पंकज चौधरी |
जैसे उदास पत्ते
हवा का साथ मिलने से
झूमने लगते हैं।
जैसे पत्रहीन नग्न गाछ
नई-नई पत्तियों के आगमन से
हरे-भरे पेड़ के रूप में
आच्छादित हो जाते हैं।
जैसे फागुन की
किसी तप्त और शांत दुपहरी को
कोयल की कूक
सुरीली और काव्यमयी बना देती है।
जैसे रेगीस्तान
शाम के आगमन से
शीतल और सांद्र हो जाता है।
जैसे मेघ के आगमन से
बेहाल हो चुके खेतों में
हाल आ जाता है।
ठीक
वैसे ही
मुझे भी
तुम्हारा संग-साथ चाहिए!
2. दुनिया बनने का क्रम
पुराने पत्ते झर गए
नए पत्तों का आना जारी है
पेड़ की डालियाँ
अभी खाली-खाली हैं।
कुछ पत्ते बड़े हो रहे हैं
कुछ पत्ते अभी छोटे-छोटे हैं
पत्तियाँ पत्ते बनने के क्रम में हैं
और कोंपल पत्तियाँ बनने के क्रम में
बाकी कोंपलों का फूटना जारी है।
पेड़ का छतनार पेड़ बनना
अभी जारी है।
दुनिया के भी बनने का यही क्रम है
दुनिया को रातोंरात
बदलने की तैयारी
एक महामारी है।
3. महत्व का समय
कहा जाता है
कि समय और पैसे को महत्व देना
जिसने जान लिया
उसने दुनिया को जान लिया
उसने दुनिया को जीत लिया।
अब सवाल यह पैदा होता है
कि समय को वह आदमी
कैसे महत्व दे पाएगा
जिसे दिल्ली में ही
आश्रम से गोविंदपुरी जाने के लिए
जितनी देर
बस का इंतजार करना पड़ता है
उतनी देर में
कोई और आदमी
दिल्ली से पटना पहुँच जाता है
और वह
बस का इंतजार ही करता रह जाता है?
बस का इंतजार करने वाला आदमी
दुनिया को कैसे जीतेगा?
4. प्रकृति के बिना
मैं जहां खड़ा था
उसके पार्श्व में
एक पोखर कल-कल कर रहा था
पोखर के कल-कल करते पानी पर
बगुलें उठक-बैठक कर रहे थे।
पोखर के तट पर
हरे-भरे पेड़ खड़े थे
पेड़ों पर घोंसले बने थे
घोंसलों से चूजें बाहर झांक रहे थे।
पोखर के उस पार
दूर-दूर तक
गेहूँ की पकी-पकी बालियाँ
ही दिख रही थीं
नीला आसमान
जमीं से मिल रहा था।
और कैमरे से
मेरी तस्वीर
सुंदर उतर रही थी
प्रकृति के बिना
क्या हम अपने सुंदर जीवन की
कल्पना कर सकते हैं?
5. हत्या के पक्ष में
देश की राजधानी में इंदिरा गांधी की जब हत्या
हुई
तो पूरे देश में सिखों का कत्लेआम हुआ।
श्रीपेरुम्बदूर में राजीव गांधी की जब हत्या
हुई
तो पूरे देश में द्रविड़ तमिलों का खून-खराबा
हुआ।
और कश्मीर में जब गोलीबारी हुई
एवं जवान मारे गए
तो पूरे देश से कश्मीरियों को खदेड़ा जा रहा
है
और उनका अदृश्य कत्लेआम हो रहा है।
वहीं एक हिन्दू ने
जब राष्ट्रपिता की हत्या की
तो वह पूरे देश में पूजा जाने लगा।
6. अंधेरे में जो बैठे हैं
हमारा सारा प्रपंच
सुख, खुशी, रोशनी और प्रसिद्धि के लिए है
लेकिन यही सुख, खुशी, रोशनी और प्रसिद्धि
जीवन में जब अधिकाधिक होने लगती है
तो वह काटने के लिए क्यों दौड़ती है?
