image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

06 अगस्त, 2015

कहानी : सुरक्षा : आशा पाण्डेय

सुरक्षा

प्लेटफार्म नंबर एक के   यात्रियों के लिये बनी बेंच पर वह बैठी है| उम्र कोई पच्चीस से अठाईस    के आस पास | आखें बड़ी और भाव प्रवण | नाक लम्बी, होठ पतले, रंग मटमैला किन्तु पूरे  विश्वास के साथ कहा जा सकता है की अगर साबुन से रगड़-रगड़ कर नहला  दिया जाये तो इस मटमैले  रंग के नीचे से झक गुलाबी गोरा रंग निकल कर सबको विस्मित  कर देगा | बेतरतीब ढंग से पहनी गई मैली साडी का लगभग आधा  हिस्सा नीचे लटक रहा है  | बाल कंधो पर बिखरें हैं, जिसे  देख कर ये तो नहीं लगता की सोंदर्य-बोध के  कारण उसने जान –बूझ  कर बालो को कंधो पे फैलाया होगा, किन्तु कंधे पर फैले  बाल उसकी सुन्दरता को बढ़ा जरुर रहे है | दोनों हाथ की कलाइयाँ कांच  की चूड़ियों  से भरी है | चूड़ियों  के माप और रंग में कोई समानता नहीं है | कोई बड़ी, कोई छोटी, कोई हरी, कोई लाल | ऐसा लगता है कि  चूड़ी की दुकान पर जा कर चूड़ियाँ  मांग लेती होगी, दुकानदार भी अधिक ध्यान  न देते हुए एकाध चूड़ी  दे देता होगा और लम्बे समय तक ये सिलसिला  चलते रहने के कारण आज उसकी कलाई नई -पुरानी रंग-बिरंगी चूडियो से भरी है |
    अब उसने अपने  दोनों पैर उपर उठा लिये और बेंच पर ही पालथी मार कर बैठ गई | उसके पास एक थैला है, वह थैले को ऊपर उठा कर अपनी गोद  में रख लेती है , बार बार उसमे कुछ देखती है, हाथ से उसे छूती है , कुछ बोलती भी है फिर बड़ी मोहक अदा से मुस्कुराकर शर्मा जाती है |
    रेलवे प्लेटफार्म जीवन का क्षणिक  ठहराव है | मंजिल पर  पहुचने के मार्ग का एक पड़ाव मात्र | किन्तु सरपट भागती जिंदगी के बीच कुछ ऐसे लोग भी है जो जन्म से मृत्यु  पर्यंत यही ठहर कर रह जाते हैं  | प्लेटफार्म कर बैठ कर भी किसी ट्रेन के आने का इंतजार  उन्हें नहीं रहता | शायद उस महिला को भी कही नहीं जाना है | यही प्लेटफार्म ही उसका निवास है | यहाँ के शोर-शराबे से बिलकुल अनभिज्ञ-सी अपनी ही  दुनिया में खोई है वह | उसके बैठने के बाद भी उस बड़ी-सी बेंच पर बहुत-सी जगह खाली है | उसकी एक निष्ठ नीरव मुस्कान से प्रभावित हो कर कुछ पुरुष मुसाफिर उसके पास बैठने के इरादे  से वहां  आते भी हैं  | किन्तु महिला को ध्यान से देखते ही वे बैठने की  इच्छा त्याग  कर आगे बढ़  जाते हैं | उसे कोई परवाह भी नहीं है \ लोग आएँ, जाएं, बैठें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता उसे | उसने ध्यान ही कब दिया कि  लोग वहां  बैठने आ रहे हैं  या फिर बिना बैठे ही आगे बढ़ जा रहे हैं  | वह स्वयं  में संतुष्ट एकाग्र तनमयता  से सुखानुभूति में डूबी है |
    अब उसने अपने  पैर फिर नीचे  लटका लिए हैं  | पैर लटकाते समय बड़े ध्यान से वह नीचे देखती है | जमीन पर लथड रही साडी को थोड़ा सा उठती है फिर उसी हालत में छोड़ कर मुस्कुरा देती है |  ह्रदय में उठ रही तरंगों की गति के भावनात्मक पक्ष को नापने का कोई यंत्र होता तो यह कहना आसान  होता कि भीड़ भरी इस जगह पर  बैठ कर भी वह किसी गहरे अलौकिक सुख में किस हद तक डूब  चुकी है | बीच-बीच में मुस्कुराकर वह अपनी  उस ख़ुशी को थोड़ा-बहुत व्यक्त  कर रही है |
