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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 सितंबर, 2017


असगर वजाहत की कहानी:

नया  विज्ञान

असग़र वजाहत

लोग उसे घेरे खड़े थे।वह बड़ा उत्तेजित लग रहा था।शब्द उसके मुंह से गोलियों की तरह निकल रहे थे। उसके समर्थक उसके कुछ बोलने से पहले ही तालियां बजाकर दिल बढ़ा रहे थे वह लगातार बोल रहा था। किसी को सोचने या कुछ पूछने तक का मौका नहीं दे रहा था। उसके शब्द लोगों पर असर कर रहे थे और लोग उसके प्रशंसकों और समर्थकों ने शामिल हो रहे थे।
वह कह रहा था कि देखो हमने इतिहास बदल डाला ।हमने शासकों के नाम, घटनाओं का घटनाक्रम बदल दिया। हार को जीत बना दिया, अच्छे को बुरा बना दिया और बुरे को अच्छा कर दिया। काले को सफेद कर दिया और स्त्री को पुरुष बना दिया और पुरुष को स्त्री बना दिया ।

देखो हमने क्या कर दिया। हमने 1000 साल के इतिहास को बदल दिया। हमने किताबें बदल दी। किताबों के लिखने वालों को बदल दिया है।  हमने  एक दिन में  सैकड़ों इतिहासकार  पैदा कर दिए हैं जो सच्चा और पक्का इतिहास लिख रहे हैं। किताबों में  जो पहले लिखा था वह गलत था । अब जो हमने लिखा है वह सही है । अब वही पढ़ाया जाएगा। हमने इतिहास बदल दिया।

तालियों की गड़गड़ाहट के बाद उसकी जय जयकार होने लगी लोग खुशी से पागल हो गए उसने कहा कि हमारा इतिहास वास्तव में बड़ा गंदा इतिहास था। अच्छा किया जो उसे बदल दिया। इससे बड़ी देश की सेवा क्या हो सकती है।

फिर उसने कहा इतिहास को ही नहीं हमने भूगोल को भी बदल दिया है। हमने देश की सीमाओं को बदल दिया है ।तुम जहां तक समझते हो वहां तक देश नहीं है। देश की सीमाएं दूर दूर तक फैल गई है ।वह सब जो पहले विदेश  कहा जाता था वह विदेश नहीं, अब  देश का भाग हैं। भूगोल बदल दिया है। नदियों को पवित्र कर दिया है। पर्वत और जंगल जो कट गए थे उनको लगा दिया गया है।

इतिहास और भूगोल बदल दिया है ।

फिर उसने कहा अब हम विज्ञान बदलने जा रहे हैं ।वैज्ञानिक अब तक बड़ा झूठ बोलते रहे हैं। पश्चिम के वैज्ञानिकों ने हमारे विज्ञान को ठीक से नहीं समझा है ।और अब हम सिद्ध करने जा रहे हैं कि पश्चिम का विज्ञान गलत है । हमारे देश में आज से 10000 साल पहले सुपरसोनिक जेट से अधिक तेज चलने वाले वायुयान थे। यूरोप आज प्लास्टिक सर्जरी पर गर्व करता है पर हमारे देश में यह सर्जरी 10000 साल पहले हुआ  करती थी ।हमारे देश में 10000 साल पहले वह सब कुछ था जो आज भी आधुनिक से आधुनिक देश के पास नहीं है ।हमारे महापुरुषों का एक-एक वाण  सौ- सौ एटम बम के बराबर हुआ करता था ।हम यह बात सिद्ध करने जा रहे हैं। सबसे पहले हम यह सिद्ध करेंगे की पश्चिम के वैज्ञानिक बड़े झूठे और बेईमान थे। हमारे ही देश से हमारे वैज्ञानिक आचार्यों के फार्मूले चुराकर अपने देश ले गए और वहां उसको प्रचारित कर दिया। हम लोग प्रचार नहीं कर सके इसलिए हमारी बात  पहुंच नहीं सकी।

उसने कहा, सिद्ध कर दूंगा कि न्यूटन ने जो कुछ लिखा है सब झूठ है। वैसे न्यू न्यूटन पक्का चरित्रहीन था । एक वेश्या के साथ उसके अनैतिक संबंध थे  और अपनी पत्नी को लेकर  भाग गया था।  उसको मोहल्ले के लोगों ने पकड़ कर पीटा भी था।  लड़कियों को छेड़ने में  उसका कोई जवाब न था। गैलेलियो अपने एक टेलिस्कोप पर गर्व करता था  और हमारे यहां बिना टेलिस्कोप के दूर-दूर तक देखने वाले पैदा हुए हैं। आइंस्टाइन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी फ्राड है। वह बड़ा अज्ञानी था। असली खोजों से पता चला है कि वह तो भारत  में झुमरी तल्लइया के एक छोटे से कॉलेज में होम साइंस पढ़ाया करता था और यूरोप जाकर उसने थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी की घोषणा कर डाली। डार्विन तो बिल्कुल मूर्ख था। स्कूल में हमेशा फेल हो जाता था। उसके अध्यापक  उससे बहुत दुखी रहा करते थे । किसी को आशा तक न थी  कि वह हाईस्कूल पास कर सकेगा। उसके पिताजी की परचून की दुकान थी और माता धोबिन का काम करती थी ।उसके दादा कसाई थे और परदादा गाड़ीवान थे ।यह सब नयी खोजों से पता चला है।

तो मितरों आइए हम न्यूटन को, जिस  पर  पूरा यूरोप  गर्व करता है,को गलत सिद्ध करते हैं।
न्यूटन कहते हैं कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है। मतलब यह कि पृथ्वी में शक्ति है ।हम कहते हैं कि आकाश में शक्ति है।  न्यूटन कहते हैं किसी चीज को ऊपर  फेंको तो वह पृथ्वी की ओर आएगी, नीचे गिर जाएगी। हम कहते हैं कि किसी चीज को ऊपर फ़ेकों तो आकाश में चली जाएगी। देवलोक में चली जाएगी। देवलोक में बड़ी शक्ति है। हम आज यही सिद्ध करेंगे। हम अपने शिष्यों से कहते हैं कि वह एक भारी पत्थर ले आए। भारी पत्थर को हम ऊपर फेकेंगे और वह आकाश में चला जाएगा।