उनकी चिंता हमें क्यों सताने लगती है
जो अंधेरे में बैठे हैं
और जिन तक रोशनी का एक भी कतरा
आजतक नहीं पहुँचने दिया गया?
सतह से उठते हुए हमलोग
उनकी तरह
खुशियों और रोशनी के
उस तरह क्यों नहीं अभ्यस्त हो पाते
जो सुखों के समंदर में लेटा हुआ है
और सुख के बढ़ते ही जाने से
उन्हें कोई ऊब भी महसूस नहीं होती?
और सुख के एक भी कतरे का इधर-उधर होने से
उसकी भृकुटी तन जाती है?
7. आधिक्य की ताकत
जो कमज़ोर हो गया है
उसे कमज़ोरी से उबारने के लिए
क्या थोड़ी ताकत
उनसे उसे नहीं मिल सकती
जिनके पास ताकत का आधिक्य है?
ताकत के आधिक्य का
सही उपयोग क्या है?
कमज़ोर को थोड़ी ताकत देकर
उसे कमज़ोर नहीं रहने देना?
या कमज़ोर को कमज़ोर ही रहने देना?
या अपनी ताकत के आधिक्य का
इस्तेमाल करके
उसे और कमज़ोर कर देना?
और फिर अपनी ताकत के आधिक्य को
बढ़ाते हुए
उसे असीम-अतुलित कर लेना?
ताकत के आधिक्य में
आखिरकार करुणा की ताकत क्योंकर नहीं होती?
8. जातिसभा/जातिपर्व
भूमिहारों का टिकट कटा
ब्राह्मणों को टिकट मिला।
यादवों को ज्यादा सीटें मिलीं
कुर्मियों को उससे कम।
राजपूत सब पर भारी पड़े
कायस्थों को शहरी क्षेत्र से टिकट मिले।
चमारों को दो सीटें ज्यादा मिलीं
दूसाधों को दो सीटें कम।
वाल्मीकियों ने खटिकों की सीटों पर दावा किया
खटिकों ने राजभरों की सीटों पर।
गुर्जरों ने जाटों के लिए अपनी सीटें छोड़ीं
लोधों ने टिकट के लिए कीं मारामारी।
मल्लाहों का खाता खुला
कुम्हारों का रास्ता बंद।
कहारों ने चक्का जाम किया
हज्जामों ने पार्टी दफ्तर पर बोला हमला।
संतालों ने मुंडाओं को दिया शिकस्त।
अशराफों ने पसमांदों की सीटें हड़पीं।
यह जातिसभा का चुनाव है
लोकसभा का नहीं!
यह जातिपर्व का लोकतंत्र है
लोकतंत्र का महापर्व नहीं!
9. श्रद्धांजलि
मुनियों, ऋषियों, संतों, साधुओं
की परिभाषा है कि वे
इतने अहिंसक होते हैं कि
बाहर तो बाहर
अंदर के भी जीवाणुओं की चिंता करते हैं
वे इतने आत्महंता होते हैं कि
बिच्छुओं के डंक की भी परवाह नहीं करते
वे इतने दयालु और दयावान होते हैं कि
अपने हत्यारों को भी माफ कर देते हैं
और अपने कर्म, वचन और मन से भी
किसी का दिल नहीं दुखाते
लेकिन भारत में आदमी तो आदमी
मुनियों, ऋषियों, संतों, साधुओं
के अंतर्मन में भी
बहुजनों के प्रति
दुर्गंधी घृणा
इस कदर आसन जमाए बैठी रहती है कि
वक्त आने पर वह निकल ही जाती है-
‘‘कौआ चले हंस की चाल’’
मुनि ने अपनी वाणी से
बहुजन तो बहुजन
कौआ को भी नहीं बख्शा।
(जैन मुनि तरुण सागर को, जिन्होंने दलित-बहुजनों के लिए ‘कौआ चले हंस की चाल’ जैसे शब्दों का एकाधिक बार प्रयोग किया था।)