    एक अधेड़-सा पुरुष उस बेंच की तरफ बढ़ता है | गहरा काला  रंग, सामान्य-सा चेहरा, किन्तु  आखों में चमक | पुरुष  के पास भी एक मटमैला सा थैला है | बेंच के पास जा  कर वह इधा-उधर देखता है, फिर थैला नीचे रख कर बेंच पर बैठ जाता है  | इसे  भी किसी ट्रेन का इंतजार  नहीं है | लगता है यह भी इसी प्लेटफार्म  का नियमित वाशिंदा है |
    पुरुष ने आपना थैला उठाया, उसमे से कुछ निकाल  कर महिला की तरफ बढ़ाया और इसी बीच वह महिला के थोड़ा नजदीक सरक आया | महिला अपनी  बड़ी-बड़ी आँखों  को उठा कर गहरे आश्चर्य से उस पुरुष को देखती है फिर उस सामान  को जो वह उसे देना चाह रहा है और अंत में दूसरी तरफ मुंह  कर के पुनः अपने  में ही व्यस्त हो जाती है | हाथ में ली हुई उस वस्तु को वही बेंच पर रख पुरुष ने  महिला की नीचे लथड रही  साडी  को उठा कर बड़ी आत्मीयता से उसके शारीर पर  डाल  दिया | महिला ने फिर उस पुरुष की तरफ नज़र उठाई  | पुरुष मुस्कुरा दिया , महिला शांत रही | अब वह पुरुष उस महिला के थोड़ा और नजदीक खिसक आया | जब महिला ने कोई प्रतिकार नहीं किया तब पुरुष ने महिला  के हाथ को अपने  हाथो में ले उसकी चूड़ियों की प्रशंसा करने लगा | अपनी  चूड़ियों  को देख कर महिला एक बार फिर मुस्कुरा दी | यद्यपि उसकी मुस्कान में उस पुरुष की उपास्थिति की ख़ुशी का  भाव तनिक भी  नहीं था किन्तु पुरुष की हिम्मत बढ़ गई | अब वह उस महिला से कुछ कह रहा है जिसे अनसुना  कर वह इधर-उधर देखने लगी | पुरुष थोड़ी देर शांत बैठा रहा फिर महिला का हाथ पकड़ कर बड़ी मीठी आवाज में बोला – “चलो” |
    महिला ने उसे प्रश्न भरी नज़र से देखा जैसे पूछना चाह रही हो  – “कहाँ “
    पुरुष हाथ से इशारा करते हुए बोला – “वहाँ ...पीछे |”
    महिला अपना  सिर खुजलाने लगी | पुरुष का हाथ महिला के कंधे पर था जिसे हटा कर वह वहीँ  खड़े ठेले के पास आ गई | पास  खड़े मूंगफली वाले ने एक कागज में लपेट कर थोड़ी से मूंगफली उसकी तरफ बढाई  | महिला निर्विकार भाव से मूंगफली देने वाले की तरफ देखने लगी |
    “ले, पकड़ न “ मूंगफली वाले ने आग्रह किया | महिला बिना मूंगफली लिये ही वहां  से थोड़ा हट कर खाली पड़ी ट्रेन की पटरियों को देखने लगी | फिर सिग्नल की तरफ नज़र दौड़ाई |
    “गाडी आने का इंतजार  कर रही है क्या?” मूंगफली वाले ने पूछा  | अब तक वह भी उसके पास पहुँच  गया था |
    “इसका कोई आने वाला होगा” चने चुरमुरे  वाले ने चुटकी ली |
    मालगाड़ी  से उतारे गये सामानों के बड़े-बड़े बक्से प्लेटफार्म पर रखे थे | रेलवे कर्मचारी उन बक्सों को हाथ गाडियों में लाद कर ले जाने लगे जिससे पूरे   प्लेटफार्म पर धड़-धड़ की आवाज फ़ैल गई | महिला को इन हाथ गाडियों के शोर से थोड़ी राहत  मिली | वह फिर से ठेले के पास आकर खड़ी  हो गई \ ठेला तेल, कंघी, पाउडर, ब्रश, पेस्ट आदि यात्रा में उपयोग में आने वाले  सामानों से भरा था | प्लास्टिक के कुछ खिलौने भी थे | महिला एक गुडिया उठा लेती है | ठेले वाला जो अब तक चुप बैठा सब के क्रिया-कलापों  को देख रहा था,एकदम चिल्ला कर महिला को डाटा – “ रख...जल्दी रख, उसे लेकर नहीं जाना|”
    महिला बड़े आश्चर्य से उसे देखने लगी फिर कुछ प्रसन्न  हो कर गुडिया रख दी | वह पुरुष जो बेंच पर उसके पास बैठा था, आगे बढ़ कर उस ठेले वाले से बोला – “क्या बात करता है यार, पैसे लेलेना... मै दे दूंगा  पैसे” |
