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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

29 मई, 2016

कविताएँ : ओमप्रकाश कुर्रे

नमस्कार साथियों। आज प्रस्तुत है समूह के साथी ओमप्रकाश कुर्रे की रचनाएँ। आप पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दें।

1
एक वक़्त था जब लिखने वाले को कलम का सिपाही कहतें थे पर अब परिस्थितियां कुछ ऐसी है-

एक दफा मैं अपने काम से
किसी न्यूज़ स्टूडियो  में गया
वहां एक सीनियर रिपोर्टर ने
दस्तखत करने के लिए
मुझसे मेरा पेन माँगा
      जबकि एक पत्रकार की ताकत
      उसकी कलम है,मगर उस वक़्त
      वो निहत्था था.......
     देख कर मेरा पेन उसके चेहरे से
    अकड़ की हंसी छूट गयी

अकड़  कर उसने कहा- वाह!इतना गरीब पेन
                                      इतना गरीब पेन

मैं स्तब्ध रह गया की क्या
एक कलम के सिपाही के लिए
पेन,अमीर या गरीब होता है

मुझे उस अमीर पेन वाले की सोच पर
ताज्जुब हो रहा है शायद वह अपने शब्दों को सोने की श्याही से लिखता हो

2
का गोठ सुनावव छत्तीसगढ़ के
  जीहांI
कोला म होत बिहान हे
आँगन म बइठे सियान हे
पाताल चटनी संग म
चाउर के चीला पहिचान हे
सब ल चूल्हा के अंगाकर के ध्यान हे
धर कुदारी दिन खेत म पहाथे
तभो ले सब डहर मुस्कान हे
मंझनिया के बासी संग म
आमा के अथान हे
सँझा रमेशर के चौरा म
परत पंडाल हे
मुछु मंजीरा ठोकत हे
अउ बोदलहा देवत ताल हे ।
रात होवत माची म चोंगी सजे
गुड़ी म बैठे किसान हे
किसा सुने सब ज़माना के
फेर कोला म होवत बिहान हे
लोक कला के धनि हमर
राज के अलगे पहिचान हे
    
3
बदलते बदलते वक़्त ने
कितना कुछ बदल दिया
जनम जनम का रिश्ता
लिव इन रिलेशन शिप सिस्टम में बदल गया

सात जन्मों के कसमो की
अब कोई परवाह नही
यहाँ तो अब एक जनम
बीता पाना  भी मुश्किल हो गया
आधुनिकता ने
पाश्चात्य को सिर पर
और भारतीयता को
ताक पर रख दिया
अब न पति सुनाता पत्नी की न
पत्नी सुनती पति का
अब तो अर्धाग्नि परमेश्वर का
रिश्ता ही अलग हो गया
न शांति रही मन में
और न ही ऐतबार जीवन में रहा

पहले तो साथी के कन्धे पर
सर रख कर रो सकते थे
अब तो एक दूजे का चेहरा भी नागवार रहा

बदलते बदलते जीवन में वक़्त ने
कितना कुछ बदल दिया
                             
4
रुह्मनियता का दौर

आँखे नम थी तेरी
और चेहरे पर उदासी छायी थी
कुछ तो बात जरूर थी आज
तभी तो अचानक बरसात आयी थी

लग रहा था ऐसे जैसे रूठी है आज
तू खुद से तभी तो अम्बर में बदली छायी थी
हंसी भी फीकी बेमौसम लग रही थी
क्योंकि आँखे नम थी तेरी और चेहरे पर .......
                      