10. दौर का अंधेर
यह कैसा दौर है
जिसमें
चर्मकार को
जूते गांठने के लिए
रंगदारी देनी पड़ती है।
जुलाहे को
कपड़े सिलने के लिए
चढ़ावा देना पड़ता है।
कुम्हार के बर्तन का
कोई खरीदार नहीं।
तेली के तेल का
कोई मोल नहीं।
कवि की किताब का
कोई खरीदार नहीं।
किसानों को
अपनी ही फसल का
लागत मूल्य
ऊपर नहीं हो पाता है।
लेकिन
विदेश भाग चुके
चोर नहीं डकैतों को
बुलाने के लिए
हेलिकॉप्टर भेजना पड़ता है।
यह किस दौर का अंधेर है।
11.सुरक्षित सरकार, असुरक्षित
भारत
बताया जा रहा है कि
रफाल विमानों के दस्तावेजों की चोरी हो गई
है।
मान लेते हैं कि
सरकार की इस चोरी में कोई भूमिका नहीं है
और वह चोर नहीं है
लेकिन जो सरकार
मामूली कागजात की भी रक्षा नहीं कर पाती है
वह देश की सुरक्षा क्या कर पाएगी।
12. मॉब
लिंचिंग
दिसंबर की बारहवीं तारीख थी
पूरबा सांय-सांय करती हुई
दिल को दहला जा रही थी
और घड़ी की सुई
रात के दस बजा रही थी।
राजधानी के उस चौराहे पर
वैपर लाइट की रोशनी में
भीड़ बेकाबू और निरकुंश हो गई थी
और उन दोनों मासूमों की आंखें निकाल ली थी।
इतना ही नहीं
उन मासूमों की आंखें निकालने से पहले
उनको पीट-पीटकर भीड़ ने
अंधा, बहरा, गूंगा और लूला बना दिया था।
भीड़ का उन मासूमों पर आरोप था
कि ये जेबकतरे हैं
और मोबाइल फोन की चोरी करते पकड़े गए।
दनिया को सत्य, अहिंसा, करुणा, शांति
सहिष्णुता और उदारता का पाठ पढ़ाने वाले देश
में
मानवाधिकार का साक्षात उल्लंघन हो रहा था
और ऐन उसी रोज एक चोर और पकड़ाया था
जो राष्ट्रीय संपत्ति का अरबों डकार चुका था
लेकिन देसी-विदेशी सुंदरियों के साथ
विदेश की वह सैर कर रहा था।
तीन राज्यों में
संघ-मोदी की हार क्या हुई
उस हार का बदला
उन मासूमों से ले लिया गया था।
13. महान सच
हजारों
लाखों
करोड़ों
अरबों झूठों के बुर्ज को
हिलाने के लिए
अगर झूठ बोलना पड़े
तो उस झूठ को बोला जाना चाहिए
और उस झूठ को
इतिहास में
‘महान सच’
के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए।
14. लोकतंत्र
लंबी लाइन लगी हुई थी
और हमलोग उस लाइन में खड़े थे
अपनी-अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे
अपने-अपने अधिकारों को पाने के लिए।
पुलिस भी मुस्तैद थी
कि लाइन कोई तोड़ नहीं पाए
कि लाइन में कोई घुसपैठ नहीं कर पाए
कि लाइन के समानांतर कोई और लाइन लग नहीं पाए।
लेकिन जैसाकि अक्सर होता है
कि पुलिस की मुस्तैदी के बावजूद
कुछ मुस्टंडे लाइन को तोड़ देते हैं
लाइन में घुसपैठ कर जाते हैं
या लाइन में आगे खड़े हो जाते हैं