उनके सौ शिष्य एक बड़ा भारी पत्थर लाए ।उसने अकेले  पत्थर को उठा लिया। तालियां बजने लगीं। लोग उसकी जय जयकार करने लगे। उसने पत्थर को दोनों हाथों से उठाकर आकाश की ओर फेंका और पत्थर ऊपर जाने लगा। तालियों की गड़गड़ाहट और बढ़ गई। जय जय कार के नारे लगने लगे। हर्षोल्लास छा गया। जरा देर में बहुत भव्य मंच लग गया। फूलों से सज गया। बैनर पोस्टर से लग गए। लाउडस्पीकर आ गए। अपार जनता आ गई और भाषण शुरू हो गए। देश प्रेम के भाषण। देश की उपलब्धियां । देश का गौरवशाली अतीत। देश का विज्ञान। देश का बदला हुआ इतिहास ।देश का बदला हुआ भूगोल । आगे और आगे और आगे बढ़ता हुआ देश।

अचानक देखा गया की आकाश में उछाला गया पत्थर बहुत तेजी से नीचे आ रहा है। उसका आकार भी बहुत बढ़ गया है। जैसे-जैसे वह नीचे आ रहा है वैसे वैसे उसका आकार बढ़ता जाता है। लोगों ने इधर-उधर भागने की कोशिश की । मंच से नेता कूदे। भागो ,बचाओ-बचाओ की बहुत सी आवाज़ें आने लगीं है लेकिन ऊपर से गिरने वाला पत्थर इतना बड़ा और इतना भारी हो गया था कि पूरा मंच और जय जयकार करने वाले सभी लोग और दर्शक उसके नीचे आ गए हैं।
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27 सितंबर, 2017

अफ़ज़ल अहसन रंधावा की कहानी

आज एक 'खोयी हुई खुशबू’ कहानी पढ़ते हैं। क्या हम मानवीय जीवन की गंध जो बदबू में बदल गई है, उसे फिर से पाने का प्रयास कर सकते हैं?

यदि हां तो इस कहानी के साथ कोशिश कीजिए।


कहानी:

खोयी हुई खुशबू

अफ़जल अहसन रंधावा


मैं कौन-सी कहानी लिखूं?
जब भी मैं कहानी लिखने की सोचता हूं कितनी ही कहानियाँ मुझे चारों ओर से घेर लेती हैं। किसी कहानी के हाथ कड़ी मेहनत से खुरदरे हो गये हैं, किसी कहानी के बाल मिट्टी में मिट्टी हो गये है...किसी कहानी के सिर पर चुनरी नहीं...किसी कहानी का मक्खन-सा बदन जहांज की सटैफिंग से छलनी हो गया है...किसी कहानी के सुन्दर चेहरे पर बारूद की सड़ांध और खून के धब्बे हैं...किसी कहानी की बाजू कट गयी है...किसी की टाँग नहीं...किसी की आँखें निकल गयी हैं...किसी का मांस नेपाम बम की आग से झुलस गया है।

    चारों तरफ देखता हूं .मेरी कोई भी कहानी मुकम्मिल नहीं है। किसी का भी हुस्न कायम नहीं रहा है...किसी के वस्त्र भी पूरा शरीर ढकने में समर्थ नहीं...सभी बदसूरती के गहरे साये में ढकी हुई हैं...पर बदसूरती भी तो हुस्न है। और शायर, और अदीब, अंजल से हुस्न बाँटता और हुस्न की प्रशंसा करता आया है। तो मैं क्यों बदसूरती को हुस्न की झूठी चादर में लपेटकर लोगों को दिखाता रहूं . चादर उतारकर क्यों नहीं दिखाता? परन्तु इसकी भी क्या ंजरूरत हैं? मेरी सभी कहानियों का जन्म मिट्टी से हुआ है। और इनके पैर भी मिट्टी पर ही हैं। इनकी बदसूरती में भी मिट्टी की पीड़ा है और यही पीड़ा इन्हें बदसूरत बना देती है। पर अब मैं बदसूरत शब्द नहीं लिखूंगा। क्योंकि मिट्टी का जंख्म... मिट्टी का दु:ख...मिट्टी का स्पर्श कभी भी बदसूरत नहीं, बल्कि खूबसूरत है। मिट्टी इनसान के जन्म के पूर्व भी ऐसी ही थी, बल्कि इनसान ने मिट्टी को जंख्म...दु:ख...दर्द और बदसूरती दी है...इनसान की सूरत देखे बिना मिट्टी  ने उसे सदा आसरा दिया है...और देती रहेगी। इनसान, मिट्टी और आसरा।

    पर इनसान से मिट्टी का आसरा छीननेवाला कौन है?

मुझसे मेरी पगड़ी और मेरे जूते किसने छीने जो मैं अपनी फसल बेचकर लाया था? फसल, जिसे मैंने अपना पसीना बहाकर, मिट्टी में मिलाकर, मिट्टी से पैदा की थी। किसी मशीन ने निचोड़ लिया मेरे अन्दर से सारा खून जिसके बल पर मैं अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट भरने के मन्सूबे बांधे हुए था। मेरा पेट खाली क्यों है और अपना सारा खून मशीन को दे देने के बाद भी मेरे बच्चे भूखे क्यों हैं? मेरी मिट्टी पर लकीरें किसने खींच दीं और क्यों? जमीला के सौन्दर्य को अल्जीरिया के किन कारनामों ने विकृत कर दिया? वियतनाम के हरे-भरे जंगलों और छोटे-छोटे मकानों को किसने राख का ढेर बना दिया? सहारा रेगिस्तान में क्यों और किसने खून बहाकर रेत को बदरंग कर दिया? गोरों ने नंफरत से कालों को गुड़ का भाई समझ क्यों गुड़ में ही फेंक दिया? इनसान यदि जन्म से आजाद है तो फिर इसे गुलाम बनाने के लिए विज्ञान ने इतने आविष्कार क्यों किये हैं? मिट्टी यदि मुकद्दस है तो फिर उसके सीने को रोंज जंख्मी करके खून बहाकर, उसका शरीर क्यों छलनी किया जाता है? रब यदि आसरा है, तो फिर इनसान से उसका आसरा क्यों छीना जाता है? रब, मिट्टी, इनसान और आसरा यदि एक चौकोर है तो वह कौन-सा हाथ है जो इन लकीरों को पोंछकर इनको मिटाने की कोशिश करता है? नाजी आक्सफोर्ड के लहजे में अंग्रेजी बोलती है और मेरे मुंह से पंजाबी बोली सुनकर मेरी ओर मोटी शर्बती आंखों से सवालिया अन्दांज से देखती है :

