साक्षात्कार: मंगलेश डबराल
ताकत के तंत्र और कविता की विडम्बना
( मंगलेश डबराल से बातचीत )
शशिभूषण बड़ोनी: मंगलेश जी सर्वप्रथम आपको अभी कुछ दिन पहले मिले 'परिवार पुरस्कार' की हार्दिक बधाई। एक औपचारिक से प्रश्न से शुरुआत करूंगा - साहित्य आपके जीवन मे कैसे आया? कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई?
मंगलेश डबराल: धन्यवाद। ज़्यादातर लेखकों की तरह मेरे लिखने की शुरुआत भी काफी पहले बचपन में हुई थी क्योंकि घर में साहित्य आयुर्वेद संस्कृत का वातावरण था मेरे ज्योतिर्विद दादा ने गढ़वाली कहावतों का संग्रह किया था और पिता गढ़वाली में कविता लिखते, गाते और नाटकों का निर्देशन करते थे। बचपन में मुझे छंद, अलंकार, तत्सम, संस्कृतनिष्ठ शब्द आदि बहुत आकर्षित करते थे। कालिदास का 'मेघदूत' सस्वर पढ़ना अच्छा लगता था और जयशंकर प्रसाद का 'आंसू' कंठस्थ था। मैं उसे गुनगुनाता और आंसू बहाता था। दरअसल प्रसाद की कहानियों की आविष्ट भाषा से मैं चमत्कृत था। प्रसाद की एक कहानी 'आकाशदीप' मेरे स्कूली पाठ्यक्रम में लगी थी और मैंने उसकी नकल पर एक कहानी लिख डाली जिसमें उसकी नायिका का नाम चम्पा से बदल कर पद्मा कर दिया और बहुत से वाक्य भी हूबहू उतार लिये। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास 'चित्रलेखा' भी उन्हीं दिनों पढ़ लिया था जो प्रसाद की भाषा का ही एक और रूप लगता था। बाद में मैंने निराला और सुमित्रानदन पंत की रचनाओं और बच्चन की 'निशा निमंत्रण' को पढ़ा और फिर कुछ नवछायावादी किस्म की या गीतनुमा कविता लिखने लगा। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि मेरे बचपन में, एक ऐसे सुदूर गांव के घर में, जहाँ डाकिया कई मील पैदल चलकर डाक लाता था, ये सब किताबें मौजूद थीं। उत्तर प्रदेश से तब एक सरकारी पत्रिका 'त्रिपथगा' प्रकाशित होती थी जिसमें मैंने माखनलाल चतुर्वेदी के बहुत से गीत पढ़े। उसमें मैंने कई गीत भेजे लेकिन कोई छपा नहीं। मेरे पिता की साहित्यिक और सांगीतिक गतिविधि और यह सब साहित्य पढ़ने के नतीजे में मैं लिखने लगा। कुछ वर्ष बाद लीलाधर जगूड़ी से मुलाक़ात हुई जो उन दिनों आधुनिक युवा कवि के रूप में तेज़ी से उभर रहे थे और उनके माध्यम से मैं आधुनिक कविता के सम्पर्क में आया।
शशिभूषण बड़ोनी: आपके साहित्येतर संगीत प्रेम को हम जानते हैं । कुछ इसकी शुरुआत के बारे में भी बताएं ? किस तरह यह रूझान बढ़ा?
मंगलेश डबराल: संगीत की नक़ल करना एक बात है और संगीत जानना दूसरी बात। मुझे संगीत का बाकायदा ज्ञान नहीं है और यह मेरे जीवन के कुछ बड़े दुखों में से है। कई संगीतकारों का शास्त्रीय गायन और वादन ज़रूर सुना है, जिनमें से कुछ मुझे शिक्षा देने पर भी राज़ी हुए लेकिन अखबारों में काम करने की व्यस्तता के कारण मैं सीखने का वक़्त नहीं निकाल पाया। संगीत की मेरी जो भी ललक और समझ है वह मेरे पिता के कारण है। वे हारमोनियम बजाते और गाते थे। दुर्गा, सारंग, मालकौंस, पीलू, पहाड़ी जैसे कई राग और गढ़वाली और जौनसारी के बहुत से मार्मिक या श्रृंगारिक लोकगीत। वे वैद्य थे, कवि, गायक, अभिनेता, रंगकर्मी और मंच-सज्जाकार थे और एक विलक्षण प्रतिभा थे जो स्थानीय स्तर पर ही जीने के लिए बनी थी। उन्होंने एक बड़े लोकगायक और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गुणानंद पथिक से संगीत सीखा था। दुनिया से जाने से पहले संगीत सीखने की हसरत अब भी मेरे भीतर है। फिलहाल मेरे हिस्से में इतनी ही खुशी है कि मैं महान प्रतिभाओ के संगीत को पूरी विकलता के साथ सुन पाया और संगीत पर कुछ कविताएँ भी लिख सका।
शशिभूषण बड़ोनी: आप एक कवि व साहित्यकार के रूप में बहुत समादृत व्यक्तित्व हैं । आपका योगदान साहित्यक पत्रकारिता में बहुत है। किन्तु आज तो ज्यादातर पत्र-पत्रिकायें (व्यावसायिक) साहित्य को हाशिये पर धकेल रहे हैं। अखबारों में तो केवल जनसत्ता ही बचा है जो अभी भी पूरी तरह गम्भीर साहित्य हर रविवार दे रहा है। इस विडम्बना के बारे में कुछ बताएं ?
मंगलेश डबराल: हिंदी में अब कोई साहित्यिक पत्रकारिता नहीं रह गयी है। यह देखकर दुखद आश्चर्य होता है कि कितनी जल्दी हिंदी पत्रकारिता में ऐतिहासिक उलटफेर हो गये। हिंदी के अखबारों में न साहित्य के लिए जगह है न किताबों की चर्चा-समीक्षा के लिए और न किसी लेखक के लिए, सिर्फ जब किसी महत्वपूर्ण लेखक की मृत्यु हो जाती है या उसे कोई कायदे का पुरस्कार मिल जाता है तो हड़बड़ी मचती है और उस पर लिखने के लिए किसी से संपर्क किया जाता है। कुल मिलाकर मृत्यु के समय हमारे लेखक अखबारों में जगह पाते हैं। सम्पादकीय पृष्ठ के अग्रलेख भी ज़्यादातर अंग्रेज़ी पत्रकारों के अनूदित और कई जगह एक साथ छपने वाले लेख होते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि हिंदी अखबारों के कर्ता-धर्ता किसी हीनता-ग्रंथि से पीड़ित हैं, उन्हें लगता है कि हिंदी गरीबों की भाषा है और गरीबों को गंभीर चीज़ों की ज़रुरत नहीं है। उनके दिमाग में सिर्फ़ बाज़ार बसा हुआ है और वे अंग्रेज़ी को ही बाज़ार की ज़बान मानते हैं। हिंदी अखबारों में कुछ साल से अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होने की वजह भी यही है।
'जनसत्ता' एक बड़ा प्रयोग था। इस बात का सबूत कि थोड़ा सा साहस कितना बड़ा परिवर्तन ला सकता है। उसका साहित्यिक और कलाओं से संबंधित पहलू भी बहुत यादगार किस्म का था और जितने लेखक उससे जुड़े थे शायद कभी किसी दूसरे अखबार से नहीं जुड़े होंगे वह सभी क्षेत्रों में व्यवस्था और सत्ता की आलोचना का कैनवस था और राजनीतिक स्तर पर भी उसमें दर्ज हर बात सच्ची और प्रामाणिक मानी जाती थी। यह लम्बे समय तक जारी रहा फिर धीरे-धीरे अखबार की गिरावट का दौर आया और अब वह इस बात का प्रतीक है कि चीज़ें किस तरह नष्ट हो जाती हैं।
