12 मई, 2019

साक्षात्कार

यात्राएँ हमें इस अर्थ में बड़ा करती हैं कि वे हमें
हमारे छोटे और मामूली होने का भान देती हैं।

शेखर पाठक से शशिभूषण बडोनी की बातचीत

शशिभूषण बडोनी - सर जी, आप कुछ अपने बचपन की शिक्षा-दीक्षा तथा साथ ही उच्च शिक्षा कहां से हुई के बारे में भी कुछ तथा उमा भट्ट जी से दाम्पत्य बँधन के प्रसंगों के बारे में कुछ अवगत कराने की कृपा करें।


शशिभूषण बडोनी


शेखर पाठक - मैं ग्राम पठक्यूड़ा (गंगोलीहाट), जिला पिथौरागढ़ (तब जिला अलमोड़ा) में पैदा हुआ था। कक्षा 3 या 4 में भर्ती किया गया था गंगोलीहाट के प्राईमरी स्कूल में। कक्षा 5 तथा कक्षा 6 कैलेन्सी हाई स्कूल मथुरा से किया। कक्षा 7 तथा कक्षा 8 मिडिल स्कूल दशाईथल, 9-10 श्री महाकाली हाईस्कूल गंगोलीहाट से तथा इंटर प्राइवेट जी.आई.सी., पिथौरागढ़ से किया। एक शिक्षक की हैशियत से मुझे कुछ समय मिडिल स्कूल में अध्यापन करने का मौका मिला था तो बी.ए. प्रथम साल प्राइवेट किया। तब शिक्षकों को ही प्राइवेट परीक्षा देने की सुविधा थी। बी.ए. द्वितीय साल के लिए मैं लखनऊ की एक नौकरी छोड़कर अलमोड़ा आया। फिर एम.ए. के लिए भी 1972 में इलाहाबाद और लखनऊ के चक्कर लगाकर अलमोड़ा ही आया क्योंकि अन्यत्र विश्वविद्यालय सत्र 2-3 साल तक पीछे चल रहे थे। इस तरह एम.ए. अलमोड़ा कालेज से किया। मैं कुमाऊं विश्वविद्यालय की पहली बैच का एम.ए. (इतिहास) का विद्यार्थी था।
एम.ए. करने के बाद मुझे सितम्बर 1974 में पहली नियुक्ति मिली, तब मैं शोध कार्य हेतु दिल्ली जा चुका था। शुभचिन्तकों की फटकार के बाद कि ‘शोध तो हो जायेगा पर नौकरी कहां मिलेगी ?’, वापस नैनीताल से पी.एचडी. की शुरुआत और नौकरी की प्रतीक्षा की। कैरियर अच्छा होने के कारण बताया गया कि लेक्चरर की नौकरी मिल जायेगी। दिसम्बर 1974 में मिल भी गई। 1977 में मैं विवि सेवा में आ गया। इस तरह दिसम्बर 1974 से जनवरी 2006 में वालन्टरी रिटायरमेंट लेने तक डी.एस.बी. कालेज, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल का इतिहास विभाग मेरी कर्मस्थली रहा। 32 साल मैं वहां रहा। 1978-80 बीच में दो साल के लिए भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की फैलोशिप और 1995 से 98 तक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की फैलोशिप में रहा। नेहरू स्मारक, तीनमूर्ति की फैलोशिप (2005-2009) का एक साल मैंने कुमांऊ वि.वि. से अवकाश लेकर किया था। शेष तीन साल वहां से अग्रिम रिटायर होकर। मैंने जो भी किया और नहीं कर पाया उसमें कुमाऊं वि.वि. का असाधारण योगदान रहा। विवि ने मुझे मुक्त भी किया और बांधे भी रखा। शायद मैं उतना नहीं कर सका, जितना करना चाहिए था विश्वविद्यालय में।

विवि सेवा के प्रारम्भिक सालों में ‘उत्तरा’ की संस्थापक-सम्पादकों में एक बनने वाली उमा भट्ट ने मुझे खोजा और मैंने उन्हें पाया। यह सौभाग्य भी अनेक अनुशासनों तथा दिशाओं में भटकने में मदद करता रहा। हमारा अलग से पारिवारिक जीवन कम रहा। वह ज्यादातर वृहत सामाजिक जीवन का हिस्सा सा था। परिवार का अलग से ख्याल करने का विचार कभी नहीं आया। उमा भट्ट का मेरे जीवन और कामों में योगदान तो कभी अपनी कथा में बताना होगा। अभी बस।

शशिभूषण बडोनी - आपने अपने जीवन में बहुत अधिक यात्राएं की हैं। 1974 से शुरु अस्कोट-आराकोट यात्रा जो हर दस साल में आयोजित होती है, तो जैसे आपके नाम का पर्याय ही बन चुकी है। इसके अलावा भी आपने बहुत सारी यात्राएँ की है। उनके बारे में कुछ प्रकाश डालें?

