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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 जून, 2019


निर्बंध-बीस
दौड़ौ दौड़ो जल्दी दौड़ो
यादवेन्द्र


 बहु चर्चित फिल्म पान सिंह तोमर में एक क्रूर पर  मार्मिक दृष्य है जिसमें भर पेट रोटी मिलने के लोभ में नायक सेना के स्पोर्ट्स विभाग में दाखिला लेना चाहता है तो एक अफसर उसकी दौड़ने की काबिलियत की ओर ध्यान न देकर चुहलबाजी में आइसक्रीम का डिब्बा पकड़ा देता है और हुकुम देता है कि दूसरे अफसर  के घर इतने कम समय में पहुंचा कर दिखलाए जिसमें आइसक्रीम को पिघलने की नौबत न आये - पेट की भूख पान सिंह से यह काम चंद मिनटों में करवा लेती है।यह अलग बात है कि सौ साल से ऊपर हो चुके फौजा सिंह ने विलायत की सूनी जिन्दगी में कुछ रंग भरने की गरज से मैराथन दौड़ने की शुरुआत की थी या फिर आजकल कुछ तूफानी करने की गरज से खतरों भरी उछल कूद  के विज्ञापन की मौज मस्ती हो पर  भाग दौड़ की इस जिन्दगी में पेट की भूख न जाने कितने नौजवानों को आये दिन स्वाद बदलने की तफरीह वाले खाते पीते लोगों की सेवा में शहरों की भीड़ भाड़ भरी सड़कों पर बगैर अपनी  जान माल की रत्ती भर भी परवाह किये चंद रुपयों के एवज में रोज कई कई घंटे दौड़ाती है...उनके सिर पर एक जुनून की तरह यह शर्त सवार रहती है कि निर्धारित मिनटों की समय सीमा के अंदर नए और अपरिचित गंतव्य तक सामान नहीं पहुंचा तो एक तो ग्राहक निगेटिव रेटिंग देगा,ऊपर से कंपनी अपने नुकसान की भरपाई उसके पगार से करेगी।
नए ज़माने की यह नयी फ़ौज फास्ट फ़ूड के विदेशी ( ज्यादातर) व्यापारियों के डेलिवरी ब्वायज (जिन्हें अब डिलीवरी पार्टनर्स कहा जाने लगा है) की है जो प्राईवेट सिक्युरिटी गार्ड्स और ओला और उबर की तरह बड़े महानगरों से शुरू होकर अब धीरे धीरे मंझोले और छोटी शहरों में पाँव पसारती जा रही है।एक अनुमान के अनुसार देश में ऑनलाइन फ़ूड सर्विस का कारोबार फिलहाल 1.6 बिलियन डॉलर का है जो अगले साल तक दुगुना हो जायेगा 




यादवेन्द्र

कोई आठ दस पहले जब यह नया धंधा फैलना शुरू हुआ था और
इन नौजवानों के साथ सड़क दुर्घटनाओं के कई नए मामले सामने आने लगे तो ये  तथ्य निकल कर सामने आये कि दिल्ली के सबसे बड़े अस्पतालों के ट्रॉमा सेंटरों  में सड़क दुर्घटना के बाद इलाज के लिए आने वाले फास्ट फ़ूड डेलिवरी ब्वायज की  संख्या में तेजी से निरंतर इजाफा हो रहा है।यहाँ के वरिष्ठ डाक्टरों का कहना है कि दोपहिया वाहनों की खुली बनावट के कारण सिर की  चोट और हड्डी टूटने के हादसे उनके साथ सबसे ज्यादा पेश आते हैं।भले ही उनके पास खाद्य सामग्री पहुँचाने के लिए तीव्रगामी दुपहिया वाहन होते हैं पर कम से कम समय में गंतव्य तक पहुँचने और फिर आगे वाले दूसरे पते पर जाने की जल्दी में वापस दुकान तक लौट जाने का मानसिक दबाव इतना प्रबल होता है कि किसी का भी लगातार बढती जा रही वाहनों की भीड़ से बच कर सुरक्षित निकल  जाना दुश्वार होता जा रहा है।ऊपर से ग्राहक मिनट भर की देर पर भी निगेटिव रेटिंग देने को तैयार बैठे रहते हैं हाल में एक रात में कई सौ ऐसे चालान काटने वाली चेन्नई की परिवहन पुलिस ने यह पाया कि 73% से ज्यादा डिलीवरी पार्टनर्स दुपहिया चलाते समय ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करते हैं.. यह देखते हुए कंपनी अधिकारियों को और मनोचिकित्सकों को बड़े पैमाने पर शामिल कर अभियान चलाया जा रहा है।यहाँ चेन्नई की बात इसलिए क्योंकि इसकी खबर मैंने पढ़ी - वैसे यह मंजर हर शहर में देखा जा सकता है 

एक अख़बार ने ऐसे ही हड्डी तुडवा कर इलाज करा रहे नौजवान को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि दिन में दस घंटे की ड्यूटी तो आम बात है पर शुक्रवार की शाम काम का सबसे ज्यादा दबाव होता है...कई कई बार तो इस दिन हमें चौदह घंटे  खटना पड़ता है ..ट्रॉमा सेंटर के डाक्टरों ने भी शुक्रवार को सबसे ज्यादा दुर्घटनाओं की पुष्टि कीनेट में हैदराबाद के एक विज्ञापन के अनुसार डेलिवरी ब्वॉय को पच्चीस तीस हजार तक की पगार देने की पेशकश पढ़ी  जिसमें भी अनुभवी युवकों को प्राथमिकता दिए जाने की बात थी।हालाँकि अब स्थितियां पहले की तुलना में बहुत सुधरी हैं और इस धंधे के बड़े खिलाड़ी मेडिकल सुविधा और सवेतन छुट्टियाँ देने की बात भी करते हैं।यहाँ तक कि जोमेटो ने हाल में राजस्थान के अपने एक शारीरिक रूप से अक्षम डिलीवरी पार्टनर को बैटरी से चलने वाला वाहन दिया - इसका भरपूर विज्ञापन भी किया।इसी कंपनी ने कुछ दिनों पहले एक मानवीय फल की और ग्राहकों से आग्रह किया कि जब हमारा आदमी आपका खाने का पैकेट आपके हाथ में थमाए तो कम से कम एक ग्लास पानी उसे पिला दें ।शर्मनाक बात यह है कि कम्पनी के इस आग्रह पर अनेक प्रतिक्रिया नकारात्मक आई कि अपने लोगों की सुख सुविधा का ध्यान  रखन मालिकों का काम है ,हमारा नहीं  
पर ऐसा नहीं कि सब कुछ गुलाबी दिखाई दे रहा है - कुछ बड़ी कंपनियों के डिलीवरी पार्टनर आन्दोलन करने को मजबूर हुए क्योंकि पहले मिलने वाली सुविधाएँ और पैसे कम होते जा रहे थे।उनके अनुसार चार किलोमीटर के अंदर डेलिवरी के लिए उन्हें 35 रु और आठ किलोमीटर तक के लिए 120 रु दिए जाते थे जो अब घटा कर 15 रु और 80 रु कर दिए गये खराब मौसमों में ( (ख़ास तौर पर बरसात में पानी भरे इलाकों में) जब ग्राहक तक पहुँचना बेहद दुश्वार होता है तब भी उसी मेहनताने पर वे काम करने को मजबूर हैं  

