24 मई, 2019

निर्बंध: उन्नीस

 जलवायु युद्ध के युवा सेनापति 
                                                                                 यादवेन्द्र


"मैं सुरक्षित महसूस करना चाहती हूँ 
जब देर रात घर लौट कर आऊँ
जब सड़क के नीचे सब वे के अंदर बैठूँ 
जब रात में बिस्तर पर सोऊँ.....
पर कहाँ हूँ मैं सुरक्षित 
मैं सुरक्षित महसूस करना चाहती हूँ।







पर मैं कैसे सुरक्षित महसूस कर सकती हूँ जबकि मालूम है मानव इतिहास के सबसे गंभीर संकटपूर्ण  दौर से गुजर रही हूँ।जब मुझे मालूम हुआ कि हमने यदि अभी निर्णायक कदम नहीं उठाये तो फिर हमारे बचने का दूर-दूर तक कोई रास्ता नहीं। जब मैंने पहली बार ग्लोबल वार्मिंग के बारे में सुना तो मुझे लगा यह सब बकवास है,ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे अस्तित्व को इतने खतरे में डाल दे।और मुझे ऐसा इसलिए लगा कि सचमुच यदि ऐसा खतरा हमारे सिर पर मँडरा रहा होता तो फिर हम किसी अन्य विषय के बारे में बात क्यों करते होते... आप टीवी खोलें तो केवल और केवल उसी विषय पर बात होनी चाहिए। हेडलाइन, रेडियो, अखबार सब पर केवल और केवल उसी खतरे के बारे में बातचीत होनी चाहिए.. कोई और विषय नहीं होना चाहिए जिसके बारे में सुना जाए या बात की जाए...जैसे हम विश्व युद्ध के बीच घिर गए हों।पर जमीनी सच्चाई थी कि कोई उस विषय में बात नहीं करता था। जब मुझे मालूम हुआ कि हमने यदि अभी निर्णायक कदम नहीं उठाये तो फिर हमारे बचने का दूर-दूर तक कोई रास्ता नहीं।

