image
20 सितंबर, 2011
यस.., वी आर गिल्टी
‘यस.., वी आर गिल्टी’ नाटक का मंचन 18 सितम्बर को माई मंगेशकर सभागृह (इन्दौर) में हुआ। यह नाटक मूल रूप से मराठी भाषा में लिखा गया है। श्री अनिल सोनार द्वारा लिखित इस नाटक का हिन्दी में अनुवाद श्रीयुत श्रीकांत आप्टे ने किया है। नाटक का कथानक मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी (पति)- अलका नाडकर्णी (पत्नी) के दाम्पत्य जीवन के इर्द-इर्द बुना गया है। दिनेश और अलका ने आपस में प्रेम विवाह किया है।
दिनेश नाडकर्णी एक बड़ी कम्पनी में काम करता है। वह महीने में क़रीब अठराह-बीस दिन कम्पनी के काम से शहर से बाहर दौरे पर रहता है और ऎसा एक महीने या दो महीने नहीं होता है, बल्कि शादी के तीन साल बाद से ही शुरू हुआ यह सिलसिला सात साल तक हर महीने यूँ ही चलता रहता है। निःसन्तान पत्नी अलका अकेली फ्लैट पर रहती है। वह अकेली ऊबे नहीं..इसलिए पति दिनेश उसे शहर के एक क्लब की सदस्यता दिला देता है। अलका जब भी ऊब महसूस करे क्लब चली जाया करती। क्लब में सभी तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान होती है। उसकी जान-पहचान का दायरा बढ़ता रहता है। व्यावसायियों से… बड़े-बड़े अधिकारियों से…और समाज के ऎसे कई लोगों से उसकी पहचान होती है… जिनके ईशारों पर शहर चलता है। पहचान धीरे-धीरे उस रिश्ते में बदल जाती है…. जिसे समाज में खुले रूप से स्वीकार करने की ताक़त किसी में नहीं है। न मध्यमवर्गीय दिनेश नाडकर्णी में और न ही अलका के साथ रिश्ता जोड़ लेने वाले किसी भी उच्च मध्यमवर्गीय में।
जब दिनेश कम्पनी के काम से बाहर दौरे पर जाता रहता है। तब अलका क्लब जाती है। क्लब में शराब पीती है। ….और जब दिनेश बाहर रहता है… अलका अपने पति की ग़ैर मौजूदगी में अपने ही फ्लैट में अलग-अलग पुरुषों के साथ संसर्ग भी करती है। शराब और संसर्ग की वह आदि हो जाती है।
दस साल के दाम्पत्य जीवन में कभी दिनेश को यह एहसास नहीं होता है कि अलका के संबन्ध किसी ग़ैर मर्द से भी है, बल्कि कई मर्दों से हैं। लेकिन जब एक बार उसका दौरा स्थिगत हो जाता है.. और वह फ्लैट पर जल्दी लौट आता है… तब अपने फ्लैट में किसी दूसरे पुरुष को देखता है और अलका के दुष्चरित्र के बारे में सबकुछ जान लेता है…. तब वह एक आम आदमी की तरह का ही व्यवहार करता है। पहले तो ग़ैर पुरुष के साथ उसकी धक्का-मुक्की होती है। ग़ैर पुरुष फ्लैट से अपनी जान बचा भागने में सफल हो जाता है.. तब अलका के साथ बातचीत शुरू होती है। अलका निर्लज्जता से बताती है कि वह यह सब पिछले सात साल से कर रही है। अलका का यह रूप दिनेश बर्दाश्त नहीं कर पाता है…और वह अपना आपा खो बैठता है। वह अलका को गला घोट कर ख़त्म कर देता है। कुल जमा घटनाक्रम इतना ही है।
इस नाटक में असाधारण कुछ भी नहीं है। इसमें पति-पत्नी के रिश्ते की असीम व्याख्या करने वाली बहस, द्वन्द, कल्पना, मूल्यों और मान्यताओं से टकराव बिल्कुल नहीं हैं। इसमें दुख और सुख की पराकाष्ठा भी नहीं है। फिर भी लेखक को इस साधारण-से और बहुत आम विषय पर नाटक लिखने की ज़रूरत महसूस हुई। लिखा भी। पर लिखते वक़्त लेखक के मन में साधारण को असाधारण बनाने की बात रही होगी। शायद इसीलिए लेखक ने नाटक में दिनेश नाडकर्णी (रत्नेश रूप) के दोस्त के रूप में मक़बूल शेख (राघवेन्द्र सिंह राजावत) को, अलका नाडकर्णी (ज्योति गोस्वामी) की परिचित के रूप में रत्नमाला विभांडिक (यामिनि सोनवणे), पुरुष (प्रेम उपाध्याय), गोरखा (चैतन्य शाह), टेक्सी ड्रायवर (पुनीत शर्मा), परिवार के डॉक्टर के रूप में डॉ. संचेती (जय पंजवानी), इंस्पेक्टर (रवि जोशी), चपरासी (रोमी सेन) को शामिल किया होगा। इसे विश्वसनीय बनाने का भरसक प्रयास करते हुए और गहरे रहस्यात्मक ढंग से लिखने की कोशिश की गयी। कहने का मतलब यह कि एक आसान से विषय को एक ख़ास अंदाज़ से नाट्य रूप में प्रस्तुत करने में कोई कसर न रहे….ऎसा प्रयास लेखक ने ईमानदारी से किया।
इस नाटक का निर्देशनः राजन देशमुख ने किया। पारखी दर्शकों के लिए निर्देशकीय कमजोरी खोजना टेढ़ी खीर था। मंच प्रबन्ध सतीश फालके और उनके साथियो ने किया था…जो नाटक की ज़रूरत के मुताबिक एकदम ठीक था। संगीत संयोजन, ध्वनि नियंत्रण, मंच सज्जा, रंगभूषा, वेशभूषा और प्रकाश व्यवस्था में भी कोई ज्यादा खोट नहीं निकाली जा सकती। इनमें छोटी-मोटी खोट गिनाने का कोई औचित्य भी नहीं है। इनमें छोटी-मोटी कमी रह जाने से भी नाटक की सेहत पर कोई ज्यादा ख़राब असर नहीं पड़ता है। हालाँकि इस नाटक में यह सभी पहलू उतकृष्ट थे।
