आज समूह के साथी की रचनाऐ दे रहें हैं। पढ़कर अवश्य बताएं कैसी लगी आपको। कवि का नाम शाम को घोषित करेंगे।
(७अप्रैल २०१०)
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ढलान वाले रास्तों से
उतरते वक्त
कितना उत्साह रहता है
लोगों में।
सीधी सीढ़ियों रुकते-हांपते
आदमी ऐसा असहाय
नजर आता है
जैसे जिंदगी की लड़ाई में
सब कुछ
हार कर
लौट चला है ।
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अकेलापन (१६ मई २०१०)
भैंस की तरह
जुगाली करते न्यूज चैनल,
रेडियो पर गूंजते गीत-गजल
कोई कितना रिमोट बदले
कितने एफएम सुने ।
मन भी क्या है
अकेलेपन में
चाहता है सब को,
सब के बीच
तलाशता रहता है
अकेला होना।
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बारिश (शिमला ९ जून २०१०)
बहुत दिनों से
नहाए नहीं थे
काले ढुस्स पहाड़।
अब कितने
तरोताजा लग रहे हैं
नंगधड़ंग
मासूम बच्चे की तरह
जी करता है
इन्हें बांहों में भर लूं।
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चर्च की मीनार पर
रात भर
अटका रहा
चांद
बच्चे के हाथ से छूट
पेड़ की डगाल पर अटकी
पतंग की तरह।
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ठंड वाली रात (शिमला १२ जून २०१०)
पहाड़ों को
फिर लगने लगी है ठंड
सेल पुराने हो गए हैं सूरज के।
बदमाश चांद
छुपा बैठा है कोने में
इंतजार कर रहा है शाम होने का।
रात जब आएगी गेट लगाने
पीछे से दबोच लेगा
अपनी बांहों में।
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शिमला में बर्फबारी (३१ दिसंबर २०१०)
अपने रथों में
चांदी की सिल्लियां लेकर
बीती रात चुपके से
जा रहे थे इंद्र देव।
बादलों के झुंड ने लूट लिया
सिल्लियों के टुकड़े टुकड़े
बांट दिए लोगों में।
पहाड़ों से झाड़ों तक
छतों पर, रास्तों पर
सब जगह
बिखरी है चांदी।
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इंदर बाबू ने
उतार फेंकी
पुरानी रजाई।
चल पड़े हैं
रूई का गट्ठर लादे
पिंजारे की दुकान पर।
रास्ते भर
गिरती जा रही है
गट्ठर से हवा में
बिखरती-उड़ती रूई। (१ जनवरी २०११)
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बीती रात
बारिश से भीगी
थर थर कांपती
हिल्स क्वीन को
चुपचाप
सफेद कंबल ओढ़ाकर
नए साल की गिफ्ट
दे गए सांता क्लॉज। (१ जनवरी ११)
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मुंबई की लोकल ट्रेन
अलस्सुबह
फौजी मार्चपाास्ट करती हुईं
गुजरती हैं गाड़ियां
और
सुबह से शाम तक
लाती ले जाती हैं
आत्म समर्पणकारी
कैदियों को।
(बंबई ९ दिसं १९८२)
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गरमी
आजकल
बहुत जल्दी उठ जाते हैं
सूरज बाबू।
सुबह सेशाम तक
रटते रहते हैं
धूप का पहाड़ा।
गर्म हवाओं का
करते रहते हैं
गुणा भाग।
शाम को कंधे पर
बस्ता लटकाए
लौट जाते हैं घर।
000 कीर्ति राणा
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टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
समूह के साथी की छोटे छोटे बिम्बों को साकार करने वाली कविताएँ। सबसे अच्छी बात ये कविताएँ डायरी और यात्रा वृत्तांतनुमा हैं और कहीं रोज़नामचा सी। जीवन के क्षणों को उनके अहसास को कविता की शक्ल मिली। कुछ ज़रा और लम्बी होती तो बेहतर होता जैसे गर्मी कविता में बस्ता वाले बच्चे की चन्द छवियाँ और होती सूरज के पहर दर पहर बाद। साथी को बधाई। शुक्रिया मनीषा जी
अल्का सिगतिया:-
होठों पर मुस्कान। खिल गई पढ़ते हुए ।रोज जो हम देखते हैं , चांद सूरज,रात,प्रकृति का सुंदर मानवीकरण(personification) बरबस Keats Wordsworth याद आगये।मुझे अच्छी। लगीं प्यारी चुन्नु मुन्नू सी कविताएँ।
आभा :-
अलका जी से सहमत।। और ऐसा भी लगा की कविताओं को विस्तार मिल सकता है।। दो तीन बिम्बों को जोड़कर एक नयी कविता भी बन सकती है। बहुत धन्यवाद प्यारी सी कवितायेँ पढ़वाने के लिए
अल्का सिगतिया:-
लेखक की। सफलता यही। है। ,जब पाठक उसे और आगे ले जाने की गुंजाइश तलाश सके।जब लेखक कुछ अनुभूत करता है,वो उस पल की। उसकी। अनुभूति होती है।सब कुछ वह नहीं सोच सकता।एैसे तो फिर उन सीधी। मासूम सी कविताओं को दर्शन से गरिष्ठ भी बनाया। जा सकता। था।बहरहाल हम सब अपने तई नये संदर्भ तलाशेंगे ही।मेरे। मत से उतनी। भी। अच्छी। हैं।उससे ज़्यादा अच्छी। भि हो सकती थीं ,नहीं भी
संजय पटेल :-
रविवारी जनसत्ता में बिजूका कुनबे के दो साथियों का सहभाग।ब्रजेश दादा (कानूनगो) की कहानी और मनीषजी (जैन) के रेखांकन।साधुवाद।
मिनाक्षी स्वामी:-
बहुत अच्छी लगी कविताएं। छोटी छोटी सामान्य बातों को खास अंदाज में बहुत सटीक बिम्बों के साथ प्रस्तुत किया है।
'सेल पुराने हो गए हैं सूरज के' जैसे अनूठे बिम्बों से सजी कविताओं ने लुभा लिया।
कवि/ कवियित्री को बधाई।
बिजूका का आभार
नंदकिशोर बर्वे :-
उक्त सभी प्रशंसा से भरे विचारों से सहमत। एक अलग दृष्टि ही कवि को अकवियों से अलहदा मकाम पर ले जाती है। कलमकार को बधाइयाँ।
अंजनी शर्मा:-
सभी कविताएँ बहुत ही खूबसूरत बिम्ब लिए हुए ।
मुंबई की ट्रेन और आत्म समर्पण कारी कैदी । दौडती भागती जिंदगी का चित्रण ।
'आत्म समर्पण कारी 'के स्थान पर 'आत्म समर्पित ' शब्द भाषा को कसावट प्रदान करता , मेरे विचार से ।
डगाल और झाड शब्दों का प्रयोग कविता को एक स्थानीय स्पर्श [local touch ] दे रहा है ।
कुल मिलाकर अच्छी कविताएँ ।
रचनाकार को बधाई ।
अंजनी शर्मा
ब्रजेश कानूनगो:-
बहुत सुन्दर कवितायेँ।सुन्दर बिम्बों से परिपूर्ण।सहज संप्रेषणीय।सीधे दिल से निकलती स्वाभाविक कवितायेँ।जो सप्रयास कतई नहीं लिखीं गईं हैं।बधाई और कविताओं की अपेक्षा रहेगी।