और यदि कोई उस विषय पर बात करता भी था तो उसका वैज्ञानिक निष्कर्षों से कुछ लेना देना नहीं होता था ।एक दिन मैं विभिन्न पार्टियों के नेताओं की बहस टीवी पर देख रही थी तो मैंने देखा कि वे किस कदर झूठ बोल रहे हैं। वे कह रहे थे कि स्वीडन को कार्बन उत्सर्जन पर किसी तरह की रोक लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम तो दुनिया के एक रोल मॉडल हैं ... और हम दूसरे देशों को इस बारे में सिखा सकते हैं, उनकी मदद कर सकते हैं। वैज्ञानिक तथ्य यह बताते हैं कि स्वीडन कोई रोल मॉडल नहीं है - हर वर्ष स्वीडन में प्रति व्यक्ति 11 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार हम पहले नहीं बल्कि आठवें स्थान पर हैं। हम दूसरों को क्या बताएंगे - हमें स्वयं जानने और सीखने की जरूरत है । मैं यह नहीं समझ पाती कि टीवी जैसे माध्यम पर नेताओं को इतना झूठ बोलने की छूट कैसे मिल जाती है। हो सकता है बड़ों को यह लगता हो कि जलवायु परिवर्तन का विषय समझना मुश्किल है  और यही कारण है के जलवायु के बारे में जब भी टीवी पर कोई कार्यक्रम होता है ,वह बच्चों के कार्यक्रम में दिखाया जाता है ।जलवायु परिवर्तन के बारे में जब मैं 12 वर्ष की थी तब जान गई थी और तभी से मैंने यह तय किया था कि मैं कभी हवाई जहाज पर नहीं चढूंगी और न ही मांस खाऊँगी। हमारे समय को जो मुद्दे परिभाषित करते हैं उनमें से जलवायु का संकट एक प्रमुख मुद्दा है फिर भी हर कोई यह समझता है कि यह तो बहुत मामूली सा मुद्दा है जिसको पल भर में चुटकी बजाते हुए बगैर किसी त्याग के सुलझाया जा सकता है ।हर कोई यह कहता है कि आशावादी बने रहना चाहिए, सकारात्मक रहना चाहिए और यही समस्या के समाधान के लिए जरूरी है। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे टाइटेनिक जहाज आइसबर्ग से टकरा जाए और उसके बाद भी उस पर जो बचे हुए जीवित यात्री हों वे इत्मीनान से बैठ कर बात करते रहें कि बीच समुद्र जहाज टूटने की यह कहानी कितनी मशहूर होगी और जो बचे हुए लोग हैं बाद में इतिहास में वे कितनी शोहरत पाएंगे ...या फिर टूटे हुए जहाज से यात्रियों को बचाने के लिए कितने मजदूरों की जरूरत होगी,उस मौके से  कितनी नौकरियाँ पैदा होंगी - हादसे के समय भी इन पर बातचीत चलती रहे। बहरहाल जहाज को तो डूबना ही था वह डूब ही जाता,उसके आगे पीछे जो चीजें होती रहती होती रहतीं। वैसे ही हम आज इतिहास के इस मोड़ पर खड़े हैं जहाँ चीजों को बदल सकते हैं,बेहतरी की तरफ मोड़ सकते हैं और इसीलिए हम अपनी पीठ खुद ठोकते हैं कि शायद हमने आइसबर्ग से टकराकर टूट जाने वाले जहाज का भोझ कुछ हल्का कर दिया और उसकी गति बढ़ा कर खतरे की जल्दी पार कर जाने दिया.... पर क्या मनुष्यता के इतिहास का जो काल वेग है उसको हम धीमा कर पाएंगे?यदि मैं 100 साल तक जीती रही तो 2103 में मैं जिंदा रहूँगी।
आप तो 2050 के आगे की बात सोचते ही नहीं तो फिर भविष्य के बारे में कब सोचेंगे - 2050 तक तो यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो मैं अपना आधा जीवन भी नहीं बिता पाई होंगी,उसके बाद क्या होगा? 2078 में मैं अपने जीवन की 75 वीं वर्षगाँठ मनाऊँगी और यदि मेरे बच्चे हुए और आगे उनके भी बच्चे हुए तो वे भी मेरे साथ मेरी वर्षगाँठ के उत्सव में शामिल होंगे।तब मैं उनसे आपके बारे में क्या कहूँगी...आप ही बताइए कि आप इतिहास में और हमारे जीवन में कैसे याद किया जाना चाहेंगे?आप कुछ करें या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, बिल्कुल कुछ न करें - दोनों हालातों में आप हमारे पूरे जीवन को प्रभावित तो करेंगे ही।केवल मेरे ही जीवन पर ही नहीं बल्कि हमारे बच्चों और आगे उनके बच्चों के जीवन तक पर भी आपके काम या अकर्मण्यता का असर पड़ेगा। हम एक बार को उस समय यदि खामोशी भी ओढ़ लें तो भी वे जरूर आपसे सवाल करेंगे कि आपने सब कुछ जानते बूझते हुए कुछ क्यों नहीं किया? आप तो सारी चीजें गहराई से जानते थे और गलत को गलत और सही को सही कह सकते थे, तब भी आपने कुछ क्यों नहीं कहा और किया?"
पिछले साल अगस्त के महीने में इन्हीं सवालों के साथ स्वीडन की पंद्रह वर्षीय युवा विद्यार्थी ग्रेटा थुनबर्ग ने अपनी स्मृति में सबसे ज्यादा प्राकृतिक हादसों को झेलने वाले स्वीडन (व्यापक रूप में पूरे यूरोप) के बेहतर पर्यावरणीय भविष्य की  माँग करते हुए स्कूल से निकल कर स्वीडिश संसद की सीढ़ियों पर बैठने का फैसला कर लिया - उसने हाथ में "सुरक्षित जलवायु के लिए स्कूल से हड़ताल" की तख्ती ले रखी थी।अपने देश की सरकार से उसकी माँग थी की पेरिस जलवायु सम्मलेन में यह तय किया गया कि इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान को दो डिग्री से कम बढ़ने देने के लिए कार्बन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाया जाएगा। 2018 में जारी आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाली बहुराष्ट्रीय संगठन) की एक रिपोर्ट का दावा है कि 2050 तक यदि तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन  पर पूरी तरह रोक लगानी पड़ेगी।