और अपनी बारी का अंतहीन इंतजार किए बगैर
लाइन मे खड़े लोगों के
अधिकारों का अतिक्रमण करते हुए
अपने जायज-नाजायज अधिकारों को
सबसे पहले हड़प जाते हैं
और पुलिस झूठ-मूठ के एकाध डंडे बरसा देती है
और पुलिस की मुस्टंडों से मिलिभगत होती
है
वैसा ही नजारा
उस दिन भी प्रकट हो गया।
मुस्टंडे आते
और लाइन में खड़े लोगों को धकियाते हुए
अपने अधिकारों को
गैर-कानूनी तरीके से सबसे पहले हड़प जाते
और लाइन में खड़े हमलोग बेवकूफ बने रह जाते।
यह सिलसिला तब तक चलता रहा
जब तक कि लाइन में खड़े हम असंख्य लोगों ने
उन कुछेक मुस्टंडों पर
हल्ला बोलना नहीं शुरू कर दिया
और लाइन से बाहर उनको नहीं खदेड़ दिया।
चुप्पी तोड़ने का नाम है लोकतंत्र
हल्ला बोलने का नाम है लोकतंत्र
और मन से भय को दूर करने का नाम है
लोकतंत्र।
15.गीदड़-भभकी
सीमा पर रोजाना जवान मारे जा रहे हैं
मोटार्र दागे जा रहे हैं
विमानों को हाइजैक कर लिया जाता है
पायलटों को अगवा किया जा रहा है
वतन की जमीन हथिया ली गई है।
और हमारे 56 इंच के सीने वाला चौकीदार
दुश्मनों को घर-घर में घुसकर
मारने की घुड़की दे रहा है।
16. अधिकार
महिलाओं की सीटें थीं
लेकिन उन पर पुरुष जमे हुए थे
पुरुष उन सीटों पर तब तक जमे रहे
जब तक कि महिलाओें ने उन पर
अपना दावा नहीं ठोंका
और पुरुषों की बांहें पकड़कर
उनको अपनी आरक्षित सीटों से नहीं उठा दिया।
अपना अधिकार खुद लेना पड़ता है
किसी का मुंह जोहते रहने से यह कभी नहीं
मिलता।
17. मैं हार नहीं मानूँगा, तो तुम जीतोगे कैसे
मैं हार नहीं मानूँगा
तो तुम जीतोगे कैसे
मैं रोऊँगा नहीं
तो तुम हंसोगे कैसे
मैं दुखी दिखूँगा ही नहीं
तो तुम सुख की अनुभूति करोगे कैसे
मैं ताली ही नहीं बजाऊँगा
तो तुम ताल मिलाओगे कैसे
मैं अभिशप्त नायक ही सही
लेकिन तू तो खलनायक से भी कम नहीं
मैं खुद्दारी की प्रतिमूर्ति ही सही
लेकिन तू तो किसी पतित से कम नहीं
माना कि प्रकृति भी मेरे साथ नहीं
लेकिन प्रकृति भी तो सदैव तेरी दास नहीं
तुम मुझे क्या अपमानित करोगे
तुम तो खुद सम्मानित नहीं
तुम मुझे औकात में क्या रखोगे
तुम्हारी खुद की तो कोई औकात नहीं
तुम मुझे क्या डराओगे
तुम तो मुझसे खुद डरते हो
मेरे ऊपर तुम क्या शक करोगे
विश्वास तो तुझे खुद अपने ऊपर भी नहीं
तुम मेरा रास्ता क्या रोकोगे
तुम्हारा रास्ता तो अपने आप है बंद होने वाला
मेरी इज्जत तुम क्या उतारोगे
तुम्हारी इज्जत तो खुद है तार-तार
तुम मेरा इतिहास क्या खंगालोगे
तुम्हारा इतिहास तो खुद है दाग-दाग
मैं राहु का वंशज ही सही
लेकिन तुम भी तो चंद्रमा के रिश्तेदार नहीं!