    “रख दो... मैंने कहा रक्खो...मुझे बेचना नहीं है” ठेले वाले ने क्रोध भरी आवाज में कहा | पुरुष ने भी नाराज होते हुए गुड़िया रख दी |महिला अब भी ठेले के पास ही खड़ी है | उसके बगल में एक चाय वाला खड़ा है, उसने महिला से पूछा- ‘चाय पिएगी ?’महिला कुछ बुदबुदाई | अब वह पुरुष भी चाय वाले के पास आगया है | चाय वाले ने बड़ी शरारत भरी मुस्कान के साथ धीरे से उस पुरुष से कहा –पगली है ...पट जाएगी |फिर दोनों हँसने लगे | आस –पास खड़े चने –चुरमुरे ,बड़ा –पाव, चाय काफी आदि बेचने वाले भी ठठाकर हँसने लगे |इस समय प्लेटफार्म पर कोई ट्रेन नहीं है इसलिए सब फुर्सत का समय मजे से बिता रहे हैं |
           महिला आकर फिर से बेंच पर बैठ गई| अब वह अपने थैले में कुछ खोज रही है | पुरुष भी उसकी बगल में बैठ गया | आस पास खड़े उसके इष्ट –मित्रों की टोली उसे प्रोत्साहित करते हुए खिलखिला रही है | पुरुष फिर से महिला के एकदम करीब आगया और उसकी चूड़ियों को सहलाने लगा | महिला ने अपना हाथ खीच लिया | पुरुष थोड़ा हताश हुआ लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह फिर से महिला को खुश करने में जुट गया | अब उसने चाय वाले से दो कप चाय ली | एक कप उसने महिला को पकड़ा दिया और बड़ी अर्थपूर्ण नज़रों से  पीने का आग्रह करने लगा | महिला ने गंभीरता से उसे देखा | ऐसा लगा मानो ऊपर से शांत प्रतीत हो रहे समुद्र में तूफान आने वाला हो | चाय का कप अब भी महिला के हाथ में है पुरुष पुन: अश्लील इशारे से उसे चाय पीने के लिये कहता है | महिला पुरुष की ओर देखते हुए कप होठों तक लाती है और अकस्मात् चाय को पुरुष के मुंह पर उछालते हुए उसे एक करारा थप्पड़ जड़ देती है | गरम चाय से पुरुष की आंखे जल जाती हैं ,वह छटपटाने लगता है | महिला का चेहरा क्रोध से लाल हो गया है | अब वह पुरुष का बाल पकड़  कर अपनी पूरी ताकत से खीचने लगी | इस अप्रत्याशित घटना से स्तब्ध आस –पास खड़ीं उसकी मित्र मंडली नजदीक पहुँच  कर उस पुरुष को महिला की पकड़ से छुड़ाने का प्रयास करने लगी | महिला का क्रोध भयंकर रूप ले चुका है | वह चंडी बन चुकी है | पुरुष दर्द से छटपटा  रहा है | लोगों ने बड़ी मुश्किल से उस महिला को अलग किया| थोड़ी देर तो वह क्रोध में कांपती हुई वहीं खड़ी रही फिर अपना थैला उठाई और ठेले के पास आकर नीचे बैठ गई | ठेले वाले से उसे कोई डर  नहीं है| वह जगह उसे सुरक्षित  लग रही है |
      वह पुरुष कुछ देर तो औंधे मुंह जमीन पर पड़ा रहा फिर हिम्मत करके उठा ,अपने थैले को उठाया ,थैले में से निकल कर बिखर गई चीजों को समेटा तथा चने चुरमुरे वाले की सहायता से स्वयं को घसीटता हुआ बेंच पर आकर बैठ गया | नोचे गये अंगों से खून रिस रहा था | कुछ देर तक तो वह दर्द से कराहता रहा फिर अपनी गर्दन उठाकर महिला की तरफ देखने लगा | इस बार उसकी आखे महिला पर स्थिर हो गई, चेहरा विद्रूप हो उठा ,आखें फ़ैल कर चौड़ी होने लगीं , पता नहीं भय से या क्रोध से | वह हांफने लगा फिर अचानक नाग की तरह फुफकारते हुए चिल्ला-चिल्ला कर महिला को गालियां देने लगा | एक लड़का दौड़ कर पास की दुकान से ठंडा पानी ले आया तथा पानी में रुमाल गीला कर उसकी आँखों पर रखने