28 फ़रवरी, 2025

अशोक कुमार की कविताऍं


वो एक शहर


हमारे लिए यही एक शहर

हमारे सपनों का शहर था।


जहां पहुंचने के लिए

रावी के ऊपर झूलता हुआ एक पुराना पुल था

और मुहाने पर ’गांधी गेट’

जिसे हम दिल्ली दरवाजा कहते थे

बड़े शहर के नाम पर बड़ा दरवाजा।


इसी दरवाजे से होकर

हमारे भीतर खुलनी थी

छोटी–छोटी खिड़कियां।


हम छोटे–छोटे गांव के बच्चे

छोटे–छोटे सपनों के साथ

अपने छोटे–छोटे हाथों से

इस बड़े से दरवाजे पर दस्तक देने आए थे।


कमाल का शहर था यह

अपनी सरंचना में कस्बा

और चरित्र में महानगरीय ठसक लिए हुए।


सामंती सीढ़ियों से उतरता हुआ यह पुरातन शहर

लोकतंत्र की संकरी सड़क पर

तब रेंगना सीख रहा था।

इसलिए!!

न तो हमारे आने पर यह खुश हुआ

और न ही हमारी उपस्थिति से उदास।


हमनें भी चप्पलों की धूल को–

इसके दरवाजे के बाहर झाड़ा

हरिराय मंदिर पर सिर झुकाया

चौक से गोल–गोल घूमते हुए

उम्मीदों की सीढ़ियों पर दौड़ लगा दी।


किंतु अच्छी बात यह थी कि

राजसी खंडहर अब उच्च शिक्षा का केंद्र था

(हमारा कॉलेज पुराने महल में था)

जिसके झरोखों से झांककर

हम अपने जंगलों की खूबसूरती को निहार सकते थे।


हमारी जेबों में सिर्फ कल्पनाएं थी

और बस्तों में केवल उम्मीदें।


जंगल से शहर के बीच की दूरी

सभ्यता भर की लम्बी दूरी थी

और नींद के लिए वक्त और भी कम।

इसलिए हम चौगान की हरी दूब पर लेटकर ही

कुछ देर सुस्ताता लेते थे।


कभी–कभी अपनी पुरातनता में यह शहर

गंधा जाता था जगह–जगह

और हम अपनी खीज और इस गंध को

कैफे रावी व्यू वाली सड़क पर–

धुएं के छल्लों में उड़ा देते थे।

सारे अवरोधों के बावजूद

इस शहर ने इतना चेतस तो किया ही

कि हमने दीवारों पर नाम नहीं नारे लिखे।

कि हम इसके कानों में चीखकर कह सके

"इंकलाब जिंदाबाद"

तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद

कुछ लोग तो ऐसे मिले ही

कि जिनसे हम कह सकते थे अपनी तकलीफें

बांट सकते थे अपने दुःख।

इस शहर ने इतनी तो छूट दी ही

कि जब–जब भी वापिस लौटे

इसे अपना कहा।

०००












सर्दियां


धुन्ध में लिपटी दिल्ली में सर्दियां वैसी नहीं होती।

कि दादीयां जंगली कांटों से छेद दे पोतियों के कान

यह कहकर—

कि सर्दियों में जल्दी भरते हैं घाव।

या भेड़ों की ऊन के मोटे मोजे पहनकर

पिताओं के जूते में पांव डाल

गिरते–पड़ते पकड़म–पकड़ाई खेलने निकल जाएं बच्चे।

या किसी दोपहर अचानक—

आसमान से उतरने लगे रूई

और हम, उसे अपनी हथेलियों में थामने लग जाएं।

या एक सुबह उठो—

और बाहर सबकुछ सफेद चादर से ढका हुआ मिले

छत–आंगन–खेत–पगडंडियां सब।

या आधी रात के वक्त-

जमकर उल्टी सुइयों सी लटक जाए ओस।

या लोहड़ी पर खिचड़ी के साथ

एक अतिरिक्त चम्मच देसी घी मांग लें मेहमान।

या बसोली के बुजरु सफेद साफा पहनकर

श्रवणकुमार की कथा गाते हुए

दान में मांग लें थोड़ी सी और माश की दाल।

या ठंड में नया ठिकाना तलाशते हुए

भीतर तक आ जाए

फुदकती हुई पहाड़ी गौरैया।

सोचता हूं कि दिल्ली से इतना भी दूर नहीं हैं गांव

किंतु मेरा गांव कहता है—

कि अभी भी! वहां से बहुत...दूर है दिल्ली।


(बुजरु: जम्मू के बसोली के पंडित हैं जो माघ में गाकर घर–घर अनाज मांगते हैं)