18. तुम मुरझाओ नहीं
तुम मुरझाओ नहीं
तुम्हें कोई नहीं रौंद सकता
कोई नहीं कुचल सकता
भला दूब को कोई रौंद पाया है आजतक
उसे कोई कुचल पाया है अबतक
उसे लाख रौंदो
लाख कुचलो
वह उग ही आती है
धरती का सीना फाड़कर
उद्भिज की तरह
तुम बिलकुल वही दूब हो
जिसकी जड़ें बहुत-बहुत गहरी हैं
पाताल तक
शैतानों की टापें तो हवा-हवाई होती हैं।
19. दशरथ मांझी
पहाड़ को पहाड़ जानकर
उन्होंने पहाड़ को ढ़ाना
नहीं बंद कर दिया होगा
पहाड़ उन्हें तब तक ही पहाड़ लगा होगा
जब तक कि उन्होंने
पहाड़ को ढ़ाना नहीं शुरू किया होगा
पहाड़ को वे ढ़ाते रहे
बगैर इस अहसास के
कि वे पहाड़ ढ़ाह रहे हैं
और पहाड़ एक दिन ढ़ह गया
पहाड़ रास्ता बन गया
पहाड़ मैदान बन गया
भारत में दशरथ मांझी के रूप में
नेपोलियन पैदा हो गया
जिनने पहाड़ को पहाड़
समझा ही नहीं होगा
उसे ज्यादा से ज्यादा
गिलाबा (गीली मिट्टी) की दीवार समझा होगा
और पहाड़ को उनने कब ढ़ाह दिया
उन्हें पता ही नहीं चला होगा
दुनिया के जितने भी पहाड़ ढ़ाए गए
दशरथ मांझी बनकर ही ढ़ाए गए।
20. दुख
(क)
दुख से
घबरा जाते हो
यह जानते हुए कि
जीवनभर दुख रहेगा।
दुख से
निराश हो जाते हो
यह जानते हुए भी कि
स्वयं तुमने दुख का रास्ता चुना।
दुख में
कटु हो जाते हो
यह जानते हुए भी कि
दुखिया को लोग और दुखी करते हैं।
दुख में
घबरा जाते हो
यह जानते हुए भी कि
दुख का आभास
दुख का अहसास
और दुख की अभिव्यक्ति
दुख को और बढ़ा देती है।
(ख)
खुद अंधा है
कई महीनों से बेरोजगार भी है
और सामने लेटे
जिगर के टुकड़े को कैंसर हो गया है।
पत्नी जार-जार रो रही है
यह उलाहना देते हुए कि
तुमसे मुझे कौन सुख मिला?
हे भगवान!
वह अवाक् है।
यह दृश्य देखकर
दृश्य को सोचकर
कौन खुश रह सकता है?
(ग)
पिता भी गुज़र गए
माँ पहले ही गुज़र गई
अब दादा-दादी भी नहीं रहे
चाचा सब जो पहले बेहिसाब प्यार करते थे
और जिनके लिए
हम दोनों बहन-भाई लाली और लाल थे
चाचियों के घर में आने के बाद
हमसे मुंह मोड़ने लगे
नाते-रिश्तेदार अपने में ही मगन हो गए
और समाज कहीं दिखता नहीं है
मैं आठ साल की लड़की
और चार साल का मेरा दुलारा भाई
जो अचानक मुझसे लिपटकर रोने लगता है
और मैं भी बेदम रोने लगती हूँ
क्या सही में हम अनाथ हो गए?
21. बेमौसम की बरसात
एक ही बरसात में मौसम फट गया
मौसम को फाड़ने का काम करती है बरसात
जैसे दही जमाने के लिए
दूध में दही का जोरन देना होता है
वैसे ही मौसम को बदलने के लिए
बमौसम की बरसात करती है प्रकृति
बमौसम की बरसात
मौसम के बदलने की सूचक होती है
और यह बरसात नहीं हो तो
पृथ्वी भी सूर्य का चक्कर लगाना छोड़ देती
है।
22. खुशी मन
तुमने कभी भी
दूसरों की खुशियों का ख्याल नहीं किया है
लेकिन खुद
सबसे खुशियाँ पाने की चाहत रखते हो।
तुमने कभी सोचा है
कि पौधे हमें तभी फल देते हैं
जब उन्हें हम सिंचते हैं।
फल प्राप्त करने के लिए
पौधे भी चाहते हैं
कि उन्हें कोई सींचे
कि उन्हें भी कोई पानी की तरह हिलकोरे।
जिनसे तुम खुशियों की चाहत रखते हो
उनका भी चाहना होता है
कि तुमसे भी उन्हें खुशियाँ मिलें
ताकि खुशी मन
खुशियाँ ही तो देगा किसी को।
23. चोर
चोर
कितना निर्मम होता है
यह उससे पूछा जाना चाहिए
जिसके सामान की चोरी हुई है।
24.मूर्तिभंजकों की
आस्था
मूर्तितोड़कों
मूर्तिभंजकों की
मूर्तियों में आस्था
तब दिखने लगी
जब उनकी मूर्तियाँ तोड़ी जाने लगीं।
25. अभिमान
तुम विशाल हो तो क्या हुआ
सब को बोझ उठाए हुए हो
तो क्या हुआ
उस पतली रस्सी को देखो
जो अलगनी के रूप में टंगी हुई है
और बरसे कम्बलों को बोझ उठाए हुई है
फिर भी तनी हुई है।
26. कमज़ोर ताकतवर
तुम कितने कमज़ोर हो
कि किसी कमज़ोर को दबाने के लिए
तुम ताकतवर एक हो जाते हो?