कुछ दिनों पहले न्यूयोंर्क टाइम्स  ने एक प्रवासी चीनी डेलिवरी ब्वॉय की दिनचर्या के बारे में लम्बी रिपोर्ट छापी थी जिसमें व्यस्त अमेरिकी शहरों में इलेक्ट्रिक साईकिल से खाद्य सामग्री पहुँचाने वाले एक डेलिवरी ब्वॉय की व्यथा का खुलासा किया गया था कि कैसे नए नए बन रहे सुरक्षित अपार्टमेंट्स और आफिस परिसरों में सीधा प्रवेश करना मुश्किल होता जा रहा है और तेज मोटर वाहनों की टक्कर से बचने के लिए उनके किनारे बने पतले रास्तों पर चलने पर उन्हें पुलिस के जुर्माने का भागीदार बनना पड़ता है.उस आदमी से यह सुनना अच्छा लगा कि उसका भला मैनेजर कभी कभार समय से न पहुँच पाने वाला सामान उसको खाने को दे देता है...भारत के सन्दर्भ में यह बात कितनी सच होगी  इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है. दिल्ली के बड़े फास्ट फ़ूड चेन के प्रबंधन का कहना है डेलिवरी पार्टनर्स  को वे सामान पहुँचाने के लिए पर्याप्त समय देते हैं और सड़क दुर्घटनाओं के लिए उनकी नीतियों को दोषी नहीं माना जाना चाहिए...ये तो लड़कों की व्यक्तिगत असावधानियों से होती हैं इसलिए उनकी गलतियों का दोष कम्पनी के ऊपर नहीं डाला जाना चाहिए कोई ताज्जुब नहीं कि अमेरिकी श्रम विभाग खाने का सामान घर घर पहुँचाने के इस काम को अनिवार्य तौर पर  जुड़े हुए खतरों को देखते हुए सेना,पुलिस,स्टंट करतब प्रदर्शन और आग बुझाने के काम के बाद पांचवां सबसे जोखिम भरा काम शुमार करती है.




करीब दस साल पहले अमेरिका के एक फास्ट फ़ूड चेन के खिलाफ  अनेक फ़ूड डेलिवरीपार्टनर्स  के संगठित होकर मुकदमा करने से दुनिया भर का ध्यान मजदूरों की इस नयी फ़ौज की तरफ गया जिसमें यह खुलासा हुआ कि उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम  पगार दी जाती थी... हर घंटे के करीब 1 .6 डालर पर सामग्री पहुँचने में एक बार देर होने पर 20 डालर और  जल्दबाजी में दरवाज़ा खोलने के लिए उसपर हाथ मारने पर 50 डालर  का जुरमाना वसूला जाता था.ऐसे काम में ज्यादातर दूसरे देशों से झूठे सच्चे कागजातों का सहारा लेकर अमेरिका आये हुए मजदूर लगे हुए थे ( ज्यादातर चीनी) इसलिए उनको बात बात पर उनकी गैरकानूनी नागरिकता की असलियत उजागर  कर देने की धमकी भी दी जाती थी....भारत के सन्दर्भ में देखें तो गाँव से शहरी चकाचौंध देख कर आकर्षित हुआ भोला भला नौजवान इस शोषण चक्र का शिकार बनता  हुआ दिखेगा...इस बहु चर्चित मुक़दमे का परिणाम सभी वादी मजदूरों की पुनर्बहाली और करीब 46 लाख  डालर की भरपाई के रूप में सामने आया जो उस समय तक के अमेरिका के सबसे बड़े रेस्टोरेंट हर्जाने के तौर पर अब भी याद किया जाता है.ऐसे ही अनेक क़ानूनी विवादों को ध्यान में रख कर बड़े फ़ूड चेन निर्धारित समय पर आपूर्ति न होने की दशा में पूरा पैसा लौटा देने का ऑफर स्थगित करने लगे. 
कारोबारी दुनिया की लुभावनी दुनिया की मिसाल है हाल में चीन में अपनी दुकान खोलने वाले अमेरिकी के.एफ.सी.(केंटुकी फ्राईड चिकेन) के छद्म नामों से विज्ञापित किये जाने वाले ये ऑफर  कि खाने का सामान तो अच्छा होगा ही इसको पहुँचाने वाले डेलिवरी ब्वॉय का रंग, कद काठी,वेश भूषा और भाषा भी ग्राहक  जैसा चाहे उसको वैसा ही हैंडसम उपलब्ध कराया जायेगा.बाद में ग्राहक  से कंपनी संतुष्ट होने की बाबत जानकारी भी लेगी.यद्यपि कंपनी इस तरह  के किसी छद्म प्रचार  से इंकार  करती है पर वहाँ के वेब  जगत  में हजारों  की संख्या  में  मन माफिक आई कैंडी का लाभ लेने वाले लोगों  के निजी  अनुभव  इस बारे में मौजूद  हैं. इस पर चर्चा के दौरान यह बात भी सामने आयी कि अपने सामान की कीमत बढ़ाने के लिए कंपनी ऐसे हथकंडे अपना रही है. कल  को चीन से किसी भी हाल में न पिछड़ने  की बदहवासी  में हमारे  देश  के नौजवानों को भी फुर्ती  और चुस्ती  के साथ  साथ  अपनी सूरत  को भी दाँव  पर लगाना पड़ा  तो कोई  अचरज  नहीं होना  चाहिए.   
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निर्बंध उन्नीस नीचे लिंक पर पढ़िए