०००


बड़े दिनों के बाद


बहुत दिनों बाद पंहुचा हूँ गांव

मां से चाबियां लेकर

जल्दी-जल्दी सीढ़िया उतरते हुए

जल्द से जल्द पहुंचना चाहता हूँ अपने कमरे में।


कई दिनों से बंद पड़ा है यह कमरा

बिस्तर पर कोई सलवट नहीं है

कहीं-कहीं कोनों में जम गए हैं मकड़ी के जाले

कुर्सी पर पड़ा तौलिया

कुछ अकड़ सा गया है। 


एक चप्पल पलंग के पास पड़ी है

वो उस दूसरी का पता बता रही है

जो पलंग के नीचे खिसक गई थी पिछली बार।


पर्दों के पीछे से आ रही सूरज की रेशमी लौ में

कुछ ज्यादा ही उजली दिख रही है

कोने की अलमारी के खुले छूट गए दरवाजे से झांकती हुई

मेरी एक पुरानी कमीज। 


आधा खुला हुआ है किताबों की शेल्फ का कांच

जिसमें करीने से खड़ी हैं कुछ किताबें

बाहरवीं की फिसिक्स

ग्रैजुएशन की इंटीग्रल एंड डिफरेंशियल कैलकुलस

उसके बगल में सेकंड ईयर की ऑर्गेनिक केमिस्ट्री। 


कुछ एक के ऊपर एक रखीं हैं

सबसे नीचे बीएड की फिलॉसफी ऑफ एडुकेशन

साइकोलॉजी और इक्का दुक्का सिलेबस की ही कुछ और।


और इन सबके ऊपर रखीं हैं

मैक्सिम गोर्की की दो किताबें "मां" और "जीवन की राहों पर"। 


मैं एक-एक करके सबके पन्ने पलट रहा हूँ

कहीं- कहीं कुछ लैंडलाईन नम्बर लिखे हैं

कहीं-कहीं किसी के सिग्नेचर हैं


कहीं कुछ पंक्तियाँ लिखी हुई हैं जिन्हें हम “कालेज वाली शायरी’ कहते थे। 

मैं पहली बार साइंस की किताबों में

पढ़ रहा हूं कहानियां

सच्ची कहानियां

जो गुदगुदाती हैं, कुछ कुरेदती हैं

सवाल पूछती हैं, जबाव देती हैं। 


कितने ही दृश्य उभर आये हैं अचानक।

मैं एक के बाद एक कई लैंडलाईन नम्बरों पर

अपने मोबाइल से कॉल लगाता हूँ

दूसरी तरफ से हर बार सुनाई देता है -

“द नम्बर यू हैव डाईल्ड डज़ नॉट एग्जिस्ट”

मैं किताबों को जल्दी-जल्दी पलटता हूँ

मैं देखा रहा हूँ


कि 'जीवन की राहों पर' को छोड़कर

सभी किताबों के पन्नों को छान चुकीं हैं सिल्वर फिश। 


मैं हैरान हूँ कि इन्हें कैसे पता

कि यह किताब मैंने अभी तक नहीं पढ़ी

मैंने उसे इस उम्मीद के साथ अपने बैग में रख लिया है–

कि अबके इसे पढूंगा जरुर। 

यादों का एक ट्रैफिकजैम सा महसूस कर रहा हूँ

मैं कुछ देर इसमें फंसा रहना चाहता हूँ। 


मैं सोफे पर बैठा हुआ

टेबल की तरफ देख रहा हूँ

टेबल पर धूल की एक महीन परत जमी गई है


मैं उस परत पर अपनी ऊँगली से

लकीरें बना बनाता हूँ फिर मिटा देता हूं।

अब मोबाइल पर “बीते हुए लम्हों की कसक”

गाना सुनते हुए आंखे बंद करके लेट गया हूँ।

०००


कौन कहे ?

इस अभागे समय से कौन कहे ?

कि ज़रा  ठहर जा !

कि ज़रा धीमे चल !

या फिर बीत जा।

कि रूठ चुकी ऋतुओं के देस में

प्रतीक्षाएँ भी;

अपना धैर्य खो देतीं हैं।


कौन कहे ?

कि अनाम इच्छाओं की मृत्यु पर

शोक में है पिछली सदी।

कि अपने ही अलाप में;

खो रहा है समय का सबसे खूबसूरत राग।


कौन कहे ?