मुझे लगता है किसी भी नाटक को कितने भी कम या ज्यादा संसाधनों के साथ खेला जाये। नाटक में दर्शक को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात होती है, स्क्रिप्ट, अभिनय और निर्देशन। जब मंच पर स्क्रिप्ट में लिखी हर-एक चीज़ मौजूद होती है। वेशभूषा से लेकर.. संगीत, प्रकाश और सबकुछ ज़रूरत के मुताबिक होता है…. मंच पर जितनी ज्यादा चीज़े उपलब्ध होती है…..कलाकार को अभिनय करने का उतना ही कम अवसर मिलता है। कलाकार सिर्फ़ संवाद को भावनात्मक रूप से संप्रेषित करने का काम करता है।
मैं समझता हूँ कि किसी भी नाटक के सफल होने में दो चीज़ों का ख़ास योगदान होता है। पहली नाटक की स्क्रिप्ट ‘जो सामाजिक चेतना को विकास करने वाली होना चाहिए’ और दूसरी अभिनय। मैं महज ताली बटोरने और मुँह देखी वाह..वाही करने वाली स्क्रिप्ट की बात नहीं कर रहा हूँ। किसी नाटककार का यह मक़सद होता भी नहीं है। अगर यह मक़सद हो तो सबसे ज्यादा ताली और वाह..वाही मसखरों की प्रस्तुति से मिलेगी.. जो आसानी से किया जाने वाला काम है। नाटक करना एक गम्भीर काम है, इसलिए नाटककार का काम कोरी वाह..वाही और तालियों से नहीं चलता है। हाँ.. तालियों और वाह..वाही से उसका हौसला ज़रूर बढ़ता है।
लेकिन नाटककार चाहेगा कि उसका नाटक समाज की जड़ता, रूढी, कुन्ठा, कुप्रथा, छद्म, पुराने मूल्यों और मान्यताओं पर प्रहार करे। समाज में व्याप्त बुराइयों और ज्वलंत समस्याओं से टकराये। समाज में समस्याओं से जूझने की चेतना फूँके… उनसे बचाने का रास्ता खोजे। अन्ततः नाटक करना समाज को साँस्कृतिक दृष्टि से बेहतर बनाने का एक स्वप्न है, जिसे खुली आँखों से देखना है और इसे साकार करने के लिए बेहद ज़िम्मेदारी से सतत साँस्कृतिक कर्म करते रहना ज़रूरी है।
यह लेखक की ही ज़िम्मेदारी है कि नाटक में जो भी ज्वलंत समस्या उठायी गयी है… दर्शकों के सामने उसका हल भी प्रस्तुत करे। हल प्रस्तुत न करने की समाज की चेतना जहाँ रूक गयी है.. वहाँ से आगे के रास्ते पर रोशनी बिखेरे। अगर समस्या बहुत भयावह, जटिल और उलझाव भरी है। उसे सुलझाने की उक्ति नाटककार को भी सूझ-समझ नहीं आ रही है… वह कोई उत्कृष्ट हल प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं है….ऎसी स्थिति में समस्या से लड़ने-भिड़ने का लाजवाब जज्बा पैदा करे। सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करने की असहनी बेचैनी समाज में पैदा करे। क्योंकि किसी भी स्थिति में नाटककार को समाज को गुमराह करने की जरा भी नैतिक छूट नहीं होती है।
नाटक में अगर कोई समस्या उठायी गयी है.. तो लेखक की ही नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह उस समस्या का हल खोजे। ध्यान रहे कि खोजा गया हल नयी समस्या नहीं हो। अगर समस्या का हल दूसरी समस्या है.. तो वह हल नहीं… नयी समस्या है और ऎसी स्थिति में समाज एक साथ पुरानी और नयी दोनों समस्याओं को झेलने को अभिशप्त होता है। समाज को ऎसी स्थिति में धकेलने के लिए नाटककार ज़िम्मेदार होता है। क्योंकि नाटक ऎसी विधा है.. ‘जो उत्कृष्ट अभिनय के मार्फत दर्शक के मन पर सीधा असर करती है। उसे उद्वेलित करती है। उसे समास्या से लड़ने के लिए उकसाती है।’ इसलिए लेखक को बहुत होश्यारी से अपनी ज़िम्मेदारी निभाना होती है।
यस, वी आर गिल्टी नाटक में दिनेश नाडकर्णी के सामने एक समस्या आती है कि उसकी पत्नी अलका दुष्चरित्र है। इस इक्सवीं सदी में पति-पत्नी का दुष्चरित्र होना आम बात बन गयी है, बल्कि समाज के एक ख़ास वर्ग के सिमित हिस्से में इसे मौन स्वीकृति दे रखी है। वहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे से दुष्चरित्रता के विषय में लड़ने-झगड़ने को पिछड़ापन मानते हैं। उनके लड़ने-झगड़ने के मुद्दे और तरीक़े भी मध्यमवर्गीय समाज से भिन्न होते हैं। यस, वी आर गिल्टी नाटक समाज के मध्यमर्गीय पात्रों के इर्द-गिर्द बुना गया नाटक है। मध्यमर्गियों में आज भी स्त्री का चरित्रवान होना या न होना बहुत मायने रखता है। यहाँ आये दिन दुष्चरित्रा को लेकर आत्म ग्लानि होने पर आत्महत्या और ग़ुस्से पर नियंत्रण खोने पर हत्या भी की जाती है।
अलका और दिनेश पति-पत्नी तो है…पर वे दस साल के वैवाहिक जीवन में भी एक-दूसरे के भरोसेमंद नहीं बन सके। दिनेश अपने काम में मशरूफ रहा। और इस मुगालते में रहा कि अलका सिर्फ़ उसी से प्यार करती है और वह महीने में जितने भी दिन-रात उसके साथ बीताता है, उससे अलका संतुष्ठ रहती है। जबकि क्लब में जाने और विशेष वर्ग के लोगों के सम्पर्क में आने के बाद अलका की महत्त्वकाँक्षाओं और स्वभाव में बड़ा बदलाव आ चुका होता है।
दिनेश दस साल के बाद भी दस साल पहले वाली भावना से भरा रहता है और अलका मानिसक रूप से उस समाज में स्थानांतरित हो गयी.. जहाँ दूसरे पुरुष से सम्बन्ध बनाना कोई ग्लानिपूर्ण काम नहीं समझा जाता है। और अगर कुछ हद तक समझा भी जाता है तो.. हत्या करना ज़रूरी नहीं समझा जाता है। क्योंकि वहाँ पति भी उतना ही दुष्चरित्र होता है.. जितनी पत्नी। वे आपसी सहमति से कोई ऎसा रास्ता खोज लेते हैं.. जो दोनों के जीवन के लिए बेहतर होता है.. उनके लिए जीवन महत्त्वपूर्ण होता है… चरित्र भी होता है.. पर जीवन से ज्यादा नहीं।