27. द्विज कवि
देश जल रहा है
दलितों की बेटियाँ
सरेराह जलाई जा रही हैं
एक महान वयोवृद्ध अभिनेता को
उनके अपने ही घर से बेदखल कर देने की
साजिश रची जा रही है
मुसलमानों की कीमत
जानवरों से भी कम आंकी जा रही है
और द्विज कवि
अपनी प्रेमिकाओं के
ऊरोजों,
योनियों और नितंबों
की ऊंचाई,
गहराई और गोलाई
को नापने और थाह लेने में निमग्न हैं
इससे बड़ा मजाक
देश के साथ और क्या हो सकता है!
और तुर्रा यह कि
उन्हें राष्ट्रीय कवि क्यों नहीं घोषित किया
जा रहा है!
28. नई बात
तुम्हारा पुश्त-दर-पुश्त
हमसे छल करता आ रहा है
इसको अहसास तुम्हें भी है।
जब तुम हमसे
सायास या अनायास
छल-बल-कल करना बंद कर दो।
0000
पंकज चौधरी : परिचय
जन्म वर्ष - 15 जुलाई, 1976
जन्म स्थान :
ग्राम+ पोस्ट - कर्णपुर,
थाना+जिला – सुपौल, राज्य-बिहार,
शिक्षा
: एमए (हिंदी)
प्रकाशित किताब -
‘उस देश की कथा’ कविता संग्रह।
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन -
कविताएं और आलेख-हंस, कथादेश, आजकल, पाखी, समकालीन भारतीय
साहित्य, नई धारा,बया, वागर्थ, परिकथा,इंद्रप्रस्थ
भारती,गांव
के लोग, मंतव्य,अंतिका,संवेद, आउटलुक, इंडिया टुडे, शुक्रवार, समयांतर,सबलोग, दोआबा,
दुनिया इन दिनों,वंचित जनता,युद्धरत आम
आदमी, फॉरवर्ड प्रेस, समकालीन तापमान,दलित साहित्य अस्मिता,परिंदे,जनसत्ता, हिंदुस्तान, लोकमत समाचार, प्रभात खबर, राष्ट्रीय सहारा, सहारा समय, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका,आज समाज, दैनिक जनवाणी, जनसंदेश टाइम्सआदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से
प्रकाशित।
वेबसाईट्स, ब्लॉग्स और
इ-पत्रिका में प्रकाशन-
समालोचन, कविता कोश,हिंदीसमय,कालीमाटी,जनपथ, लिटरेचर पॉइंट, उत्तरवार्ता, नीलक्रांति डॉटकॉम, स्त्रीकाल आदि पर
कविताएं प्रकाशित।
प्रसारण-
दिल्ली और पटना के आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों
से कविताएं प्रसारित।
अनुवाद-
अंग्रेजी,मराठी, बांग्ला,गुजराती, मैथिली आदि में कविताएंअनूदित।
काव्य पाठ-
25 से अधिक एकल काव्य पाठ और 50 से अधिक सामूहिक रूप से काव्य पाठ।
सम्मान :
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘युवा साहित्यकार
सम्मान’, पटना पुस्तक मेला का ‘विद्यापति सम्मान’ और बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’।
पत्रकारीय कार्यानुभव-
आज समाज, दैनिक जनवाणी, फॉरवर्ड प्रेस, युद्धरत आम आदमी एवं सूचना एवं प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली जैसी
प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और संस्थानों में सम्पादकीय पदों पर नौकरी।
सम्प्रति :
‘कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन’,नई
दिल्ली में कार्यरत्।
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