5  दर्द-ऐ-दिल

कुछ बून्द अश्क के मेरी  आँखों में है.
कुछ बून्द अश्क के तेरी निगाहों मे हैं।।

मायूसी की सिकंद तेरे चेहरे पे झलक रही है
और बेबसी का आलम मुझमें भी है

        थोड़ी उदास तो तू भी है
        थोडा हैरान तो मैं भी हूँ

मुड़ कर देख जरा पीछे
रास्ते में अकेला मैं भी हूँ
और सफ़र में तनहा तू भी है ।।

आज ज़ुबा खामोश मेरे भी है
और लब शांत तेरे भी हैं

हाँ धड़कन तेज़ तो तेरी भी है
सासों में आज रफ़्तार मेरी भी है।।

सीने की जलन तुझमे भी है
और धुएं की महक मुझमें भी ,

इसका अहसास तुझे भी है
इसका अहसास मुझे भी है

हा थोडा प्यार तुझे भी है
और थोडा प्यार मुझे भी है
            
6
क्यों कुरेद दिया तूने....
मेरे भरे जख्मों को...
नाम उसका पूछ कर....
अंदाजा तो  था न,
तुझे मेरे गम का......
कि टूट चूका है  दिल मेरा
   एक बार
बता--अब दर्द कितना होगा 
इस वक्त नसों का कतरा कतरा
आंसू बनकर छलकने लगा
और हाथ नही कुछ  भी मेरे
चाँद बेबस लकीरों के सिवा
  

7
का गोठ सुनावव छत्तीसगढ़ के
  जीहांI
कोला म होत बिहान हे
आँगन म बइठे सियान हे
पाताल चटनी संग म
चाउर के चीला पहिचान हे
सब ल चूल्हा के अंगाकर के ध्यान हे
धर कुदारी दिन खेत म पहाथे
तभो ले सब डहर मुस्कान हे
मंझनिया के बासी संग म
आमा के अथान हे
सँझा रमेशर के चौरा म
परत पंडाल हे
मुछु मंजीरा ठोकत हे
अउ बोदलहा देवत ताल हे ।
रात होवत माची म चोंगी सजे
गुड़ी म बैठे किसान हे
किसा सुने सब ज़माना के
फेर कोला म होवत बिहान हे
लोक कला के धनि हमर
राज के अलगे पहिचान हे
    
 
छत्तीसगढ़ी कविता का अनुवाद

छत्तीसगढ़ अपने
पहचान का मोहताज नही है
इसकी मिहमा का मैं क्या बखान करूँ
जहाँ
गावं में लोगो की सुबह
अपने बाड़ी में कम करते करते होती है
हमारे बुजुर्ग हैं वे अपने नाती पोतों के साथ
आँगन में बैठे खेलते हैं
टमाटर की चटनी और चावल की रोटी(चीला)
यहाँ की पहचान सी बन गयी है 
लोग पत्ते की रोटी अंगाकर में ही सब सुख पा लेतें है
सभी सुबह से ही अपने औजार के साथ खेत खलिहान में  नज़र आते है मेहनत करते ताप्ती धुप में काम करने के बाद भी लोगो के चहरे पर मुस्कान रहती है
दोपहर में सब यहाँ की स्पेसल डिश बासी खाते है
और किसी पंडाल में जाकर बुजुर्गों से कथा कहानी सुनते है  अपने लोक गीत को गाते है और गर्मी की रातों में फिर खुले आसमान के निचे बाह फैलाये सो जाते है और फिर से वो यही कम में लग जाते है  ऐसा है हमारा छत्तीसगढ़                      

परिचय :
नाम - ओमप्रकाश कुर्रे
शिक्षा / संप्रति - विद्यार्थी ( पत्रकारिता)
            द्वितीय वर्ष
           गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय
            छत्तीसगढ़
प्रस्तुति:- बिजूका

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टिप्पणियाँ:-

हनीफ मदार:-
सामाजिक बदलावों से होकर गुज़रती कविता ध्यान खींचती हैं लेकिन जहाँ पहली कविता बाज़ारवाद में संलिप्त वर्तमान पत्रकारिता का असल चेहरा प्रस्तुत करती है वहीँ तीसरी कविता आधुनिकता में परम्पराओं को खोजने जैसी संस्कारी कविता लगती है । दूसरी कविता भाषाई दृष्टि से मेरी समझ से परे है जबकि चौथी और अंतिम रचना बेहतर कविता का उत्कृष्ट नमूना है ।

अनुराधा सिंह:-
रचना जी मुझे लगता है दुआएँ लौट कर ज़रूर आती हैं। आपका स्नेह अमूल्य है मेरी कविताओं के लिए। बहुत आभार आप सबका जिन्होंने मेरी कविताएं पढ़ीं।

दीपक मिश्रा:-
कच्चे मन की प्रारम्भिक रचनात्मक प्रकिया है। इन्हें मुक्कमल कविता नही कह सकते। उच्छ्वास जैसा कुछ।

पूनम:-
आदरणीय
बदलते वक्त ने कितना कुछ बदल दिया  ।
एक सच्ची कविता
बहुत मर्मसपर्शी है
शुभकामनाये

पूनम:-
वाह इतना गरीब पेन भी
बहुत सही वयंग्य है
सही संदेश देना चाहती है
सुन्दर ।

मज़कूर आलम:-
अगर लेखक ने अभी लिखना शुरू किया है तो रचना ठीक-ठाक है।

अनुराधा सिंह:-
ओमप्रकाश जी यदि लिखना तय किया ही है तो बंजारा किस्म का नहीं उत्कृष्ट और गंभीर ही करने का प्रयास कीजिये। दो चार साल इतना पढ़िए कि अपने आपको भूल जाएँ, सब यही बतायेंगे, और यही इलाज है। मेरी शुभकामनाएँ हैं आपके साथ।

पूनम:-
वाह
जैसा कि आप अपनी कविता के माध्यम से छत्तीसगढ के निवासियो के जीवन आचरण को छू लेने वाली भाषा मे बयां कर रहे थे
उसे पढ़कर बहुत जलन होती है
ये तो राजा है राजा
ऐसी शानदार दिनचर्या ।
आखो के सामने चित्र बन गए

आशीष मेहता:-
अनुराधाजी एवं ओमजी को साधुवाद एवं हार्दिक शुभकामनाएँ ।

ओमजी को पिछली बार पढ़ना भी रोचक रहा था।

पृथक कारणों से दोनों की ही रचनाओं पर सार्थक टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ, पर रसास्वादन कर, आभारी हूँ ।

ओम प्रतिभावान युवा हैं।  बुनियादी तौर पर 'स्नेह' अनमोल है, पर व्यवहारिक तौर पर 'जलन' से बेहतर 'प्रशंसा' नहीं।

कविताएँ : अनुराधा त्रिवेदी

आज प्रस्तुत हैं समूह के साथी अनुराध त्रिवेदी की कविताएं। कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। आइए पढ़ते हैं कविताएं।

कविताएं

कुजात
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हम बहुत तरसे हैं
कातर और बुभुक्षु
हमारी अंतड़ियाँ आर्तनाद कर रही हैं
कोई बात याद नहीं आ रही हमें आज
वह निवाला तक रहे हैं
टुकुर टुकुर
जो आप अघाए मुखों में ठूँस रहे हैं
हमारी जात ने अभी अभी
श्राद्ध तर्पण किया है
उन कुसंस्कारों का
जिनमें छीन कर खाना नहीं सिखाया जाता
हम जात के कवि हैं हुज़ूर।

हम जात के कवि है हुज़ूर
हम अलग उठते बैठते बरतते हैं
हम छुआ मानते हैं क्योंकि छू भर पाते हैं
आपकी अटारियाँ और हौंस
बेतरतीब हैं और अव्यवहारिक
हम कलम से कमाल करने की बात करते हैं
और हमारी औकात स्याही खरीदने की नहीं
हमें साधन की छांव मे सोता मुटाया कुत्ता
बहुत खींसें निपोरे लगता है
हम उस कुत्ते जैसे वर्ण संकर हो जाना चाहते हैं
पर अभी हमारे दिन नहीं आए
कुछ कर गुजरने के ।


आउटडेटेड संविधान
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वह कि जिसने
सुरंग में पहली बारूद भरी थी
और जिसने
पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था 
जाने कबसे उसे ही ढूंढ रही हूँ मैं
कि जब तुम यह ‘स्त्री सुबोधिनी संविधान’ लिख रहे थे
तो क्या तुम एक भी ऐसे पुरुष से नहीं मिले 
जो उजले, निखरे, ताज़ा चेहरों से प्रेम करता हो
जिसे सोती सुंदरी सुंदर लगती हो
और ज्ञान बघारती पत्नी जिम्मेदार  
या जिसे बस एक बात
एक मस्तिष्क
एक दिल
एक देह
एक सोच 
एक आवाज़
एक स्पर्श 
एक चाल
एक सुगंध 
एक दृष्टि
बस एक झलक भर से प्रेम हो जाए
तुम्हारे हवनकुंडों की समिधा बनते बनते
न जाने कितनी देहें, दिल और दिमाग
जो बोल, सुन और देख सकते थे
और शायद बिना लाग लपेट वाला प्रेम भी कर सकते थे
धसकी अँगीठियों में तब्दील हो गए
रंग और मुश्क़े हिना हल्दी, तेल और आटे की
बसायन्ध में खेत रहे 
भंवों का पसीना झुलसे गुलाबों तक ही छनक गया
कितना ही प्रेम झिलमिलाती आँखों से
सरक गिरा फूंकनी के रास्ते
फुंक गया खांड़ू की पोली लकड़ियों के साथ
यार, अगर तुम्हें बड़े बड़े हंडे और देग माँजती
स्त्री इतनी ही मोहक लगती थी
तो वह कौन था
जो मधुबाला, नर्गिस और मीना कुमारी पर मर मिटा था 
तुम समूचा प्रेम लील गए
कई बार तो डकार भी नहीं ली
और कैज़ुअल वर्कर्स बिछाते ही रह गए 
बजरी और धधकता डामर
तुम्हारे पेट से दिल जाते सिक्स लेन एक्सप्रेस वे पर।


देगची में प्रेम
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बगल वाले कमरे में
उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु बम बना रहे थे
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता पलट होने वाला था
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी
भुना लेना चाहता था 
और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे परेशान किए हुए था
आज तो
हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी 
उसके और मेरे लोग
घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं
फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी ।


क्या कहा था तुमने
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जब समुद्र की
तरफ से आने वाली हवाएँ भी सूख गईं थीं
तो
कुछ कहा था तुमने
बदलते मौसम और सियासी मिजाज पर
बहुत कुछ कहते रहे थे
उस शाम 
क्या कहा था अपनी बदलती फितरत पर ?
क्या कहा था
जब जब मैंने सांस के साथ आँसू घुटके थे
और आवाज़ हुई थी उस घूँट की ?
या शायद
चीखता हुआ कठफोड़वा गुज़रा था
हमारे सिरों के ऊपर से 
मुझे आखिरी बार जाते देख क्या कहा था ?
नारे लगाये थे तुमने
नामीबिया की औरतों पर होते
अत्याचारों के खिलाफ़
क्या कहा था तुमने
जब मेरी उम्मीद मर रही थी ?
कुछ तो कहा था
मेरी टूटी चप्पल पर सहानुभूति से
क्या कहा था तुमने मेरी लहूलुहान
हिम्मत पर ?

शेड कार्ड और पटरियाँ
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लौट आना है उसी जगह
जहाँ आँगन में सूखते कपड़े  
भीग जाने से पहले मेरी बाट जोह रहे हैं
पतीले में खौलता दूध
रुकने या उफन जाने की
कशमकश में है
और चादर और परदे इतने
आहिस्ता आहिस्ता रंगहीन हो रहे हैं
कि मेरा उन पर नज़र रखना बड़ा ज़रूरी है
बड़े गौर से नज़र रखती हूँ इन सब पर
और घंटों, महीनों, सालों 
चर्चा करती रहती हूँ इन सब अहम मुद्दों पर
जो ज़िन्दगी को पटरी पर रखते हैं 
कभी कभी बिलकुल खाली
और बेकार वक़्त में सबसे छिपकर
सोच लेती हूँ
अंदर कुछ खौलने और उफन जाने की कशमकश
बादलों के इश्क़ पेंचा को बिना छुए
अनायास गुज़र जाने और
ज़िन्दगी से उन सब रंगों
के उड़ जाने के बारे में
जो इस साल एशियन पेंट्स के
शेड कार्ड में नहीं दिए गए थे
फिर ज़िन्दगी की गाड़ी और पटरी के
बारे में सोचती हूँ
और दूध और धोबी का हिसाब
तसल्ली से एक बार फिर लगाती हूँ ।

खत्म होना लाज़मी था
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तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था
लाज़मी था कि मुझे नहीं आते थे नए सपने
कि मेरी खिड़कियों के पर्दों पर
उसी बसंत के फूल चस्पाँ थे अब तक
कि मैं पुराने चेहरों से कतराती थी
और नए चेहरे दिलचस्प नहीं लगते थे मुझे
कि मुझे सुख दुख में फर्क ही नहीं लगता था
और खट्टे मीठे, या रंगीन और बेरंग में भी
तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था।

लाज़मी था कि मुझे आईने की फ़राखदिली खलती थी अब
कि मुझे रुखसत के दिन का स्क्रीन सेवर पसंद नहीं था
कि मुझे ज़िंदगी बेशकीमती लगने लगी थी 
और तुम्हारे बहाने बड़े खोखले
कि मैंने जान लिया था कि लोग पुरखुलूस और सच्चे भी हैं
कि मैंने तुम्हारी आँखों में सर्द बिल्लौरी काँच देख लिए थे ।

ज़िंदा कब्रें
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कमाल के मकबरे हैं
ताजमहल, सिकंदरा, सीकरी
कई और इमारतें.
भर जाते हैं अहाते सुबह शाम
छोटी छोटी ज़िंदा कब्रों से
वफ़ादार कब्रें
भूख मिटाने के लिये 
पांच सितारा कमरे नहीं तलाशतीं
भीड़ के एन बीच
पसीजती हथेलियों की हरारत
सब दिनों, रातों और शामों का
प्यार कह देती है
पूरा जीवन जी लेतीं हैं ये 
उसी एक मुलाकात में
शर्मातीं झिझकतीं अनगढ़ कब्रें
खुद से भी आँखें चुरातीं
गुजरते बच्चों को दुलरातीं हैं
और बहुत समय जाया कर देतीं हैं
परिचित आँखें दिख जाने की आशंका में
कुछ पत्थरों पर उकेरतीं हैं साथ साथ अपने नाम
कि ये अपने ही मकबरे गढ़ लेतीं हैं अनायास
ये मिलने नहीं आतीं कि ब्याह नहीं होते कब्रों के
उजाड़ मक़बरों से
ज़िन्दग़ी भर की जुदाई का सलीका सीखने आतीं हैं  
मिलते समय चुप रहतीं हैं
और बिछुड़ते समय भी
बस तकतीं रहतीं हैं भीड़ को बेजान आँखों से
अंधेरा होते होते
ख़राशें छोड़ जातीं हैं
अभिशप्त अकेले नामों की 
अपनी अपनी कब्रों पर।

प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 
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प्रेमिकाएँ प्रेम नहीं करतीं थीं 
दूसरे कई काम करती थीं दिन भर
प्रेम न करने वाली स्त्रियों सी
शांत, संयत दिख पाने में विफल होकर
व्याकुल रहती थीं

सोचतीं रहतीं कि कैसे इस पार उतरते ही 
सब कश्तियाँ जला दीं थीं उस दिन
बस तभी से थीं लगातार गुमशुदा
शहर के पुराने रास्ते
ख़ुमारी में काट देतीं रहीं
वर्षों नहीं सीखीं नए रास्ते
अपरिचित सड़कों या आसमानों के रंग तक
नहीं पहचानना चाहतीं थीं
भनभनाहटों और व्यवधानों में
फ़ासले तय करती रहीं 
ठिकाने पर बमुश्किल होश में लायी जाती थीं
ये प्रेम में बेसुध स्त्रियाँ 
 
उलटे पाँव तय करती रहीं
सब काले अँधेरे जंगल निर्विकार
जिन्नों औघड़ों मसानों से अविचलित
कितने ही सिरों और कन्धों पर
हवा के पाँव रखते
गुजर गयीं
ये विदेह औरतें
लेकिन काँपती थीं
प्रेम की क्षीण हूक भर से

जाने कैसे माएँ बनी रहीं इस दौरान ये प्रेमिकाएँ
बच्चों के पुराने सामानों को देख
थरथराती रहीं इनकी छातियाँ
चिर वियोग और क्षणिक रोमांच के बीच
लगाती रहीं खाने के डिब्बे
याद रखती रहीं डाक्टर की विज़िट और परीक्षा की तिथियाँ  
बच्चों के उन्हीं चेहरे मोहरों में तलाशती रहीं
हालिया प्रेम के नाक नक़्श
आनुवांशिकी के नियमों से अनजान
कुपढ़ औरतें

इनके तकिये दीवार की तरफ करवट लिए
बहुत नम थे
और चादरें थीं एक ही तरफ घिसी
पति सुख से चूम लेते थे सुबह
उषा से गुलाबी मुख
और बहुत रात गए, हर रात
छनके हुए लहू से निस्तेज हुए
पीले चेहरे बिछा देती रहीं
कुछ दीवार की ओर सरक कर बिना नागा
अपराध विज्ञान नहीं पढीं थीं  
दण्ड व्यवस्था भी नहीं
लेकिन कैद समझती थीं
और जिस ढब की मैनाएँ वे थीं
उसमें प्यास ही ऊपर ले जाती है
पंख नहीं
ये बेमियादी प्यास थी
कि धसकती ही जा रही थी
पेस्टन जी की रेत घड़ी में  
ज़र्रा ज़र्रा

सबको सुनती और मानती थीं ये निर्विरोध
बस झगड़ पड़ती थीं प्रेमी से 
पहले तीन मिनटों के भीतर
प्रेमिकाएँ खर्च करतीं थीं सब ईंधन
प्रेम छिपा लेने में।

कवयित्री का परिचय

अनुराधा त्रिवेदी सिंह  (16 अगस्त )
एम ए (मनोविज्ञान, अंग्रेज़ी साहित्य), बी एड
एक कविता संग्रह प्रकाशित, अनेक प्रमुख पत्रिकाओं और ब्लाग्स में प्रकाशित ।
संप्रति:  मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन, हिमाचल प्रदेश के एचआइवी पॉज़िटिव स्वयंसेवकों की आपबीती पर आधारित श्रंखला 'ज़िंदगी ज़िंदाबाद' का लेखन ।
 ईमेल: anuradhadei@yahoo.co.in
प्रस्तुति- बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

मज़कूर आलम:-
लाजवाब बेहतरीन। कविताएँ पढ़ कर मजा आ गया।
बिम्ब, शिल्प से लेकर कविताओं के विषयों की प्रस्तुति- सब बेहद असरदार।

जय:-
सहमत मजकूर भाई ।ये नए तेवर की कविताएँ है। पितृसत्ता पर व्यंग्य करती आउटडेटिड संविधान बहुत मारक लगी जहाँ जेंडर स्टिरियोटाइप से अलग स्त्री को स्वीकार करने की बात है

सुषमा सिन्हा:-
बहुत बढ़िया कविताएँ। पहले भी पढ़ी हूँ। 'आउटडेटेड संविधान' तो एक यादगार कविता है। इसलिए यह याद रह गई है। 'देगची में प्रेम' भी एक बेहतरीन कविता है। बधाई कवि को।

मृत्युंजय प्रभाकर:-
दिल को छू और दिमाग को झकझोर देने वाली कवितायेँ हैं ये। अपने साथ भाषा और बिम्ब के नए आख्यान गढ़ती हुई।

मज़कूर आलम:-
ख़त्म होना लाज़मी था की कसावट और बुनावट थोड़ी ढीली लगी, लेकिन अच्छी है। बाकी कविताएँ बेहतर हैं। कल वाली ज्यादा अच्छी थीं। कल से एक और बात। कविता का आने वाला कल अनुराधा जी का भी हो तो आश्चर्य नहीं।

मृत्युंजय प्रभाकर:-
नए ढब की या कहनी चाहिए उनके अपने ढब की रचनाएं। एक कवि जब अपनी भाषा खोज लेता है तो समझिए उसने कविता को साध लिया है। अनुराधा जी ने यह कर दिखाया है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

रचना:-
अनुराधा जी की कविताएँ कसे हुए सुगठित शिल्प से सुसज्जित होती हैं संदर्भ और भाषा भी लाजवाब हैं। ये अपनी अलग पहचान,  अलग मुहावरे गढ़ रही हैं। इन्हें पढ़ने में एक अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है,  चाहे किसी भी रस पर आधारित हों। विषय का चयन और कथ्य का रुचिकर होना.. दोनों तत्वों की एक साथ मौजूदगी इन्हें बेहद पठनीय बनाती है। मैं अनुराधा जी की कविताओं की बहुत मुरीद हूँ और समकालीन कवयित्रियों में इनका एक बिल्कुल अलग स्थान देखती हूँ।

रचना:-
मेरी साहित्यिक प्यास बुझाने के लिए ये कविताएँ एक खनिज-जल ( मिनरल वॉटर)  की तरह काम करती हैं। खासकर ऐसे समय में,  जबकि शुद्ध जल मिलना बेहद कठिन है।

हनीफ मदार:-
दिनों बाद ही सही मन को मन तक छूने और टटोलने वाली कवितायेँ पढ़ीं हैं । सच काहू  तो कविता शब्दों में नहीं य शब्दों से नहीं मन से ही बुनती है इस  इंसानी सच को पुख्ता करतीं अनुराधा जी की कवितायेँ किसी को भी अपना मुरीद बना लेने की कुव्वत रखतीं हैं ।

लघु कथाएं : विजयदान देथा

आज हम मशहूर कहानीकार विजयदान देथा जी की दो लघु कहानियां दे रहे हैं। आप सब अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें।

लेखक- विजयदान देथा
1. मेहनत का सार 

एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएँगे। शंकर भगवान शंख बजाएँ तो बरसात हो।

अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूँद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुँह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया, पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे।
संजोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती गगन में उड़ते जा रहे थे। उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर आपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गई थी। फिर भी वह जी जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आँखों और उसके पसीने की बूँदों से ऐसी ही आशा चू रही थी। भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते, तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है!
शंकर-पार्वती विमान से नीचे उतरे। उससे पूछा, "अरे बावले! क्यूँ बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती, बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।"
किसान ने एक बार आँख उठा कर उनकी और देखा, और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, "हाँ, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊँ, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूँ। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है, फकत लोभ की खातिर मैं खेती नहीं करता।"
किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए, सोचने लगे, "मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए, कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूँका। चारों ओर घटाएँ उमड़ पडीं - मतवाले हाथियों के सामान आकाश में गड़गड़ाहट पर गड़गड़ाहट गूँजने लगी और बेशुमार पानी बरसा - बेशुमार, जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूँदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।

2.  ठाकुर का आसन 

गढ़ के बड़े चबूतरे पर संगमरमर के नक्काशीदार मयूरासन पर ठाकुर बैठा था। चबूतरे पर कश्मीरी गलीचा बिछा था।
पास ही फर्श पर चौधरी बैठा था। ठाकुर बिना बात ही भगवान जाने आज क्यों बहुत खुश था। मूँछों पर ताव देते हुए चौधरी ने मसखरी के सुर में कहा, 'चौधरी , मैं मयूरासन पर बैठा तो तू फर्श पर बैठ गया। अगर मैं फर्श पर बैठ जाऊँ तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी ने कहा, 'हुकम, आप फर्श पर विराजेंगे तो मैं चबूतरे के नीचे जमीन पर बैठूँगा। मुझे आपसे नीचे ही बैठना पड़ेगा।'
'तू नीचे ही बैठेगा इसके क्या माने? मैं फर्श पर बैठूँ तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी ने कहा, 'जमीन पर बैठें आपके दुश्मन। जमीन पर बैठने के लिए हमीं बहुत हैं। पिछले जनम में आपने अच्छे करम किए इसलिए आप के नीचे तो हमेशा आसन रहेगा।'
ठाकुर ने कहा, 'नहीं रे पगले, मान ले कभी ऐसा मौका आ जाए। तू टाल-मटोल मत कर, साफ-साफ बता! अगर मैं जमीन पर बैठा तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी मुस्कराकर बोला, 'हुकम, अगर आप जमीन पर बैठे तो मैं थोड़ा गड्ढा खोदकर नीचे बैठ जाऊँगा।'
ठाकुर ने पूछा, 'अगर मैं गड्ढे में बैठ गया तो तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी चक्कर में पड़ गया, सोचकर जबाव दिया, 'अगर आप गड्ढे में बैठे तो मैं थोड़ी मिट्टी हटा और नीचे बैठ जाऊँगा।'
'पर चौधरी, अगर मैं वहाँ बैठ गया तो तू कहाँ बैठेगा?'
चौधरी बोला, 'मैं उससे भी गहरे गड्ढे में बैठ जाऊँगा। आपका आसन तो हमेशा ऊँचा ही रहेगा सरकार!'
पर ठाकुर को तसल्ली नहीं हुई। कहा, 'पर चौधरी, मैं उस गहरे गड्ढे में बैठ गया तो तू कहाँ बैठेगा?'

इन बेहूदे सवालों से चौधरी तंग आ गया। ढीठता से बोला, 'मैं बार-बार कह रहा हूँ कि आप ऊपर ही विराजें, पर आप गहरे गड्ढे में ही बैठना चाहें तो आपकी मर्जी! मैं उसमें रेत डालकर ऊपर बड़ी शिला रख दूँगा।'

प्रस्तुति- बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

प्रणय कुमार:-
विजयदान देथा क़िस्सागो की शैली में अपनी बात कहने में बेजोड़ हैं,कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर बेजोड़ कथाकार!

आलोक बाजपेयी:-
देथा जी की कहानियां विश्लेषण के लिए अलग मापदंडो की मांग करती हैं। किसी भी आलोचक के लिए एक चुनौती हैं।
उनके लेखन , शिल्प, भाषा और विषय की ज़मीन कौन सी है। साथ ही उनकी लेखकीय पक्षधरता क्या है, इस पर भी देखना होगा।

जय:-
बिज्जी मौलिक लेखक नही ।उन्होंने लोककथा को मध्यम वर्ग के उपभोग हेतु मध्यम वर्ग के मुहावरे में ढाला है

आलोक बाजपेयी:-
साहित्य या किसी भी विधा में मौलिकता ढूंढना या उसका दावा बड़ा कठिन काम है। प्रश्न लेखक की सृजन छमता का है। raw material तो ज्यादातर स्व से प्रथक ही होता है।
मध्य वर्ग भी एक अनगढ़ सी कैटगोरी बन चुकी है क्योंकि वर्ग निर्धारण को मशीनी मार्क्सवादी अंदाज में किया जाना अपर्याप्त हो चुका है। फिर साहित्य कर्म और उसकी अपील प्रायः वर्गीय सीमाओ से परे चली ही जाती है।

जय:-
मै अपनी बेसिक मार्क्सवादी ट्रेनिंग के हवाले से साहित्य को मोटे तौर पर वर्ग विभाजित मानता हूँ
जब मै कहता हूँ उनकी रचना मौलिक नही है तो मेरा मतलब है वे लोककथा के प्रस्तोता है ।इसी रूप में उनका महत्व है

आलोक बाजपेयी:-
कही ऐसा तो नहीं कि लोक कथा मात्र उनकी शैली हो ?
ध्यान देने लायक यह बात भी है कि यदि लोक कथाएँ इतनी अधिक मात्रा में स्मृति चेतना में  उपलब्ध  रहीं तो किसी अन्य रचनाकार ने उन्हें क्यों नहीं अपनाया।
हो सकता है मैं कुतर्क पर उतार आया होऊं।

सुषमा अवधूत :-
Badhi ya kahaniya
Sahi hai manav ko hamesha karm karna chahiye
Dusri bhi badhiya end mast

उदय अनुज:-विजयदान देथा इसीलिये जाने जाते हैं। उन्होंने लोक कथाओं के प्रसंगों को मानवीय सम्वेदनाओं और जीवन सरोकारों से जोडकर उस किस्सा गोई को एक नया रूप दिया है।