ऑटिज्म(आत्मकेंद्रित बना देने वाला एक मानसिक लक्षण) से ग्रसित ग्रेटा की दिलचस्पी छः साल पहले जलवायु  का विज्ञान समझने में हुई और यथासम्भव हर तरह की जानकारी उसने इकठ्ठा करनी शुरू की - मांसाहार त्यागना , जब जरूरत हो तभी बत्ती जलाना , अनिवार्य जरूरत के अतिरिक्त कोई सामान न खरीदना ,पानी के उपयोग में किफायत बरतना ,सोलर बिजली का प्रयोग ,ऑर्गेनिक खेती ,हवाई यात्रा से परहेज जैसे अनेक उपाय उसने बचपन में ही अपना लिया। शुरू शुरू में उसके माँ पिता और मित्रों परिचितों के साथ साथ स्कूल प्रबंधन ने उसे ऐसा करने से  कोशिश की पर  वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित उसके दृढ संकल्प  के सामने किसी की एक न चली।स्कूल से अनुपस्थित रहने के कारण उसपर अनुशासनहीनता का आरोप लगाया गया पर ग्रेटा अपने निश्चय से डिगी नहीं।स्कूल में पढ़ाई के समय को प्रदर्शन में लगाने को गलत मानने वालों को जवाब देते हुए ग्रेटा कहती है :"मैं अपनी किताबें साथ लेकर संसद की सीढियों पर धरने पर बैठती हूँ .... पर सोचती हूँ :क्या मिस कर रही हूँ ?स्कूल में रह कर आखिर क्या पढ़ लूँगी?आज तथ्यों का कोई महत्त्व नहीं है .... राजनेता वैज्ञानिकों की बात जब नहीं मानते तो मैं ही पढ़ कर क्या तीर मार लूँगी?....यदि आपको अब भी लगता है कि हम पढ़ाई का बहुमूल्य समय गँवा रहे हैं तो आपको याद दिला दूँ कि आपने (राजनेताओं ने) इनकार और निष्क्रियता में दशकों गँवा दिए।"

"उस भविष्य के लिए क्या पढ़ाई करना जो हमसे छीना जा रहा है ... उन तथ्यों के लिए  पढ़ना जिनकी हमारे समाज में न कोई इज्जत है न अहमियत ?जब आप सच्चाई जान जाते हो तो आपकी शक्ति और हिम्मत बढ़ जाती है ,आपको समझ आता है आप कुछ कर रहे हो .... मैं बेहतरी के लिए एक स्टैंड ले रही हूँ , जो चल रहा है उसको अवरुद्ध कर रही हूँ।" , आपने आन्दोलन के सही होने से आश्वस्त ग्रेटा आत्मविश्वास भरे स्वर में कहती हैं।

ग्रेटा ने निम्नलिखित संदेश पर्चे में छपवा कर लोगों को बाँटा जिससे अपने आंदोलन को वैचारिक आधार प्रदान कर सके :
मैं यह विरोध प्रदर्शन इसलिए कर  रही हूँ क्योंकि
आप सयानों ने हमारे भविष्य को गटर में फेंक दिया है।
इस बारे में कोई कुछ नहीं कर रहा है .. मुझे यह अपना नैतिक दायित्व लगता है कि  वह  जरूर करूँ जो एक इंसान के तौर पर मैं कर सकती हूँ।

मेरा विश्वास है कि राजनेताओं को जलवायु से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता सूची में शामिल करना चाहिए - इसे एक आसन्न संकट के रूप स्वीकार कर सुलझाने की तत्काल शुरुआत करनी चाहिये।


"हमें व्यवस्था बदलनी होगी .... यह समझते हुए कि हमारे चारों और दुर्धर्ष युद्ध छिड़ा हुआ है और हमारा अस्तित्व गहरे संकट में है।", पोलैंड में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में ग्रेटा थुनबर्ग ने बड़े कठोर शब्दों में दुनिया भर से आये प्रतिनिधियों के सामने कहा : "आप कहते हैं कि किसी और बात से ज्यादा आपको अपने बच्चों के भविष्य से सरोकार है..... फिर भी आप उनकी आँखों के सामने ही उनका भविष्य चुरा रहे हैं।"

"आप कामचलाऊ तौर पर या थोड़े बहुत व्यवहार्य और टिकाऊ ( सस्टेनेबल) बिलकुल नहीं हो सकते - या तो आप इधर हो सकते हो या फिर उधर , बीच में झूलने का नाटक अब और नहीं चल सकता।"
"मैं चाहती हूँ कि आपके मन में पसरा  चैन उड़ जाए और उसकी जगह आकस्मिक भय और खलबली ( पैनिक ) काबिज  हो जाए ..... वैसा ही भय जैसा मैं अपने मन में हर रोज महसूस करती हूँ।" ग्रेटा स्वयं भी और उसकी माँ स्वीकार करती है कि जलवायु के मुद्दे पर  काम करने से वह बेहतर महसूस करती है।

मोटे तौर पर बढ़ते तापमान को काबू में रखने के लिए निम्नलिखित मुद्दों पर ध्यान देने का आह्वान ग्रेटा करती है :
परिवहन - पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों पर रोक लगा कर वैकल्पिक ईंधन का प्रयोग करना होगा।
अक्षय ऊर्जा - कोयला , तेल और गैस के स्थान पर बिजली के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोत अपनाने होंगे।

आवास - भवन निर्माण और रहन सहन के लिए स्वावलंबी ऊर्जा उत्पादन को अपनाना होगा।

कृषि - कार्बन उत्सृजन को सोखने के लिए सघन वृक्षारोपण ,भोजन की बर्बादी और मांसाहार पर रोक लगाना होगा।
उद्योग - सौर ऊर्जा और अक्षय ऊर्जा की अनिवार्यता।
राजनीति - कम से कम संसाधनों का उपयोग ,युद्ध पर रोक ,टिकाऊ सामाजिक जीवन शैली के लिए जन शिक्षण, पारदर्शी शासन व्यवस्था ,स्वतंत्र न्यायपालिका इत्यादि। 

देखते देखते एक इकलौती लड़की द्वारा शुरू किया गया विरोध प्रदर्शन पूरी दुनिया में फ़ैल गया - अनुमान है कि 15 मार्च 2019 को दुनिया भर के सवा सौ देशों के लगभग पंद्रह लाख किशोर ग्रेटा द्वारा शुरू किये पर्यावरण आंदोलन के समर्थन में सड़कों पर निकले।


ब्रिटेन के प्रतिष्ठित जलवायु वैज्ञानिक केविन एंडरसन का यह वक्तव्य इस पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण है : "हड़ताल और प्रदर्शन करने वाले अधिकांश बच्चे जब जन्मे भी नहीं थे वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन के बारे में भरपूर जानकारी थी। ... इतना ही नहीं उन्हें इसके नियंत्रण के उपायों के बारे में भी मालूम था। पर एक चौथाई सदी बीत जाने पर भी जिम्मेदार लोग कुछ करने में नाकाम रहे - अब यदि निर्धारित समय सीमा में यदि तापमान को दो डिग्री से आगे नहीं बढ़ने देना है तो मनुष्यता के पास बचाव के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा है।"


ब्रिटेन की प्रधानमन्त्री टेरेसा मे सरीखे राजनेताओं ने ग्रेटा द्वारा शुरू किये गए इस आंदोलन को बचकाना और तथ्यों से अनभिज्ञ भले बताया हो पर दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों ने लिखित वक्तव्य जारी कर उन मुद्दों का समर्थन किया है जो आंदोलन ने अपने विरोध प्रदर्शनों में उठाये हैं।  12अप्रैल2019 को छपी  "साइंस" पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के विभिन्न देशों के तीन हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों ने युवाओं द्वारा उठाये गए मुद्दों के समर्थन में "कन्सर्न्स ऑफ़ यंग प्रोटेस्टर्स आर जस्टिफाइड" शीर्षक से लिखित वक्तव्य पर हस्ताक्षर किये।




"यदि मानवता तत्काल कदम बढ़ा कर निर्णायक ढंग से ग्लोबल वार्मिंग को काबू में नहीं करती , जीवों  और वनस्पतियों का आसन्न महाविनाश नहीं रोकती ,भोजन की आपूर्ति का कुदरती आधार नहीं बचाती और वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों की सलामती सुनिश्चित नहीं कर पाती तो साफ़ साफ़ यह मान लेना होगा कि हमने अपने सामाजिक ,नैतिक और ज्ञानाधारित दायित्वों का निर्वहन नहीं किया.... अनेक सामाजिक ,तकनीकी और कुदरती समाधान हमारे सामने उपलब्ध हैं। युवा प्रदर्शनकारियों की  समाज को व्यवहार्य बनाने के वास्ते इन उपायों को लागू करने की माँग  बिलकुल उचित और न्यायसंगत है। सख्त ,बेवाक और अविलंब कदमों के उठाये बगैर उनका भविष्य गहरे संकट में पड़ जाएगा। उनके बड़े होकर निर्णायक भूमिका में आने तक  इंतज़ार करना मानव समाज के लिए बहुत महँगा पड़ेगा। "(वक्तव्य के उद्धरण)

इसी महीने "टाइम" पत्रिका ने ग्रेटा थुनबर्ग को दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया। इससे पहले उसे नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है। वह संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव ,यूरोपीय संसद प्रमुख ,विश्व बैंक प्रमुख,दावोस में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम प्रमुख और पोप के साथ विचारों का आदान प्रदान कर चुकी है। पोप ने उसे अपना काम आगे बढ़ाते रहने की सलाह दी। बर्लिन के बिशप ने ग्रेटा की तुलना यीशु मसीह के साथ की तो प्रमुख जर्मन टीवी एंकर ने चे ग्वेवारा का अभिनव अवतार बताया।
ग्रेटा अलग अलग देशों में जाकर अलख जगाती है, भाषण देती है, राजनेताओं और वैज्ञानिकों से मिलती और विमर्श करती है पर ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाली हवाई यात्रा बिलकुल नहीं करती। "मैं चाहती हूँ कि आपके मन में पसरा  चैन उड़ जाए और उसकी जगह आकस्मिक भय और खलबली ( पैनिक ) काबिज  हो जाए

 ..... वैसा ही भय जैसा मैं अपने मन में हर रोज महसूस करती हूँ।" ग्रेटा स्वयं भी और उसकी माँ स्वीकार करती है कि जलवायु के मुद्दे पर  काम करने से वह बेहतर और रोगमुक्त महसूस करती है।

उसकी गायक माँ ने बरसों पहले अपने करियर को दाँव पर लगाते हुए हवाई यात्रा से तौबा कर ली थी। ग्रेटा का दुःख यह भी है कि दुनिया बचाने के लिए जलवायु संबंधी जितनी भी नीतियाँ बनायीं जा रही हैं वे 2050 के आगे नहीं देखतीं-"तब तक तो मैं अपना आधा जीवन भी नहीं जी पाऊँगी....उसके बाद क्या होगा- मेरा, मेरे बच्चों का?"     



यादवेन्द्र


ग्रेटा थुनबर्ग स्वीडन के बेहद प्रतिष्ठित खानदान से ताल्लुक रखती हैं - वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन के चलते तापमान में वृद्धि ( ग्लोबल वार्मिंग ) का सिद्धांत प्रतिपादन करने के लिए 1903 में रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्वांते आर्हिनियस के परिवार से उसके पिता आते हैं सो उनकी बिरासत को ग्रेटा इतने पैशन के साथ बढ़ा रही हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

इसी विषय पर पिछले वर्ष "सीन्स फ्रॉम द हार्ट" पूरे परिवार द्वारा मिल कर लिखी किताब है - ग्रेटा ,उसकी बहन बीटा ,पिता स्वांते थुनबर्ग (अभिनेता ,फिल्म निर्देशक)   और माँ मालेना एर्नमैन (प्रतिष्ठित ऑपेरा गायिका) का सामूहिक वक्तव्य - जो स्त्रियों ,अल्पसंख्यकों और विकलांगों के दमन को भी हमारी  विनाशकारी और अव्यवहार्य जीवन शैली तथा जलवायु  परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखती है।
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https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/2008.html?m=1



1 टिप्पणी:

  1. धुन की पक्की ग्रेटा को सलाम। हमारे यहाँ तो आलम यह है हम बस चाहते हैं कि पर्यावरण साफ़ हो, चीजें बदले.. पर इस बदलाव के लिए हमारी कोशिश क्या होगी? हमें क्या नहीं करना चाहिए और क्या नहीं इस बारे में हम मौन हो जाते हैं। एक कवि या लेखक के नाते हमारी चिंता तो कभी कभार दिखाई पड़ जाती है पर आम तौर पर एक नागरिक के रूप में हम फिसड्डी ही साबित हुए हैं। मेरे घर पर पत्नी और मेरी कोशिश होती है की हैम पलास्टिक या पॉलिथीन का इस्तेमाल कम से कम करें पर जब माह के माह दो माह बाद वह या मैं प्लास्टिक के हमारे द्वारा इधर उधर न फेकें गए ढेर पर नज़र दौड़ाते हैं तो यह हमें चौंकाता है.. और अंत हम भी वही करते हैं कि उस ढेर शहर का कचरा बटोरने वाली गाड़ी के हवाले कर देतें हैं जिसके पास शहर से बाहर कुछ दूरी पर किसी खुली जगह में फेंकने के सिवाए कोई और तरकीब नहीं रहती...

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