शायद इसीलिए अलका को ग़ैर पुरुषों से अपने सम्बन्धों पर कोई लज्जा नहीं है। लेकिन दिनेश स्वीकार नहीं कर पाता है और आवेश में आकर पत्नी का क़त्ल कर देता है। लेकिन जैसा की मैंने कहा है कि क़त्ल समस्या का हल नहीं.. बल्कि नयी समस्या है। जबकि अलका और दिनेश दोनों को ही ज़रूरत थी समस्या के हल की। अन्ततः दोनों के जीवन ख़ुद उनके लिए और समाज के लिए भी महत्त्वपूर्ण थे।
इंसान का जीवन बहुत विराट और भेदभरा है। यह मान लेना आसान नहीं है कि वह जैसा भी है…उसकी मर्ज़ी से है। इंसान का जीवन कितना भेदभरा है…यह ख़ुद इंसान को नहीं मालूम है। वह ज़िन्दगी के लम्बे सफ़र में कब… कहाँ.. कैसे.. क्या और क्यों कर गुज़रेगा…. इसका उसे जरा भी भान नहीं होता है। एक इंसान जैसा भी स्वभाव, संस्कार और जीवन जीने का तरीक़ा पाता और अपनाता है.. वह पूरी तरह स्वयं का खोजा.. जाना..और अनुभवजन्य नहीं होता है, बल्कि सदियों से पारंपरिक रूप से चले आ रहे तमाम तरीक़ों में से ही कुछ अपने लिए चुन लेता है, और यह चुनाव भी परिस्थियों के मुताबिक ही होता है…।
लेकिन किसी भी समाज के विकास में भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास की ख़ास भूमिका होती है। यस, वी आर गिल्टी में जो भी परिस्थियाँ बनी वे भी उक्त वजहों से ही बनी थी। लेकिन लेखक ही वह सख़्श होता है जो अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, साँस्कृतिक और आर्थिक विकास के ढाँचे से टकराता है। जकड़बंध ढाँचों को तोड़कर उसे नयी राह खोजनी होती है… जो या तो पहले से ही समाज में मौजूद होती है… और बस.. उन पर रोशनी डालने की ज़रूरत होती है… और अगर न हो तो परिस्थियों के विश्लेषण और कल्पना के जरिए नयी राहें इजाद की जाती है।
दिनेश पत्नी के क़त्ल के रास्ते को चुनने के लिए अभिशप्त नहीं था.. क्योंकि आज समाज में यह रास्ता उपलब्ध है कि अगर पति-पत्नी में वैमनस्य है। वे एक-दूसरे के जीवन जीने के तरीक़ों से… अच्छी-बुरी आदतों से सहमत-असहमत है.. तो वे अलग-अलग हो सकते हैं। अलग होना समाज में उतना निंदनिय नहीं है.. जितना की क़त्ल करना। क्योंकि समाज में किसी को भी यह अधिकार नहीं कि वह किसी को उसके जीवन जीने के अहम अधिकार से वंचित करे। नाटक में अलका की हत्या को एक रास्ता दिखाया गया है.. जो कि मेरी नज़र में ग़लत रास्ता है।
मैं लेखक द्वारा सुझाये इस रास्ते से असहमत हूँ। मैं नहीं समझता कि अलका के दुष्चरित्र होने पर उसके पति को यह अधिकार है कि वह अलका का क़त्ल कर दे। और मैं यह देखकर ख़ुद को दुखी होने से नहीं रोक पाता हूँ कि लेखक दिनेश के इस भर्त्सना योग्य कृत्य पर समाज सेविका रत्नमाला विभांडिक (यामिनी सोनवणे), पुलिस इंस्पेक्टर, डॉक्टर, गोरखा, टेक्सी ड्रायवर और उसके आॉफिस तक के लोगों को इसमें शामिल कर लेता है।
नाटक के सभी पात्र दिनेश नाडकर्णी द्वारा अनचाही मदद करते हैं। दिनेश बार-बार यह बात स्वीकार करता है कि उसने अपनी पत्नी अलका को उसका गला दबाकर मार दिया है। पुलिस को वह ख़ुद फ़ोन करके बुलाता है। लेकिन सब उसे यह समझाने में लगे रहते हैं कि उसने अलका का ख़ून नहीं किया है। पहले तो वे सबकुछ जानते हुए भी यक़ीन नहीं करते हैं कि दिनेश ने अलका का ख़ून कर दिया है। फिर जब वे इस बात का यक़ीन कर लेते हैं कि अलका मर चुकी है.. तो वे दिनेश को यह यक़ीन कराने में लगे रहते हैं कि वह ख़ून नहीं महज एक दुर्घटना है। वे हत्या के सबूत नष्ट करते हैं… घटना स्थल में हेर-फेर करते हैं, उसे बदलते हैं। यह काम किसी समाज सेवक या शरीफ़ इंसान का नहीं है। दुष्चरित्रता सिर्फ़ ग़ैर पुरुष या स्त्री से सम्बन्ध बनाना ही तो नहीं होता है… दुष्चरित्रता भी कई तरह की होती है और इस लिहाज से नाटक के सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र नज़र आते हैं। फिर उन सभी दुष्चरित्रों को क्या अधिकार की वे अलका के क़त्ल को दुर्घटना में बदले..?
और किसे पता कि जब दिनेश बीस-बीस दिन दौरे पर रहता है.. तो वह बाहर कोई ऎसा काम नहीं करता है, जो किसी भी चरित्रवान व्यक्ति के लिए निषेध है। दिनेश नाडकर्णी अपने दौरों के दौरान कैसे जीता है.. ? नाटक में नहीं बताया गया है। जबकि आजकल तो बड़ी कम्पनियों के अधिकारियों बीच किराये की औरतों का धंधा जोरों पर है। क्या उसे ऎसी किसी स्त्री के साथ संसर्ग करने का अवसर नहीं मिला या वह चरित्रवान होने के नाते ऎसे अवसरों को ठुकराता रहा..? किसे पता दिनेश नाडकर्णी उन बीस दिनों में बाहर गुलछर्रे उड़ाता था या नहीं। शराब और सिगरेट तो वह घर में भी पिता ही था…और यह सब किसी भले आदमी के लक्षण तो नहीं…!