  
यादवेन्द्र 
पूर्व मुख्य वैज्ञानिक
सीएसआईआर - सीबीआरआई , रूड़की

पता : 72, आदित्य नगर कॉलोनी,
जगदेव पथ, बेली रोड,
पटना - 800014 
मोबाइल - +91 9411100294 




पाठ

84वीं सृजन संवाद’ गोष्ठी में कहानीकार खुर्शीद हयात का कहानी पाठ


जमशेदपुर, 9 जून 2019 ‘सृजन संवाद’ की 84वीं गोष्ठी में बिलासपुर से आए उर्दू के कहानीकार-सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद हयात ने अपनी कहानी ‘नदी, पहाड़, औरत’ का पाठ किया। कहानी स्त्री को नदी और पुरुष को पहाड़ के रूप में चित्रित करती है। पर्यावरण की चिंता से लैस कहानी पर श्रोताओं ने अपनी- अपनी प्रतिक्रिया दी।



डॉ. सन्ध्या सिन्हा को कहानी प्रकृति का केनवस और मानव मन की विसंगतियों को दिखाती नजर आई। मुंबई से आए अभिनेता संजय ने कहा कि इस कहानी में कोई एक करैक्टर नहीं है, इसके बावजूद ढ़ेर सारे पात्र कहानी को संपूर्ण बनाते हैं। डॉ. मीनू रावत के अनुसार कहानी उर्दू में होने के कारण समझने में थोड़ी दिक्कत हुई। यदि इसे सुना नहीं, पढ़ा जाए तो समझने में अधिक आसानी होगी। अजय मेहताब ने इसे कई रंग की कहानी बताया, जिस पर शोध की आवश्यकता है।
डॉ. आशुतोष ने कहानी की भाषा को काव्यात्मक बताते हुए निर्मल वर्मा का जिक्र किया। कहानी आज के भयावह समय को प्रतिबिम्बित करती है। अरविंद अंजुम ने कहानी में मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक तत्वों की चर्चा की। अभिषेक गौतम ने कहानी में स्त्री तत्वों की चर्चा करते हुए कहा कि यदि स्त्री नहीं होगी तो कुछ भी नहीं बचेगा। प्रदीप कुमार शर्मा ने कहानी में प्रकृति के नष्ट होने की चिंता को रेखांकित किया।
डॉ. विजय शर्मा ने कहानीकार के पढ़ने और यूट्यूब पर किसी दूसरे द्वारा पढ़े जाने के अंतर को बताया। कहानीकार के मुँह से कहानी सुनना भिन्न रस का संचार करता है। खुर्शीद हयात ने इस कहानी में बहुत सारे दृश्य खड़े किए हैं, ऐसा लगता है, किसी गैलरी में चित्र प्रदर्शनी लगी हो। कहानी एक से अधिक पाठ की माँग करती है। अनवर इमाम के अनुसार कहानी का प्रवाह बहुत तीव्र है। कहानी श्रोता को बाँधे रखने में सक्षम है ऐसा डॉ. चंद्रावती का विचार था। अपर्णा संत सिंह तथा सरिता सिंह ने भी कहानी पर अपने विचार रखे।
इसके साथ ही ‘सृजन संवाद’ ने अपने सात वर्ष पूरे किए।विजय शर्मा ने सदस्यों का धन्यवाद किया। जुलाई, आठवें वर्ष की शुरुआत प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित गोष्ठी से होगी, इस विचार के साथ सभा समाप्त हुई।
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प्रस्तुत कर्ता: विजय शर्मा

समीक्षा


समकालीन अंतर्विरोधों से मुठभेड़ करती कविताएं

श्रवण कुमार


प्रत्यंचा युवा कवयित्री पंखुरी सिन्हा का हिंदी में तीसरा कविता संग्रह है. इसमें १४६ कवितायेँ हैं. आकार की दृष्टि से कुछ कवितायेँ छोटी हैं, लेकिन भाव और उद्देश्य दोनों बड़े हैं. इस संग्रह की रचनाएं वर्तमान को जस का तस स्वीकार नहीं करना चाहती हैं बल्कि समकालीन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विसंगतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों के विरुद्ध सवाल दर सवाल खड़े करती हैं.





भ्रूण हत्या शीर्षक कविता में वे कहती हैं--"औरत की देह को बनाने का नरक/हर ओर है नज़ारा/तुम जाओ न जाओ/डिस्पेंसरी आज/ लेकिन, मेरे दोस्त/तुम जगह के साथ साथ/अपनी देह को भी बना रहे हो नरक/रौंद कर सारी हरीतिमा……………..”
हर तरह के पुरुष वादी मापदंडों के खिलाफ प्रत्यंचा चढ़ाये युद्धरत कवयित्री सवाल करती हैं--"क्यों आकर ठहर जाती है/औरत की देह पर ही/जातिवाद, भाषावाद/क्षेत्रवाद और प्रांतीयता/की सब लड़ाइयां?"
युवा कवयित्री अपनी रचना के माध्यम से दलित उत्पीड़न के खिलाफ भी मज़बूती से आवाज़ उठाती हैं. यह आवाज़ प्रतिरोध की सीमा तक पहुँच जाती है. बतौर कवयित्री--"ये दलितों की बस्ती जलाना/ये उनकी औरतों का अपमान/कैसे है जायज़/इतने थानों के रहते हुए ज़िंदा?/और कहीं नहीं मिली है/उन पुरुषों को सजा देने की खबर/जिन्होंने तस्वीरें खींची/उतार कर औरतों के कपड़े/ये एक बड़ा जुर्म बनता जा रहा है/आये दिन बलात्कार की घटना के साथ/यह कैसा समाज है/जिसके लोग कुत्ते बनने पर उतारू हैं?"