लगा | चेहरे से होते हुए चाय गरदन ,सीने तथा पेट तक फ़ैल गई थी | वह बुरी तरह जल गया था ,किंतु जलने से भी अधिक पीड़ा उसे अपने अपमान से हो रही है| एक मामूली –सी पागल औरत उसका इस तरह अपमान करे ! आस-पास खड़े पुरुष आंखे तरेर कर महिला को इस अपराध के लिये सजा देना चाहते है लेकिन उससे कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं | पागल है,क्या पता फिर से टूट पड़े | सब उस पुरुष को ही शांत कराने में लगे हैं | महिला पर उसकी गालियों का कुछ भी असर नहीं हो रहा है ,वह शांत भाव से पुरुष को छटपटाते हुए देख रही है | पुरुष बार –बार अपनी आँखों को हाथ से  ढंक रहा है ,लगता है जलन तेज हो रही है | वह लड़का रुमाल गीला करके उसकी आँखों को पोछ रहा है ,साथ ही उसे चुप भी करा रहा है |
        ‘जाने भी दो यार ,पगली है ,मुंह लगना  ही नहीं चाहिए था’|
         ‘पुलिस  से शिकायत करनी पड़ेगी | इस पगली को यहाँ से हटाएं ,नहीं तो हम सभी को खतरा है |...आज उसकी आँख में गर्म चाय उड़ेल दी ,कल हमारे उपर कुछ फेक देगी | और तो और अब यात्रियों की भी खैर नहीं |’ चना चुरमुरा बेचने वाले ने चिंता व्यक्त की |
        ‘ इसका दिमाग कुछ अधिक ख़राब हो गया है ...ऐसे खतरनाक पागल को तो पागल खाने में होना चाहिए | लेकिन क्या कहें इस देश को ...खुलेआम घूम रही है | देश दुनिया के प्रति चिंतित (!) एक व्यक्ति ने अपनी पीड़ा को अभिव्यक्ति दी |
         ‘अरे मै तो ऐसी एक पागल को जनता हूँ जो पागल खाने के अधिकारियों  को चकमा देकर वहाँ से भाग निकली और अब खुलेआम शहर में घूमती  है तथा पत्थर फेक-फेक कर रोज दो –चार के सिर फोड़ती है |’ भीड़ में से किसी ने कहा|
          ‘मुझे तो कुछ और ही लग रहा है | देखो न, कैसे चुपचाप बैठी है ,मैं तो कहता हूँ कि यह पागल है ही नहीं बल्कि किसी माफिया या आतंकवादी गिरोह की सदस्य है |’आदमी की आँखों पर ठंडे पानी की पट्टी रखते हुए एक  व्यक्ति ने धीमी आवाज में कहा
          सच कहते हो अभी पिछ्ले साल की तो बात है ,चौक में जो बम-विस्फोट हुआ था,जिसमें बहुत से लोग मारे  गये थे,याद है न ?...बम –विस्फोट के पंद्रह दिन पहले वहां एक पागल घूमता हुआ दिखता था|बम –विस्फोट के दो दिन पहले से ही वह वहाँ से कहाँ गायब हो गया, पता नहीं चला | बाद में तो समाचार में भी आया था कि शायद वह आतंकवादियों के लिये जासूसी कर रहा था |’
          ‘जो भी हो,हमारे लिये यह हर तरह से खतरनाक है | हमें मिल कर कुछ करना होगा ...इसे यहाँ से हटाना ही होगा|’
          ‘हाँ ,हाँ,सच में इसे प्लेटफार्म से हटाना ही पड़ेगा| हमारी सुरक्षा का सवाल है |’ सबका समवेत स्वर प्लेटफार्म पर गूंजा |
           पुरुष अब भी जलन से छटपटा रहा है | ठंडे पानी की पट्टियां रखी  जा रही हैं| थोड़ी  देर पहले चंडी बनी महिला अब पूरी तरह शांत होकर ठेले के पास बैठी है | चेहरे पर न तो कटुता के भाव हैं न क्षोभ और न अंतर्द्वंद  के ही | वहाँ एकत्र पुरुष इस अप्रत्याशित घटना से चिंतित है | शाम होने वाली है,अपनी सुरक्षा के लिये परेशान पुरुष मंडली को देखकर महिला थोड़ा मुस्कराती है,फिर उठ कर आवेशहीन आंतरिक संतुष्टि तथा दृढ़ता के साथ आगे बढ़ जाती है| जैसे प्लेटफार्म पर बड़ी देर से रुकी कोई ट्रेन चल पड़ी हो |