रब वरगा आसरा तेरा,

वसदा रहु मितरा

    तो उसे क्या जवाब दूं? कहता हूं रब के पास तो और बहुत-से काम हैं, दुनिया बहुत बड़ी हो गयी है। समस्याएं बढ़ गयी हैं। वह खाली नहीं, और आसरा? आसरा किसका और कैसा, जब आसरों की तादाद से उन लोगों की गिनती हंजार गुना ज्यादा है जो आसरा छीन लेते हैं।

    चाचा टहलसिंह ठीक कहा करता था''बेटा! हम सभी ही कहानियां हैं। पर हमें लिखने वाला कोई नहीं।''

    हां चाचा, टहलसिंह! तुम ठीक कहते थे। अभी कल की बात है, जब तुम यहाँ, इस मिट्टी के पुत्र के रूप में, इस मिट्टी से पैदा हुए सोने से मौज करते थे। यह मिट्टी तुम्हें लाड़ले बेटों की तरह प्यार करती थी। हवा से भी तेज दौड़नेवाली तेरी घोड़ियों की धूम पूरे इलांके में थी। तुम्हारे खूबसूरत ढोर लोग दूर-दूर से देखने आते थे। तुम्हारी भैंसों के साथ की भैंसें सारे पंजाब में किसी के पास नहीं थीं। तुम्हारे दालान, रंगीन चारपाइयाँ और पेटियाँ, रंग-बिरंगी फुलकारियों और रजाइयों-खेसों से भरी हुई थीं। तुम्हारे द्वार से कोई भी जरूरतमन्द खाली नहीं जाता था। एक बडे सरदार होकर भी तुम अपने नौकरों को बेटों के समान रखते थे। गाँव की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियाँ समझते थे। हरेक की पीड़ा में तुम साझीदार थे।

    भैणी साहब वाले गुरुद्वारे वाले वट वृक्ष के नीचे संगत के साथ बैठे थे। तुम्हारी हवेली में सैकड़ों मेहमानों के लिए भोजन बन रहा था। बेसमझ लड़के छुप-छुपकर बोलियां बोल रहे थे :

कनकाँ खान दे मारे

आ गये नामधारिये।

    सारे गाँव में मेला लगा हुआ था। हम छोटे-छोटे बच्चे गुरु के दर्शनों के लिए गये थे। और भी बहुत-से लोग दूर-दूर से गुरु के दर्शनों के लिए आये हुए थे। तुमने मुझे और पालसिंह को पकड़कर गुरुजी के आगे खड़ा कर दिया था।

    ''ये मेरे बेटे हैं,'' तुमने कहा था। पाल का सिर नंगा था और उसने छोटा-सा जूड़ा कसकर बाँधा हुआ था। गुरुजी ने पहले उसके सिर पर हाथ फेरा और तुम्हारी तरफ सवालिया नंजरों से देखा था जैसे पूछ रहे होंयह दूसरा मुसलमान लड़का कौन है? और तुमने कहा था''मेरे भाई का बेटा है।''

    और गुरुजी ने हंसकर दोनों हाथों से मेरे सिर पर प्यार दिया था और आशीष दी थी।

    फिर चाचा, तेरी सुन्दर घोड़ी ने, जो तुमने उस जमाने में महाराजा कपूर थला से दस हंजार में ली थी, उसने बड़ी उम्मीदों और सधरों के बाद एक बच्छी को जन्म दिया था। उस बच्छी में तुम्हारी जान थी। मुझे, बहुत समय बाद पता चला कि वह बच्छी बहुमूल्य थी। उस समय बच्छी लगभग छ: महीने की थी जब मैं खेलता-खेलता तुम्हारे घर गया था। सोने के दिलवाली चाची ने मुझे दोनों बांहों में कसकर प्यार किया था और मेरे सिर पर हाथ फेरा था। माथा चूमा था और गोदी में बैठा लिया था। एक रोटी की चूरी बनाकर, शक्कर डाल कर मुझे खिलाने लगी थी। इतने समय में पाल आ गया था और हम दोनों खेलते-खेलते हवेली में आ गये थे। भाई रतन सिंह उस समय हवेली में था। उसकी बन्दरी आदमियों की तरह बेलने में गन्ने डाल रही थी। भाई सोड डालकर उबल रहे रस से मैल उतार रहा था। (मुझे अभी तक याद है भाई का गुड़ सारे गाँव में सबसे संफेद और सांफ होता था।) निक्कू ईसाई धौंकनी से हवा दे रहा था। धौंकनी के धुएँ और गुड़ से निकलने वाली भाप में भाई छिपा-सा प्रतीत होता था। परन्तु उसने पाल को और मुझे देख लिया।

    ''रस पी।

    ''गुड़ खा।

    ''गन्ने चूस ले।

    ''बैठ जा...ओ लड़के! वीर की चारपाई जरा धूप में बिछा दे।''

    भाई रतनसिंह ने एक साथ कितने ही हुक्म दे दिये मुझे। पर मेरा ध्यान उस बच्छी की तरफ चला गया। मैं और पाल बच्छी के पास जाकर उसे देखने लगे। बच्छी बहुत ही सुन्दर तस्वीर-सी लग रही थी। पता नहीं कहाँ से टहलसिंह आ गया और पता नहीं किस मूर्खपने में मैं उसकी गोद में चढ़ गया। मैंने बच्छी पर बैठने की जिद की। सात वर्षों के बच्चे में समझ ही कितनी होती है! पर चाचा, तुमने मुझे एक बार भी मना नहीं किया, न ही समझाया और उस मासूम और बहुमूल्य बच्छी को पकड़कर, लगाम को गांठें देकर, छोटी कर उसे लगाम दे दी। जो आदमी जहाँ था, हैरानगी से बुत बना रह गया। भाई पके हुए गुड़ को छोड़ खड़ा हो गया। हर आदमी, चाचा तुम्हारी तरफ देख रहा था। एक बच्चे के मूर्खपने के साथ तुम भी बच्चे बन गये थे पर तुम्हारे कामों में दंखल देने की हिम्मत और साहस किसी में नहीं था। फिर तुमने कन्धे की चादर उतार, उछल रही, नाच रही, घबरायी हुई तथा परेशान और साथ ही निढाल हुई बच्छी को डाल दी और फिर उस मासूम, नमे और सुन्दर पीठ पर काठी डाल दी और काठी को कस दिया। आज सोचता हूं कि छ: महीने की दूध पीती कोमल बच्छी की जान के लिए इतना ही दुख और सदमा काफी था। पर चाचा, फिर तुमने मुझे उसपर बैठाकर उसे आगे से पकड़कर हवेली के दो चक्कर लगवाये और बच्छी दुख और सदमे से निढाल होकर गिरकर मर गयी। महाराजा कपूरथला की लाडली घोड़ी की सुन्दर बच्छी, जिसे तुमने कितनी सधरों और उम्मीदों से पाया था! पर तुम्हारे माथे पर एक भी शिकन नहीं पड़ी थी, किसी ने भी उंफ तक नहीं की थी, सिवाय मेरे अब्बा के जब उन्होंने सुना तो वे मुझे और तुम्हें दोनों को गुस्सा हुए थे। पर तुम सिर्फ हंस दिये थे।

    चाचा! आज मैं बालिग हूं। स्याना हूं . पत्थर की तरह ठोकरें खाकर गोल हो गया हूं। दुनिया का सर्द-गर्म भी देखा है और आधी दुनिया के शहर भी देखे हैं और उनके वासियों को भी देखा है। उन्हें परखने और समझने की कोशिश भी की है। आज वे बातें, सपनों की बातें लगती हैं, खोये हुए सपने। कितना बद-किस्मत होता है वह आदमी, जिसके सपने खो जाते हैं। आज सोचता हूं चाचा तुम तो मेरे पिता के मुंहबोले भाई थे। तुमने उसके साथ पगड़ी बदली थी। तुम, उसके सगे भाई तो नहीं थे। पर जितना प्यार तुमने मुझे दिया, उतना प्यार तो मेरे किसी सगे चाचा ने भी नहीं दिया। कहते हैं खून का रिश्ता बहुत पुराना है, पर फिर भी तुम मुझे सगों से भी ज्यादा प्यारे थे। मैं तुम्हें, तुम्हारे पाल से भी अधिक प्यारा, अधिक लाडला और अधिक करीब क्यों था?

    फिर ऐसी आंधी चली जो इनसान को बेधकर और जमीन को सुनसान बना कर चली गयी। रावी और वसन्तर बढ़कर भयानक हो गयीं और लहरें गुस्से में मुंह से झाग उगलती बाहर आ गयीं। चारों तरफ उमड़ता हुआ पानी था। तुमने भरी-पूरी हवेली और भरे हुए घर से, बस दो-चार वस्तुएं लीं, फिर मेरे चाचे, ताये और अब्बा उस गाड़ी को बर्छियों, छवियों और बन्दूकों के पहरे में लेकर चल दिये थे। गाड़ी पर चाची, पाल, बहन, तुम और रत्तो थे और आपके आस-पास आपकी हिंफांजत के लिए हम विस्मित से पुल तक गये थे। आप भी निढाल हो गये थे और आपको छोड़ने जाने वाले भी। रास्ते में लूटमार, कत्ल, हमले आदि का डर। और पुल पर पहुँचकर जब मेरे पिता और आपने एक-दूसरे को बांहों में भरा तो दोनों बिलख-बिलखकर रोने लगे। आपको डेरे से, पुल से गुंजरते और बार-बार मुड़कर पीछे देखते देखकर मेरे पिता कैसे बच्चों की तरह तड़प-तड़पकर रोये थे! आप आगे बढ़कर भीड़ में खो गये थे पर हम शाम तक क्यों पुल पर खड़े रोते रहे थे? और आंखिर आपको खोकर, अपने और आपके उजड़े घरों में वापस लौट आये थे। उस समय मैं आठ साल का था और अब अड़तीस साल का हूं। मैंने कठिन-से-कठिन समय में भी अपने पिता को रोते नहीं देखा था, सिवाय उस दिन के। अब तो बस तुम्हारे नाम पर उनकी आंखें बुझ जाती हैं।

    और आज मुकेरियां के किसी गाँव में शरणार्थी टहलसिंह पता नहीं कितना खुश है? और अब पता नहीं पालसिंह मेरी तरह आधे धौले बाल वाले सिर में अपनी रौशन बादामी आँखों में कोई ख्वाब रखता है या नहीं?

    चाचा टहलसिंह कहा करता था''हम सभी कहानियाँ हैं पर हमें लिखने वाला कोई नहीं।''

    चाचा देख लो, मुझे तुम्हारी कहानी याद है और मैं किसी दिन इसे लिखूंगा भी। आज तो मेरे चारों तरफ कहानियाँ घेरा डालकर खड़ी हैं, चारों तरफ कयामत वाला शोर है।

    मेरी कहानियाँ लहूलुहान हैं। उनके सिर नंगे हैं, बाल बिखरे हुए और बदन जंख्मी हैं। मेरे हाथों में टूटा हुआ कलम है और टूटा हुआ पात्र है, जिसमें मैं अपनी कहानियों के लिए खुशियां लेने घर से निकला था। मेरी आँखों में आँसू हैं। मैं अपना रास्ता भी नहीं देख सकता। मेरा हाल भी मेरी कहानियों जैसा ही है। और मैं सोचता हूं मैं कैसे कहानी लिखूं?