शेखर पाठक - दरअसल नौकरी छोड़कर लखनऊ से अलमोड़ा अध्ययन हेतु आना मेरे सौभाग्य का कारण बना। अलमोड़े में ही लिखना, बोलना, गाना, भाषण देना, सम्पादन करना और घूमना सब कुछ सीखा, पर आधा अधूरा। निखार का कभी मौका ही नहीं मिला। 1973 में पिंडारी यात्रा से लौटकर हमारी टोली कुछ गर्वीली हो गई थी। जो लेख माला लिखी ‘शक्ति’ में, उसे पढ़कर सुन्दर लाल बहुगुणा हमें ढूंढने निकले। वे 120 दिन की उत्तराखण्ड यात्रा में तो थे ही। दिसम्बर 1973 या जनवरी 1974 की बात होगी, मैं अपने गांव में न था, पर अलमोड़ा में उनकी पकड़ में आ गया। उन्होंने ही शमशेर बिष्ट और मेरी मुलाकात कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर से कराई और अस्कोट-आराकोट अभियान का विचार दिया। इस यात्रा ने हम सब यात्रियां को बदल दिया। मनुष्य और पहाड़ी मनुष्य बना दिया। इस यात्रा से लौटते समय हम गर्व से नहीं विनम्रता (और रचनातमक आक्रामकता) से भरे थे। हम चारों तथा अन्य यात्रियों का पहाड़ के मुद्दों से आजन्म का रिश्ता हो गया। हम बने कि बिगड़े वह सब इस यात्रा के कारण।
फिर यात्राआें का सिलसिला चल पड़ा। हर साल किसी न किसी इलाके, प्रान्त या देश में यात्रा करते। 50 से अधिक बड़ी पैदल यात्राएँ हम लोगों ने भारतीय हिमालय, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, तिब्बत आदि में की। हिमालय की अनेक यात्रायें चंडी प्रसाद भट्ट, अनूप साह, कमल जोशी, गौतम भट्टाचार्य, दिनेश बिष्ट, ललित पन्त, रधुबीर चन्द, उमा भट्ट, कर्नल जे.सी. जोशी, प्रदीप पाण्डे, डैन जैन्सन, प्रकाश उपाध्याय, नीरज पन्त, गिरिजा पाण्डे, मनमोहन चिलवाल, ओमी भट्ट, थ्रीश कपूर, चन्दन डांगी, रूपिन तथा अशोक गुरुंग  आदि के साथ कीं। 1984, 1994, 2004 तथा 2014 में अस्कोट आराकोट अभियान को बहुत सुव्यवस्थित अध्ययन यात्राओं का रूप दिया गया। जिसमें सैकड़ों ग्रामीणों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, पत्रकारों, लेखकों, वैज्ञानिकों, समाजवैज्ञानिकों, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सेदारी की। प्रदेश, देश और विदेश से। 1974 में कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, शमशेर बिष्ट और मैं यात्रा में सर्वाधिक रहे। शमशेर और मैंने कुछ छूटे हिस्से 1975-76 में कवर किये। 1984 में कमल जोशी, गोविन्द पन्त राजू तथा मैं 50 दिन साथ रहे। 1994 में कमल जोशी और मैं। 2004 में कमल जोशी नहीं आ सका पर डैन जैन्सन, रूप सिंह धामी तथा नीरज पन्त पूरी यात्रा में साथ रहे।
2014 के अभियान में शुरू से अंत तक अखिल जयराम, प्रकाश उपाध्याय, भूपेन सिंह, देवेंद्र केंथोला, कमल जोशी और मैं रहे। कम से कम 20 सदस्यों ने 25 से 35 दिन तक यात्रा में हिस्सेदारी की। इस अभियान में भारत के आठ राज्यों के साथ अमेरिका और कनाडा के 260 से अधिक यात्रियोंं (ग्रामीणों, आठ विश्वविद्यालयों तथा चार संस्थानों के प्राध्यापकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों, समाज विज्ञानियों, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, लेखक-पत्रकारों, फिल्मकारों, पर्वतारोहियों तथा पूर्व यात्रियों) ने हिस्सा लिया, जिनमें 5 दर्जन से अधिक महिलायें थीं। सबसे कम उम्र का सदस्य 6 साल का बालक था तो सबसे अधिक उम्र की 83 साल की महिला। यात्रा की शुरूआत में पांगू में चंडी प्रसाद भट्ट साथ थे, तो आराकोट में पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के संयुक्त सचिव बृजमोहन सिंह राठौर और पंत पर्यावरण संस्थान के आर. के. मैखुरी उपस्थित थे। 2004 की यात्रा के अन्त में आराकोट में उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव आर.एस.टोलिया आये थे। वहां मौजूद कुंवर प्रसून, शमशेर बिष्ट और आर.एस. टोलिया आज हमारे बीच नहीं हैं।
45 दिनों में 1150 कि.मी. लम्बी, 7 जिलों के 350 से अधिक गांवों से गुजरने वाली इस यात्रा ने हमें उत्तराखण्ड की तथा अन्य यात्राआें ने हिमालय की समकालीन असलियत ही नहीं, भूगोल, इतिहास, समाज-संस्कृति, पर्यावरण और आर्थिकी आदि सबको गहराई से समझने में मदद की। एक दशक में हुये परिवर्तन को समझने की कोशिश भी हमने की। सबको अध्ययन भी खूब करना होता था ताकि किताबों में लिखे को आंखां से देख सकें और आंखिन देखी को शब्द दे सकें। हिमालयी इतिहास की मेरी दृष्टि इन यात्राओं से निर्मित हुई। दरअसल हिमालय के भूगोल की गहरी समझ इन यात्राओं से विकसित हुई, जिससे मेरे इतिहासकार को बहुत मदद मिली। हमें भूगोल और इतिहास प्रति़द्वन्द्वी बिषयों की तरह पढ़ाये जाते थे। दोनों में से एक ही को ले सकते थे। इस प्रेरणा में भूगोल से इतिहास की ओर आये आचार्य शिवप्रसाद डबराल भी मददगार बने।
इन यात्राओं से हमारे ही नहीं हिमालय के दोस्तों तथा जिम्मेदार बेटियों-बेटों की संख्या बढ़ी। हम बहुत तार्किक और विज्ञान सम्मत नजर से हिमालय को देखते हैं। इसमें कुतर्क, शार्टकट और बड़बोलेपन की सम्भावना नहीं होती है। हम लोग स्पष्टवादी होते गये और मुंहफट भी कभी-कभी जरुर हो जाते हैं। पर इतनी तरह के ठग जिस देश, समाज या दुनिया में हां, वहां आक्रामकता आपकी और आपके समाज की बरकत है। उत्तराखण्ड के सामाजिक आन्दोलनों में भी हमने इसी बरकत को देखा। फिर हमने चार दर्जन से अधिक जो बड़ी हिमालयी यात्राएँ की, उनमें पंचकेदार; हर की दून, यमुना, भागीरथी घाटी की; जौलजीबी-मिलम-मलारी-जोशीमठ की; सिन्धु-नुब्रा-श्योक, पेंगगोंग की; पूर्वात्तर भारत के सातां प्रान्तों की अनेक यात्राएँ; सिक्किम की कुछ यात्रायें; नेपाल और भूटान की अनेक यात्राएँ; तिब्बत की 5 यात्राएँ, जिनमें से तीन कैलास-मानसरोवर की थीं, अभी याद की जा सकती हैं। हां गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ की यात्रा, जिसमें हमारे दो साथी दिवंगत हुए थे; सुदूर पश्चिमी नेपाल के हुमला अंचल में करनाली नदी के साथ हिल्सा होकर तिब्बत की यात्रा; एवरेस्ट के चारों तरफ की यात्राएँ (नामचे बाजार से गोकियो और एवरेस्ट के नेपाली आधार शिविर तक जहां से एवरेस्ट का दक्षिणी चेहरा दिखता है। मेलोरी वाले मार्ग में तिब्बत के उत्तरी आधार शिविर तक, जहां से उत्तरी चेहरा दिखता है। पश्चिमी सिक्किम में पेलिंग के उत्तर में डाफेबीर, जहां से एवरेस्ट का पूर्वी हिस्सा और शर्मीला चेहरा दिखता है तथा तिब्बत के टिंगरी और शेगर से एवरेस्ट का पश्चिमी चेहरा नजर आता है), इस्लामाबाद से मरी हिल स्टेशन और अयूबियाना या तक्षशिला या पंजा साहिब की यात्रा को याद करना भी जरुरी होगा।
लेकिन आपने तो कितनी ही और यात्राएँ याद दिला दी। मेघालय से बांग्लादेश और नागालैण्ड तथा मिजोरम से बर्मा में घुसने की। ल्हासा से टैंग्रीनूर झील तक की यात्रा, जहां पंडित किशन सिंह और नैन सिंह रावत दोनों गये थे। तिब्बत का साम्ये मठ, जहां राहुल सांकृत्यायन गये और रहे थे। या कैलाश मानस से पश्चिम में तीर्थापुरी तथा गुरुग्याम गोम्पा, जो बोन धर्मावलम्बियों का तीर्थ है और जहां गोविन्दा अनागरिक लामा लगभग 70 साल पहले आये थे, की दुर्लभ यात्रा भी भूली नहीं जाती। सिनला, उंटाधुरा, खिंगर पास, रालम पास, लीपूलेख पास, बकरिया पास, रूपिन पास, लमखागा पास, कालिंदीखाल, खरदुंगला, कुन्जम ला, डोल्मा ला, नाथू ला, टिंकर ला, पता नहीं कितने हिमालयी दर्रों को (जो 19 हजार फीट तक ऊंचे थे) पार करना हम कभी नहीं भूल पाते हैं। अब तो और भी यात्राएँ याद आ रही हैं जैसे पेरिनीज; स्विटजरलैंड, जर्मनी या इटली के आल्प्स, नार्वे के उत्तरी पहाड़, कैलिफोर्निया के रौकी पहाड़ या कीटो के आस-पास के ऐन्डीज। कभी जरुर लिखूंगा इन यात्राआें पर। अभी बस। अनेक यात्रायें संगोष्ठियों के बुलावे के बहाने कीं गईं थीं। क्योंकि विदेश यात्रा करने की हमारी आर्थिक औकात नहीं थी।

शशिभूषण बडोनी - इस तरह की यात्राएँ करने के पीछे आपका मुख्य उद्देश्य क्या रहा है? आप अपने उद्देश्य को पाने में कितना सफल रहे?

शेखर पाठक - यात्राआें के पीछे एक ही उद्देश्य होता है- प्रकृति, संस्कृति, पर्यावरण और अन्ततः मनुष्य और उसके समाज को समझना। यह सब मेरे इतिहासकार को गहराई में जाने में मदद करता था। पशुचारण, मौसमी प्रवास, खेती, कुटीर उद्योग, छोटा स्थानीय व्यापार, भाषा, गीत, खान-पान यह सब समझना। पता नहीं हम कितना सफल रहे पर इन यात्राओं ने हमें तमीज दी, हमारी सम्वेदनशीलता में इजाफा किया। यात्राओं ने हमें एक दर्शन दिया। एक बार कहते-कहते मैं कह गया था कि यात्राएँ हमें इस अर्थ में बड़ा करती हैं कि वे हमें हमारे छोटे और मामूली होने का भान देती हैं। यात्राएँ सीधा समाधान नहीं देतीं, पर समस्याओं की समझ के साथ समाधान का दिशा संकेत देती हैं। हमारे अध्ययन क्षेत्रों पर कोई विद्वान गप नहीं मार सकता, हमारे साथी उनके झूठ पकड़ सकते हैं। यात्राआें से समस्याएँ और स्थितियाँ उजागर होती हैं। समाधान तो जन आन्दोलन और जन राजनीति निकालती है। यात्राएँ राजनीति के लोगों को भी शिक्षित कर सकती है बशर्ते उनमें अपनी जनता के प्रति समर्पण हो, सिर्फ अपनी पार्टियों और सरकारों के प्रति ही नहीं।
एक पहाड़ हमारे भीतर होता है जिसे बाहर प्रत्यक्ष दिख रहा पहाड़ हरा करता है और जो पहाड़ बाहर है वह धीरे धीरे हमारी स्मृति में अटाता जाता है। आपके भीतर मौजूद पहाड़ यात्राओं की अनुपस्थिति में ठिगना होता जाता है। हां, कोई यात्रा असफल नहीं होती। वह एक नया पाठ, नई किताब, प्रभावी प्रेरणा और गहरा परामर्श होती है। यात्राएँ आपके भीतर के बच्चे और कवि को भी मिट्टी और खाद पानी देती हैं। यात्राएँ आपको झूठ को पकड़ने में मदद देती हैं पर आपको झूठ नहीं बोलने देती हैं। दरअसल होमो सेपियन्स ने अफ्रिका से जो यात्रा शुरू की थी वह अपने मामूली रूपों में आज भी चल रही है। पर यात्राओं का मूल्यांकन सिर्फ आगामी पीढ़ियां ही कर सकती हैं। यात्री क्या जो कहे?

शशिभूषण बडोनी - ‘पहाड़’ पत्रिका किसी पहचान की मोहताज नहीं। इसका हर अंक विशेषांक तो होता ही है..... बहुत भव्य, दस्तावेजी, संग्रहणीय व शोधकर्ताओं के लिए तो बहुत उत्कृष्ट होता ही है...। इसके प्रारम्भिक सफर व बाधाआें के बारे में भी ‘पहाड़’ के पाठक जानना चाहेंगे?

शेखर पाठक - हिमालय पर हिन्दी में कोई दमदार प्रकाशन न था। हमारे विश्वविद्यालयों में शुरु हुए जर्नल जैसे कुमाऊं वि.वि. के ‘उत्तराखण्ड भारती’ और गढ़वाल वि.वि. के जोहसार्ड (श्रव्भ्ै।त्क्) जल्द ही बंद हो गये। पहाड़ की योजना 1977 में मन में आई। 1983 में पहला अंक निकला। तब से 20 बड़े अंक (सबसे बड़ा 730 पेज का पिथौरागढ़-चम्पावत अंक) और 100 के करीब अन्य किताबें, अनेकों छोटी पुस्तिकाएँ, पोस्टर और नक्शे पहाड़ पोथी से सामने ला सके हैं। न चंदा, न दान और न सरकारी सहायता। सब कुछ सदस्यां के सहयोग, साहित्य की बिक्री और कुछ विज्ञापनों से। हर बार कमण्डल उठाना होता है। सभी साथी निःशुल्क अपना समय, श्रम, प्रतिभाग देते हैं। सम्पादन, लेखन, प्रूफ रीडिंग, और तो और डिस्पेच तक स्वयंसेवी तरीके से होती है। अनेक साथी अपने शहर में पहाड़ का वितरण करते हैं। कुछ साथियों पर जरूर कुछ ज्यादा भार पड़ता है। ऐसा हर रचनात्मक काम में होता है।
1983 में पहाड़ के पहले अंक के विमोचन से लेकर कुछ माह पहले आयोजित गुमानी उत्सव (मार्च 2018) तक पहाड़ के सैकड़ों आयोजन, व्याख्यान, विमोचन, फिल्म तथा स्लाइड शो, संगोष्ठियां, सम्मान समारोह, दर्जन भर रजत समारोह और उनसे जुड़े सैकड़ों व्याख्यान आदि स्थानीय जन सहयोग से होते रहे हैं। हमारे साथी अपने खर्चे से आते हैं। कभी-कभी अपने रहने की व्यवस्था भी करते हैं। स्थानीय मित्र रहने-खाने की व्यवस्था करते हैं। हम चाह कर भी हर साल पहाड़ नहीं निकाल सकते। बहुत मेहनत की दरकार रहती है। हम सभी या कहें कि ज्यादातर नौकरीपेशा रहे हैं। यहां भी अपनी जिम्मेदारी बेदाग निभानी होती है। फिर भी मोहन उप्रेती, एन.एस. थापा और के.एस. वल्दिया की आत्मकथा; मूरक्राफ्ट, चन्द्रसिंह गढ़वाली, ब्रजेन्द्र लाल शाह, नैन सिंह रावत, भानुराम सुकोटी की जीवनी जैसे महत्वपूर्ण प्रकाशन प्रस्तुत किए हैं। गुमानी, गौर्दा, चन्द्रकुंवर या गिर्दा को समग्रता से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कितने ही सारे काम नहीं कर पाये हैं, चाहकर भी। आर्थिक तंगी बहुत रहती है। हम अपने दो मामूली धनराशि पाने वाले वालन्टीयरों का हर माह पारिश्रमिक नहीं दे पा रहे हैं। अब पहाड़ फाउन्डेशन बना रहे हैं। शायद उससे जरा स्थिरता और नियमितता आये। यह हमारे साथियों का चुपचाप अपना योगदान देकर खड़ा पहाड़ है। हमारी सामूहिक ऊर्जा ही इसका आधार है। इसलिए इसमें बरकत है, विविधता है। सृजनशीलता है और अपने पहाड़ों और उसके बाशिन्दों के प्रति सम्मान और प्यार है।
पहाड़ व्याख्यान और अध्ययन अभियान भी आयोजित करता है। हम स्पष्ट रूप से पक्ष या विपक्ष में होते हैं। हम दोनों तरफ नहीं हो सकते हैं। हम समाज निरपेक्ष काम में दिलचस्पी नहीं रखते। हमारा यह काम शोहरत पाने, चर्चित होने या कुछ कमाने (धन या नाम) के लिए नहीं है। इसलिए हम टिके हैं और बड़ा स्वर बनाने की कोशिश करते रहे हैं। पर धर्म, राजनीति, आर्थिकी और नौकरशाही के इतने ठगों को बिना सामाजिक आन्दोलनों के दबाव के पराजित करना सम्भव नहीं है। पर तैयारी तो करनी पड़ेगी। शायद हमारी तैयारी का फायदा हमसे कर्मठ अगली पीढ़ी उठा सके। कोई मेहनत कभी बेकार नहीं जाती है, ऐसा हम मानते हैं।

शशिभूषण बडोनी - पहाड़ का पाठक होने के नाते मैं यह जानता हूँ कि आप इस पत्रिका में पहाड़ के समाज, संस्कृति, पर्यावरण, साहित्य में योगदान देने वाले रचनाकारां के बारे में पर्याप्त जानकारियां तो देते ही है, ऐसे समस्त कार्यकर्ताआें व रचनाकारों, जो चाहे समकालीन हां अथवा दिवंगत, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को पर्याप्त स्थान व सम्मान से प्रकाशित करते हैं। इधर पहाड़ के भावी अंक के बारे में भी जानना चाहूंगा।

शेखर पाठक - पहाड़ के बाबत ज्यादा बातें तो बता दी हैं। हम हिमालय और पहाड़ों के हर पक्ष का विज्ञान सम्मत रूप सामने रखना चाहते हैं।
पहाड़ 20 स्मृति अंक है। शायद यह दो खंडां में आए। यानी पहाड़ 20 तथा 21। इनमें हिमालय तथा देश की 140 से अधिक हस्तियों पर लेख हैं। इनमें बहुत से पहाड़ से सीधे जुड़े भी थे।  जो परामर्श मण्डल या सम्पादन मण्डल में थे। इन अंकों में कृष्णनाथ, रवि धवन, आर.एस. टोलिया, विद्यासागर नौटियाल, बी.डी. पाण्डेय, बी.डी. सनवाल, महाश्वेता देवी, वेरियर एल्विन, नारायण देसाई, जयन्ती पंत, चन्द्र सिंह राही, टिलमैन, चन्द्रशेखर पंत, रतन सिंह जौनसारी, छत्रपति जोशी, निकोलाई रोरिख, हरका गुरंग, मिनायेव, टाम एल्टर, उमा शंकर सतीश, छत्रपति जोशी, अगस्ट गैनसर, केशर अनुरागी, रोनाल्ड लिन्च, यश पाल, यूआर राव, बोशी सेन, पीएम भार्गव, भूपेन हजारिका, कमल जोशी, अश्विनी कोटनाला, चन्द्रशेखर लोहुमी, वीरेन डंगवाल, यशपाल, हेमचन्द्र जोशी, चारु चन्द्र पाण्डेय, कबूतरी देवी, नईमा खान, जगतपति जोशी, पुश्किन फर्त्याल, कुशक बकूला, शमशेर बिष्ट सहित लगभग 12 दर्जन प्रतिभाओं पर सामग्री दी जा रही है।
मैं तो इन अंकों के बाद रिटायर हो जाऊंगा, पर फिर नेपाल और भूटान पर अंक प्रस्तावित हैं। एक तिब्बत पर भी सोचा जा रहा है। अन्य अनेक प्रकाशन भी राह में हैं। नक्शे, पोस्टर भी।
पहाड़ की बेवसाइट (चींंतण्पद) में 8 लाख पन्ने भी दुर्लभ सामग्री हैं। जो एक मुक्त और मुफ्त ज्ञान भंडार है। उसे हमारे साथियों ने अपने श्रम, धन और समर्पण से विश्व भर के पुस्तकालयों से जमा किया है। ये काम किसी सम्पन्न प्रोजेक्ट के तहत नहीं किये गये हैं। पहाड़ की टीम के सदस्य बहुत मेहनती हैं और तरह तरह के सृजनात्मक काम करते रहते हैं। पर प्रोजैक्ट आदि में कम ही शामिल हुये हैं। इस वेबसाइट को बनाने में डैन जैन्सन, कमल कर्नाटक जैसे साथियों का गजब का योगदान है।

शशिभूषण बडोनी - पाठक जी आप मेरी नजर में एक एक्टिविस्ट लेखक रहे हैं। आपका लेखन बंद कमरो में बैठकर किया गया लेखन नहीं है। आपके लेखन में हमें इतिहास, संस्कृति, पर्यावरण और रचनात्मक साहित्य की गहरी पकड़ दिखाई देती है। आप लेखन के साथ-साथ पहाड़ जैसी गम्भीर पत्रिका का सम्पादन भी करते हैं। इन तमाम अनुशासनों के अलावा समय-समय पर दूर-दूर तक के अनेक कार्यक्रमों में भी शिरकत करने में कोताही नहीं करते। आप इस तरह अनेक मोर्चो पर कैसे संतुलन बनाने में सफल रहते हैं?

शेखर पाठक - दरअसल यात्राएँ, लेखन, सम्पादन ये सब मिलकर हमें एक्टिविस्ट बनाती है। पर फिर भी मुझे अपने को एक्टिविस्ट कहना नहीं सुहाता। हालांकि मुझे इसमें बहुत समय देना पड़ता था और इतिहास सम्बंधी काम इससे बहुत पिछड़ा। सच्चे एक्टिविस्ट तो अलग ही होते हैं। जैसे चंडी प्रसाद भट्ट, गोविन्द सिंह रावत, बी.डी.शर्मा, मेधा पाटकर, सुन्दरलाल और विमला बहुगुणा, राधा दीदी, शमशेर बिष्ट, कुंवर प्रसून, सुशीला भंडारी, बनवारीलाल शर्मा, कमला पन्त आदि आदि कितने ही नाम हैं। हमें इनसे प्रेरणा मिलती रहती थी। हमें जितना जरुरी देश-विदेश के विश्वविद्यालयो, संस्थानों या बड़े आयोजनों में जाना लगता है, उससे ज्यादा गांवां में और मामूली स्कूलों में। आपको आश्चर्य होगा कि मैं 1991 के गढ़वाल भूकम्प से लौटकर पेरिस के एक सम्मेलन में गया तो नार्वे-स्वीडन की एक यात्रा से लौटते ही नन्दा देवी राजजात में हिस्सेदारी की। इसी तरह येलो स्टोन नेशनल पार्क की यात्रा से लौटते ही हम गर्ब्याग, छांगरु और टिंकर की यात्रा में गये। इस सुन्दर और विविधता भरी दुनियां में हमारी प्राथमिकता हिमालय है। सच कहो तो यहां हमारे प्राण बसते हैं। हमारे पागलपन के पीछे इन्हीं प्राणों की हिफाजत करने का जतन छिपा है।
हर मोर्चे पर संतुलन हमारे साथियों के कारण है। उनके द्वारा रचा गया मनोविज्ञान हमें बैठने नहीं देता। सही कार्यों को सहयोग देना भी एक प्रकार से एक्टिविजम ही है और उसमें हमारे अनेक साथी अपना योगदान देते हैं।

शशिभूषण बडोनी - उत्तराखण्ड में जल-जंगल-जमीन के सरोकारों से जुड़े साहित्य और संस्कृतिकर्मियों की एक बड़ी संख्या रही है। जिन्होंने न केवल राज्य में बल्कि राष्ट्रीय परिदृश्य में भी एक पहचान बनायी है। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आन्दोलन को दिशा देने में भी इन लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनके पास उत्तराखण्ड राज्य के विकास के लिए एक वैकल्पिक सोच का विजन भी रहा है। पृथक राज्य बनने के बाद राज्य की दशा तय करने में इनका उचित सहयोग लिया गया? आप क्या सोचते हैं? कृपया अपने विचार देंगे?

शेखर पाठक - जन आन्दोलनां को राजनैतिक पार्टियां और नेता हथिया लेेेते हैं। हम बहुत कम कर्मठ और ईमानदार नेता अपने समाज को दे पाये हैं। इतनी प्रतिभाओं को देने वाला उत्तराखण्ड राजनैतिक नेतृत्व देने में फिसड्डी निकला है। गोविन्द बल्लभ पन्त, हेमवतीनन्दन बहुगुणा, चन्द्रसिंह गढ़वाली, जयानन्द भारती और पीसी जोशी जैसे नेताओं को देने वाला यह क्षेत्र आज राजनैतिक दयनीयता की स्थिति में है। दूसरी ओर हमारे क्षेत्रीय दल अपने को जुझारु बनाये रखने का कौशल विकसित नहीं कर पाये। दोनों राष्ट्रीय दल, जो बारी बारी से शासन कर रहे हैं, उत्तराखण्ड के बारे में गहरी दृष्टि नहीं रखते हैं। वे अपने पार्टी मुख्यालयों और अन्य प्रभाव केन्द्रां के बद-परामर्श से पीड़ित हैं। इन स्थानों से कभी भी पहाड़ों के पक्ष में परामर्श और दृष्टि नहीं मिल सकती है। हम संख्या में ज्यादा नहीं हैं, दुर्गम क्षेत्रों में रहते हैं, अतः राष्ट्रीय स्तर पर हमारा तिरष्कार ही होता रहा है। हमारी प्रतिभाओं ने नाम स्थान अपने दम पर ही कमाया है। हमारे मुकाबले हिमाचल या सिक्किम को ज्यादा अच्छा नेतृत्व मिला। सच कहो तो उत्तराखण्ड को अपने यशवन्त परमार का इंतजार है। पर हमें अब उनसे भी अधिक दृष्टिवान नेता की जरूरत है क्योंकि अब पूंजी के आगे प्रजातंत्र के घुटने टिकवाये जाने लगे हैं। संविधान का लगातार अपमान होने लगा है।
उत्तराखण्ड की बेहतरी का कोई गहरा और सर्व स्वीकार्य विजन हमारे नेताओं के पास नहीं है। सामाजिक कार्यक्रम सिमट रहे हैं। वोट की राजनीति सदा मंद और गंद दृष्टि वाली होती है। उससे जन राजनीति विकसित हो भी सकेगी, शंका हाती है। धैर्यवान उत्तराखण्डवासी 18 साल में इस राजनीति की सीमायें कुछ तो समझ ही गये होंगे। पर जन राजनीति को सम्भव बनाना ही किसी पृथ्वी, देश और हिमालय प्रेमी की दरकार है। उत्तराखण्ड के बहुत से बुजुर्गो और युवाओं और अधिकांश महिलाओं में एक उम्मीद की कौंध दिखती है। उन्होंने हथियार नहीं डाले हैं। वे ही उत्तराखण्ड को उसका असली स्वरूप प्रदान करेंगे।