शशिभूषण बड़ोनी:आज कल संचार क्रांति के कारण ज्यादातर लोंगो का किताबें पढना बन्द सा हो गया है, यहाँ तक कि साहित्य प्रेमी भी अब फेसबुक , ब्लॉग, व्हाट्सऐप में उलझे रहतें है। पुस्तक सस्कृति पर इस सबका जो प्रभाव पडने जा रहा है कुछ उस बारे में आपका दृष्टिकोण
जानना चाहूंगा।
मंगलेश डबराल : टेक्नोलोजी आम तौर पर अच्छी और लोकतांत्रिक होती है।वह विकास के सोपानों को ही बतलाती है। उसकी अच्छाई या खराबी इससे तय होती है कि उसे कौन नियंत्रित कर रहा है। जनता या शासक वर्ग। लेकिन ताकतवर लोगों द्वारा नियंत्रित तकनीक भी एक हद तक आम लोगों के काम आने लगती है, इस अर्थ में संचार क्रांति सोशल मीडिया, ब्लॉग, फेसबुक वगैरह ने साहित्य को ज़्यादा लोकतांत्रिक, सुगम और साध्य बनाया है। आज पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग लिख और पढ़ रहे हैं जिनमें युवाओं और महिलाओं की संख्या बहुत है यानी इन नये माध्यमों ने साहित्य का लोकतत्रीकरण किया है लेकिन जहां तक पुस्तक-संस्कृति की बात है वह शायद हिंदी समाज में कभी नहीं रही। कहते हैं कि देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकांता संतति' जैसे उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी लेकिन तब भी उत्तर भारतीय समाज में पुस्तकों के प्रति ऐसा कोई लगाव नहीं था जैसा बांग्ला या कुछ दूसरे समाजों में दीखता है जहाँ जन्म या विवाह आदि के समय किताबें देना अच्छा माना जाता है। हिंदी अंचल में वर या वधू को पुस्तक भेंट करने वाले पर लोग तरस ही खायेंगे और हमारे बड़े लेखकों की किताबें भी कितनी बिकती हैं? पचास करोड़ लोगों के बीच साल में एक हज़ार प्रतियां बिक जायें तो गनीमत है लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी में पाठकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। सोशल मीडिया ऑनलाइन खरीद और पुस्तक मेलों में पेपरबैक संस्करणों के कारण और फिर महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के भी बड़े तबके नये पाठकों के रूप में उभरे हैं। कुछ ऐसे छोटे प्रकाशक भी हैं जो सोशल मीडिया पर विज्ञापन करके अपनी किताबें बेच रहे हैं।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने गद्य विधा में भी खूब लिखा है। ‘लेखक की रोटी’ ‘एक बार आयोबा’, ‘कवि का अकेलापन’ आदि पुस्तकें , डायरी, लेखरूप में हैं और बहुत लोकप्रिय हुई हैं । ‘आया हुआ आदमी’ कहानी मेरे जेहन में है, एक अति पठ्नीय, बोधगम्य कहानी है। इधर आपके गद्य कुछ पुस्तक रूप में आ रहे हैं ?
मंगलेश डबराल: गद्य बहुत शक्तिशाली विधा है क्योंकि जीवन की, हमारे व्यवहारों की भाषा वही है। हम कविता में वार्तालाप नहीं करते, अगर करेंगे तो वह नाटक या प्रहसन में बदल जायेगा। गद्य ही एक स्तर पर अनुभव के किसी सघन बिंदु पर कविता बनता है और अब लगता है कि सुंदर पठनीय गद्य शायद कविता में ही बचा हुआ है। मेरे भीतर गद्य के प्रति बहुत आकर्षण रहा है। हालाँकि व्यवस्थित ढंग से गद्य नही लिख पाया लेकिन छिटपुट लिखता रहा हूँ। अखबारों में काम करने के दौरान या कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक टिप्पणी या यात्रा-वृतांत में मेरा बहुत सा गद्य पड़ा है और इस वर्ष के अंत तक दो गद्य पुस्तकें प्रकाशित होंगी, एक यात्रा संस्मरण और लेखों का एक संचयन।
'आया हुआ आदमी' मेरी पहली प्रकाशित कहानी है और वह मेरे लिए एक भूली हुई कहानी भी है। वह एक सीमित समय की मोहभंग और व्यर्थतावाद की संवेदना व्यक्त करने वाली रचना थी जो समय बीतने के साथ अप्रासंगिक हो गयी।
उसमे याद रखने की वजह यही है कि उसे पढ़ने के बाद हमारे समय के एक बड़े कथाकार और 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन ने मुझे प्रशंसा करते हुए एक पोस्टकार्ड लिखा था जिसके बाद मेरी उनसे एक सुंदर मित्रता शुरू हुई जो आज तक जारी है। उस पोस्टकार्ड को मैं एक तमगे की तरह संभाल कर रखता हूँ।
शशिभूषण बड़ोनी: लेखक के जीवन में पुरस्कारों या सम्मानों का क्या महत्व है? क्या यह सृजन के लिए कुछ सहायक होते हैं ?
मंगलेश डबराल: पुरस्कार सृजन के लिए कैसे सहायक हो सकते हैं? लेकिन अगर कोई रचनाकार आर्थिक अभाव मे हो, जैसा कि
हिन्दी समाज में बहुत है, और उसे दो वक़्त की रोटी जुटाने की समस्या से जूझना पड़ रहा हो तो पुरस्कार ज़रूर सहायक होते हैं। और अगर वे सचमुच अच्छे हों, सिर्फ़ साहित्यिक वजहों से दिये जाते हों, उनके निर्णायक सच्चे लोग हों तो वे कहीं न कहीं समाज की तरफ़ से अपने लेखक को पहचानने और अपनाने के रूपक भी होते हैं। उनमे मिलने वाला धन काफी काम का होता है लेकिन हिंदी में बहुत से ऐसे पुरस्कार हो गये हैं जिनको देने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
सबसे दुखद पहलू यह है कि कोई हिंदी लेखक अपनी पुस्तकों की बिक्री और रॉयल्टी से जीवन-यापन नहीं कर सकता क्योंकि पहले तो किताबें बहुत ज्यादा, पश्चिमी देशों जितनी नहीं बिकतीं और दूसरे कोई प्रकाशक सही जानकारी नहीं देता कि किस लेखक की कितनी किताबें बिकी हैं आम तौर पर किताबों की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा छिपा लिया जाता है ऐसे में लेखकों का पुरस्कार-प्रार्थी होना चकित नही करता।
शशिभूषण बड़ोनी: आज जब अधिकांश लोग बाजार वाद कि चपेट में आकर अत्यधिक स्वार्थी व आत्मकेंद्रित होते जा रहें है। ऐसे में मुझे आपकी कविता याद आती है।।।।।।।। ‘ताकत की दुनिया’ शीर्षक से। इसकी ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं - 'मैं सैकडो, हजारों जूते लेकर क्या करूंगा? मेरे लिये एक जोडी जूते ही ठीक से रखना कठिन है!' आज बाजारवाद इतना क्रूर क्यों हो गया है?
मंगलेश डबराल: 'ताकत की दुनिया' लिखते समय शायद बाज़ार सत्ता तंत्र और वैश्विक महाशक्तियाँ मेरे दिमाग में थीं लेकिन इसके साथ कई तानाशाहों की खब्तें और सनकें अमेरिका द्वारा तेल और प्रभुत्व के लिए अफ़गानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया आदि देशों पर किये गये हमलों की घटनायें भी थीं और ये ख़बरें भी कि फ़िलीपींस के तानाशाह मार्कोस जब सत्ता से बेदखल हुए तो उनकी पत्नी इमेल्दा मार्कोस के पास हज़ारों सैंडिलों और कपड़ों का कितना बड़ा ज़खीरा बरामद हुआ।
बाज़ार एक बहुत क्रूर जगह हो चुका है अपनी पूरी चमक-दमक और भव्यता के साथ यह वैश्विक आवारा पूंजी का चरम रूप है जो हर विचार को, हर सवाल को और समाज के हर जलते हुए सवाल को बुझा देना चाहता है। उसने लोगों को निकृष्टतम उपभोक्ता में बदल दिया है। एक उपभोग से दूसरे उपभोग की तरफ जाता हुआ एक प्रश्नविहीन पुतला ! कार्ल मार्क्स और ऐंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में पूंजी की प्रक्रियाओं और परिणतियों को बहुत पहले विश्लेषित कर लिया था। वर्तमान वित्तीय पूंजी अपने साम्राज्य और शोषण को बढाने के लिए विज्ञापनों, कई तरह के प्रचार और टेक्नोलॉजी के माध्यम से सहमति और समरूपता का निर्माण करती है और समाज को अधिक से अधिक बाज़ार पर निर्भर बनाती है। इस प्रक्रिया पर प्रसिद्ध विचारक और भाषाशास्त्री नोम चौम्स्की की किताब 'मैनुफैक्चेरिंग कंसेंट' बहुत चर्चित हुई है। गौरतलब यह है की बाज़ार और सत्ता तंत्रो की सबसे ज़्यादा चीरफाड़ कविता ही कर रही है और यथासंभव प्रतिरोध भी जारी रखे हुए है। कोई भी अच्छी कविता ताकत के विरुद्ध होती है और बाज़ारवाद को अस्वीकार करती है।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने संभवत: सत्तर के दशक में लेखन शुरू किया होगा, तब के परिदृश्य में व आज के साहित्यिक परिदृश्य में क्या अन्तर देखते हैं ?
मंगलेश डबराल: तब और अब में फ़र्क़ स्वाभाविक है लेकिन मुझे लगता है कि बहुत ज़्यादा फर्क़ नही आया है। यह सही है कि लिखनेवाले बढ़े हैं। दलित, आदिवासी, स्त्री लेखन और विभिन्न हाशियों पर हो रही अभिव्यक्ति ने ज़ोरशोर से अपनी सार्थक उपस्थितियां दर्ज की हैं और साहित्य मध्यवर्गीय घेरेबंदियों से निकल कर अनुभवों के ज़्यादा व्यापक और नये संसार में गया है। मसलन, हिंदी कविता में आदिवासी और दलित यथार्थ पहले लगभग नहीं था और स्त्रियों के अनुभव भी सीमित, अल्प-मुखर और कुछ कातर, असहाय किस्म के थे लेकिन अब बहुत सी महिला कवि पुरुष वर्चस्व, उपेक्षाएँ, अन्याय के परिदृश्यों को प्रतिरोधात्मक स्वर में ही नहीं व्यक्त कर रही हैं बल्कि अपने स्वायत्त संसारों को भी रेखांकित कर रही हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। बहुत से युवा आदिवासी कवि अपने भीषण यथार्थ के बीच एक आदिम रक्त के भीतर से बात कर रहे हैं लेकिन यह भी सही है कि ऐसी कृतियां अभी सामने नहीं आयी हैं जिनसे परिदृश्य सचमुच बदला हुआ लगे। मसलन, मराठी में नामदेव ढसाल की कविता या दया पवार की 'अछूत' जैसी कृतियां जिन्होंने मराठी कविता और गद्य के स्वरूप को बदल कर रख दिया था, लेकिन मुझे लगता है अभी हमें कुछ इंतज़ार करना चाहिए।
शशिभूषण बड़ोनी: उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहां के आम आदमी व गाँवों में महिलाओं की माली हालत में कुछ बदलाव आपको दिखाई पडता है? इनके दैनिक जीवन के संघर्ष कुछ कम हुए हैं ?
मंगलेश डबराल: उत्तराखंड में जन्म लेने के बावजूद मैं ज़्यादातर बाहर ही रहा और अब कभी।कभी वहाँ जा पाता हूँ। लेकिन मैं जहां भी रहा मुझे अपना बचपन हमेशा भीतर महसूस होता रहा। पत्रकारिता करने की वजह से भी मैं उत्तराखंड के कामकाज को देखता रहा हूँ। कुल मिलाकर वह पृथक राज्य तो बन गया लेकिन पर्वतीय राज्य नहीं बन पाया और न उन लोगों के स्वप्न पूरे हुए जिन्होंने पहाड़ की जनता के अपने राज्य की कल्पना में की थी और उसके लिए लम्बा संघर्ष किया था। तत्कालीन भाजपा सरकार ने राज्य के गठन के साथ ही उन सभी संगठनों को हाशिये पर फेंक दिया जिन्हें राज्य के संचालन में सक्रिय भूमिका दी जानी चाहिए थी। उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार एक बड़ी दुर्घटना थी और तबसे अफसरशाही और दलाल ताकतें इतनी विकराल और भ्रष्ट हो चुकी हैं कि न तो गैरसैण में राजधानी बन सकती है न गांवों से पलायन और विस्थापन रुक सकता है और न कोई बड़ा परिवर्तन हो सकता है। यह कितना डरावना है कि अब इस राज्य के करीब बीस फीसद गाँव पूरी तरह निर्जन और भुतहे हैं और तीस फीसद गाँवों से बीस-पच्चीस फीसद पलायन हो चुका है। पौड़ी गढ़वाल में बोंदुल गाँव की श्रीमती विमला देवी की कहानी पिछले दिनों सामने आयी थी जो गाँव में बिलकुल अकेली रहती हैं और जंगली जानवरों के डर से पांच बजे के बाद घर से बाहर नहीं जातीं। पृथक राज्य बनाने के बाद थोडा सा धार्मिक पर्यटन बढ़ा है। सड़कें बनी हैं लेकिन न तो कोई नया पर्यटन स्थल खोजा या बनाया गया है न किसी क्षेत्र में बड़ी प्रतिभाएं सामने आयी हैं और न किसी ने यह सवाल उठाया है की आखिर इतने वर्षों में यहाँ की सरकारों ने क्या किया है जो लोग विस्थापित नहीं हुए वे भी खेती करना लगभग छोड़ चुके हैं और ज़्यादातर अपने ही अंचल में सड़क बनाने वाले दिहाड़ी मजदूरों में बदल गए हैं। खेती-किसानी का फल देर से मिलता है लेकिन मजदूरी तुरंत नकद पैसा दे देती है जो उतनी ही जल्द खर्च हो जाता है। यह लोगों को अपने ही घर में विस्थापित बनाने का भयानक उदाहरण है।
शशिभूषण बड़ोनी: लेखन का सबसे मुष्किल पक्ष आपको क्या लगता है?
मंगलेश डबराल : शायद लेखन के सभी पक्ष कठिन हैं। आम तौर पर माना जाता है कि किसी रचना का आरम्भ करना, उसका पहला वाक्य लिखना सबसे मुश्किल होता है लेकिन रचना को किस जगह ख़त्म किया जाये यह तय करना भी कम कठिन नहीं है। मेरे लिखने की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि अक्सर किसी रचना के बीच का कोई दृश्यध्वाक्य सबसे पहले आता है और कई बार जो लिखना चाहता हूँ वह नहीं लिखा जाता बल्कि वह कुछ और ही शक्ल ले लेता है। दरअसल लिखने का सबसे कठिन और त्रासद पहलू यह है की हम जिस शिद्दत से जो कुछ लिखने की सोचते हैं उसे ठीक उसी तरह नहीं लिख सकते, शायद उसका पचास-साठ फीसद ही शब्दों में उतर पाता है। दिमाग और काग़ज़ के बीच एक बड़ी और अदृश्य दूरी है। ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिट्स का एक प्रसिद्ध कथन है कि 'आप जिस नदी में नहाने की सोचते हैं, उसमें कभी नहीं नहा सकते क्योंकि सोचने और नहाने के बीच नदी बदल चुकी होती है'।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने विश्व साहित्य की कई कृतियों के अनुवाद भी किये हैं । कुछ ऐसी कृतियों के नाम जो साहित्य प्रेमियों को पढनी चाहिए?
मंगलेश डबराल: ऐसी कोई भी सूची अधूरी ही होगी। इतना महान साहित्य दुनिया में लिखा गया है और उसका लिखा जाना बंद नहीं हुआ है।मेरा ज्ञान बहुत सीमित है लेकिन बीसवी सदी की जो रचनाएँ मुझे बड़ी और ज़रूरी लगती हैं उनमें टॉलस्टॉय की 'पुनरू थान' (रेसुररेक्शन) चेख़व की कहानियां और नाटक, काफ्का का उपन्यास 'ट्रायल' और कहानी 'मेटामोर्फोसिस' कामू का 'आउटसाइडर', जुजे सारामागो के हिस्ट्री ऑफ़ ड सीज ऑफ़ लिस्बन',' ब्लाइंडनेस' गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड ' और 'ऑटम ऑफ़ पैट्रिआर्क' अरुंधती रॉय का' द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' मंटो की 'टोबा टेक सिंह' , 'खोल दो' और कई दूसरी कहानियां लू शुन की रचनाएँ इतालो काल्विनो के इफ ओन अ विंटर्स नाइट, अ ट्रैवलर और इनविजिबल सिटीज, रसूल हमजातोव और मक्सिम गोर्की के आत्मपरक वृत्तान्त, प्रेमचंद और रेणु के उपन्यास और कहानियाँ श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, राही मासूम रजा का आधा गाँव,ज्ञानरंजन, निर्मल वर्मा और अमरकांत की कहानियां, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, एर्नेस्तो कार्देनाल, यानिस रित्सोस, शिम्बोर्स्का रूज़ेविच, एलन गिन्सबर्ग, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण आदि की कविताएँ शामिल हैं। लेकिन यह सूची एकदम अधूरी और निजी है, इसमें किसी जीवित लेखक का नाम नहीं है और दूसरी भारतीय भाषाओं की रचनाएँ इसमें छूट गयी हैं। तेईस भाषाओं से चयन करना बहुत मुश्किल है।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने गुणानन्द पथिक, घनश्याम शैलानी , मोहन थपलियाल आदि लोक कवियों, लेखकों पर बहुत मार्मिक कवितायें लिखी हैं । उनसे जुडी कुछ यादें ?
मंगलेश डबराल : मोहन थपलियाल मेरे घनिष्ठ मित्र थे। हमने कुछ समय एक ही अखबार में काम किया। गुणानंद पथिक कम्युनिस्ट जनकवि और गायक थे। बाँध में डूब चुके टिहरी शहर के बस अड्डे पर मैं उन्हें अक्सर पूरे स्वाभिमान और ऊर्जा के साथ अपने गले में हारमोनियम लटकाए हुए और गाते हुए देखता था। वे अपने गीतों की पुस्तिकाएं भी बेचा करते जिनमें जन-जागरण और परिवर्तन का आवाह्न होता था । मैं तब ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में पढता था लेकिन उस अद्भुत गायन-वादन से पैदा होने वाली सिहरन आज भी मेरी स्मृति में है।पथिक जी ने मेरे पिता को संगीत की शिक्षा दी थी और कुछ वक़्त तक उन्हें संगीत सिखाने घर भी आये पथिक जी जीवन के अंत तक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता रहे और अंत तक गरीबी में रहे।
केशव अनुरागी ढोल और लोकगायन की बड़ी प्रतिभा थे । वे त्यौहारों और मांगलिक कार्यों में ढोल-दमाऊ या नगाड़ा बजाने वाले बाजगी समुदाय के थे जिन्हें पहाड़ में औजी कहा जाता है। उन्होंने ढोल के तालों पर दुर्लभ किस्म का शोध कार्य किया था और कुछ समय कुमार गंधर्व से भी संगीत सीखा था। उनके पास बाजगियों का संगीत अपने शुद्धतम रूप में तो था ही, बहुत से लोकगीतों को उन्होंने नयी धुनों से भी समृद्ध किया। वे आकाशवाणी दिल्ली में प्रोड्यूसर थे। दिल्ली में नए-नए आये लेखकों के लिए आकाशवाणी एक बड़ा सहारा था। मैं जब भी वहां जाता, अनुरागी जी से मिलना बहुत अच्छा लगता। पहाड़ी गीतों को शास्त्रीय स्पर्श देते हुए गाने की उनकी शैली से मैं अभिभूत था। दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर पहाड़ी सवर्ण उनका सम्मान तो करते थे लेकिन दलित समुदाय के इस जीनियस से दुआ-सलाम पाने की उम्मीद भी रखते थे। इस सवर्ण अहंकार से अनुरागी का सामना बार-बार हुआ और एक कसक उनके भीतर बनी रही। अनुरागी जी पर कविता लिखते हुए मुझे उनके विलक्षण संगीत और उनकी सामाजिक हैसियत के बीच की फांक का भी ध्यान था। बाद में सुनने में आया कि अनुरागी जी का परिवार इस कविता से बहुत खुश नहीं है। इसकी ठीक-ठीक वजह पता नहीं है लेकिन मेरा ख़याल है कि इस सन्दर्भ में समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की सांस्कृतिकरण की अवधारणा काम करती दिखती है।
शशिभूषण बड़ोनी: एक रचनाकार के रूप में आज के समाज कि कौन सी चीज आपको सबसे ज्यादा बेचेन करती है?
मंगलेश डबराल: हमारे समाज का जो अपराधीकरण और बर्बरीकरण इन दिनों किया जा रहा है, आम नागरिकों को जिस तरह सांप्रदायिक और अमानुषिक बनाया जा रहा है और राजनीति जिस तरह हमारी भाषा को भ्रष्ट झूठा और आक्रामक, हिंसक बना रही है वह विचलित करने वाला है। यह देखना बहुत त्रासद है कि किस तरह सहानुभूति, मददगारी, प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों को नियोजित ढंग से ख़त्म किया जा रहा है और एक निकृष्ट मनुष्य निर्मित हो रहा है। अफवाहों के आधार पर हत्या, उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या,आलोचना या विरोध करने वालों की हत्या, अलग तरह का जीवन या विचार के लोगों की हत्या, धमकी, अपमान, झूठी खबरों का व्यापक प्रसार, तर्क और विवेक के बजाय अंधविश्वासों का प्रचार, इतिहास के बजाय मिथकों पर विश्वास, विद्वता की बजाय मूर्खता को तरजीह, वास्तविक धर्म के बजाय पाखंडियों और अपराधियों का गुणगान। ये सब एक समाज और मनुष्य की आतंरिक मृत्यु के लक्षण हैं। हमारे नेता प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बारे में आये दिन जो हास्यास्पद और अहमकाना बयान देते रहते हैं वे हमारे अज्ञान के घनघोर रसातल की तरफ जाने के उदाहरण हैं। ऐसा समाज बाहरी तौर पर कितना ही खाता - पीता नजर आये भीतर से मरता हुआ होता है। दूसरी तरफ इन हालात पर कोई बड़ी बेचैनी नहीं नज़र आती, लोग विभ्रम और घुटन में हैं, लेकिन जैसा रघुवीर सहाय ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था 'क्रोध होगा पर विरोध नहीं'। आज ऐसी ही स्थिति है। हम देख सकते हैं कि हमारे चारों और कैसा मृतक समाज बन रहा है, लोग जैसे सब कुछ भूल गए हैं और सिर्फ बदला लेना याद रखे हुए हैं। रघुवीर सहाय की ही एक और कविता में राजा अपने मंत्री से कहता है कि 'समाज का मरना पहचानो मंत्री जी तभी हमारी सत्ता ज्यादा सुरक्षित रहेगी'। ये शब्द आज भयानक सत्य साबित होते दिख रहे हैं। एक भीतरी मृत्यु के दौर में कविता लिखना और उससे कोई उम्मीद करना अत्यंत विडम्बनापूर्ण लगता है।
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ताकत के तंत्र और कविता की विडम्बना
( मंगलेश डबराल से बातचीत )
शशिभूषण बड़ोनी: मंगलेश जी सर्वप्रथम आपको अभी कुछ दिन पहले मिले 'परिवार पुरस्कार' की हार्दिक बधाई। एक औपचारिक से प्रश्न से शुरुआत करूंगा - साहित्य आपके जीवन मे कैसे आया? कविता लिखने की शुरुआत कैसे हुई?
मंगलेश डबराल: धन्यवाद। ज़्यादातर लेखकों की तरह मेरे लिखने की शुरुआत भी काफी पहले बचपन में हुई थी क्योंकि घर में साहित्य आयुर्वेद संस्कृत का वातावरण था मेरे ज्योतिर्विद दादा ने गढ़वाली कहावतों का संग्रह किया था और पिता गढ़वाली में कविता लिखते, गाते और नाटकों का निर्देशन करते थे। बचपन में मुझे छंद, अलंकार, तत्सम, संस्कृतनिष्ठ शब्द आदि बहुत आकर्षित करते थे। कालिदास का 'मेघदूत' सस्वर पढ़ना अच्छा लगता था और जयशंकर प्रसाद का 'आंसू' कंठस्थ था। मैं उसे गुनगुनाता और आंसू बहाता था। दरअसल प्रसाद की कहानियों की आविष्ट भाषा से मैं चमत्कृत था। प्रसाद की एक कहानी 'आकाशदीप' मेरे स्कूली पाठ्यक्रम में लगी थी और मैंने उसकी नकल पर एक कहानी लिख डाली जिसमें उसकी नायिका का नाम चम्पा से बदल कर पद्मा कर दिया और बहुत से वाक्य भी हूबहू उतार लिये। भगवती चरण वर्मा का उपन्यास 'चित्रलेखा' भी उन्हीं दिनों पढ़ लिया था जो प्रसाद की भाषा का ही एक और रूप लगता था। बाद में मैंने निराला और सुमित्रानदन पंत की रचनाओं और बच्चन की 'निशा निमंत्रण' को पढ़ा और फिर कुछ नवछायावादी किस्म की या गीतनुमा कविता लिखने लगा। यह सोचकर आश्चर्य होता है कि मेरे बचपन में, एक ऐसे सुदूर गांव के घर में, जहाँ डाकिया कई मील पैदल चलकर डाक लाता था, ये सब किताबें मौजूद थीं। उत्तर प्रदेश से तब एक सरकारी पत्रिका 'त्रिपथगा' प्रकाशित होती थी जिसमें मैंने माखनलाल चतुर्वेदी के बहुत से गीत पढ़े। उसमें मैंने कई गीत भेजे लेकिन कोई छपा नहीं। मेरे पिता की साहित्यिक और सांगीतिक गतिविधि और यह सब साहित्य पढ़ने के नतीजे में मैं लिखने लगा। कुछ वर्ष बाद लीलाधर जगूड़ी से मुलाक़ात हुई जो उन दिनों आधुनिक युवा कवि के रूप में तेज़ी से उभर रहे थे और उनके माध्यम से मैं आधुनिक कविता के सम्पर्क में आया।
शशिभूषण बड़ोनी: आपके साहित्येतर संगीत प्रेम को हम जानते हैं । कुछ इसकी शुरुआत के बारे में भी बताएं ? किस तरह यह रूझान बढ़ा?
मंगलेश डबराल: संगीत की नक़ल करना एक बात है और संगीत जानना दूसरी बात। मुझे संगीत का बाकायदा ज्ञान नहीं है और यह मेरे जीवन के कुछ बड़े दुखों में से है। कई संगीतकारों का शास्त्रीय गायन और वादन ज़रूर सुना है, जिनमें से कुछ मुझे शिक्षा देने पर भी राज़ी हुए लेकिन अखबारों में काम करने की व्यस्तता के कारण मैं सीखने का वक़्त नहीं निकाल पाया। संगीत की मेरी जो भी ललक और समझ है वह मेरे पिता के कारण है। वे हारमोनियम बजाते और गाते थे। दुर्गा, सारंग, मालकौंस, पीलू, पहाड़ी जैसे कई राग और गढ़वाली और जौनसारी के बहुत से मार्मिक या श्रृंगारिक लोकगीत। वे वैद्य थे, कवि, गायक, अभिनेता, रंगकर्मी और मंच-सज्जाकार थे और एक विलक्षण प्रतिभा थे जो स्थानीय स्तर पर ही जीने के लिए बनी थी। उन्होंने एक बड़े लोकगायक और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गुणानंद पथिक से संगीत सीखा था। दुनिया से जाने से पहले संगीत सीखने की हसरत अब भी मेरे भीतर है। फिलहाल मेरे हिस्से में इतनी ही खुशी है कि मैं महान प्रतिभाओ के संगीत को पूरी विकलता के साथ सुन पाया और संगीत पर कुछ कविताएँ भी लिख सका।
शशिभूषण बड़ोनी: आप एक कवि व साहित्यकार के रूप में बहुत समादृत व्यक्तित्व हैं । आपका योगदान साहित्यक पत्रकारिता में बहुत है। किन्तु आज तो ज्यादातर पत्र-पत्रिकायें (व्यावसायिक) साहित्य को हाशिये पर धकेल रहे हैं। अखबारों में तो केवल जनसत्ता ही बचा है जो अभी भी पूरी तरह गम्भीर साहित्य हर रविवार दे रहा है। इस विडम्बना के बारे में कुछ बताएं ?
मंगलेश डबराल: हिंदी में अब कोई साहित्यिक पत्रकारिता नहीं रह गयी है। यह देखकर दुखद आश्चर्य होता है कि कितनी जल्दी हिंदी पत्रकारिता में ऐतिहासिक उलटफेर हो गये। हिंदी के अखबारों में न साहित्य के लिए जगह है न किताबों की चर्चा-समीक्षा के लिए और न किसी लेखक के लिए, सिर्फ जब किसी महत्वपूर्ण लेखक की मृत्यु हो जाती है या उसे कोई कायदे का पुरस्कार मिल जाता है तो हड़बड़ी मचती है और उस पर लिखने के लिए किसी से संपर्क किया जाता है। कुल मिलाकर मृत्यु के समय हमारे लेखक अखबारों में जगह पाते हैं। सम्पादकीय पृष्ठ के अग्रलेख भी ज़्यादातर अंग्रेज़ी पत्रकारों के अनूदित और कई जगह एक साथ छपने वाले लेख होते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि हिंदी अखबारों के कर्ता-धर्ता किसी हीनता-ग्रंथि से पीड़ित हैं, उन्हें लगता है कि हिंदी गरीबों की भाषा है और गरीबों को गंभीर चीज़ों की ज़रुरत नहीं है। उनके दिमाग में सिर्फ़ बाज़ार बसा हुआ है और वे अंग्रेज़ी को ही बाज़ार की ज़बान मानते हैं। हिंदी अखबारों में कुछ साल से अंग्रेज़ी शब्दों की भरमार होने की वजह भी यही है।
'जनसत्ता' एक बड़ा प्रयोग था। इस बात का सबूत कि थोड़ा सा साहस कितना बड़ा परिवर्तन ला सकता है। उसका साहित्यिक और कलाओं से संबंधित पहलू भी बहुत यादगार किस्म का था और जितने लेखक उससे जुड़े थे शायद कभी किसी दूसरे अखबार से नहीं जुड़े होंगे वह सभी क्षेत्रों में व्यवस्था और सत्ता की आलोचना का कैनवस था और राजनीतिक स्तर पर भी उसमें दर्ज हर बात सच्ची और प्रामाणिक मानी जाती थी। यह लम्बे समय तक जारी रहा फिर धीरे-धीरे अखबार की गिरावट का दौर आया और अब वह इस बात का प्रतीक है कि चीज़ें किस तरह नष्ट हो जाती हैं।
शशिभूषण बड़ोनी:आज कल संचार क्रांति के कारण ज्यादातर लोंगो का किताबें पढना बन्द सा हो गया है, यहाँ तक कि साहित्य प्रेमी भी अब फेसबुक , ब्लॉग, व्हाट्सऐप में उलझे रहतें है। पुस्तक सस्कृति पर इस सबका जो प्रभाव पडने जा रहा है कुछ उस बारे में आपका दृष्टिकोण
जानना चाहूंगा।
मंगलेश डबराल : टेक्नोलोजी आम तौर पर अच्छी और लोकतांत्रिक होती है।वह विकास के सोपानों को ही बतलाती है। उसकी अच्छाई या खराबी इससे तय होती है कि उसे कौन नियंत्रित कर रहा है। जनता या शासक वर्ग। लेकिन ताकतवर लोगों द्वारा नियंत्रित तकनीक भी एक हद तक आम लोगों के काम आने लगती है, इस अर्थ में संचार क्रांति सोशल मीडिया, ब्लॉग, फेसबुक वगैरह ने साहित्य को ज़्यादा लोकतांत्रिक, सुगम और साध्य बनाया है। आज पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा लोग लिख और पढ़ रहे हैं जिनमें युवाओं और महिलाओं की संख्या बहुत है यानी इन नये माध्यमों ने साहित्य का लोकतत्रीकरण किया है लेकिन जहां तक पुस्तक-संस्कृति की बात है वह शायद हिंदी समाज में कभी नहीं रही। कहते हैं कि देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकांता संतति' जैसे उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी लेकिन तब भी उत्तर भारतीय समाज में पुस्तकों के प्रति ऐसा कोई लगाव नहीं था जैसा बांग्ला या कुछ दूसरे समाजों में दीखता है जहाँ जन्म या विवाह आदि के समय किताबें देना अच्छा माना जाता है। हिंदी अंचल में वर या वधू को पुस्तक भेंट करने वाले पर लोग तरस ही खायेंगे और हमारे बड़े लेखकों की किताबें भी कितनी बिकती हैं? पचास करोड़ लोगों के बीच साल में एक हज़ार प्रतियां बिक जायें तो गनीमत है लेकिन मुझे लगता है कि हिंदी में पाठकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। सोशल मीडिया ऑनलाइन खरीद और पुस्तक मेलों में पेपरबैक संस्करणों के कारण और फिर महिलाओं, दलितों, आदिवासियों के भी बड़े तबके नये पाठकों के रूप में उभरे हैं। कुछ ऐसे छोटे प्रकाशक भी हैं जो सोशल मीडिया पर विज्ञापन करके अपनी किताबें बेच रहे हैं।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने गद्य विधा में भी खूब लिखा है। ‘लेखक की रोटी’ ‘एक बार आयोबा’, ‘कवि का अकेलापन’ आदि पुस्तकें , डायरी, लेखरूप में हैं और बहुत लोकप्रिय हुई हैं । ‘आया हुआ आदमी’ कहानी मेरे जेहन में है, एक अति पठ्नीय, बोधगम्य कहानी है। इधर आपके गद्य कुछ पुस्तक रूप में आ रहे हैं ?
मंगलेश डबराल: गद्य बहुत शक्तिशाली विधा है क्योंकि जीवन की, हमारे व्यवहारों की भाषा वही है। हम कविता में वार्तालाप नहीं करते, अगर करेंगे तो वह नाटक या प्रहसन में बदल जायेगा। गद्य ही एक स्तर पर अनुभव के किसी सघन बिंदु पर कविता बनता है और अब लगता है कि सुंदर पठनीय गद्य शायद कविता में ही बचा हुआ है। मेरे भीतर गद्य के प्रति बहुत आकर्षण रहा है। हालाँकि व्यवस्थित ढंग से गद्य नही लिख पाया लेकिन छिटपुट लिखता रहा हूँ। अखबारों में काम करने के दौरान या कोई साहित्यिक, सांस्कृतिक टिप्पणी या यात्रा-वृतांत में मेरा बहुत सा गद्य पड़ा है और इस वर्ष के अंत तक दो गद्य पुस्तकें प्रकाशित होंगी, एक यात्रा संस्मरण और लेखों का एक संचयन।
'आया हुआ आदमी' मेरी पहली प्रकाशित कहानी है और वह मेरे लिए एक भूली हुई कहानी भी है। वह एक सीमित समय की मोहभंग और व्यर्थतावाद की संवेदना व्यक्त करने वाली रचना थी जो समय बीतने के साथ अप्रासंगिक हो गयी।
उसमे याद रखने की वजह यही है कि उसे पढ़ने के बाद हमारे समय के एक बड़े कथाकार और 'पहल' के संपादक ज्ञानरंजन ने मुझे प्रशंसा करते हुए एक पोस्टकार्ड लिखा था जिसके बाद मेरी उनसे एक सुंदर मित्रता शुरू हुई जो आज तक जारी है। उस पोस्टकार्ड को मैं एक तमगे की तरह संभाल कर रखता हूँ।
शशिभूषण बड़ोनी: लेखक के जीवन में पुरस्कारों या सम्मानों का क्या महत्व है? क्या यह सृजन के लिए कुछ सहायक होते हैं ?
मंगलेश डबराल: पुरस्कार सृजन के लिए कैसे सहायक हो सकते हैं? लेकिन अगर कोई रचनाकार आर्थिक अभाव मे हो, जैसा कि
हिन्दी समाज में बहुत है, और उसे दो वक़्त की रोटी जुटाने की समस्या से जूझना पड़ रहा हो तो पुरस्कार ज़रूर सहायक होते हैं। और अगर वे सचमुच अच्छे हों, सिर्फ़ साहित्यिक वजहों से दिये जाते हों, उनके निर्णायक सच्चे लोग हों तो वे कहीं न कहीं समाज की तरफ़ से अपने लेखक को पहचानने और अपनाने के रूपक भी होते हैं। उनमे मिलने वाला धन काफी काम का होता है लेकिन हिंदी में बहुत से ऐसे पुरस्कार हो गये हैं जिनको देने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
सबसे दुखद पहलू यह है कि कोई हिंदी लेखक अपनी पुस्तकों की बिक्री और रॉयल्टी से जीवन-यापन नहीं कर सकता क्योंकि पहले तो किताबें बहुत ज्यादा, पश्चिमी देशों जितनी नहीं बिकतीं और दूसरे कोई प्रकाशक सही जानकारी नहीं देता कि किस लेखक की कितनी किताबें बिकी हैं आम तौर पर किताबों की बिक्री का एक बड़ा हिस्सा छिपा लिया जाता है ऐसे में लेखकों का पुरस्कार-प्रार्थी होना चकित नही करता।
शशिभूषण बड़ोनी: आज जब अधिकांश लोग बाजार वाद कि चपेट में आकर अत्यधिक स्वार्थी व आत्मकेंद्रित होते जा रहें है। ऐसे में मुझे आपकी कविता याद आती है।।।।।।।। ‘ताकत की दुनिया’ शीर्षक से। इसकी ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं - 'मैं सैकडो, हजारों जूते लेकर क्या करूंगा? मेरे लिये एक जोडी जूते ही ठीक से रखना कठिन है!' आज बाजारवाद इतना क्रूर क्यों हो गया है?
मंगलेश डबराल: 'ताकत की दुनिया' लिखते समय शायद बाज़ार सत्ता तंत्र और वैश्विक महाशक्तियाँ मेरे दिमाग में थीं लेकिन इसके साथ कई तानाशाहों की खब्तें और सनकें अमेरिका द्वारा तेल और प्रभुत्व के लिए अफ़गानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया आदि देशों पर किये गये हमलों की घटनायें भी थीं और ये ख़बरें भी कि फ़िलीपींस के तानाशाह मार्कोस जब सत्ता से बेदखल हुए तो उनकी पत्नी इमेल्दा मार्कोस के पास हज़ारों सैंडिलों और कपड़ों का कितना बड़ा ज़खीरा बरामद हुआ।
बाज़ार एक बहुत क्रूर जगह हो चुका है अपनी पूरी चमक-दमक और भव्यता के साथ यह वैश्विक आवारा पूंजी का चरम रूप है जो हर विचार को, हर सवाल को और समाज के हर जलते हुए सवाल को बुझा देना चाहता है। उसने लोगों को निकृष्टतम उपभोक्ता में बदल दिया है। एक उपभोग से दूसरे उपभोग की तरफ जाता हुआ एक प्रश्नविहीन पुतला ! कार्ल मार्क्स और ऐंगेल्स ने कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में पूंजी की प्रक्रियाओं और परिणतियों को बहुत पहले विश्लेषित कर लिया था। वर्तमान वित्तीय पूंजी अपने साम्राज्य और शोषण को बढाने के लिए विज्ञापनों, कई तरह के प्रचार और टेक्नोलॉजी के माध्यम से सहमति और समरूपता का निर्माण करती है और समाज को अधिक से अधिक बाज़ार पर निर्भर बनाती है। इस प्रक्रिया पर प्रसिद्ध विचारक और भाषाशास्त्री नोम चौम्स्की की किताब 'मैनुफैक्चेरिंग कंसेंट' बहुत चर्चित हुई है। गौरतलब यह है की बाज़ार और सत्ता तंत्रो की सबसे ज़्यादा चीरफाड़ कविता ही कर रही है और यथासंभव प्रतिरोध भी जारी रखे हुए है। कोई भी अच्छी कविता ताकत के विरुद्ध होती है और बाज़ारवाद को अस्वीकार करती है।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने संभवत: सत्तर के दशक में लेखन शुरू किया होगा, तब के परिदृश्य में व आज के साहित्यिक परिदृश्य में क्या अन्तर देखते हैं ?
मंगलेश डबराल: तब और अब में फ़र्क़ स्वाभाविक है लेकिन मुझे लगता है कि बहुत ज़्यादा फर्क़ नही आया है। यह सही है कि लिखनेवाले बढ़े हैं। दलित, आदिवासी, स्त्री लेखन और विभिन्न हाशियों पर हो रही अभिव्यक्ति ने ज़ोरशोर से अपनी सार्थक उपस्थितियां दर्ज की हैं और साहित्य मध्यवर्गीय घेरेबंदियों से निकल कर अनुभवों के ज़्यादा व्यापक और नये संसार में गया है। मसलन, हिंदी कविता में आदिवासी और दलित यथार्थ पहले लगभग नहीं था और स्त्रियों के अनुभव भी सीमित, अल्प-मुखर और कुछ कातर, असहाय किस्म के थे लेकिन अब बहुत सी महिला कवि पुरुष वर्चस्व, उपेक्षाएँ, अन्याय के परिदृश्यों को प्रतिरोधात्मक स्वर में ही नहीं व्यक्त कर रही हैं बल्कि अपने स्वायत्त संसारों को भी रेखांकित कर रही हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। बहुत से युवा आदिवासी कवि अपने भीषण यथार्थ के बीच एक आदिम रक्त के भीतर से बात कर रहे हैं लेकिन यह भी सही है कि ऐसी कृतियां अभी सामने नहीं आयी हैं जिनसे परिदृश्य सचमुच बदला हुआ लगे। मसलन, मराठी में नामदेव ढसाल की कविता या दया पवार की 'अछूत' जैसी कृतियां जिन्होंने मराठी कविता और गद्य के स्वरूप को बदल कर रख दिया था, लेकिन मुझे लगता है अभी हमें कुछ इंतज़ार करना चाहिए।
शशिभूषण बड़ोनी: उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहां के आम आदमी व गाँवों में महिलाओं की माली हालत में कुछ बदलाव आपको दिखाई पडता है? इनके दैनिक जीवन के संघर्ष कुछ कम हुए हैं ?
मंगलेश डबराल: उत्तराखंड में जन्म लेने के बावजूद मैं ज़्यादातर बाहर ही रहा और अब कभी।कभी वहाँ जा पाता हूँ। लेकिन मैं जहां भी रहा मुझे अपना बचपन हमेशा भीतर महसूस होता रहा। पत्रकारिता करने की वजह से भी मैं उत्तराखंड के कामकाज को देखता रहा हूँ। कुल मिलाकर वह पृथक राज्य तो बन गया लेकिन पर्वतीय राज्य नहीं बन पाया और न उन लोगों के स्वप्न पूरे हुए जिन्होंने पहाड़ की जनता के अपने राज्य की कल्पना में की थी और उसके लिए लम्बा संघर्ष किया था। तत्कालीन भाजपा सरकार ने राज्य के गठन के साथ ही उन सभी संगठनों को हाशिये पर फेंक दिया जिन्हें राज्य के संचालन में सक्रिय भूमिका दी जानी चाहिए थी। उत्तराखंड की पहली भाजपा सरकार एक बड़ी दुर्घटना थी और तबसे अफसरशाही और दलाल ताकतें इतनी विकराल और भ्रष्ट हो चुकी हैं कि न तो गैरसैण में राजधानी बन सकती है न गांवों से पलायन और विस्थापन रुक सकता है और न कोई बड़ा परिवर्तन हो सकता है। यह कितना डरावना है कि अब इस राज्य के करीब बीस फीसद गाँव पूरी तरह निर्जन और भुतहे हैं और तीस फीसद गाँवों से बीस-पच्चीस फीसद पलायन हो चुका है। पौड़ी गढ़वाल में बोंदुल गाँव की श्रीमती विमला देवी की कहानी पिछले दिनों सामने आयी थी जो गाँव में बिलकुल अकेली रहती हैं और जंगली जानवरों के डर से पांच बजे के बाद घर से बाहर नहीं जातीं। पृथक राज्य बनाने के बाद थोडा सा धार्मिक पर्यटन बढ़ा है। सड़कें बनी हैं लेकिन न तो कोई नया पर्यटन स्थल खोजा या बनाया गया है न किसी क्षेत्र में बड़ी प्रतिभाएं सामने आयी हैं और न किसी ने यह सवाल उठाया है की आखिर इतने वर्षों में यहाँ की सरकारों ने क्या किया है जो लोग विस्थापित नहीं हुए वे भी खेती करना लगभग छोड़ चुके हैं और ज़्यादातर अपने ही अंचल में सड़क बनाने वाले दिहाड़ी मजदूरों में बदल गए हैं। खेती-किसानी का फल देर से मिलता है लेकिन मजदूरी तुरंत नकद पैसा दे देती है जो उतनी ही जल्द खर्च हो जाता है। यह लोगों को अपने ही घर में विस्थापित बनाने का भयानक उदाहरण है।
शशिभूषण बड़ोनी: लेखन का सबसे मुष्किल पक्ष आपको क्या लगता है?
मंगलेश डबराल : शायद लेखन के सभी पक्ष कठिन हैं। आम तौर पर माना जाता है कि किसी रचना का आरम्भ करना, उसका पहला वाक्य लिखना सबसे मुश्किल होता है लेकिन रचना को किस जगह ख़त्म किया जाये यह तय करना भी कम कठिन नहीं है। मेरे लिखने की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि अक्सर किसी रचना के बीच का कोई दृश्यध्वाक्य सबसे पहले आता है और कई बार जो लिखना चाहता हूँ वह नहीं लिखा जाता बल्कि वह कुछ और ही शक्ल ले लेता है। दरअसल लिखने का सबसे कठिन और त्रासद पहलू यह है की हम जिस शिद्दत से जो कुछ लिखने की सोचते हैं उसे ठीक उसी तरह नहीं लिख सकते, शायद उसका पचास-साठ फीसद ही शब्दों में उतर पाता है। दिमाग और काग़ज़ के बीच एक बड़ी और अदृश्य दूरी है। ग्रीक दार्शनिक हेराक्लिट्स का एक प्रसिद्ध कथन है कि 'आप जिस नदी में नहाने की सोचते हैं, उसमें कभी नहीं नहा सकते क्योंकि सोचने और नहाने के बीच नदी बदल चुकी होती है'।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने विश्व साहित्य की कई कृतियों के अनुवाद भी किये हैं । कुछ ऐसी कृतियों के नाम जो साहित्य प्रेमियों को पढनी चाहिए?
मंगलेश डबराल: ऐसी कोई भी सूची अधूरी ही होगी। इतना महान साहित्य दुनिया में लिखा गया है और उसका लिखा जाना बंद नहीं हुआ है।मेरा ज्ञान बहुत सीमित है लेकिन बीसवी सदी की जो रचनाएँ मुझे बड़ी और ज़रूरी लगती हैं उनमें टॉलस्टॉय की 'पुनरू थान' (रेसुररेक्शन) चेख़व की कहानियां और नाटक, काफ्का का उपन्यास 'ट्रायल' और कहानी 'मेटामोर्फोसिस' कामू का 'आउटसाइडर', जुजे सारामागो के हिस्ट्री ऑफ़ ड सीज ऑफ़ लिस्बन',' ब्लाइंडनेस' गाब्रिएल गार्सिया मार्केस के उपन्यास 'वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड ' और 'ऑटम ऑफ़ पैट्रिआर्क' अरुंधती रॉय का' द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' मंटो की 'टोबा टेक सिंह' , 'खोल दो' और कई दूसरी कहानियां लू शुन की रचनाएँ इतालो काल्विनो के इफ ओन अ विंटर्स नाइट, अ ट्रैवलर और इनविजिबल सिटीज, रसूल हमजातोव और मक्सिम गोर्की के आत्मपरक वृत्तान्त, प्रेमचंद और रेणु के उपन्यास और कहानियाँ श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, राही मासूम रजा का आधा गाँव,ज्ञानरंजन, निर्मल वर्मा और अमरकांत की कहानियां, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य, नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, एर्नेस्तो कार्देनाल, यानिस रित्सोस, शिम्बोर्स्का रूज़ेविच, एलन गिन्सबर्ग, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण आदि की कविताएँ शामिल हैं। लेकिन यह सूची एकदम अधूरी और निजी है, इसमें किसी जीवित लेखक का नाम नहीं है और दूसरी भारतीय भाषाओं की रचनाएँ इसमें छूट गयी हैं। तेईस भाषाओं से चयन करना बहुत मुश्किल है।
शशिभूषण बड़ोनी: आपने गुणानन्द पथिक, घनश्याम शैलानी , मोहन थपलियाल आदि लोक कवियों, लेखकों पर बहुत मार्मिक कवितायें लिखी हैं । उनसे जुडी कुछ यादें ?
मंगलेश डबराल : मोहन थपलियाल मेरे घनिष्ठ मित्र थे। हमने कुछ समय एक ही अखबार में काम किया। गुणानंद पथिक कम्युनिस्ट जनकवि और गायक थे। बाँध में डूब चुके टिहरी शहर के बस अड्डे पर मैं उन्हें अक्सर पूरे स्वाभिमान और ऊर्जा के साथ अपने गले में हारमोनियम लटकाए हुए और गाते हुए देखता था। वे अपने गीतों की पुस्तिकाएं भी बेचा करते जिनमें जन-जागरण और परिवर्तन का आवाह्न होता था । मैं तब ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में पढता था लेकिन उस अद्भुत गायन-वादन से पैदा होने वाली सिहरन आज भी मेरी स्मृति में है।पथिक जी ने मेरे पिता को संगीत की शिक्षा दी थी और कुछ वक़्त तक उन्हें संगीत सिखाने घर भी आये पथिक जी जीवन के अंत तक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता रहे और अंत तक गरीबी में रहे।
केशव अनुरागी ढोल और लोकगायन की बड़ी प्रतिभा थे । वे त्यौहारों और मांगलिक कार्यों में ढोल-दमाऊ या नगाड़ा बजाने वाले बाजगी समुदाय के थे जिन्हें पहाड़ में औजी कहा जाता है। उन्होंने ढोल के तालों पर दुर्लभ किस्म का शोध कार्य किया था और कुछ समय कुमार गंधर्व से भी संगीत सीखा था। उनके पास बाजगियों का संगीत अपने शुद्धतम रूप में तो था ही, बहुत से लोकगीतों को उन्होंने नयी धुनों से भी समृद्ध किया। वे आकाशवाणी दिल्ली में प्रोड्यूसर थे। दिल्ली में नए-नए आये लेखकों के लिए आकाशवाणी एक बड़ा सहारा था। मैं जब भी वहां जाता, अनुरागी जी से मिलना बहुत अच्छा लगता। पहाड़ी गीतों को शास्त्रीय स्पर्श देते हुए गाने की उनकी शैली से मैं अभिभूत था। दिल्ली में रहने वाले ज़्यादातर पहाड़ी सवर्ण उनका सम्मान तो करते थे लेकिन दलित समुदाय के इस जीनियस से दुआ-सलाम पाने की उम्मीद भी रखते थे। इस सवर्ण अहंकार से अनुरागी का सामना बार-बार हुआ और एक कसक उनके भीतर बनी रही। अनुरागी जी पर कविता लिखते हुए मुझे उनके विलक्षण संगीत और उनकी सामाजिक हैसियत के बीच की फांक का भी ध्यान था। बाद में सुनने में आया कि अनुरागी जी का परिवार इस कविता से बहुत खुश नहीं है। इसकी ठीक-ठीक वजह पता नहीं है लेकिन मेरा ख़याल है कि इस सन्दर्भ में समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास की सांस्कृतिकरण की अवधारणा काम करती दिखती है।
शशिभूषण बड़ोनी: एक रचनाकार के रूप में आज के समाज कि कौन सी चीज आपको सबसे ज्यादा बेचेन करती है?
शशिभूषण बड़ोनी |
मंगलेश डबराल: हमारे समाज का जो अपराधीकरण और बर्बरीकरण इन दिनों किया जा रहा है, आम नागरिकों को जिस तरह सांप्रदायिक और अमानुषिक बनाया जा रहा है और राजनीति जिस तरह हमारी भाषा को भ्रष्ट झूठा और आक्रामक, हिंसक बना रही है वह विचलित करने वाला है। यह देखना बहुत त्रासद है कि किस तरह सहानुभूति, मददगारी, प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों को नियोजित ढंग से ख़त्म किया जा रहा है और एक निकृष्ट मनुष्य निर्मित हो रहा है। अफवाहों के आधार पर हत्या, उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या,आलोचना या विरोध करने वालों की हत्या, अलग तरह का जीवन या विचार के लोगों की हत्या, धमकी, अपमान, झूठी खबरों का व्यापक प्रसार, तर्क और विवेक के बजाय अंधविश्वासों का प्रचार, इतिहास के बजाय मिथकों पर विश्वास, विद्वता की बजाय मूर्खता को तरजीह, वास्तविक धर्म के बजाय पाखंडियों और अपराधियों का गुणगान। ये सब एक समाज और मनुष्य की आतंरिक मृत्यु के लक्षण हैं। हमारे नेता प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बारे में आये दिन जो हास्यास्पद और अहमकाना बयान देते रहते हैं वे हमारे अज्ञान के घनघोर रसातल की तरफ जाने के उदाहरण हैं। ऐसा समाज बाहरी तौर पर कितना ही खाता - पीता नजर आये भीतर से मरता हुआ होता है। दूसरी तरफ इन हालात पर कोई बड़ी बेचैनी नहीं नज़र आती, लोग विभ्रम और घुटन में हैं, लेकिन जैसा रघुवीर सहाय ने बहुत पहले अपनी एक कविता में कहा था 'क्रोध होगा पर विरोध नहीं'। आज ऐसी ही स्थिति है। हम देख सकते हैं कि हमारे चारों और कैसा मृतक समाज बन रहा है, लोग जैसे सब कुछ भूल गए हैं और सिर्फ बदला लेना याद रखे हुए हैं। रघुवीर सहाय की ही एक और कविता में राजा अपने मंत्री से कहता है कि 'समाज का मरना पहचानो मंत्री जी तभी हमारी सत्ता ज्यादा सुरक्षित रहेगी'। ये शब्द आज भयानक सत्य साबित होते दिख रहे हैं। एक भीतरी मृत्यु के दौर में कविता लिखना और उससे कोई उम्मीद करना अत्यंत विडम्बनापूर्ण लगता है।
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साभार: शशिभूषण बड़ोनी की किताब
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