आज की बाज़ारवादी एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के दौर में सभी वस्तुएं बिकाऊ हो गयी हैं. समाज में एवं मीडिया की सुर्खिओं में वे ही लोग दिख रहे हैं जो या तो विक्रेता हैं या क्रेता। रिश्तों से लेकर वस्तुओं तक का पुराना ढांचा ध्वस्त हो रहा है. देश साम्राज्यवादी एवं हथियारों के व्यापारी युद्ध लोलुप अमेरिका और उनके सहयोगियों के पीछे भाग रहा है. और हम बाज़ार के पीछे। हम सब कुछ बेचने पर उतारू है--जल, ज़मीन, जंगल, अपना ज़मीर और अपनी कविता भी. ज़्यादातर रचनाकार पद, पुरस्कार और पैसे के पीछे भाग रहे हैं. बतौर कवयित्री---"बाज़ारू कर भाषा को/कविता को भी/कुछ लोग वाक़ई बाज़ार बन जाते हैं/और लगाते हैं कविता का हाट बाज़ार।"


सचमुच रचनाकारों के भी दो वर्ग होते हैं या हमेशा से होते आये हैं---जनता के रचनाकार एवं सत्ताधारी वर्ग के चारण रचनाकार। इस दृष्टि से यह संग्रह समकालीन अंतर्विरोधों से मुठभेड़ करता दिखाई पड़ता है.
सुन्दर मुख्यपृष्ठ और आकर्षक आवरण में बंधी ये कवितायेँ, अधिकांशतः अपने तेवर में राजनैतिक हैं, अपने पर्यावरण सम्बन्धी सरोकारों में विशेषकर, एवं लचर होती व्यवस्था के भ्रष्टाचार की धज्जियाँ उड़ाती हैं.
 हमारा समाज एक पुरुष प्रधान मनुवादी समाज है. प्रभु वर्ग ने हमारे चारो तरफ अपने रक्षार्थ बहुत सारा मायाजाल फैला रखा है. और हम हैं कि उसी कुएं में उलझे पड़े हैं. न निकलने का नाम लेते हैं और न कोशिश करते हैं.  ये मायाजाल मोहजाल हमारी सभ्यता के विकास के सबसे बड़े रोडे हैं---“ हम कभी तो निकलेंगे/धर्म के जंजाल से/जातियों के मोहजाल से/कर्मकांडों के मायाजाल से/कि प्रगति सचमुच हमारी राह देखती है."
इस संग्रह की एक कविता है 'भड़कती अस्मिता', जिसमें सामप्रदायिक उन्मादों के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करती है कवयित्री--"लेकिन किस मुंह से गौरक्षक पीट रहे हैं/गो मांस ले जाती गाड़ियों के चालकों को/जबकि उन्हीं की पार्टी के महानुभाव नेता/बीफ एक्सपोर्ट का कर रहे हैं/करोड़ों का बिज़नेस/आखिर ये क्या अर्थ तंत्र है/जिसमें दाल मंगा रहे हैं/अफ्रीका से/और अरब देशों को बेच रहे हैं जो मांस!"
वैसे तो १४६ कविताओं के इस संग्रह में सभी कवितायेँ पठनीय एवं उद्देश्य पूर्ण हैं लेकिन एक कविता ऐसी भी है जिसमें कवयित्री अपने पंखुरी नाम को विषय बनाकर बड़ी खूबसूरती से कुछ अनमोल बातें कहना चाहती हैं---"खुशबुओं का आलय मैं/दीप मुझमें जलते हैं/दिखा सकती हूँ तुम्हें राह/जब होती हूँ सफ़ेद भी/अँधेरे में चमक हूँ/रौशनी में ठंढक/". इसी क्रम में वे आगे कहती हैं---"चिड़ियों का जीवन हूँ मैं/पराग मुझमें बसते हैं/मैं पंखुरी हूँ, मुझमें सृष्टि के अष्टयाम बजते हैं /मैं अधूरी नहीं/फूल मुझमें बनते हैं."
इसके अलावे, झपसी महतो की चाय दुकान में बारिश का दिन, नॉन-ब्रांडेड शहद और नया जी एस टी कानून, बारिश के दिन की गोधूलि और ड्रैगन नृत्य, सब खाली है, मन वीराना, ठीक चुनाव के दिन, ज़िन्दगी का रंग, आलिशान मज़ार, कविता का हो जाना, प्रेम का ध्वंस राग, देह से उगेंगे वृक्ष, कौन सा राम राज्य, घास के घूस खोर, जंजीरों में जकड़े लोग, एक वैलेंटाइन डे सीरिया युद्ध बीच, रॉंग नंबर, प्रेम और समाप्ति आदि कवितायेँ हम जैसे पाठकों को अत्याधिक प्रभावित करती हैं.
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पंखुरी सिन्हा की कविताएं













पंखुरी सिन्हा की और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
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17 जून, 2019


गुजराती कहानी


गरासणी

झवेरचंद मेघाणी

अनुवाद: रेखा पंजाबी

“गेमाभाई, मेरी लड़की को आज उसके ससुराल रखने जाना है, आप हमारे साथ चलोगे ना?”
“नहीं दरबार, जहाँ त्रीन पैसे का भी जोखम न हो वहाँ मेरा काम नहीं”। गेमा के साथ किसीको विदा करवाना हो तो पांच-पच्चीस हजार के गहने न हो तो मैं गांव मे ही अच्छा हूँ, मुझे बहुत काम है।



रेखा पंजाबी



चारपाई पर सोते-सोते हुक्के का घूंट लेते-लेते ऐसी आवाज से बोलता हुआ व्यक्ति गेमा पच्छे गांव का कारड़ियो राजपूत है। गोहिलवाड़ के छोटे से पंथक में पच्छे गांव के अंदर इस तरहके चालीस-पचास कारडियों के पास गरासियाओं के पगार खाते है।  जब किसीको विदा करना हो तो वे लोग उनके साथ जाते है, और बखशिश के रूप में मिली हुई ज़मीन (भूँडरी) पर काम के लिए उन सभी से भी काम लिया जाता। परंतु इन सभी कारडियों के बीच गेमा सबसे बड़ा पहलवान था। जिस बैलगाड़ी के साथ गेमा किसीको विदा करवाने जाता , उस बैलगाड़ी पर कोई भी लूटेरा आ ही नहीं सकता। जैसे तैसे को गेमा असभ्य उत्तर दे देता था, गेमा के लिए किसीको विदा करना कोई खेल नहीं है।





