाबी के किसी और कवि में हो। जनता की दुश्मन सरकार ने राजस्थान में इस बात को शायद पहले ही भांप लिया था। और आपातकाल के समय सबकुछ दबदबा गया। इससे बड़ी बात यह थी कि पारस अरोड़ा की कविता का शांत मगर विस्फोटक प्रतिरोध जो निस्वार्थ जनपक्षधरता का बेहतरीन परिणाम है- मार्क्सवादी भावना के कारण अन्य कवियों की तरह बहुत सारी कचरा कला पर पारस ध्यान ना देकर- द्वंद्वात्मक दीठ, मतलब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की नींव बड़े उज्ज्वल तरीके के साथ मजबूत करते हैं। वे एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी की तरह या कहें उसी वैज्ञानिक तरीके के अनुरूप आलोचना से ज्यादा आतमलोचना में भरोसा करते हैं, बल्कि वह अपनी रचनाओं को सीधे लीक लिखा कर पन्ने खराब करने के बजाए द्वंद्ववादी सिद्धांत की कसौटी पर खारिज और स्वीकार करते हैं। हालांकि यह पद्धति राजस्थानी में पारस के बाद सिर्फ रामस्वरूप किसान की कविता में नजर आती है। यही कारण है कि उन्हें बहुत बार सामंतवादी आलोचकों संपादको और बिज्जी आदि के टटपूंजिया साहित्यिक माफियाओं का सामना हर बार करना पड़ा था। जबकि राजस्थान में ज्यादातर उसका उलट हो रहा था- सामंतशाही बीमार सोच में जहां पारस और उनके साथियों  की कविता- गीत अनपढ़ ग्रामीण जनता को प्रभावित करते हैं वहीं पढ़े-लिखे शहरी लोगों पर भी उनकी कविताओं की सादगी, और आक्रोश की आवाज के संगीत की को पचा लेने की इच्छाएं इस कदर और शब्दों का जादू छाया कि दशक के अंत तक मे जन जन के कवि रूप में स्थापित भी हुए, अकादमिक कपट को दत्त बताकर। समकालीन युवाओं  को उस से सीखना चाहिए और प्रेरणा लेनी चाहिए।

 

 

ऐसा क्यों है अब

क्यों कुछ पहले जैसा नहीं

कहां है वह

जो रहता था यहां

हर तरफ मौन क्यों फैला है ?

 

           पारस अरोड़ा की कविताओं का सफर सामंतवाद के खात्मे की प्रबल इच्छा से शुरू हुआ जो पूंजीवाद ( सामंतवाद को खत्म करके पूंजीवाद खड़ा हुआ।) यह अब जो दौर चल रहा है, सबसे खतरनाक है। राज सत्ता भयानक कपटी और अपराधियों की शरणस्थली बन चुकी है। अन्याय, शोषण, असमानता चरम पर है। यह अकारण नहीं है कि  फ़ासिस्ट सरकार ने गुंडों को खुलेआम  मजदूर या जो भी प्रतिरोध कर रहा है-- हमला करवाया जाता है। इस घोर फ़ासीवादी अपसंस्कृतिक समय में हर वो चीज खतरे में है जो जीवन की बात करते हैं। इस अपसंस्कृतिक समय मे अब हमें शिद्दत से याद आ रहे हैं आदरणीय पारस  अरोड़ा।

 

 

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