000 आशा  पाण्डेय
------------------------------
टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-
achhi kahani ,pagal aurat bhi apane charitr Ki Raksha karane me pichhe nahi hatati,par jab aurat aise chandika ka roop dharksr purush ko jawab deti hai tab purush ko us,se bhay lagta hai ,aur vah uska astitv mitana chahta hai,mujhe lagta hai Ki kahani main yahi kaha gaya hai Ki aurat jhuke to thik varana purush ke ahnkar ko chot lagti hai,wo kabhi apni galti nahi manta ,aurat ko apni pair Ki jutihi samjhata hai ,ispar Maine 4 lines likhi hai plz gour famaiye.            Aakash ko purush Ki aur dharti ko stri Ki upma di jati hai,  kyonki aasman ko halke se upar utha rakha hai, jabkidharti ko pairi tale kuchla jata hai

प्रज्ञा :-
ये कहानी पहले पढ़ी है। कथाकार को बधाई ।  इस कहानी में वर्णनात्मकता अधिक है। घटना पगली के प्रतिकार की है जहां कहानी मजबूत स्थिति में आती है। अच्छा कथ्य होने के बावजूद एक बात मुझे परेशान करती है कहानी के सभी पुरुष चरित्र एक से हैं पगली के प्रति अमानवीय। सवाल उठता है क्या समाज ऐसे ही पुरुषो से भरा है? स्टेशन पर बहुत लोग होते हैं पर हर कोई तमाशबीन और मज़े लेने वाला ही नहीं। कोई आवाज़ कोई हाथ तो पक्ष का भी मिलता ज़रूर है। इस कहानी में पुरुषों को एक ही चश्मे से देखा गया है। ये एकांगी लगा मुझे। पुरुष सत्ता की ओर से भी लिखी गयी है तो स्टेशन पर महिलाएं भी होती हैं और वे गूंगी बहरी और दृष्टिहीन नहीं होती। बहरहाल ये पीड़ा तक पहुंचाती है।