एक दिन गांव के बापू खुमाणसंगजी की ओर से गेमा को बुलाया गया। खुमाणसंगजी की बेटी रूपाड़ी बा भाल के हेबतपुर गांव में अपने ससुराल में है। वहाँ उस लड़की की गोदभराई थी। गोदभराई के बाद उसे वहाँ से लेकर आना था। दो लड़कियाँ, एक वेलड़ू, भेळो, गेमो और एक कारडिया यह सभी लोग हेबतपुर गांव में उस लड़की को लेने गये थे।

हेबतपुर से पच्छे गांव आते बीच में मोणपुर गांव तक दश गाउ (किलोमीटर) तक बहुत बड़ा भाल का रण था। उस रण में सुबह सफर नहीं किया जाता था, क्योंकि पानी के बिना इंन्सान की मृत्यु हो जाये। इसलिए रूपाड़ीबा को रात को वहाँ से विदा करवाया। एक बैलगाड़ी में रूपाड़ीबा और दो लड़कियों को बिठाया, और दूसरी बैलगाड़ी में गेमा और उसका साथी और साथ ही में पानी के दो मटके। दोनों बैलगाड़ीयों को जोड़कर शाँम को तारों की छांव में वह सभी लोग निकल चले, रूपाड़ीबा के साथ एक डब्बा था। उसमें पांचहज़ार के गहने थे। उनके साथ बहुत सारे गहने थे।

जैसे-जैसे बैलगाड़ी चलती गयी वैसे-वैसे गेमा बैलगाड़ी में पीछे बैठकर सोने लगा। बहुत से अंधकार में उसका नांक भी बोलने लगा, बैलगाड़ीवाले ने एक बार कहां, गेमाभाई रात बहुत हो गयी है, सोने जैसा नहीं है, बापा! आप होंशियार रहेना।
गेमा ने उत्तर दिया, तु मुझे पहचानता है ना मैं गेमा? जहाँ गेमा हो वहाँ चोर-लूटारू देखते भी नहीं है, तू अपने आप चुप-चाप बैलगाड़ी को चलाया कर
गेमा के नाक बोलने लगा, उसके नसकोरे आगे की बैलगाड़ी मैं बैठी हुई रूपाड़ी बा को सुनाई देने लगे। बैलगाड़ी में जो परदा होता है उसे उठाकर रूपाड़ी बा ने भी कहा “कि गेमाभाई बापा, अभी आप सो नहीं सकते”।
भरी नींद में गेमा बोलता रहा “मैं कौन? मैं गेमा”

ऐसे करते-करते वेळावदर गांव भी चला गया। परंतु वहाँ से डेढ-दो गांव पर एक तलाव आया। बैलगाड़ी चलानार की नज़र तलाव के आसपास गई, उसने देखा तो तलाव के आसपास आग जल रही थी, उसे शंका हुई कि तलाव के आसपास कोई जाग रहा है। गेमा को उसने बोला कि गेमाभाई गलती(बेखबरी) करने जैसा नहीं है।
 गेमा का तो एक ही उत्तर था मुझे पहचानता है ना “मैं कौन मैं गेमा”
जब बैलगाड़ी तलाव के पास पहुंची तब बैलगाड़ी चलनार को दस-बारह इन्सान एकसाथ दिखाई दिये। वो बहुत डर गया, गेमा को उठाने की कोशिश की , परंतु वो तो (गेमा) उठा नहीं। वो कौन, वो तो गेमा।
देखते-देखते में रात अधिक हो गयी और बारह जन की टोली बैलगाड़ी को सभी ओर से घेर कर खड़ी हो गयी। गेमे की आंख खुली और वो चिल्लाया, मुझे पहचनाते हो ना मैं कौन? मैं गेमा। वहां तो उसे एक मार दे दिया और गेमा को नीचे ज़मीन पर गिरा दिया।

एक इंन्सान ने कहाँ कि चलो जल्द से रणगोळीटो कर लो।
लुटेरों ने गेमे को बिठाकर हाथ और पांव को एक ही बंधन से बांध दिया। पैर के घुंटन के नीचे के हिस्से में एक लकड़ी रखी और उसे एक धक्का देकर गोल की तरह घूमता-घूमता फेंक दिया। इस कार्य को ‘रणगोळीटो’ कहां जाता है। रणगोळीटो का अर्थ रण का गेंद। इंन्सान गेंद  की तरह हो जाता है।
कौन है, इस बैलगाड़ी मैं? गहनों को उतार लो जल्दी? लुटेरों  ने चिल्लाया।
रूपाड़ीबा ने बैलगाड़ी के परदो को खोल दिया और लुटेरों के कहने के मुताबिक उन लोगों को पांच हज़ार के गहनेवाला डब्बा दे दिया। तारों के प्रकाश में रूपाड़ीबा के शरीर के गहनें इस तरह से चमक रहे थे वह लुटेरों ने देख लिया।






लुटेरों ने कहां सारे गहनें उतार  के दे दो
रूपाड़ीबा ने सारे गहनें उतारा कर दे दिये, सिर्फ पैर की पायल(कंडला) रहने दी।
‘पायल भी उतार, लूटारूओं ने चिल्लाया’
रूपाड़ीबा ने आजिजी करने लगी, भाई ये नयी पायल है और वो एकदम बंध है, मैं पेट से हूँ मेरे से खोली नहीं जायेंगी। आप इतने से मुझ़े बखश दो मेरे वीरा
‘आप! जल्द से इसे निकाल दो’

तो आप ही उसे निकाल दो ऐसा बोलकर बैलगाड़ी में बैठे-बैठे अपने दोनों पैर को बाहर निकाला और वे लोग जतरड़ा की मजबूत रस्सी से उनके दोनों पैरो को आमने – सामने रस्सी को बांधकर निकालने की कोशिश करने लगे। दूसरे लोग अपनी बातों में लग गये। किसी का घ्यान नहीं था।
रूपाड़ीबा ने अपनी आंखो से देखा और किसी ने तो नहीं देखा, परंतु सिर्फ बैलगाड़ी में लटकाएँ हुए लकड़े की एक लकड़ी देखी। सोंचने का तो समय  भी नहीं था क्योंकि लुटेरों राजपूताणी के शरीर का मज़ाक (मश्करी) कर रहे थे।