अनुवाद - गुरचरण सिंह




मार्क्स और आज का समय

एरिक हॉब्सबाम


अभी हाल ही में बीबीसी द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार बी.बी.सी. के कार्यक्रम के श्रोताओं ने कार्ल मार्क्स को महानतम दार्शनिक बताया है। इस बात की सच्चाई को ले कर सवाल उठाए जा सकते हैं लेकिन अगर गूगल के सर्च कालम में मार्क्स का नाम टाइप करके बटन दबाएँ तो आपको मालूम हो जाएगा कि डार्विन और आइन्स्टीन के साथ मार्क्स ही महानतम बुद्धिजीवी के रूप में सामने आएँगे। एडम स्मिथ (पश्चिमी दुनिया के आधुनिक अर्थशास्त्रियों के आदि पूर्वज) और फ्रायड उनसे मीलों पीछे हैं।

मेरे विचार से इसके पीछे दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद सैद्धांतिक स्तर पर मार्क्स सोवियत संघ के उस सरकारी मार्क्सवाद से मुक्त हो गए जिसे लेनिनवाद से जोड़ कर ही हमेशा देखा जाता था। इसी तरह वे राज्य - व्यावहारिक स्तर पर जहाँ मार्क्सवाद के नाम पर लेनिनवादी अथवा इसी तरह की राज्य-व्यवस्थाएँ बनी थीं, उनसे भी मार्क्स मुक्त हो गए। यह साफ जाहिर हो गया कि दुनिया के बारे में मार्क्स ने जो कुछ कहा-सोचा था उसमें से अभी तक काफी कुछ ऐसा बचा हुआ है जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है और काम का है। दूसरा कारण भी बहुत महत्वपूर्ण है। 1990 के दशक में जो भूमण्डलीकृत पूँजीवादी दुनिया उभर कर सामने आई वह बड़े अजीब तरीके से उसी दुनिया की तरह थी जिसका पूर्वानुमान अथवा पूर्वाभास मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणपत्र में किया था। सार्वजनिक रूप से इसका खुलासा तब हुआ जब इस नन्ही-मुन्नी किताब की डेढ़ सौंवी जयंती मनाई जा रही थी अर्थात 1998 में और, संयोग कह लीजिए, यह वही साल था जब भूमण्डलीय अर्थ-व्यवस्था में एक नाटकीय उछाल आया था। विरोधाभास यह था कि इस बार समाजवादियों के बजाय पूँजीवादियों ने मार्क्स का पुनराविष्कार किया क्येांकि समाजवादी इतने हताश और मायूस थे कि उन्होंने अवसर के अनुरूप समारोह भी नहीं मनाया। मुझे आज भी याद करके अचंभा होता है जब मेरे पास संयुक्त राज्य अमेरिका की एक इन-फ्लाइट पत्रिका (ऐसी पत्रिका जो हवाई यात्रा करनेवाले मुसाफिरों के लिए ही होती है) ने मुझसे मार्क्सवाद पर एक लेख लिखने का अनुरोध किया। इस पत्रिका के अस्सी फीसदी पाठक बड़ी-बड़ी कम्पनियों के एग्जीक्यूटिव होते हैं। वास्तव में इस पत्रिका के संपादक ने कहीं मेरा एक छोटा सा लेख घोषणापत्र पर पढ़ा था और उसने सोचा कि पत्रिका के पाठकों को इसमें रुचि हो सकती है। वह नया लेख नहीं चाहता था बल्कि उसी लेख को अपनी पत्रिका में फिर से छापने के लिए मेरी मंजूरी चाहता था। इससे भी अधिक अचंभा मुझे तब हुआ जब नई शताब्दी की शुरुआत में जॉर्ज सोरोस ने मार्क्स के बारे में मेरी राय जानना चाहा। यह जानते हुए कि हमारे विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है, मैंने सोरोस को कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर बाद सोरोस ने ही कहा, ''उस आदमी ने (मार्क्स ने) डेढ़ सौ साल पहले ही उस पूँजीवाद को देख लिया था जिस पर आज हमें गंभीरता से सोचना चाहिए।'' और सोरोस ने स्वंय मार्क्स को गंभीरता से पढ़ना और उन पर सोचना शुरू किया। उस समय जो लेखक कम्युनिज्म और मार्क्स के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ लिया करते थे उन्होंने भी बाद में अपना रवैया बदल दिया। और इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण नाम है याक अताली का जिन्होंने मार्क्स के जीवन और लेखन पर लिखना शुरू कर दिया। अताली यह भी सोचते हैं कि हम में से वे लोग जो दुनिया का अलग किस्म का और बेहतर रूप देखना चाहते हैं उनसे कहने के लिए मार्क्स के पास बहुत कुछ है। इस हिसाब से भी मार्क्स की ओर लौटने की इच्छा का स्वागत किया जाना चाहिए।

अक्टूबर 2008 में जब लंदन के फाइनेन्सियल टाइम्स में ''पूँजीवाद की मृत्युपीड़ा'' जैसी हेडलाइन छपी तब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया कि मार्क्स सार्वजनिक बौद्धिक परिदृश्य पर वापस आ गए हैं। एक ओर जिस तरह भूमंण्डलीय पूँजीवाद 1930 के दशक के बाद सबसे बड़ी उठा-पटक और संकट से गुजर रहा है उससे यह सिद्ध होता है कि मार्क्स मंच पर बने रहेंगे, दूसरी ओर, नई सदी के मार्क्स पिछली सदी के मार्क्स से निश्चित ही अलग दिखेंगे।