लेखक पोस्टमार्टम रिपोर्ट को भी प्रायवेट डॉक्टर के सहयोग से अपने अनुसार बनवाना बताते हैं…। नाटक में कई ऎसे पहलू है जो यह साबित करते हैं कि सभी पात्र कहीं न कहीं दुष्चरित्र हैं। और उस क्षण तो हद पार हो जाती है… जब समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक से लेकर इंस्पेक्टर, डॉक्टर और सभी उनके किये दुष्कृत्य को जायज समझते हैं। इस बात पर गर्व करते हैं कि उन्होंने अलका के क़त्ल के सबूत नष्ट कर.. दिनेश नाडकर्णी को जेल जाने से बचाकर बहुत महान कार्य किया है। और तब दुष्चरित्रता की पराकाष्ठा हो जाती है…जब वे समाज में यह संदेश देतें हैं कि ऎसा करना समाज सेवा है।
यस, वी आर गिल्टी… मुझे एक ग़लत संदेश देने वाला नाटक लगा। लेकिन इस नाटक की प्रस्तुति बहुत ही रोचक थी और दो घन्टे तक दर्शक को अपने में उलझाये रखती है। लेकिन धोका अक्सर ख़ुबसूरत और आकर्षक होता है जैसे बाज़ार। उससे बचना चाहिए।
हँसी की फूलझड़ी यानी समाजसेविका रत्नमाला विभांडिक को मंच पर देखते ही दर्शक के चेहरे पर हँसी की लहर उठने लगती। रत्नमाला की भूमिका यामिनी सोनवणे निभायी, और यक़ीन मानिये यामिनी ने इस भूमिका को जीवंत कर दिया। यस, वी आर गिल्टी में सबसे कठिन दो भूमिकाएँ थीं। पहली अलका (ज्योति गोस्वामी) की और दूसरी रत्नमाला (यामिनी) की। ज्योति ने भी अलका की भूमिका बहुत ही प्रभावी ढँग से निभायी। लेकिन यामिनी के सामने अलका की भूमिका उन्नीस ही रही। और इसकी वजह ज्योति का अभिनय नहीं लगती…बल्कि मुझे लगता है कि यह नाटककार की कमी रही है। नाटककार अलका का चरित्र उतनी मजबूती से नहीं उभार सके हैं.. जितनी उसमें सम्भावनाएँ थीं। अलका और दिनेश केन्द्रीय पात्र थे, लेकिन स्क्रिप्ट में दोनों की भूमिकाओं ने वह ऊँचायी हासिल नहीं की… जो रत्नमाला ने की।
यामिनी सोनवणे, ज्योति गोस्वामी के बाद क्रमशः चैतन्य शाह, रत्नेश रूप और रवि जोशी के अभिनय ने दर्शकों के मन पर छाप छोड़ी। हालाँकि रवि जोशी से दो-तीन बार संवाद छूटते नज़र आये। रत्नेश रूप का अभिनय उम्दा होने के बावजूद कहीं-कहीं अस्वाभाविक-सा लगा। चैतन्य शाह के पास ‘गोरखा’ की बहुत छोटी भूमिका थी। लेकिन चैतन्य ने अपनी आंगीक और शाब्दिक भाषा से गोरखा को जीवंत कर दिया। लेकिन एक जगह वे क्षण भर के लिए दर्शकों की हँसी में शामिल हो..मुस्करा देते हैं … । जबकि उसकी ज़रूरत नहीं थी वहाँ पर। चैतन्य एक गंभीर अभिनेता है…. अभी तक वे अच्छा काम करते आ रहे हैं… लेकिन यस, वी आर गिल्टी में उनकी वह ग़ैर ज़रूरी मुस्कान.. उन्हें अगम्भीर बनाती है। ऎसे मौक़ों से उन्हें बचना चाहिए। पुरुष की भूमिका में प्रेम उपाध्याह, ड्रायवर की भूमिका में पुनीत शर्मा और डॉक्टर की भूमिका में जय पंजवानी, चपरासी रोमी सेन की भूमिकाएँ बहुत छोटी-छोटी थी…और उन्होंने उन्हें ठीक-ठाक ही निभाया।
यस, वी आर गिल्टी अविरत और रंगरूपिया की नाट्य प्रस्तुति थी। मैं उन्हें सतत रंगकर्म करने के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ और उनसे यह अपेक्षा भी करता हूँ कि आगे वे प्रस्तुति के लिए जिस भी नाटक का चुनाव करे…. उसे सिर्फ़ रोचकता के आधार पर न चुने.. बल्कि उसे एक बेहतर संदेश देने वाली और समाज को जागृत करने वाली रचना के रूप में भी जाँचे-परखे। अगर उनके मन में ऎसा कोई विचार घर किये बैठा है कि मराठी, अँग्रेज़ी या किसी और भाषा से अनुदित नाट्य रचना ही उत्कृष्ट होती है.. तो अपने इस विचार की भी पुर्नसमीक्षा करे। हमेशा रेडीमेड नाट्य रचनाएँ उठाने की आदत अच्छी भी नहीं होती है। ख़ुद नये नाटक लिखने या नाट्य रूपांतर करने का भी सतत प्रयास करे। एक रंगकर्मी का काम सिर्फ़ अभिनय करने से नहीं चलता है। पुनः अविरत और रंगरूपिया के सभी साथियो को बधाई..शुभकामनाएँ।
सत्यनारायण पटेल
बिजूका लोक मंच, इन्दौर
19. 9. 2011
15 सितंबर, 2011
द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम.
4 सितम्बर 2011 को कई दिनों की बारिश के पश्चात धूप खिलखिला के निकली, और साथ में लाखों चेहरे भी। कुछ दिन से लगातार हो रही बारिश से आयोजन बिगड़ने का अंदेशा, लेकिन बादलों की महरबानी रही कि आयोजन के दिन वे शांत रहे, और बिजूका लोक मंच के साथी फ़िल्म प्रदर्शन की तैयारी करते रहे।
रविवार की दोपहर का समय एक कार्पोरेट शहर के हिसाब से बेहद उपयुक्त था। वरना शहर की भागादौड़ी में रविवार की शाम ऎसी फ़िल्म देखने में कौन तबाह करे…जो देश में कभी प्रदर्शित ही नहीं हुई।१२ बजे के पूर्व ही कुछ दर्शाकगण आना शुरू हो चुके थे, सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी सिवाय एक तैयारी के और वो था लैपटॉप से प्रोजेक्टर को कनेक्ट करना (सबसे महत्वपूर्ण तैयारी)चूँकि यह कार्य पूर्व में हम लोग कर चुके थे इसलिए चिंता किसे थी। लेकिन कहते हैं न समय सब पर भारी होता है, आपके अनुभवों पर भी, और वही हुआ कनेक्टिविटी का इतना प्रोब्लम आया की बड़े-बड़े तकनिकी विशेषज्ञ बैठे के बैठे ही रह गए। फिर कुछ १५-२० मिनिट की माथापच्ची के बाद गाडी पटरी पर आई, और मुझे कार्यक्रम प्रारंभ करने का मौका मिला। मैंने सभी का अभिनन्दन किया और थोड़ी जानकारी फ़िल्म के बारे में भी दी, तत्पश्चात ही फ़िल्म का मधुर संगीत प्रारंभ हुआ और फ़िल्म शुरू हो गई।
फिर तो जो समां बंधा कि फ़िल्म के समाप्त होने तक न किसी का मोबाइल बजा और न किसी को खाँसी आयी। एक बेहतरीन कलात्मक प्रस्तुति कि यही पहचान होती है कि वह सुनने-देखने वाले को मोहित कर लेती है। "द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम्." ने यह बात सिद्ध कर दी, फिल्म में एक फिल्म के हिसाब से सब कुछ था अच्छी कहानी, अच्छा निर्देशन, केमरा, इमोशन….आदि.. इत्यादि ।
कहानी में दिखाया गया की किस तरह से १९८८ में सोराया मानुचेहरी नमक एक ३४ वर्षीय शादीशुदा महिला को उसका पति साजिश के तहत संगसार करवाता है| संगसार याने की सामूहिक रूप से पत्थर मार-मार कर मृत्युदंड देने की सजा। यह सजा आज भी प्रचलन में है। इसे शादीशुदा होने पर भी किसी गैर मर्द से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर दंड के रूप में दिया जाता है। यह सजा मर्द और औरत के लिए सामान है। यह सजा और भी कई गुनाहों के लिए दी जाती है। ऎसी सज़ा अलग-अलग जाति, सम्प्रदाय या धर्म में अलग-अलग कुप्रथा या नियम-कायदों से दी जाती है।
फ़िल्म के कुछ अंतिम क्षणों में दर्शकों के मुंह से अफ़सोस भरी तथा दुःख भरी आवाजें भी आई, अंतिम दृश्यों में वीभत्स क्रूरता दिखाई गई है जिसमे सोराया को पत्थरों से मार दिया जाता है। हालाँकि सत्य की यहाँ भी जीत होती है - वो कैसे..? इसके लिए आप फिल्म देखकर ही जाने यह हमारी मंशा है।
फ़िल्म के पश्चात कहानी तथा इस्लामी क़ानून ‘जिसके तहत फ़िल्म में सोराया एम को सज़ा सुनायी गयी थी’ के बारे में चर्चा भी हुई। चर्चा में किसने क्या कहा… संक्षिप्त में प्रस्तुत है:-
कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने चर्चा की शुरुआत की, उन्होंने कहा- हमारा समाज स्त्री की तुलना में पुरुष ज्यादा ताक़तवर है। उसका घर और घर की आर्थिक व्यवस्था पर एकाधिकार है। सहज ही स्त्री को उसके अधीन माना लिया जाता है, जो कि ग़लत है। क़ानूनी रूप से समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार है.. लेकिन पुरुष हमेशा अपनी मनमानी करता है.. और स्त्री के अधिकारों की.. उसकी भावनाओं की उपेक्षा करता है… जबकि किसी भी घर की गृहस्थी को चलाने में उस घर की स्त्री ही पुरुष से ज्यादा काम करती है। यह फ़िल्म के स्त्री दुष्चरित्रता को केन्द्र में रखकर बनायी गयी है। फ़िल्म में दुष्चरित्र तो सोराया का पति, महापौर और मौलाना भी है.. लेकिन उनकी दुष्चरित्रा की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। बल्कि वे ही अनैतिक लोग सोराया के ख़िलाफ़ साजिश रचते हैं और उसे संगसार जैसी अमानवीय सज़ा भोगने के लिए बाध्य करते हैं। ऎसी सज़ा सिर्फ़ मुस्लिमों में दी जाती है.. ऎसा नहीं है। सीता को भी दुष्चरित्रता के आरोप के कारण ही अग्निपरिक्षा से गुज़रना पड़ा था। नाथ सम्प्रदाय में जिस स्त्री पर दुष्चरित्रता का लगाया जाता है.. उसके हथैलियों पर गर्म कुल्हाड़ी रखी जाती है.. इस कुप्रथा को कुल्हाड़ी ईमान कहा जाता है। बाँछड़ा जाति की महिला जिसका की पैसा ही देह व्यापार है.. उस पर कुछ अलग परिस्थियों में ऎसे आरोप लगते हैं और उसे खोलते तेल में हाथ डुबाकर अपने ईमान की जाँच कराना होती है। और भी कई तरीके हैं.. क़त्ल की ख़बरे तो आये दिन हम पड़ते ही रहते हैं…। सवाल यह है कि ऎसी सज़ा किसी भी जाति,सम्प्रदाय, धर्म या क़ानून में होना चाहिए…? क्या यह अमानवीय नहिं है..? ऎसी घटना ईरान, पाकीस्तान, भारत या धरती के किसी भी हिस्से पर घटे…पर क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है…?
चर्चा के आगे बढ़ते हुए डॉ. फ़हीम अंसार ने सजा के बारे में रोचक तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी। आपने व्याभिचार के उर्दू शब्द ज़िना से हमारा परिचय करवाया। आपने ज़िना को असामाजिक तथा अनैतिक बताया - आज के समाज की गति अतिभयावहतापूर्वक एक अश्लील समाज की और दौड़ती बताई, आपने आज के नवयुवकों तथा उनकी मानसिकता पर सवाल उठाए, तथा अभिविन्यास को लेकर भी बात की - आपके अनुसार समलैंगिक संबंध भी ठीक नहीं।
सजा के बारे में आपने जानकारी देते हुए कहा की - यह सजा औरत के इकरार पर ही निर्भर करती है अगर वह कहे कि मुझ पर इलज़ामात झूठे हैं तो उस स्थिति में उसके शौहर को ५ कसमे खानी होती है, और फिर उसे संगसार भी नहीं किया जाता। आगे उन्होंने कहा कि खुदा की चाह थी की समाज के लोगों को इस सजा में शामिल किया जाए ताकि इससे सबको इबरत (नसीहत) मिले और आगे से ऐसा गुनाह न हो। फिर आपने सब से बलात्कार के संबंध में प्रश्न किया की "क्या आप आपकी बहु-बेटियों के साथ ऐसा चाहेंगे चूँकि मर्दों के लिए भी क़ानून सामान है।
आपने फ़िल्म में दिखाए क़ानून को अमेरिका की साज़िश बताया जिससे दुनियाभर में मुस्लिम धर्म बदनाम होगा तथा फ़िल्मी क़ानून को झूठा भी ठहराया। आपने कहा फ़िल्म में सिर्फ दो गवाहों को गवाही देते दिखाया गया है जिनके आधार पर सोराया को सजा दी गई लेकिन असल में चार गवाहों की गवाही लगती है।
प्रो. इरफ़ान अज़ीज़ ने डॉ. फ़हीम अंसारी की बातों का समर्थन किया तथा फ़िल्म के विषय पर सवाल उठाते हुए कहा की - क्या आप ईरान तथा अमरीका के बीच की तनातनी नहीं जानते?" ऐसा इसलिए कहा गया चूँकि फ़िल्म हॉलीवुड की थी। आपने सभ्य समाज का पक्ष धरते हुए जंगली दुनिया बनाने देने से बचने का आग्रह किया।
कॉ.चुन्नीलाल वाधवानी ने ऎसे क़ानून को जहालत के वक़्त का क़ानून बताया। आपने पैगम्बर मोहम्मद को इंकलाबी माना। आपने सिंध प्रान्त में भी ऐसी ही सजा का ज़िक्र किया जिसे कारीकारो कहा जाता है। आपने मंसूर (शहीद-ए-आज़म) का भी ज़िक्र किया जन्हें संगसार किया गया था। उनके दोस्त ने उन्हें फल मारा था जिसे उन्होंने लोगों के पत्थर मारने से भी बुरा बताया था। आपने सरमत शहीद का भी ज़िक्र किया जिसे औरंगजेब ने क़त्ल करवाया था, उसपर तीन इलज़ाम लगाये गए थे:
१. एक तो की वो कलमा पूरा नहीं पढता था, अधुरा पढ़ा करता था- जिससे यह अर्थ प्रकट होता था कि ख़ुदा नहीं है।
२. सरमत का मानना था कि पैगम्बर खुदा से आसमान में मिलने नहीं गए थे.. बल्कि आसमान से खुदा पैगमबर के जेहन में उतरे थे…।
३. तथा सरमत नंगा घूमता था जो इस्लाम के खिलाफ था।
अपने कहा कि आज वैज्ञानिक तौर पर विकसित पीढ़ी के अनुसार इंसान को अपना अपना नजरिया रखना चाहिए, ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं है.. अगर है तो आज के हिसाब से तो ईश्वर को भी अपने आपको प्रमाणित करना होगा। आगे आपने कहा की जब कोई महापुरुष, संत, महात्मा पैदा होते हैं.. तो लोग उन्हें ईश्वर मान लेते हैं.. लेकिन असल में ईश्वर नहीं होते हैं.. हम-आप जैसे हाड़-माँस के इंसान ही होते हैं।
कवि आनंद पचौरी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं धर्म में अपनी समझ के अनुसार गौण मानता हूँ। उन्होंने धर्म की परिभाषा तथा उसके उदाहरण देते हुए कहा कि "धर्म वह जो निरंतर रूप से व्याप्त है - जैसे सूरज का उगना तथा अस्त होना, हवाओं का चलना, नदियों का बहना, पक्षियों का चहचहाना आदि। इसके अलावा जिसे हम धर्म कहते हैं वह सम्प्रदायवाद है।"
औरतों की स्थिति के बारे में आपने कहा कि हमारे समाज कई जगहों पर औरतों को ख़रीदा ओर बेचे जाता है। उन्होंने एक लड़की के १६ बार बेचे जाने के बारे में ज़िक्र किया, जिसे सत्रहवी बार उसके भाई के द्वारा ही बेची जानी थी।
उन्होंने कहा कि औरत की इस हालत के ज़िम्मेदार भी हम मर्द ही हैं। आपने कट्टरवाद के बारे में भी बात कही तथा भारतीय लोगों को सबसे अधर्मी बताया।
गिरीश भिलवारे:- युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए आपने कहा की - धर्म मतलब जीवन जीने का सही तरीका है। आपने फ़िल्म में दिखाए गए भीड़ तंत्र को सरासर गलत बताया तथा कहा की भीड़ का विवेक नहीं होता है।
जय पंजवानी ने कहा कि सड़ी मान्यताओं का आदर नहीं करना चाहिए। इंसान को इंसानियत तथा सत्य की राह पर चलना चाहिए।
अंत में प्रसिद्ध कहानीकार और चित्रकार प्रभु जोशी कहा कि शीत युद्ध के दौरान रशिया की बदनाम करने के लिए अमेरीका की तरफ़ से ऎसी कई फ़िल्में बनायी गयी.. जिसमें रशिया की छवि ख़राब दिखायी जाती थी। इस फ़िल्म को भी ऎसी किसी साजिश के तहत बनायी गयी हो ऎसा हो सकता है। लेकिन हर बार ऎसा हो यह ज़रूरी नहीं है। उन्होंने सेम्युअल हटिंगटन तथा जॉन परकिन्स्की की किताबों का भी उल्लेख किया जिनमें ईसा तथा मूसा के बीच की लड़ाई दिखाई गयी है। उन्होंने कहा कि सारे क़ानून धर्म की देन है। इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई ईश्वर, काल तथा मृत्यु से ही होती है। उन्होंने प्रश्न उठाया की पहले तत्व या पहले चेतना होनी चाहिए। आपने कट्टरवाद हर धर्म में बताया, आपने मार्क्सवाद, डायलेक्टिकल डबलिंग, नेनो तकनीक, विज्ञान तथा कई सारे ऐसे विषयों से फ़िल्म को जोड़ा। उन्होंने विवेकवादी तथा भाववादी चरित्र के बारे में भी बताया कि - पढ़े लिखे व्यक्ति का विवेकवादी मस्तिष्क कार्य करता है तथा कम पढ़े लिखे या अनपढ़ व्यक्ति का भाववादी मस्तिष्क कार्य करता है।
अंत में उन्होंने कहा कि फ़िल्म कलात्मक प्रस्तुति होती है और उसे देखने-समझने के कई तरीक़े होते हैं। फ़िल्म को समझने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। फ़िल्म देखना-दिखाना अपने आप में एक अच्छी पहल है और इसे जारी रहना चाहिए।
इस आयोजन में वरिष्ठ रंगकर्मी मिलिन देशपान्डे, शारद सबल, वरिष्ठ कवि ब्रजेश कानूनगो, सुरेश उपाध्याय, युवा रंगकर्मी राज बेन्द्रे, पल्लवी बेन्द्रे, यामिनि सोनवणे, रत्नेश, चैतन्य, युवा कवि बहादुर पटेल और कई युवा साथी छात्रों ने सक्रिय भागीदारी दर्ज की। कार्यक्रम का संचालन कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने किया।
प्रस्तुति - विनय मालवीय
बिजूका लोक मंच, इन्दौर
रविवार की दोपहर का समय एक कार्पोरेट शहर के हिसाब से बेहद उपयुक्त था। वरना शहर की भागादौड़ी में रविवार की शाम ऎसी फ़िल्म देखने में कौन तबाह करे…जो देश में कभी प्रदर्शित ही नहीं हुई।१२ बजे के पूर्व ही कुछ दर्शाकगण आना शुरू हो चुके थे, सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी सिवाय एक तैयारी के और वो था लैपटॉप से प्रोजेक्टर को कनेक्ट करना (सबसे महत्वपूर्ण तैयारी)चूँकि यह कार्य पूर्व में हम लोग कर चुके थे इसलिए चिंता किसे थी। लेकिन कहते हैं न समय सब पर भारी होता है, आपके अनुभवों पर भी, और वही हुआ कनेक्टिविटी का इतना प्रोब्लम आया की बड़े-बड़े तकनिकी विशेषज्ञ बैठे के बैठे ही रह गए। फिर कुछ १५-२० मिनिट की माथापच्ची के बाद गाडी पटरी पर आई, और मुझे कार्यक्रम प्रारंभ करने का मौका मिला। मैंने सभी का अभिनन्दन किया और थोड़ी जानकारी फ़िल्म के बारे में भी दी, तत्पश्चात ही फ़िल्म का मधुर संगीत प्रारंभ हुआ और फ़िल्म शुरू हो गई।
फिर तो जो समां बंधा कि फ़िल्म के समाप्त होने तक न किसी का मोबाइल बजा और न किसी को खाँसी आयी। एक बेहतरीन कलात्मक प्रस्तुति कि यही पहचान होती है कि वह सुनने-देखने वाले को मोहित कर लेती है। "द स्टोनिंग ऑफ सोराया एम्." ने यह बात सिद्ध कर दी, फिल्म में एक फिल्म के हिसाब से सब कुछ था अच्छी कहानी, अच्छा निर्देशन, केमरा, इमोशन….आदि.. इत्यादि ।
कहानी में दिखाया गया की किस तरह से १९८८ में सोराया मानुचेहरी नमक एक ३४ वर्षीय शादीशुदा महिला को उसका पति साजिश के तहत संगसार करवाता है| संगसार याने की सामूहिक रूप से पत्थर मार-मार कर मृत्युदंड देने की सजा। यह सजा आज भी प्रचलन में है। इसे शादीशुदा होने पर भी किसी गैर मर्द से शारीरिक सम्बन्ध बनाने पर दंड के रूप में दिया जाता है। यह सजा मर्द और औरत के लिए सामान है। यह सजा और भी कई गुनाहों के लिए दी जाती है। ऎसी सज़ा अलग-अलग जाति, सम्प्रदाय या धर्म में अलग-अलग कुप्रथा या नियम-कायदों से दी जाती है।
फ़िल्म के कुछ अंतिम क्षणों में दर्शकों के मुंह से अफ़सोस भरी तथा दुःख भरी आवाजें भी आई, अंतिम दृश्यों में वीभत्स क्रूरता दिखाई गई है जिसमे सोराया को पत्थरों से मार दिया जाता है। हालाँकि सत्य की यहाँ भी जीत होती है - वो कैसे..? इसके लिए आप फिल्म देखकर ही जाने यह हमारी मंशा है।
फ़िल्म के पश्चात कहानी तथा इस्लामी क़ानून ‘जिसके तहत फ़िल्म में सोराया एम को सज़ा सुनायी गयी थी’ के बारे में चर्चा भी हुई। चर्चा में किसने क्या कहा… संक्षिप्त में प्रस्तुत है:-
कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने चर्चा की शुरुआत की, उन्होंने कहा- हमारा समाज स्त्री की तुलना में पुरुष ज्यादा ताक़तवर है। उसका घर और घर की आर्थिक व्यवस्था पर एकाधिकार है। सहज ही स्त्री को उसके अधीन माना लिया जाता है, जो कि ग़लत है। क़ानूनी रूप से समाज में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार है.. लेकिन पुरुष हमेशा अपनी मनमानी करता है.. और स्त्री के अधिकारों की.. उसकी भावनाओं की उपेक्षा करता है… जबकि किसी भी घर की गृहस्थी को चलाने में उस घर की स्त्री ही पुरुष से ज्यादा काम करती है। यह फ़िल्म के स्त्री दुष्चरित्रता को केन्द्र में रखकर बनायी गयी है। फ़िल्म में दुष्चरित्र तो सोराया का पति, महापौर और मौलाना भी है.. लेकिन उनकी दुष्चरित्रा की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है। बल्कि वे ही अनैतिक लोग सोराया के ख़िलाफ़ साजिश रचते हैं और उसे संगसार जैसी अमानवीय सज़ा भोगने के लिए बाध्य करते हैं। ऎसी सज़ा सिर्फ़ मुस्लिमों में दी जाती है.. ऎसा नहीं है। सीता को भी दुष्चरित्रता के आरोप के कारण ही अग्निपरिक्षा से गुज़रना पड़ा था। नाथ सम्प्रदाय में जिस स्त्री पर दुष्चरित्रता का लगाया जाता है.. उसके हथैलियों पर गर्म कुल्हाड़ी रखी जाती है.. इस कुप्रथा को कुल्हाड़ी ईमान कहा जाता है। बाँछड़ा जाति की महिला जिसका की पैसा ही देह व्यापार है.. उस पर कुछ अलग परिस्थियों में ऎसे आरोप लगते हैं और उसे खोलते तेल में हाथ डुबाकर अपने ईमान की जाँच कराना होती है। और भी कई तरीके हैं.. क़त्ल की ख़बरे तो आये दिन हम पड़ते ही रहते हैं…। सवाल यह है कि ऎसी सज़ा किसी भी जाति,सम्प्रदाय, धर्म या क़ानून में होना चाहिए…? क्या यह अमानवीय नहिं है..? ऎसी घटना ईरान, पाकीस्तान, भारत या धरती के किसी भी हिस्से पर घटे…पर क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है…?
चर्चा के आगे बढ़ते हुए डॉ. फ़हीम अंसार ने सजा के बारे में रोचक तथा महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी। आपने व्याभिचार के उर्दू शब्द ज़िना से हमारा परिचय करवाया। आपने ज़िना को असामाजिक तथा अनैतिक बताया - आज के समाज की गति अतिभयावहतापूर्वक एक अश्लील समाज की और दौड़ती बताई, आपने आज के नवयुवकों तथा उनकी मानसिकता पर सवाल उठाए, तथा अभिविन्यास को लेकर भी बात की - आपके अनुसार समलैंगिक संबंध भी ठीक नहीं।
सजा के बारे में आपने जानकारी देते हुए कहा की - यह सजा औरत के इकरार पर ही निर्भर करती है अगर वह कहे कि मुझ पर इलज़ामात झूठे हैं तो उस स्थिति में उसके शौहर को ५ कसमे खानी होती है, और फिर उसे संगसार भी नहीं किया जाता। आगे उन्होंने कहा कि खुदा की चाह थी की समाज के लोगों को इस सजा में शामिल किया जाए ताकि इससे सबको इबरत (नसीहत) मिले और आगे से ऐसा गुनाह न हो। फिर आपने सब से बलात्कार के संबंध में प्रश्न किया की "क्या आप आपकी बहु-बेटियों के साथ ऐसा चाहेंगे चूँकि मर्दों के लिए भी क़ानून सामान है।
आपने फ़िल्म में दिखाए क़ानून को अमेरिका की साज़िश बताया जिससे दुनियाभर में मुस्लिम धर्म बदनाम होगा तथा फ़िल्मी क़ानून को झूठा भी ठहराया। आपने कहा फ़िल्म में सिर्फ दो गवाहों को गवाही देते दिखाया गया है जिनके आधार पर सोराया को सजा दी गई लेकिन असल में चार गवाहों की गवाही लगती है।
प्रो. इरफ़ान अज़ीज़ ने डॉ. फ़हीम अंसारी की बातों का समर्थन किया तथा फ़िल्म के विषय पर सवाल उठाते हुए कहा की - क्या आप ईरान तथा अमरीका के बीच की तनातनी नहीं जानते?" ऐसा इसलिए कहा गया चूँकि फ़िल्म हॉलीवुड की थी। आपने सभ्य समाज का पक्ष धरते हुए जंगली दुनिया बनाने देने से बचने का आग्रह किया।
कॉ.चुन्नीलाल वाधवानी ने ऎसे क़ानून को जहालत के वक़्त का क़ानून बताया। आपने पैगम्बर मोहम्मद को इंकलाबी माना। आपने सिंध प्रान्त में भी ऐसी ही सजा का ज़िक्र किया जिसे कारीकारो कहा जाता है। आपने मंसूर (शहीद-ए-आज़म) का भी ज़िक्र किया जन्हें संगसार किया गया था। उनके दोस्त ने उन्हें फल मारा था जिसे उन्होंने लोगों के पत्थर मारने से भी बुरा बताया था। आपने सरमत शहीद का भी ज़िक्र किया जिसे औरंगजेब ने क़त्ल करवाया था, उसपर तीन इलज़ाम लगाये गए थे:
१. एक तो की वो कलमा पूरा नहीं पढता था, अधुरा पढ़ा करता था- जिससे यह अर्थ प्रकट होता था कि ख़ुदा नहीं है।
२. सरमत का मानना था कि पैगम्बर खुदा से आसमान में मिलने नहीं गए थे.. बल्कि आसमान से खुदा पैगमबर के जेहन में उतरे थे…।
३. तथा सरमत नंगा घूमता था जो इस्लाम के खिलाफ था।
अपने कहा कि आज वैज्ञानिक तौर पर विकसित पीढ़ी के अनुसार इंसान को अपना अपना नजरिया रखना चाहिए, ईश्वर जैसी कोई सत्ता नहीं है.. अगर है तो आज के हिसाब से तो ईश्वर को भी अपने आपको प्रमाणित करना होगा। आगे आपने कहा की जब कोई महापुरुष, संत, महात्मा पैदा होते हैं.. तो लोग उन्हें ईश्वर मान लेते हैं.. लेकिन असल में ईश्वर नहीं होते हैं.. हम-आप जैसे हाड़-माँस के इंसान ही होते हैं।
कवि आनंद पचौरी ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं धर्म में अपनी समझ के अनुसार गौण मानता हूँ। उन्होंने धर्म की परिभाषा तथा उसके उदाहरण देते हुए कहा कि "धर्म वह जो निरंतर रूप से व्याप्त है - जैसे सूरज का उगना तथा अस्त होना, हवाओं का चलना, नदियों का बहना, पक्षियों का चहचहाना आदि। इसके अलावा जिसे हम धर्म कहते हैं वह सम्प्रदायवाद है।"
औरतों की स्थिति के बारे में आपने कहा कि हमारे समाज कई जगहों पर औरतों को ख़रीदा ओर बेचे जाता है। उन्होंने एक लड़की के १६ बार बेचे जाने के बारे में ज़िक्र किया, जिसे सत्रहवी बार उसके भाई के द्वारा ही बेची जानी थी।
उन्होंने कहा कि औरत की इस हालत के ज़िम्मेदार भी हम मर्द ही हैं। आपने कट्टरवाद के बारे में भी बात कही तथा भारतीय लोगों को सबसे अधर्मी बताया।
गिरीश भिलवारे:- युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए आपने कहा की - धर्म मतलब जीवन जीने का सही तरीका है। आपने फ़िल्म में दिखाए गए भीड़ तंत्र को सरासर गलत बताया तथा कहा की भीड़ का विवेक नहीं होता है।
जय पंजवानी ने कहा कि सड़ी मान्यताओं का आदर नहीं करना चाहिए। इंसान को इंसानियत तथा सत्य की राह पर चलना चाहिए।
अंत में प्रसिद्ध कहानीकार और चित्रकार प्रभु जोशी कहा कि शीत युद्ध के दौरान रशिया की बदनाम करने के लिए अमेरीका की तरफ़ से ऎसी कई फ़िल्में बनायी गयी.. जिसमें रशिया की छवि ख़राब दिखायी जाती थी। इस फ़िल्म को भी ऎसी किसी साजिश के तहत बनायी गयी हो ऎसा हो सकता है। लेकिन हर बार ऎसा हो यह ज़रूरी नहीं है। उन्होंने सेम्युअल हटिंगटन तथा जॉन परकिन्स्की की किताबों का भी उल्लेख किया जिनमें ईसा तथा मूसा के बीच की लड़ाई दिखाई गयी है। उन्होंने कहा कि सारे क़ानून धर्म की देन है। इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई ईश्वर, काल तथा मृत्यु से ही होती है। उन्होंने प्रश्न उठाया की पहले तत्व या पहले चेतना होनी चाहिए। आपने कट्टरवाद हर धर्म में बताया, आपने मार्क्सवाद, डायलेक्टिकल डबलिंग, नेनो तकनीक, विज्ञान तथा कई सारे ऐसे विषयों से फ़िल्म को जोड़ा। उन्होंने विवेकवादी तथा भाववादी चरित्र के बारे में भी बताया कि - पढ़े लिखे व्यक्ति का विवेकवादी मस्तिष्क कार्य करता है तथा कम पढ़े लिखे या अनपढ़ व्यक्ति का भाववादी मस्तिष्क कार्य करता है।
अंत में उन्होंने कहा कि फ़िल्म कलात्मक प्रस्तुति होती है और उसे देखने-समझने के कई तरीक़े होते हैं। फ़िल्म को समझने में जल्दबाजी नहीं करना चाहिए। फ़िल्म देखना-दिखाना अपने आप में एक अच्छी पहल है और इसे जारी रहना चाहिए।
इस आयोजन में वरिष्ठ रंगकर्मी मिलिन देशपान्डे, शारद सबल, वरिष्ठ कवि ब्रजेश कानूनगो, सुरेश उपाध्याय, युवा रंगकर्मी राज बेन्द्रे, पल्लवी बेन्द्रे, यामिनि सोनवणे, रत्नेश, चैतन्य, युवा कवि बहादुर पटेल और कई युवा साथी छात्रों ने सक्रिय भागीदारी दर्ज की। कार्यक्रम का संचालन कहानीकार सत्यनारायण पटेल ने किया।
प्रस्तुति - विनय मालवीय
बिजूका लोक मंच, इन्दौर
सदस्यता लें
संदेश (Atom)