रूपाड़ीबा ने उस लकड़ी को खींचा और जो इंन्सान नीचे बैठकर पायल खोल रहा था उसके सर पर जोर से लकड़ी मारी। उसकी दोनों खोप्परी फट गयी। दोनों जन धरती पर गिर गये। वहां तो गरासणी के अंदर का शौर्य जाग उठा। सभी को उस लकड़ी से मार मारती है। जिस-जिस को लकड़ी को मार लगता है वह सभी लोग एक बार लकड़ी का मार खाने के बाद दूसरी बार खड़े होने की ताकत उनमें नहीं थी। काली का रूप लेकर वह क्षत्रियाणी हमला  करती है।
अठार साल की एक गर्भवती लड़की लकड़ीयों और तलवारों के घा देकर झूम रही है। ऐसे में ही दुश्मनों के हांथ से छूटी हुई तलवार गरासरणी के हाँथ लग गयी। ऐसे में उसने मां जगदम्बा का रूप आ गया और बचें हुए दुश्मन भी भाग खड़े हुए।

गेमा रणगोळीटो होकर झांखर में जाकर गिरा। बाई ने कहां कि छोड दो उस डरपोक को।
वहां से छूटकर गेमा चल दिया, किसीको अपना मुंह नहीं दिखा पाया। फिर कभी भी पच्छे गांव को देखेगा ही नहीं।
युवान गरासरणी की जबतक श्वास की रक्तवाहीनी चलती हो, उसके शरीर के सभी अंगों पर से रक्त की बारिश हो रही थी। आंख में से झाळो छोड़ रही थी। हाथ में से रक्त वाली तलवार थी। काली रात में जैसे चंडिका प्रगट हुई हो. गरासरणी वन के सभी पैंड़ पोंधे उसे देख रहे थे।
बैलगाड़ी में बैठने के लिए उसने मना कर दिया। इस तरह का कार्य करने वाली व्यक्ति बैठ नहीं सकती उसके शरीर में अभी भी शोर्य दिख रहा था। भले ही जितने ही घा क्यों न लगे हो, उस पर भी वह गांव-गांव के चल सकती है। उसका खून शांत हो वैसा नहीं है। रूपाड़ी बा चंडी का रूप लेकर बैलगाड़ी के पीछे-पीछे सभी ओर नज़र रखते  हुए चल दी।

सुबह होने के साथ वह मोणपर की सीमा में आ गयी, वो उनके मामा दादभा का गांव था। मामा को संदेशा भेंजवाया गया और वह तुरंत ही कसुंबा (एक अफीम, जिसके रस से होने वाला नशा) लेकर आए।
कसुंबा  लेकर मामा आ गये। लड़की को इतने सारे जख़म मामा से देखे नहीं गये। मामा ने आजिजी की “बेटा आप यहीं रूक जाओ”।
“ना मामा मुझे बहुत जल्द घर पहुंचना है, मुझे मेरे बापू से मिलना है”।
“बहन पच्छे गांव पहुंचे उससे पहले ही उनके आने की बाट पूरे गांव में फेंल गयी थी। सभी को बता दिया गया था कोई भी उसकी प्रशंसा मत करना, उसको दिलासा भी मत देना, सब उसके बारे में खराब ही बोलना, जिससे उसके मन में अंहम् न आ जाए”।
चमक आना यानि इंन्सान की मृत्यु होना।


खून से भीगती हुई लड़की आयी। लड़की को चारपाई पर लाया गया। सभी लोग उसे उलाहना देने लगे कि बेटा बहुत खराब हुआ। पांच हज़ार के गहने चले जाते तो कहां तुम्हारे बाप को पैसों की खोट है।
एक पहर में तो उसका जीव चला गया। परंतु उसका इतिहास अभी तक नहीं गया।

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शोध छात्र - पंजाबी रेखा सतीशकुमार

संस्था      - गुजरात केन्द्रीय विश्व विद्यालय
               गांधीनगर- 30, गुजरात

पता       - ८/ए, कल्याण बाग सोसायटी, बलियाकाका रोड़,
               कांकरिया अहमदाबाद-३८००२२

पीएच.ड़ी. शोध छात्रा – “प्रेमचंद और पन्नालाल पटेल के चयनित उपन्यासों में स्त्री संदर्भों  का तुलनात्मक अध्ययन”

मो. 9904372318
E-mail : rekhapanjabi@yahoo.in 

सौराष्ट्र नी रसधार भाग - 1 (गरासणी)




झवेरचंद मेघाणी

लेखक परिचय :
राष्ट्रीय शायर झवेरचंद मेघाणी का जन्म-२८ अगस्त १८९६, चोटीला  निधन- ९ मार्च १९४७, बोटाद में हुआ था. उनके पिता का नाम कालिदास मेघाणी था. उनकी माता का नाम घोळीबहन था. झवेरचंद मेघाणी का बहुमुखी व्यक्तित्व था. वह एक साहित्यकार, वक्ता, लोकसाहित्य संशोधक, पत्रकार, गायक, स्वातंत्र्य सेनानी थे. उन्होंने अपने जीवन में बहुत उतार चढाव देखे थे. उन्हें बहुत से सम्मान प्राप्त थे जैसे - 
1 1928 में लोकसाहित्य के संशोधन के लिए रणजीतराम सुवर्ण चंद्रक प्राप्त हुआ।
2 1930 में गांधीजी ने “राष्ट्रीय शायर” का सम्मान दिया।
3 1946 में गुजराती साहित्य परिषद के साहित्य विभाग के अघ्यक्षता मिली।
4 1946 में ‘माणसाई ना दीवा’ की श्रेष्ठ पुस्तक के लिये महीड़ा पारितोषिक प्राप्त हुआ।



झवेरचंद मेघाणी की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/07/add-caption.html?m=1

09 जून, 2019

कभी-कभार आठ


कविता  थी  उनकी वास्तविक पहचान

 विपिन चौधरी


अश्वेत कवयित्री ऑड्रे लॉर्ड  उन प्रभावशाली रचनाकारों में से एक हैं जिनकी पहचान उनकी कविता को साथ रखकर ही पूर्ण होती है थी ऐसा इसलिए है क्योंकि ऑड्रे लॉर्ड  के बहुमुखी व्यक्तित्व की  सबसे पुख्ता जानकारी  उनकी कविता से ही  पता चलती है।


विपिन चौधरी


क्रांतिकारी अश्वेत नारीवादी अफ़्रीकी-अमेरिकी कवयित्री  ऑड्रे लॉर्ड  स्वयं भी अपने निबंधों, साक्षात्कारों में  कविता की महत्वत्ता को रेखांकित करती रही.