कि पाप और पुण्य के गणित में

बिसर गए हैं दुःखों की गणना के सारे नियम।

०००


विकल्प


जब सारे विषय चुक जाते हैं

मैं तुम्हारे पास लौट आता हूं।


मैं लौटता हूं—

अपनी असफलताओं के साथ।

चुप्पियों के शिल्प में

शब्दहीन कविताएं लेकर।

मैं लौटता हूं—

जंगली भाषा के व्याकरण में

सभ्य न हो पाने के भय से मुक्त होकर।


मैं लौटता हूं—

अपनी कही हुई बातों को

फिर–फिर दोहराने की स्वतंत्रता लेकर।

कवियों के पास होना ही चाहिए एक विकल्प

कि वो कहीं तो लौट सके

असफल हो जाने के बाद।



दिनचर्या

०००


दृश्य एक


भीड़ भरे चौराहों के इस शहर में

यह सामान्य से थोड़ा कम व्यस्त चौराहा है।

कैब के इंतजार में–


सीवर पाइप के जिस टुकड़े पर वह उकड़ूँ बैठा है

उसे काम खत्म होने के बाद

ठेकेदार उठाना भूल गए हैं।



सामने फुटपाथ पर–

अपनी उम्र से थोड़ी ज्यादा बूढ़ी देह में

एक अधेड़, अपनी पत्नी

जिसकी उम्र उसकी चिढ़ से काफी कम है;

के साथ रहते हुए

बीड़ी सिगरेट बेचता है बरसों से।


उनकी एक बेटी है

जो मोबाइल पर रील्स स्क्रॉल करते हुए

अपनी आंखें गोल-गोल घुमाती है।



उसकी आदमी की नज़र

उसकी गोल-गोल घूमती आंखों पर है

और उसकी मां की उस पर।


जीन-टॉप पहने एक खूबसूरत लड़की

अभी–अभी गली से निकलकर

सड़क पर आ गयी है अचानक।


अब उसकी नज़रें;

गोल-गोल आंखे घुमाने वाली उस लड़की से हटकर

जीन–टॉप वाली इस लड़की की–

जीन और टॉप के बीच बची जगह पर ठहर गईं हैं।


जीन-टॉप वाली यह लड़की

पनवाड़ी के पास पहुंची है।

मोबाइल स्कैनर से क्यू–आर कोड स्कैन करते हुए

उसने एक सिगरेट मांगी है।


अब आसपास की बाकी नजरें भी

टिक गईं हैं उसी पर आकर।

वह अपनी अंगुलियों सी ही सफेद

और पतली सिगरेट को;

अंगुलियों के बीच फंसाती है

और सुतली से लटके लाइटर को खींचकर

दाहिने हाथ के अंगूठे से टिक-टिक-टिक करके

जल्दी से उसे सुलगा लेती है।



फिर एक लम्बा कश लेते हुए

इस बेफिक्री से धुआं छोड़ती है

कि मानों घूरती हुई तमाम आंखों में

उसे झोंक देना चाहती हो।


उस आदमी और उस पनवाड़ी के बीच

एक टूटा हुआ फुटपाथ है

जिसपर जमी है पिछली बरसात की काई

जो रात के पाले से नम हो गई है।


फिसलन से बचते–बचाते वह आदमी

पूरी सावधानी से चलते हुए भी

फिसल गया है उस काई पर।

मुँह बचाने की कोशिश में 

उसके हाथ धंस गए हैं कीचड़ में

और विज्ञापन वाले महंगे पान मसाले की पीक के छींटे

जा गिरे हैं स्वच्छ भारत के पोस्टर पर।


वह हिचकिचाया सा उठता है

और उस औरत के पास जाकर कहता है कि–

"मेरे हाथ पर थोड़ा पानी डाल दो ताकि धो सकूं यह कीचड़"

और वह कहती है कि-

"क्या सिर्फ धोने से धुल जाएगा यह कीचड़?

०००









दृश्य दो


कीचड़ साफ कर लेने के बाद

होर्नों की चिल्ल–पौं के साथ–

कदमताल करते हुए

वह पैदल ही चल पड़ा है अपने काम पर।

फुटपाथों पर लगे ठेलों

छज्जों, खोखों

और बेतरतीब खड़ी मोटरसाइकलों को देखते हुए


वह यह सोच रहा है कि–

पैदल चलने के लिए कितनी कम रह गई है ज़मीन।

एक तेज रफ्तार कार 

ट्रेफिक के नियमों को फलांगती हुई

उल्टी दिशा से चलकर

उसके सामने आ गई है अचानक।


किसी अनहोनी के;

घट जाने की संभावना से बच जाने के बाद

अब वह यह सोच रहा है

कि पैदल चलने से बड़ा जोखिम–

इस शहर में और क्या हो सकता है ?

