27 अप्रैल, 2025

रीता दास राम की कविताऍं


एक

सर्वसामान्य 

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ठगे से रह गए 

इच्छाओं का इंतजार बना रहा  


समय आया चलता चला गया 

कुछ भी किसी का ना हुआ न हो सका 


रणनीति की नीति दोहरी तिहरी कटीली मात 

राजनीति की मार कडक अमीरी साजिश के साथ 


किसने सोचा 

किसका गया 

सर्वसामान्य पिसता रहा 


लड़े मरे मारे चाहे जो करे 

सर्वसामान्य के हक का हक भी गलता रहा 


जनता क्या जाने मस्तानी चाल,

हाल, बिसात, रंगीली ढाल 


जमीन में गढ़े जख्मी राज 

छुपे सरताज, अपनी शक्ति, अपनी चौखट 

अपनी मिल्कियत को तरसते आज 


जनता जहाँ थी रही वहीं 

नेतृत्व आता जाता रहा 

नोटों की गिनती चलती रही 

वोटों का राज चलता रहा  










दो

भेदभाव 

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भेदभाव ने 

नहीं छोड़ी कोई जगह 

सभी ओर अपने पैर पसारे 

अपना क़ब्ज़ा किया 


भेदभाव ने बटवारे किए 

आपस में लडाया 

कूटनीति पैदा की 

भाई को भाई से अलग किया 


समाज में लकीर खींची 

देशों का बटवारा किया 


बड़ी बड़ी संस्थाएँ बनी 

बटने के तरीके ने बकायदा

इस्तेमाल करना सीखा और सीखाया 

 

सांचे की ढलवाई से 

उत्कृष्ट बनाया और गढाया गया 


भेदभाव भी 

साफ साफ स्पष्ट दिखाई देने ज़रूरी लगे 


भेदभाव विश्वरचना की नियति रही 

मानवता 

समता 

समानता 

अपना रास्ता देखती रही 


तीन 

नग्नता 

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नग्न होने के तरीके और उसका इस्तेमाल 

शान की बात समझी जाती है 


आदिम युग में 

मानव का नग्न होना 

अज्ञानता दर्शाता है


नंगापन आज वीरता का द्योतक है 


यूँ तो हमाम में सभी नंगे हैं 

सभी जानते हैं 


फिर भी नग्नता का दर्शन/प्रदर्शन 

जैसे उच्चतम पराकाष्ठा 


नग्न होने के अर्थ बदलते हैं जब जब 

नई दुनिया परिलक्षित होती है 


शारीरिक और मानसिक नग्नता के मायने 

अलग ही समझ आते है 


वैचारिक नंगापन यानी निकृष्ट सोच का 

धड़ल्ले से होता प्रयोग चौंकाता है 

भोतर राजनीति उच्चतम प्रमाण है 


नग्नता की रेस जारी है 


बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते लोग 

अपने समय के विकृत अंदाज की माकूल अभिव्यक्ति है 


चार

अपनी रफ्तार 

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व्यस्तताओं की 

अलग अपनी रफ्तार थी 


बहस चर्चा गोष्ठियों के दौरान 

पेट की भूख का उदास चेहरा 

नाराजगी की फेहरिस्त पेश करता 


विचारों की अभिव्यक्ति अपनी स्वतंत्र अपेक्षाओं के परे 

सघन वैचारिकता की कवायद तय करती 


आने और जाने वाले 

रह रह कर गुजरते समय के 

बीते जाने का एहसास कराते 


व्यस्तताएं, 

वार्तालाप के दौर, 

दृष्टि, 

समय, 

के बाद खुद का सिकुड़ना 

खिलना और 

उग आना, याद आता रहा 


समय का सच उधडता रहा 

अपनी रफ्तार में जुटे बँधे 

आत्म को जोड़ते 

भीतरी कड़वाहट को सच्चाई के साथ पाटने की कोशिश करते रहे। 













पाॅंच

बाँटना 

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राज की चाहत और नीति की नैतिकता ने 

बाँट दिया लोग को 

विचारों को 

संबंधों को 


बटते और बाँटते 

रहने की कवायद ने  

अपने फायदे देखे 

नुकसान की परवाह नहीं की 


बाँटने के भाव ने 

नफरत के बीज बोए 

अपमान और हिंसा 

हाथ की कठपुतली बनती चली गई 


दंगे फसाद ने नए अलगाव को परिभाषित किया 

भाईचारे, आत्मीयता, अपनेपन ने दम तोडा 

नफरत ने बाँटने की होली खेली 

इस तरह राज करना मुनासिब हुआ 


समझ ने अपनी जुगत में 

समाज, देश, विदेश को तुलनात्मक दृष्टि से देखा 


खंगालते विचारों के बावजूद 

जोडना जुड़ना जोडने की चाहत ने 

इंतजार का सालो साल साथ दिया 


धर्म जाति ईश्वर में लोगों ने 

सुविधानुसार बटना स्वीकारा 


राज और सत्ता की मनमानी चलती रही 

जिस में किसी का हित न सधा 


छः 

गिरना-गिराना 

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कुछ गिरने की हद है 

कुछ गिराने की 


गिरते हुए लोग 

अपने साथ साथ 

लोगों को गिराने में लगे हैं 


गिरना सुविधानुसार 

कभी जरूरी हो जाता है 

कभी मजबूरी 


गिरते हुओं को उठाना 

मुश्किल है खासकर तब 

जब गिरना उनके फायदे के लिए हो 


गिरने के फायदे और नुकसान 

का तुलनात्मक अध्ययन 

बड़ी पैनी परख है  


समय की नब्ज 

फायदे और नुकसान का भाव तौल 

अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देती है  


बोलना तभी मुमकिन है 

जब बात फायदे की हो 


नुकसान झेलने से तो बेहतर है 

चुप रह जाना 


वरना घुन की तरह पिस जाना 

किसे अच्छा लगता है


सात

कविता 

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कविता में 

नहीं बची कविता 


सिर्फ भाव और संवेदना से अटी पडी धुंध 

सहेजती पंक्तियों को 

कविता कहा जा रहा 


कविता से समाज गुम है

लोग गुम है

लोगों की चिंता गुम है


चमत्कार की पूजा सी है बस 

मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ 

कला को तय कर रहे हैं 


कला गूंगी हो चुकी है 


कला की समझ रखते लोगों ने 

सुनना बंद कर दिया है 


सच देखने की शक्ति 

कुछ नहीं, बचे होने का प्रमाण है 


भेड़चाल में सभी उमड पड़े बिखर रहे हैं 


न समझ है 

ना समझा जा रहा है 

कहना कुछ था 

कहा कुछ और ही जा रहा है 


एक वाहवाही की तूती जैसी गूँज सुनाई दे रही है 

जिसने सभी की अवाजें निगल ली है 


कहने वाला .... कहन के अर्थ से अंजान है 

यह ऐसा समय है... जो अपने समय से अंजान है 


आठ

एक शाम 

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एक बीच पर बितानी है लंबी शाम जिसमें ना हों कोई ऐसी शाम जिसका कोई मतलब न हो  


लौटती लहरें हों पूछती हुईं प्रश्न जिसके उत्तर की ललक बनी रहे 

जाती हुई शाम हो भरी भरी दिन के लिए प्रतीक्षित 


तुम में तुम ना हो हो जो तुम सा लगे 

रहो तुम ही लेकिन तुम से थोड़ा बहुत अलग अलग 


हो प्यास बरकरार जिसमें जीने की आरजू हो बसी 

कहता सुनता चमकता सा हो आँखों में कौतुहल सधा बधा   


रोशनी रोशनी सी हो 

बगैर अंधेरे के भी पहचानी जाय 


एक शाम सागर किनारे ख़ामोशियों की उठे गूँज 


ना कुछ कहते तुम सुनो 

ना कुछ कहते सुने गुने हम 


रहस्य खुलते रहे रह रह के

मिलते रहे मन गह गह के 

ना तुम में सधे बचे तुम रहो 

ना मुझ में बची पड़ी रहूँ मैं 

एक बीच पर बितानी है लंबी शाम जिसमें .... 

०००

परिचय 

डॉ. रीता दास राम (कवयित्री / लेखिका),1968 नागपूर में जन्म, वर्तमान आवास मुंबई, महाराष्ट्र में। एम.ए., एम फिल, पी.एच.डी. (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई। 

पता : 2602, टॉवर 8, मैगनोलिया, रुणवाल फोरेस्टस, कांजूर मार्ग पश्चिम, मुंबई - 400074. मो नं : 9619209272. 

मेल : reeta.r.ram@gmail.com               

प्रकाशित पुस्तकें – 

* कविता संग्रह: 1 “तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली). 

             2 “गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्दयुग्म प्रकाशन,दिल्ली) 

* कहानी संग्रह - “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 

* उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 

* आलोचना - “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली) 

* आलोचना - आलोचना और वैचारिक दृष्टि 2024 (अनंग प्रकाशन दिल्ली) 

* संयुक्त संपादन : “टूटती खामोशियाँ” 2023 (त्रिभाषीय काव्य संकलन) विद्यापीठ प्रकाशन, मुंबई विश्वविद्यालय के पत्रिका की पुस्तक। 

* संपादन – “कविता में स्त्री : समकालीन पुरुष कवि” (2024) आपस प्रकाशन अयोध्या से प्रकाशित।   

* संपादन - “हमारी अम्मा : स्मृति में माँ” - भाग 1 और भाग 2 (2025) पुस्तकनामा दिल्ली से प्रकाशित। 


कविता, कहानी, लघु कथा, संस्मरण, स्तंभ लेखन, साक्षात्कार, लेख, प्रपत्र, आदि विधाओं में लेखन द्वारा साहित्यिक योगदान। 

* उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” पर लघु शोध प्रबंध सम्पन्न। 

हंस, नया ज्ञानोदय, शुक्रवार, दस्तावेज़, पाखी, नवनीत, वागर्थ, चिंतनदिशा, आजकल, लमही, कथा, उत्तरप्रदेश, छत्तीसगढ मित्र के अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, साझा काव्य संकलनों, वेब-पत्रिका, ई-मैगज़ीन, ब्लॉग, पोर्टल, में कविताएँ, कहानी, साक्षात्कार, लेख प्रकाशित। काव्यपाठ, प्रपत्र वाचन, संचालन द्वारा मंचीय सहभागिता। 

सम्मान – 

* काव्य संग्रह ‘तृष्णा’ को ‘शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान’ 2013, 

* ‘अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ 2016, 

* काव्य सग्रह ‘गीली मिट्टी के रुपाकार’ को ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017, 

* ‘शब्द मधुकर सम्मान' 2018, दतिया, मध्यप्रदेश, 

* साहित्य के लिए ‘आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र राष्ट्रीय सम्मान’ 2019, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “शिक्षा भूषण सम्मान” 2022, 

* ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सेतु सम्मान” 2023 लंदन पार्लियामेंट में।

* उपन्यास ‘पच्चीकारियों के दरकते अक्स’ को ‘कादंबरी सम्मान’ 2024 जबलपुर से।  

4 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा कविताएँ। कम शब्दों में बहुत कुछ कहती .... समाज और राजनीति को आईना दिखाती कविताएँ। बधाई बहुत।

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  2. छोटी कविताएं... बड़ी बातें

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    1. हार्दिक आभार आपका बहुत बहुत धन्यवाद 🌹

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  3. हार्दिक आभार प्रशांत जी बहुत बहुत धन्यवाद 🌹

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