अपने प्रसिद्ध लेख सिस्टर आउटसाइडर : फेमिनिस्ट एंड  स्पीचेस में कविता की मह्तवत्ता का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा, "हम स्त्रियों के लिए कविता एक लक्जरी नहीं बल्कि हमारे अस्तित्व के लिए एक आवश्यक जरुरत है। कविता, ऐसी रोशनी  है जिसके आलोक-भीतर हम अपनी आशाओं और सपनों के जिंदा रहने और उनमें इच्छित बदलाव को लेकर समर्पित करते हैं, कविता पहले  भाषा बनती है, फिर तब्दील होती है विचारों में और फिर अधिक ठोस कारवाही बन कर सामने आती है। कविता वह शैली  है जिससे  हम नामहीन को नाम देने में मदद करते हैं ताकि  उसपर आगामी कोई योजना बनाई जा सके।  हमारे दैनिक जीवन के छूने वाले अनुभवों से उकेरे गयी आशाओं और आशंकाओं के कहीं दूर के क्षितिज हमारी कविताओं से प्रभावित होते हैं.”
18 फरवरी, 1934, हार्लेम, न्यूयॉर्क संयुक्त राज्य अमेरिका में जन्मी ऑड्रे लॉर्ड अपने बचपन से ही एक अन्वेषक का स्वभाव लेकर उभरी.  कुछ बड़ी होने पर वे सामूहिक पहचान के विचारों का

प्रतिनिधित्व करने में विश्वास रखने लगी, उनका मानना था कि किसी अल्पसंख्यक समुदाय में  एकल व्यक्तित्व को आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. इसलिए ऐसे समाज में खास तौर पर एक स्त्री के लिए मल्टीप्ल आइडेंटिटी का होना आवश्यक है. जीवन के अनेक हिस्सों
में  अलग-अलग जिम्मेदारी निभाने वाली ऑड्रे लॉर्ड की एक अन्य  पहचान  समलैंगिक की  भी रही,
अपनी इस पहचान को भी उन्होंने हमेशा प्रमुखता  दी और इसे अपने स्त्रीत्व का प्रमुख हिस्सा माना.
अश्वेत नारीवाद में ‘इंटरसेक्शनएलिटी’ की परिभाषा के दखल का प्रयास करने वाली वे प्रमुख नारीवादी थी। अपनी दूरदर्शी दृष्टि के चलते उन्होंने 'इंटरसेक्शनएलिटी’ की परिभाषा का लगातार विस्तार किया और इसे अश्वेत अस्तित्व के लिए बेहद महत्वपूर्ण बताया.

यह ऑड्रे लोर्डे ही थी जिन्होंने स्त्रीवादी आंदोलन में  उम्रवाद, (किसी व्यक्ति की उम्र के आधार पर पूर्वाग्रह या भेदभाव), समर्थवाद, (समर्थ लोगों के पक्ष में भेदभाव), होमोफोबिया (समलैंगिकता और समलैंगिक लोगों के प्रति चरम और तर्कहीन टकराव),  वर्गवाद, (किसी विशेष सामाजिक वर्ग से संबंधित लोगों के विरुद्ध पक्षपात) या पक्षपात करना, सीसेक्सिस्म ( ऐसे  मानदंड के लिए अपील  जो लिंग बाइनरी को लागू करता है, जिसके अंतर्गत लिंग अनिवार्यता जरुरी मानी जाती है और उसके न होने के  परिणामस्वरूप ट्रांस आइडेंटिटी का उत्पीड़न होता है) को भी शामिल किया.
ऑड्रे लोर्डे की आवाज़  स्त्रीवाद की दूसरी लहर की अवधि के दौरान उभर का आयी जिसमें उन्होंने पितृसत्तात्मक  समाज में स्त्री की विशेषताओं  को बचाने पर जोर दिया के बारे में था और उन्होंने अपने काम में स्त्री द्वारा स्त्री की पहचान पर बल दिया.

श्वेत लोगों के  विशेषाधिकारों  और शक्ति संस्थानों पर उसका रुख हमेशा कड़ा होता और उसे दर्शाने के लिए वे एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न आंदोलनों में भाग लेती, संगोष्ठिया आयोजित करवाती और लेखन में अपना प्रतिरोध दर्ज करती. लेखन की विविध विधाओं में उन्होंने  अपने व्यक्तित्व की विभिन्न पहचान का भरपूर इस्तेमाल किया। उनके नाम कई उपलब्धियां दर्ज़ केवल मात्र निजी उपलब्धियां न होकर एक बड़े समुदाय को समर्पित कार्य सिद्धियाँ  हैं. एक प्रकार का जुनून, ईमानदारी, अनुभूति और भावनाओं  की गहराई प्रेम, भय,
नस्लीय और यौन उत्पीड़न, अस्तित्व और शहरी संघर्ष उनकी कविताओं में आसानी से पकड़ में आते हैं.  उनके कवि जीवन की शुरुआत प्रेम कविताओं से हुए मगर 1960 के दौरान वह अपने राजनैतिक वक्तव्यों के लिए जानी गई. कविता उनकी पहली भाषा थी. उनके जीवन काल में उनके बारह कविता
संग्रह प्रकाशित हुए.

उन्होंने अपनी कविताओं  में श्रृंगारिक रस का  खूब प्रयोग  किया, अफ्रीकी डायस्पोरा से प्रतीकवाद और इतिहास से समृद्ध कविताएँ भी उन्होंने खूब लिखी. उन्होंने लगातार यह महसूस किया कि भीतरी संवेदनाओं से उपजी कविताएँ सार्वजनिक राजनीतिक और अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन सकती हैं.