०००


दृश्य तीन



कई बार कैब के कैंसल हो जाने से हताश

अब वह जहाँ पहुंचा है

वहां बैटरी रिक्शे वाले

सवारियों के इतंजार में बीड़ी फूंकते हैं। 



वे आने-जाने वाले को

इंसानों की तरह नहीं;

सवारी की तरह देखते हैं।


सवारी न मिलने पर बढ़ी निराशा

उनके माथों पर लकीरों

और होठों पर;


एक भयंकर गाली के रूप में उभर आती है।

वे बीड़ी के कश को बार–बार

पूरी ताकत के साथ फेफड़ों तक खींच कर

इस निरंतर नैराश्य को

घोंट डालने की नाकाम कोशिश करते हैं।


वह उनसे पूछना चाहता है

कि वे कोई दूसरा काम क्यों नहीं कर लेते?

किन्तु वह ऐसा नहीं पूछता


वह डरता है कि–

यदि उन्होंने मुड़कर पूछ लिया-

"कि क्या तुम अपने काम पर बीड़ी पीते हुए

ईश्वर और सरकार को एक साथ कोस सकते हो?"

तो वह क्या जबाब देगा ?

०००


दृश्य चार



एक ही काम की ऊब को ढोता हुआ

सुबह से शाम के इंतज़ार में


लगातार खर्च होता हुआ

वह आखिर में थककर घर पंहुचा

पत्नी से चाय मांगी और नहाने चला गया।


चाय बनाती हुई उसकी पत्नी यह सोच रही है

कि उम्रभर की खीज और घुटन को;

यदि इस तेज़ आंच पर


देर तक उबालने का मौका मिले

तो शायद उसका रंग भी ऐसा ही गाढ़ा बने

काले और धूसर के बीच का कुछ।


छलनी से चाय छानते हुए उसने सोचा

कि इस छलनी से कड़वी पत्ती को

मीठी चाय में से निकालना कितना आसान होता है।


काश! दुनिया में बहुत से काम

इतने ही आसान होते।


इतना सोचते हुए उसने

चाय का कप किचन की शेल्फ पर रखा

पति को आवाज़ लगाई


एक पुराना थैला निकाला

थोड़ी देर उसमें झांककर–

उसके खालीपन को गौर से देखा

और फिर उसे कांख में खोंसकर बाहर चली गयी।

दिन भर की कुढ़न को;

खुरचकर निकालने में

उस आदमी को थोड़ा ज्यादा वक्त लगा।



बेडरूम से किचन तक की

सभ्यताभर की दूरी तय करके जब वह वहां पंहुचा

तो तेज़ आंच पर उबली वो चाय

अब ठंडी हो चुकी थी।



उसने चाय गर्म नहीं की

उसने अपनी पत्नी का इंतजार किया

और सबसे आखिर में

दिनभर की खट–खट को अपनी वासना में घोलकर

उसकी देह पर पटक दिया।

०००



परिचय 

मूलतः : जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश

वर्तमान पता: म.न.-17, पाकेट-5, रोहिणी सेक्टर-21 दिल्ली-110086

सम्प्रति: दिल्ली के सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक के पद कार्यरत

प्रकाशित संग्रह: “मेरे पास तुम हो” बोधि प्रकाशन से, हिमतरू प्रकाशन हि०प्र० के साँझा संकलन “हाशिये वाली जगह” में कविताएँ प्रकाशित.

पत्रिकाओं में प्रकाशन: युवासृजन, प्रेरणाअंशु, नवचेतना, छत्तीसगढ़ मित्र, कथाबिम्ब, हंस, वागर्थ, कृति बहुमत, ककसाड़, विपाशा, आजकल, अग्रिमान, किस्सा कोताह, मधुमति  में कवितायेँ प्रकाशित।

ऑनलाइन प्रकाशन: हस्ताक्षर, साहित्यकुंज, समकालीन जनमत, अविसद और पोशम्पा, जर्नल इंद्रधनुष सहित्यिकी डॉट कॉम, अनुनाद, समतामार्ग, हिंदवी, जानकी पुल  तथा सदनीरा पर कवितायेँ प्रकाशित.

संपर्क: 9015538006

ईमेल :akgautama2@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. अशोक की कविताएं उनके परिवेश को पूरी ईमानदारी से सामने लाकर खड़ा कर देती हैं।

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