मनीषा जैन :-
लेखक ने स्त्री के मनोभावों का चित्रण बड़ी तन्मयता से किया है और मानसिक रूप से बीमार पुरूष के साथ एक स्त्री क्या कर सकती है और दुनिया वाले उसे पागल करार दे रहे हैं। वह स्वयं को न बचाती तो क्या करती। क्या कोई भी स्त्री के पक्ष मे नहीं बोल सकता था।
प्रज्ञा जी  की बेहतरीन टिप्पणी और बढ़िया आब्जर्वेशन।

कविता वर्मा:-
कहानी में प्रभाव है रोचकता है हालांकि ऐसा लगता है कि एक अंत होता लेकिन फिर भी जो है वह पढ़ने में अच्छा लगता है ।पागल लड़की का चरित्र थोड़ा अविश्वसनीय लगा अगर उसमें इतनी समझ एवम चारित्रिक दृढ़ता है तो वह शायद पागल नही है साधनों के अभाव में ऐसी है ।स्टेशन पर मैजूद पुरुषोे का चित्रण बेहद सटीक है वे या तो मजे ले रहे है या तटस्थ हैं लेकिन किसी के लिये कोई सहानुभूति उनमें नही है । समाज की इस हालत के लिये ये संवेदनहीनता बहुत हद तक जिम्मेदार है ।बहरहाल पढ़ने में अच्छी लगी ।

निधि जैन :-
तो जब कोई महिला एक महिला को बनी बनाई जगह नही दे सकती फिर किस महिला से आप उम्मीद करती हैं कि वो किसी पागल महिला के बीच में बोलेगी।

प्रज्ञा :-
सभी तो एक सी नहीं हैं न । आप स्थिति बदल दीजिये आप होती तो उस महिला को जगह सम्मान सहित मिलती। मैं तो भीड़ की नही चेहरों की बात कर रही हूँ निधि जी।और कहानी में भी मददगार चेहरा तलाशती रही

मनीषा जैन :-
निधि इस बात का कहानी की घटना से मुकाबला नही किया जा सकता। कहानी में स्त्री के साथ अत्याचार हो रहा था। वह कैसे सहन करती ।यदि उसने प्रतिकार किया तो उसे पागल करार दिया गया

ब्रजेश कानूनगो:-
प्लेटफॉर्मों पर हमेशा दिखाई देने वाले एक दृष्य का बांधे रखने वाला चित्रण।जो यात्रा की समाप्ति पर भूल जाते हैं यात्री।कहानी किसी ख़ास टिपण्णी या कचोट तक पहुंचाने में बहुत सफल नहीं हो पाई जितना इसका विषय अपेक्षा रख रहा था।पाठक कहानी की यात्रा के बाद भूल जाने  लगता है।भाषा और शैली ठीक रही।बधाई।

स्वाति श्रोत्रि:-
आज की भागम भाग भरी जिंदगी में यहाँ भी वही स्त्री पर बुरी नजर है आसपास के लोगो की मतलब स्त्री कही भी रहे कैसी भी स्थिति में रहे वो सुरक्षित नहीं है । कहानी अधूरी सी लगती है। सुखांत होती तो अच्छा।