अफ़्रीकी अमेरिकी कवयित्री सोनिया सांचेज़ और अमेरिकी एड्रिएने रिच से उनकी खूब जमती थी. ऑड्रे लोर्ड समलैंगिकता के मुद्दे को अँधेरे से निकाल कर प्रकाश में लेकर आयीं जिससे कई सामाजिक वर्गों के  लोगों जागरूक हुए और समाज में  अश्वेत समलैंगिक स्त्रियों के मुद्दों को  पहचान कर उनपर काम किया । तीसरी दुनिया के नारीवादी विर्मश का प्रमुख स्वर  ऑड्रे लॉर्ड  के लेखन की कई परतों में
उन्होंने  एक स्त्री की आत्मनिर्भरता की अवधारणा को बार-बार दोहराया है।  दोनों हाशिये अश्वेत और
समलैंगिक स्त्री तीनो हाशिये पर खड़ी ऑड्रे लॉर्ड का सफर आसान नहीं था मगर एक अश्वेत स्त्री
के भीतर ऐसी प्रखर चेतना को उनके दौर के लोगों ने देखा और आज भी संसार भर की रचनात्मक
स्त्रियां उनसे प्रेरणा ग्रहण कर रही हैं.
स्तन कैंसर के साथ उन्होंने चौदह वर्ष तक की लंबी लड़ाई लड़ी और अपनी इस बिमारी को भी
उन्होंने  मोटिवेशन का एक माध्यम मानते हुए स्तन कैंसर के बचाव के लिए लिखा और उससे संघर्ष को लेकर लिखी उनकी व्याधि की कहानी को  कैंसर की पत्रिकाओं में  प्रमुख काम माना गया. कैंसर पर केंद्रित  पत्रिकाओं में ऑड्रे लॉर्ड मृत्यु की संभावनाओं के बारे में तफ़्सील से बात की.
70 के दशक की शुरुआत में 90 के दशक में एक सक्रिय कार्यकर्ता और कवि के रूप में ऑड्रे लॉर्ड ने अपनी कविताओं के जरिए अपने जीवन के कई विरोधाभासों को प्रतिबिंबित किया.

उनकी कविताओं के अधिकांश विषय प्रेमियों और बच्चों और माता-पिता और दोस्तों के बीच संबंधों के सूक्ष्म और जटिल  दोनों प्रकार के भावनाओं से प्रेरित हैं, उनकी कुछ कविताओं में  राजनीति में परस्पर समाजवाद और अफ्रीकी अमेरिकी सांस्कृतिक अनुपातवाद और अफ्रीकी अमेरिकी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोधाभासी मिश्रण एक ही समय में दीखता था, वास्तव में समकालीन अमेरिकी समाज की दमनकारी स्थितियों में शामिल था।

अपनी कविताओं  में वे अक्सर लैंगिकता  और नस्लवाद से टक्कर लेती दिखती थी तो उनकी कविताओं में वैश्विक मुद्दों के साथ-साथ आइडेंटिटी  के मुद्दों और उनसे असर का पता लगाने की कोशिशे भी होती.

अश्वेत होने के चलते उन्होंने अपनी अफ्रीकी विरासत का पता लगाया और उसी का परिणाम जैसी कविताएँ थी. कविता में उनकी गहरी सक्रियता का आलम यह था कि उनकी कुछ कविताएँ रोमांटिक थी तो वे अपनी राजनीतिक और आक्रोश से लबरेज़ कविताओं खासतौर पर नस्लीय और यौन उत्पीड़न पर केंद्रित कविताओं के लिए जानी गई। एक अश्वेत समलैंगिक नारीवादी के रूप में अपने कैरियर के तौर पर अपनी पहचान को लगातार पुख्ता करते हुए उन्होंने जो लेख लिखे उनके शीर्षक हैं  'योर साइलेंस विल नॉट प्रोटेक्ट यू',  'द मास्टर'स टूल्स विल नेवर डिस्मेंटल द मास्टर'स हाउस', ‘सिस्टर आउटसाइडर’.‘हु सेड इट वाज़ सिंपल’, ‘पॉवर’, ‘आफ्टरइमेजेज’, ‘सिस्टर इन आर्म्स’, ‘नेवर तो ड्रीम ऑफ़ स्पाइडर्स’,  ‘कोल’, आदि उनकी प्रमुख कविताएँ मानी जाती हैं. आज भी उनका समय उनकी कविताओं में प्रतिध्वनित होता है और नई पीढ़ी उस दौर को अपने समय के रोशनी में देखते  हुए उनका अन्वेषण करती हैं और आगे भी करती रहेंगी. इस तरह और्ड लोर्ड की सत्ता स्त्री अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहेगी यह याद दिलवाते हुए कि  स्त्रियों तुम्हारी चुप्पी तुम्हारी  रक्षा नहीं कर सकेगी .




                                  ऑड्रे लॉर्ड

                                                 
बोलती है कोई स्त्री 
(ऑड्रे लॉर्ड)
                                                       
                                                       
चंद्रमा,
सूर्य द्वारा चिन्हित और प्रभावित है

जादू मेरा है अलिखित
लेकिन जब समुद्र  हो जाता  है सांवला
यह मेरे आकार को छोड़ देता है  पीछे
नहीं तलाशती मैं लहू से अछूती
तरफदारी कोई
प्यार के अभिशाप सी बेरहम
मेरी गलतियां या
अभिमान मेरे सा स्थिर

प्रेम और अफ़सोस को एक  साथ
मिलाती नहीं मैं
न ही घृणा को मिलाती तिरस्कार से
और अगर जाना होगा आपने मुझे
देखो मुझे यूरेनस की आंत से
बेचैन सागर  है  बंदी गृह में

नहीं बस्ती मैं  अपने
जन्म- भीतर
न ही अपनी दिव्यता में
कौन हूँ मैं चिरयुवा
और आधी वयस्क

और अभी भी  खोज रही हूँ
डाहेमी में  अपनी चुड़ैल बहनों को
जो पहनती हैं  मुझे
अपने लच्छेदार कपड़ों में
करती हैं जैसे हमारी मायें शोक में

काफी लंबे समय से हूँ मैं  स्त्री
रहना मेरी मुस्कराहट से  सावधान
अपने  पुराने  जादू  संग हूँ मैं  विश्वासघाती
और दोपहर का नया रोष
आपके ढेर सारे   किये गए वायदों  के साथ

मैं हूँ
एक स्त्री और वह भी  नहीं हूँ  कोई श्वेत  स्त्री
०००



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