शशिभूषण बडोनी - आखिर में एक निजी प्रश्न! आपकी सक्रियता का अक्सर जिक्र होता है। आपके स्वास्थ्य का राज?

शेखर पाठक - कुछ कम या ज्यादा हम सभी सक्रिय होते हैं। याद रहे कि साम्प्रदायिक, आतंकवादी, जातिवादी और कारपोरेट दुनियां के लोग भी सक्रिय होते हैं। पर बहुत मामूली, निजी और कभी कभी मानव विरोधी लक्ष्य के लिये। हम आम लोगों की समझ, तर्कशीलता, अध्ययन, बातचीत के बाद निकली सक्रियता न सिर्फ प्रकृति और मनुष्य के बल्कि जनतंत्र और मानवता के पक्ष में जाती है। हमारी सक्रियता देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर होती है। हमारी सक्रियता हमारी सामूहिकता और जीवन लक्ष्यों से भी जुड़ी है। इस तरह की सक्रियता आपको स्वस्थ भी रखती है, पर हम सतत यात्री भी बीमार होते हैं। कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, राजेन्द्र रावत, गिर्दा, भवानीशंकर, अश्विनी कोटनाला, कमल जोशी या अभी अभी शमशेर बिष्ट के असमय जाने के पीछे बीमारियों और अपने प्रति लापरवाह होने के दुर्गुण की भूमिका भी रही। जब हम अपने लोगों की चिन्ता में अपना कम ख्याल करते हैं तो उसकी कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी पड़ती है। ये सभी लोग अपना जीवन अपने लोगों के लिये दे गये। इनमें से किसी के मन में यह भाव नहीं आया कि ‘हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे मैहफिल ?’
धन्यवाद, शशिभूषण बडोनी
- आपका हार्दिक धन्यवाद सर।
०००


शेखर पाठक
जन्म  ः 8 फरवरी 1950, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)
शिक्षा  ः एम.ए. पी.एचडी.
प्रकाशन ः हमारी कविता के आंखर (गिर्दा के साथ, 1978), उत्तराखण्ड में कुली बेगार प्रथा (1987), कुमाऊं हिमालयः टैम्प्टेसंस (1993, अनूप साह के साथ); सरफरोशी की तमन्ना : उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय संग्राम का दृश्य इतिहास (1998), एशिया की पीठ पर : पंण्डित नैन सिंह रावत-जीवन अन्वेषण तथा लेखन (उमा भट्ट के साथ,  2006), पडितों का पंडित : नैन सिंह रावत की जीवनी ( 2009), नीले बर्फीले स्वप्नलोक में : कैलास मानसरोवर यात्रा (2009), उत्तराखण्ड की भाषाएँ तथा लैंग्वेजेज आव उत्तराखण्ड (2014, 2015, दोनों पुस्तकें गणेश देवी तथा उमा भट्ट के साथ सम्पादित) तथा पहाड़ के 20 अंक (साथियों के साथ सम्पादित)। कुछ किताबें प्रकाशनाधीन।
संस्थाएं   : पहाड़ संस्था के संस्थापकों व पहाड़ प्रकाशन के सम्पादकों में एक। अनेक संस्थाओं से जुड़े हैं।
सम्मान  पद्मश्री, राहुल सांकृत्यायन सम्मान आदि।
सम्पर्क  ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल
फोन ः 9412085755

लीलाधर जगूड़ी का साक्षात्कार नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/blog-post_24.html?m=1


1 टिप्पणी:

  1. सत्यनारायण जी के इस साहित्यिक यज्ञ हेतू मेरा हार्दिक साधुवाद। मेरे द्वारा लिया गया शेखर पाठक का इंटरव्यू बिजूका में शामिल करने का बहुत आभारी हूं।आजके अन्य रचनाएं , यात्रा वृतांत व कहानी भी पढ़कर प्रतिक्रिया देता हूं।बहुत बड़ा यह आपका काम है।सादर।

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