प्रज्ञा :-
रूपा जी आप पूरी बात का सन्दर्भ जानिये यहाँ उन चरित्रों की भी बात हो रही है जो पगली पर रचे हैं। हम कहानी से समता तुलना नही कर रहे।

रूपा सिंह :-
बात तो होनी चाहिए पगली दिखने वाली स्त्री के भी प्रतिरोध शक्ति की।कहाँ और किस रूप में यह सम्मान उभर कर आया है चाहे वह कुरूप,मोटी,बेडौल या पागल सी ही क्यों न दिखती हो?अपनी रक्षा करना और प्रतिकार की चिंगारी उसमे हो।पिंजर की पगली का चरित्र दूसरा है।आपकी पहली टिप्पणी अच्छी है जहाँ कोई आवाज न उठाता है ।वह मार्के की बात कही आपने।

संजना तिवारी:-
मुझे कहानी बेहद संजीदा , मर्मस्पर्शी, सटीक , यथार्थवादी और संवेदनशील लगी ।अक्सर इस तरह के पात्र हमारे आस पास मौजूद रहते हैं और हम औरो की तरह इन पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं । लेखक ने छोटी छोटी से गतिविधियों के द्वारा बिन कहे महिला की मानसिक स्थिति का खूबसूरत बयौरा दिया है ।जिसमें भाषा शैली कहीं भी अश्लील नहीं हुई है ।
मर्द समाज  ( मैं ऐसे वर्ग के मर्दों को पुरुष नही मानती )की बेसिक सोच को उजागर करती ये कहानी समाज में अकेली रह गयी महिला की दुर्गति का बेहद संजीदा खाका है ।
अगर महिला पगली ना भी हो तो ये मर्द उसे पगली या करैक्टर लेस बना देते हैं जबकि वे खुद किसी भी तरह के कैरेक्टर में फिट नही होते ।इतनी अच्छी कहानी के लिए लेखक को बधाई और शुभकामनाएं

मनीषा जैन :-
लेखक ने स्त्री के मनोभावों का चित्रण बड़ी तन्मयता से किया है और मानसिक रूप से बीमार पुरूष के साथ एक स्त्री क्या कर सकती है और दुनिया वाले उसे पागल करार दे रहे हैं। वह स्वयं को न बचाती तो क्या करती। कहानी अच्छी लगी मुझे।

देवेन्द्र रिनावा:-
स्त्री की सहनशीलता और फिर सबलता को व्यक्त करती अच्छी कहानी जिसमें रोचकता भाषा और विषय का बेहतरीन उपयोग किया गया है।

आशीष मेहता:-
सफलता को पागलपन से जोड़ना रास नहीं आया। आज  "सहमति" (और पोर्न पाबंदी पर भी) समाज जिस तरह से रिएक्ट कर रहा है, कहानी समय से कुछ पीछे रह रही है। हाँ, जो पृष्ठभूमि है (कहानी में), वहाँ सबल प्रतिरोध उचित है (पर पागलपन जुड़ने से, प्रभाव कम हो गया है)। कहानी अच्छी है।

प्रदीप कान्त:-
जैसे प्लेटफॉर्म पर बड़ी देर से रुकी ट्रेन चल चुकी हो

कहानी रोचक है ये बात और किन्तु एक स्त्री के मनोभावों को व्यक्त करने में काफी हद तक सफल लगती है।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
पंक्तियाँ याद आ गईं कि -
कहीं इस शांत सी धरती के भीतर जलजला भी ह। मनोभावों के बारीक चित्रण की दृष्टि से कहानी मुझे अच्छी लगी। मनोभावों का चित्रण अच्छे तरीके से किया गया है। रचनाकार को बधाई। प्रस्तुतकर्ता के प्रति आभार
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें