निर्बंध-बीस
दौड़ौ दौड़ो जल्दी दौड़ो
यादवेन्द्र
बहु चर्चित फिल्म पान सिंह तोमर में एक क्रूर पर मार्मिक दृष्य है जिसमें भर पेट रोटी मिलने के लोभ में नायक सेना के स्पोर्ट्स विभाग में दाखिला लेना चाहता है तो एक अफसर उसकी दौड़ने की काबिलियत की ओर ध्यान न देकर चुहलबाजी में आइसक्रीम का डिब्बा पकड़ा देता है और हुकुम देता है कि दूसरे अफसर के घर इतने कम समय में पहुंचा कर दिखलाए जिसमें आइसक्रीम को पिघलने की नौबत न आये - पेट की भूख पान सिंह से यह काम चंद मिनटों में करवा लेती है।यह अलग बात है कि सौ साल से ऊपर हो चुके फौजा सिंह ने विलायत की सूनी जिन्दगी में कुछ रंग भरने की गरज से मैराथन दौड़ने की शुरुआत की थी या फिर आजकल कुछ तूफानी करने की गरज से खतरों भरी उछल कूद के विज्ञापन की मौज मस्ती हो पर भाग दौड़ की इस जिन्दगी में पेट की भूख न जाने कितने नौजवानों को आये दिन स्वाद बदलने की तफरीह वाले खाते पीते लोगों की सेवा में शहरों की भीड़ भाड़ भरी सड़कों पर बगैर अपनी जान माल की रत्ती भर भी परवाह किये चंद रुपयों के एवज में रोज कई कई घंटे दौड़ाती है...उनके सिर पर एक जुनून की तरह यह शर्त सवार रहती है कि निर्धारित मिनटों की समय सीमा के अंदर नए और अपरिचित गंतव्य तक सामान नहीं पहुंचा तो एक तो ग्राहक निगेटिव रेटिंग देगा,ऊपर से कंपनी अपने नुकसान की भरपाई उसके पगार से करेगी।
नए ज़माने की यह नयी फ़ौज फास्ट फ़ूड के विदेशी ( ज्यादातर) व्यापारियों के डेलिवरी ब्वायज (जिन्हें अब डिलीवरी पार्टनर्स कहा जाने लगा है) की है जो प्राईवेट सिक्युरिटी गार्ड्स और ओला और उबर की तरह बड़े महानगरों से शुरू होकर अब धीरे धीरे मंझोले और छोटी शहरों में पाँव पसारती जा रही है।एक अनुमान के अनुसार देश में ऑनलाइन फ़ूड सर्विस का कारोबार फिलहाल 1.6 बिलियन डॉलर का है जो अगले साल तक दुगुना हो जायेगा ।
यादवेन्द्र |
कोई आठ दस पहले जब यह नया धंधा फैलना शुरू हुआ था और
इन नौजवानों के साथ सड़क दुर्घटनाओं के कई नए मामले सामने आने लगे तो ये तथ्य निकल कर सामने आये कि दिल्ली के सबसे बड़े अस्पतालों के ट्रॉमा सेंटरों में सड़क दुर्घटना के बाद इलाज के लिए आने वाले फास्ट फ़ूड डेलिवरी ब्वायज की संख्या में तेजी से निरंतर इजाफा हो रहा है।यहाँ के वरिष्ठ डाक्टरों का कहना है कि दोपहिया वाहनों की खुली बनावट के कारण सिर की चोट और हड्डी टूटने के हादसे उनके साथ सबसे ज्यादा पेश आते हैं।भले ही उनके पास खाद्य सामग्री पहुँचाने के लिए तीव्रगामी दुपहिया वाहन होते हैं पर कम से कम समय में गंतव्य तक पहुँचने और फिर आगे वाले दूसरे पते पर जाने की जल्दी में वापस दुकान तक लौट जाने का मानसिक दबाव इतना प्रबल होता है कि किसी का भी लगातार बढती जा रही वाहनों की भीड़ से बच कर सुरक्षित निकल जाना दुश्वार होता जा रहा है।ऊपर से ग्राहक मिनट भर की देर पर भी निगेटिव रेटिंग देने को तैयार बैठे रहते हैं। हाल में एक रात में कई सौ ऐसे चालान काटने वाली चेन्नई की परिवहन पुलिस ने यह पाया कि 73% से ज्यादा डिलीवरी पार्टनर्स दुपहिया चलाते समय ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करते हैं.. यह देखते हुए कंपनी अधिकारियों को और मनोचिकित्सकों को बड़े पैमाने पर शामिल कर अभियान चलाया जा रहा है।यहाँ चेन्नई की बात इसलिए क्योंकि इसकी खबर मैंने पढ़ी - वैसे यह मंजर हर शहर में देखा जा सकता है।
एक अख़बार ने ऐसे ही हड्डी तुडवा कर इलाज करा रहे नौजवान को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि दिन में दस घंटे की ड्यूटी तो आम बात है पर शुक्रवार की शाम काम का सबसे ज्यादा दबाव होता है...कई कई बार तो इस दिन हमें चौदह घंटे खटना पड़ता है ..ट्रॉमा सेंटर के डाक्टरों ने भी शुक्रवार को सबसे ज्यादा दुर्घटनाओं की पुष्टि की।नेट में हैदराबाद के एक विज्ञापन के अनुसार डेलिवरी ब्वॉय को पच्चीस तीस हजार तक की पगार देने की पेशकश पढ़ी जिसमें भी अनुभवी युवकों को प्राथमिकता दिए जाने की बात थी।हालाँकि अब स्थितियां पहले की तुलना में बहुत सुधरी हैं और इस धंधे के बड़े खिलाड़ी मेडिकल सुविधा और सवेतन छुट्टियाँ देने की बात भी करते हैं।यहाँ तक कि जोमेटो ने हाल में राजस्थान के अपने एक शारीरिक रूप से अक्षम डिलीवरी पार्टनर को बैटरी से चलने वाला वाहन दिया - इसका भरपूर विज्ञापन भी किया।इसी कंपनी ने कुछ दिनों पहले एक मानवीय फल की और ग्राहकों से आग्रह किया कि जब हमारा आदमी आपका खाने का पैकेट आपके हाथ में थमाए तो कम से कम एक ग्लास पानी उसे पिला दें ।शर्मनाक बात यह है कि कम्पनी के इस आग्रह पर अनेक प्रतिक्रिया नकारात्मक आई कि अपने लोगों की सुख सुविधा का ध्यान रखन मालिकों का काम है ,हमारा नहीं।
पर ऐसा नहीं कि सब कुछ गुलाबी दिखाई दे रहा है - कुछ बड़ी कंपनियों के डिलीवरी पार्टनर आन्दोलन करने को मजबूर हुए क्योंकि पहले मिलने वाली सुविधाएँ और पैसे कम होते जा रहे थे।उनके अनुसार चार किलोमीटर के अंदर डेलिवरी के लिए उन्हें 35 रु और आठ किलोमीटर तक के लिए 120 रु दिए जाते थे जो अब घटा कर 15 रु और 80 रु कर दिए गये। खराब मौसमों में ( (ख़ास तौर पर बरसात में पानी भरे इलाकों में) जब ग्राहक तक पहुँचना बेहद दुश्वार होता है तब भी उसी मेहनताने पर वे काम करने को मजबूर हैं।
कुछ दिनों पहले न्यूयोंर्क टाइम्स ने एक प्रवासी चीनी डेलिवरी ब्वॉय की दिनचर्या के बारे में लम्बी रिपोर्ट छापी थी जिसमें व्यस्त अमेरिकी शहरों में इलेक्ट्रिक साईकिल से खाद्य सामग्री पहुँचाने वाले एक डेलिवरी ब्वॉय की व्यथा का खुलासा किया गया था कि कैसे नए नए बन रहे सुरक्षित अपार्टमेंट्स और आफिस परिसरों में सीधा प्रवेश करना मुश्किल होता जा रहा है और तेज मोटर वाहनों की टक्कर से बचने के लिए उनके किनारे बने पतले रास्तों पर चलने पर उन्हें पुलिस के जुर्माने का भागीदार बनना पड़ता है.उस आदमी से यह सुनना अच्छा लगा कि उसका भला मैनेजर कभी कभार समय से न पहुँच पाने वाला सामान उसको खाने को दे देता है...भारत के सन्दर्भ में यह बात कितनी सच होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. दिल्ली के बड़े फास्ट फ़ूड चेन के प्रबंधन का कहना है डेलिवरी पार्टनर्स को वे सामान पहुँचाने के लिए पर्याप्त समय देते हैं और सड़क दुर्घटनाओं के लिए उनकी नीतियों को दोषी नहीं माना जाना चाहिए...ये तो लड़कों की व्यक्तिगत असावधानियों से होती हैं इसलिए उनकी गलतियों का दोष कम्पनी के ऊपर नहीं डाला जाना चाहिए। कोई ताज्जुब नहीं कि अमेरिकी श्रम विभाग खाने का सामान घर घर पहुँचाने के इस काम को अनिवार्य तौर पर जुड़े हुए खतरों को देखते हुए सेना,पुलिस,स्टंट करतब प्रदर्शन और आग बुझाने के काम के बाद पांचवां सबसे जोखिम भरा काम शुमार करती है.
करीब दस साल पहले अमेरिका के एक फास्ट फ़ूड चेन के खिलाफ अनेक फ़ूड डेलिवरीपार्टनर्स के संगठित होकर मुकदमा करने से दुनिया भर का ध्यान मजदूरों की इस नयी फ़ौज की तरफ गया जिसमें यह खुलासा हुआ कि उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम पगार दी जाती थी... हर घंटे के करीब 1 .6 डालर पर सामग्री पहुँचने में एक बार देर होने पर 20 डालर और जल्दबाजी में दरवाज़ा खोलने के लिए उसपर हाथ मारने पर 50 डालर का जुरमाना वसूला जाता था.ऐसे काम में ज्यादातर दूसरे देशों से झूठे सच्चे कागजातों का सहारा लेकर अमेरिका आये हुए मजदूर लगे हुए थे ( ज्यादातर चीनी) इसलिए उनको बात बात पर उनकी गैरकानूनी नागरिकता की असलियत उजागर कर देने की धमकी भी दी जाती थी....भारत के सन्दर्भ में देखें तो गाँव से शहरी चकाचौंध देख कर आकर्षित हुआ भोला भला नौजवान इस शोषण चक्र का शिकार बनता हुआ दिखेगा...इस बहु चर्चित मुक़दमे का परिणाम सभी वादी मजदूरों की पुनर्बहाली और करीब 46 लाख डालर की भरपाई के रूप में सामने आया जो उस समय तक के अमेरिका के सबसे बड़े रेस्टोरेंट हर्जाने के तौर पर अब भी याद किया जाता है.ऐसे ही अनेक क़ानूनी विवादों को ध्यान में रख कर बड़े फ़ूड चेन निर्धारित समय पर आपूर्ति न होने की दशा में पूरा पैसा लौटा देने का ऑफर स्थगित करने लगे.
कारोबारी दुनिया की लुभावनी दुनिया की मिसाल है हाल में चीन में अपनी दुकान खोलने वाले अमेरिकी के.एफ.सी.(केंटुकी फ्राईड चिकेन) के छद्म नामों से विज्ञापित किये जाने वाले ये ऑफर कि खाने का सामान तो अच्छा होगा ही इसको पहुँचाने वाले डेलिवरी ब्वॉय का रंग, कद काठी,वेश भूषा और भाषा भी ग्राहक जैसा चाहे उसको वैसा ही हैंडसम उपलब्ध कराया जायेगा.बाद में ग्राहक से कंपनी संतुष्ट होने की बाबत जानकारी भी लेगी.यद्यपि कंपनी इस तरह के किसी छद्म प्रचार से इंकार करती है पर वहाँ के वेब जगत में हजारों की संख्या में मन माफिक आई कैंडी का लाभ लेने वाले लोगों के निजी अनुभव इस बारे में मौजूद हैं. इस पर चर्चा के दौरान यह बात भी सामने आयी कि अपने सामान की कीमत बढ़ाने के लिए कंपनी ऐसे हथकंडे अपना रही है. कल को चीन से किसी भी हाल में न पिछड़ने की बदहवासी में हमारे देश के नौजवानों को भी फुर्ती और चुस्ती के साथ साथ अपनी सूरत को भी दाँव पर लगाना पड़ा तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए.
०००
निर्बंध उन्नीस नीचे लिंक पर पढ़िए
यादवेन्द्र
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की
पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014
मोबाइल - +91 9411100294