पिछली सदी में लोग मार्क्स के बारे में जो सोच रहे थे उस पर तीन बातों का असर बहुत ज्यादा था। पहला था दुनिया का दो प्रकार के देशों में विभाजन - वे देश जहाँ क्रान्ति उनकी कार्य-सूची में था और वे देश जहाँ ऐसा नहीं था अर्थात उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागर क्षेत्र के विकसित पूँजीवादी देश और शेष विश्व के देश। इसी तथ्य से जुड़ा और इसका अनुवर्ती दूसरा तथ्य है - मार्क्स की विरासत स्वाभाविक रूप से जनतांत्रिक और सुधारवादी विरासत और रूसी क्रांति से अत्यधिक प्रभावित क्रान्तिकारी विरासत में विभाजित हो गई। 1917 के पश्चात् तीसरे कारण के चलते यह और अधिक स्पष्ट हो गया : 19वीं सदी के पूँजीवादी और बुर्जुआ समाज का, जिसे मैंने महाविपत्ति का युग कहा है उसमें पर्यवसान जो 1914 और 1940 के बीच के वर्षों में घटित हुआ। संकट इतना जोरदार था कि तमाम लोग यह संदेह करने लगे कि क्या पूँजीवाद इससे कभी भी उभर पाएगा। क्या यह समाजवादी अर्थव्यवस्था के सामने पराजित हो जाएगा जैसा कि मार्क्सवाद से बहुत दूर रहनेवाले जोसेफ शुम्पीटर 1940 में सोच रहे थे? पूँजीवाद फिर उठ खड़ा हुआ लेकिन अपने पुराने रूप को बचा नहीं पाया। इसी समय विकल्प के रूप में सामने आई समाजवादी अर्थव्यवस्था उस समय अभेद्य लग रही थी। 1929 और 1940 के बीच समाजवादी राजनीति को अस्वीकार करनेवाले गैर-समाजवादी लोगों के लिए भी यह विश्वास करना असंगत नहीं लग रहा था कि पूँजीवाद अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है और सोवियत संघ यह सिद्ध करने में लगा था कि वह पूँजीवाद को इतिहास में ढकेलने में सफल हो जाएगा। स्पुतनिक उपग्रह के वर्ष में इस विश्वास में काफी दम लग रहा था। लेकिन 1960 के बाद इस विश्वास का खोखलापन धीरे-धीरे लोगों के सामने जाहिर होने लगा।

ये घटनाएँ और नीति तथा सिद्धांत के क्षेत्र में इनका प्रभाव मार्क्स और एंगिल्स की मृत्यु के बाद की कथा का अंश है। मार्क्स के अपने अनुभवों और आकलनों की सीमा से ये बाहर हैं। बीसवीं सदी के मार्क्सवाद का हमारा आकलन स्वंय मार्क्स के चिंतन पर आधारित न हो कर उनके लेखन के उनके मृत्यु-उपरांत की गई व्याख्याओं और संशोधनों पर आधारित है। अधिक से अधिक हम यह दावा कर सकते हैं कि 1890 के अंतिम वर्षों में, अर्थात मार्क्सवाद के पहले बौद्धिक संकट के दौरान, मार्क्सवादियों की पहली पीढ़ी के वे लोग जो मार्क्स और उनसे भी अधिक एंगिल्स के व्यक्तिगत सम्पर्क में आए थे, संशोधनवाद, साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद जैसे बीसवीं शताब्दी में सामने आनेवाले मुद्दों पर बहस प्रारंभ कर चुके थे। मार्क्सवाद से संबंधित बहस का अधिकांश भाग बीसवीं सदी से जुड़ा हुआ है, खासकर समाजवादी अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप को ले कर चलनेवाली बहस जो मुख्य रूप से पहले विश्व युद्ध की अर्थव्यवस्था और युद्धोत्तर वर्षों की अर्ध-क्रांतिकारी अथवा क्रांतिकारी संकटों की उपज थी। इस बहस के रेशे मार्क्स में मौजूद नहीं हैं।
०००
अनुवाद - रामकीर्ति शुक्ल

26 सितंबर, 2017

मार्क्स और आज का समय

एरिक हॉब्सबाम

भाग एक


सन 2007 में, मार्क्स की मृत्जयु 14 मार्च से भी लगभग दो सप्ताह पहले, एक यहूदी पुस्तक सप्ताह का आयेाजन किया गया था। आयोजन-स्थल उस स्थान से अर्थात ब्रिटिश म्यूजियम के राउण्ड टेबिल रूम से चंद कदमों पर ही था जिसके साथ मार्क्स का नाम अभिन्न रूप से आज भी जुड़ा हुआ है और जो उनका चहेता स्थान था। आयेाजन में दो बिल्कुल ही अलग किस्म के समाजवादियों को अर्थात मुझे और याक अताली को मार्क्स को श्रद्धांजलि देने के लिए खास तौर से बुलाया गया था। लेकिन अगर आयोजन की तारीख और स्थल पर आप विचार करें तो दोनों ही बहुत चौंकानेवाले थे। कोई यह नहीं कह सकता कि 1883 में मार्क्स की मृत्यु एक असफल और हताश व्यक्ति की मृत्यु थी क्योंकि उनका लेखन जर्मन और खासकर रूसी बुद्धिजीवियों पर अपना रंग पहले ही जमाना शुरू कर चुका था और मार्क्स के प्रशंसक और समर्थक जर्मनी के मजदूर आन्दोलन का नेतृत्व सम्हालने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन 1883 में मार्क्स के लेखन और विचारों को ले कर सुगबुगाहट अपेक्षकृत काफी कम थी। उन्होंने कुछ बहुत ही प्रखर और मुखर पैम्फलेटों का लेखन कर लिया था और 'पूँजी' का खाका भी तैयार कर लिया था। यह सारा कुछ मार्क्स के जीवन काल के अंतिम दशक तक हो चुका था। और जब उनसे मिलने गए एक व्यक्ति ने उनकी पुस्तकों के बारे में पूछा तो उनका सीधा सा जवाब था, 'कौन-सी पुस्तकें?' 1848 की असफल क्रान्ति के बाद 1864-73 का तथाकथित प्रथम इण्टरनेशनल भी बहुत कुछ उपलब्ध नहीं कर पाया था। उनकी आधी जिदंगी ब्रिटेन में बीती थी लेकिन वहाँ की राजनीति और बौद्धिक परंपरा में वे तब तक अपने लिए कोई खास स्थान नहीं बना पाए थे।
इस सबको देखते हुए उनकी मृत्यु-उपरांत सफलता और ख्याति चकित करती है। उनकी मृत्यु के बीस-पच्चीस वर्षों के भीतर यूरोप के मजदूर वर्गों के हिमायती राजनैतिक दल, जो या तो उनके नाम पर जन्मे थे अथवा जो उनका नाम लिए बिना उनके विचारों से प्रभावित थे, जनतांत्रिक प्रणालीवाले देशों में - ब्रिटेन अपवाद था - चुनावों में 15 से 47 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो चुके थे। 1918 आते-आते ये दल, जो अभी तक विपक्ष में रहते आए थे, या तो अपने आप सत्ता हथियाने में कामयाब हो चुके थे अथवा सत्ता पक्ष के प्रमुख घटक बन गए थे। फासीवाद के उदय और समाप्ति तक उनकी यह स्थिति बनी रही हालाँकि इनमें से तमाम दल अपनी प्रारंभिक प्रेरणा का नाम लेने से बचने का भी प्रयास करने लगे थे। ये सारे दल आज भी मौजूद हैं। इस बीच मार्क्स से प्रेरणा ग्रहण करनेवाले लोगों ने उन देशों में भी मार्क्स की विचारधारा के आधार पर बनाए गए दलों और समूहों की स्थापना कर ली है जहाँ जनतांत्रिक शासन प्रणालियाँ नहीं थीं / हैं और साथ ही तीसरी दुनिया के देशों में भी उनका विस्तार और प्रचार हुआ है। मार्क्स की मृत्यु के सत्तर वर्ष बाद दुनिया की एक तिहाई आबादी कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकारोंवाले देशों में रह रही थी। इन सरकारों का घोषित उद्देश्य था मार्क्स के विचारों को व्यावहारिक स्तर पर साकार करना, उनकी जनोन्मुखी आकांक्षाओं को मूर्त रूप देना। कम्युनिस्ट समर्थित सरकारों और दलों की संख्या घटी है, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन दुनिया की लगभग बीस फीसदी आबादी अभी भी मार्क्स-प्रेरित व्यवस्थाओं में रह रही है। बावजूद इसके कि इन व्यवस्थाओं के कर्त्ता-धर्ता और संचालक अपनी नीतियों में मार्क्सवाद से अथवा मार्क्स के विचारों से काफी दूर चलते जा रहे हैं। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि बीसवीं सदी पर अगर किसी एक चिंतक की कभी न मिटनेवाली छाप पड़ी है तो उसका नाम है कार्ल मार्क्स। इग्लैंण्ड में हाईगेट कब्रगाह में हर्बर्ट स्पेंसर और कार्ल मार्क्स एक दूसरे से थोड़ी ही दूरी पर दफनाए हुए हैं। जब दोनों जीवित थे तब हर्बर्ट स्पेंसर को अपने युग का अरस्तू होने का सम्मान प्राप्त था और कार्ल मार्क्स, उन्हें तो बस लोग एक ऐसे मामूली आदमी के रूप में जानते थे जो हैम्पस्टेड के निचले इलाके में एक छोटे से मकान में रहते थे और अपने एक दोस्त की मेहरबानी से अपना खर्चा-पानी चलाते थे। और आज हर्बर्ट स्पेंसर को शायद ही कोई जानता हो जबकि जापान अथवा भारत से आनेवाले उम्रदराज सैलानी मार्क्स की कब्र पर जाए बिना अपनी यात्रा पूरी नहीं मानते और ईरान तथा इराक के निर्वासित कम्युनिस्टों की दिली ख्वाहिश यही होती है कि मरने के बाद उन्हें भी मार्क्स के आस-पास ही दफनाया जाय।
संयुक्त समाजवादी सोवियत गणतंत्र के भहराने के बाद कम्युनिस्ट सरकारों और कम्युनिस्ट राजनैतिक दलों के युग का अंत हो गया लगता है। जहाँ वे आज अस्तित्व में हैं भी जैसे चीन और भारत, में, वहाँ उन्होंने लेनिनवादी-मार्क्सवादी विचारधारा की पुरानी परियोजना को लगभग छोड़ चुके हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद कार्ल मार्क्स एक बार फिर 'नो मैन्स लैण्ड' में चले गए। कम्युनिज्म अपने को उनका एक मात्र असली वारिस होने का दावा करता था और मार्क्स के विचारों को मुख्यतः इसी कम्युनिज्म के साथ जोड़ा जाता था। 1956 में जब खुश्चेव ने स्तालिन की निन्दा करते हुए सार्वजनिक तौर पर उनसे अपने को अलग किया तो मार्क्स और लेनिन से असहमति व्यक्त करनेवाली प्रवृत्तियों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन इन प्रवृत्तियों को संचालित करने और हवा देनेवाले लोगों में सर्वाधिक ऐसे ही लोग थे जो कभी मार्क्स अथवा लेनिन के नाम की कसमें खाया करते थे अर्थात वे सबके सब भूतपूर्व कम्युनिस्ट थे। इस तरह अपनी मृत्यु की शतवार्षिकी के बाद पहले बीस वर्षों के दौरान उन्हें बीते हुए कल का आदमी माना जाने लगा था जिसकी वर्तमान दुनिया में कोई संगत भूमिका नहीं रह गई थी। जिस आयोजन का उल्लेख मैंने लेख के आरंभ में किया है उसकी चर्चा करते हुए एक पत्रकार ने लिखा कि आयोजकों का उद्देश्य, शायद, इतिहास की रद्दी की टोकरी से मार्क्स को बाहर लाना था। इसके बावजूद मुझे विश्वास है कि मार्क्स इक्कीसवीं सदी के चिंतक हैं।
०००

अनुवाद - रामकीर्ति शुक्ल


विनय सौरभ की कविताएं
__________________



विनय सौरभ


बचपन की कोई ब्लैक एण्ड ह्वाईट तस्वीर

अब तो उस मकान की स्मृति भर है
जिसके आगे मेरी वह तस्वीर है

एक घोड़ा बँधा दिखता है थोड़ी दूर में
और मेरा बड़ा भाई बैलगाड़ी के पीछे
कैमरे से छुपने की कोशिश में लजाता हुआ

आह, वह दृश्य !
मफ़लर और फूल वाले स्वेटर में
बुआ का हाथ थामे मैं अपने पुराने खपड़ैल वाले
घर के चबूतरे पर
और मेमने अपनी माँ के स्तन पर थूथन अपनी मारते हुए !

कितनी विह्वलता भरी है उस तस्वीर में !
कितना जीवन रस !

अब तो वह मकान भी नहीं रहा,और टोले में वह घोड़ा किसका था ?

सब कहते हैं -
तब तो हर घर में गायें भी होती थीं !

क्या आपके पास बचपन की कोई ब्लैक एण्ड वाइट तस्वीर है,
जिसके खेंचे जाने की याद ज़ेहन में नहीं के बराबर है ?

क्या उस फोटूग्राफ़र के बारे में यकीन से कुछ बता सकते हैं, जो शहर से गाँव फोटू
खेंचने के लिए ही आता था ?
०००


हाट की बात
______

हाट जाना मुझे मेरे पिता ने सिखाया

एकदम बचपन की बात बताता हूँ
वे रविवार की सुबह मुझे अपने साथ
कर लेते थे
मै झोला अपनी नन्हीं मुट्ठियों में भींचे
उनकी उँगली थामे होता था

मैंने उनके साथ कई शहर बदले
पर हाट जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा

अच्छे किस्म के आलू और दूसरी सब्जियों  की पहचान मैंने एकदम छोटी उम्र में  कर ली थी
क्या आपको पता है, बैगन हल्के अच्छे  होते हैं ?
मछलियों के फेफड़े से उनके ताज़ेपन की पहचान होती है ?

सोलह बरस पहले,
जिस दिन आख़िरी साँस ली पिता ने
वह रविवार का दिन था और मैं  अपने गाँव की हाट गया था

तीस बत्तीस का हो गया हूँ
हफ़्ते की हाट जाना मुझे आज भी अच्छा लगता है
हरी सब्जियों से भरे खोमचे मुझे जीवन में  देखे गये सुन्दर दृश्यों में  से लगते हैं

पिंजरों में प्यारे  कबूतर सिर निकालकर देखते हैं हाट आए लोगों को
बिक जाने के बाद उनका क्या होगा, थोड़े ही जानते हैं

अजीबोगरीब शक्ल के पगड़ी वाले जो अपने को परदेशी बताते हैं
बेचते हैं  कई किस्मों के तेल और जड़ी बूटियाँ
मौक़ा ताड़कर लोगों को रातों की हताशा और बेचारगी का निदान सुझाते हैं

कहते हैं -
सांडे का तेल लगाओ, सब ठीक हो जावेगा
बीवी खुश हो जावेगी

बच्चों  की आमद देख कर कहते हैं -
बाबू साब, तुम्हारी  उमर नहीं हुई ये सब सुनने की, चल खिसक ले

                      °°°


एक कवि का अंतर्द्वंद्व
_____

वह बहुत उदास-सी शाम थी
जब मैं उस स्त्री से मिला

मैंने कहा - मैं तुमसे प्रेम करता हूं
फिर सोचा - यह कहना कितना नाकाफ़ी है

वह स्त्री एक वृक्ष में बदल गई
फिर पहाड़ में
फिर नदी में
धरती तो वह पहले से थी ही

मैं उस स्त्री का बदलना देखता रहा !

ए‍क साथ इतनी चीज़ों से,
प्रेम कर पाना कितना कठिन है
कितना मुश्किल,
एक कवि का जीवन जीना

वह प्रेम करना चाहता है एक साथ कई चीज़ों से
और चीज़ें हैं कि बदल जाती हैं
प्रत्येक क्षण में !
०००

अगर मैं परदेश में मरा
(1997)
 ___

(पहल पुस्तिका में नाज़िम हिक़मत की एक कविता मेरा ज़नाज़ा से प्रेरित)

मुझे यक़ीन है
किसी रोज गहरी आकस्मिकता के साथ यह देह छूट जाएगी

दिन जब ऊपर को आ चुका होगा
पड़ोसियों को बहुत देर के बाद
मिलेंगे संकेत

तब तक बच्चे स्कूल
और कामगार अपने काम को जा चुके होंगे, घरेलू स्त्रियाँ रसोई की खटपट में जुटी होंगी

रोशनदान से कोई फुर्तीला आदमी भीतर आएगा और खोलेगा सामने का दरवाज़ा

अगर मैं परदेश में मरा तो
निश्चित ही थोड़ी दिक्कत आ सकती है

पड़ोसी मेरे स्थायी पते के लिए परेशान होंगे, वे शहर में मेरे किसी भी परिचय का हर संभव चिह्न ढूँढेंगे

मुरदे को बहुत देर तक
यूँ ही नहीं छोड़ा जा सकता !
वे एक परदेशी के वास्ते जरूरी औपचारिकता और अपना धर्म निभायेंगे ही

बच्चों में मृतकों को लेकर थोड़ा कौतुहल होता ही है
वे मेरी शवयात्रा को औचक नज़रों से देखेंगे, जिसमें यक़ीनन गिनती के लोग होंगे !

वह एक कवि की शवयात्रा नहीं होगी !!

यह स्वीकार कर लेने में क्या हर्ज है कि उस शवयात्रा में एक मुरदे को शमशान तक पहुँचाने की हड़बड़ी में सभी लोग भरे होंगे !

हालाँकि-

मृत्यु के बारे में कुछ निश्चित नहीं है
और आत्मा के बारे में ठीक -ठीक कुछ भी कहना कठिन जैसा है

आत्मा अगर है तो-
वह मेरी शवयात्रा को जाता हुआ देखेगी
अगर वह हँसती है तो-
आशंका है कि वह मृत्यु के बाद की
मेरी नियति पर हँसेगी !

कहेगी ही-
कि परदेश में भी मरे
और अंत तक कविता के कोई मित्र नहीं  बना सके !
 •••


परिचय
विनय सौरभ: 22 जुलाई 1972 को  संथाल परगना के एक गाँव *नोनीहाट* में जन्म।

  टी एन बी कालेज, भागलपुर  से स्नातक और भारतीय जन संचार संस्थान, नयी दिल्ली से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा‌

देश की शीर्ष पत्र पत्रिकाओं में तीन सौ के करीब कविताओं और लेखों का प्रकाशन।

संपर्क:
मोबाइल: 7274078832
9431944937

24 सितंबर, 2017


नीलेश रघुवंशी की कविताएं

गंज बासौदा (म.प्र.) जन्मी नीलेश रघुवंशी 1997 में अपने पहले कविता संग्रह-घर निकासी,  से काव्य यात्रा शुरू की तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में, कवि ने कहा, खिड़की खुलने के बाद जैसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह तक आ पहुंची।
नीलेश रघुवंशी

नीलेश रघुवंशी की रचनात्मक यात्रा सिर्फ़ कविताओं के ही नए-नए सोपान से गुज़र रही है, बल्कि उनका उपन्यास-एक कस्बे के नोट, भी खासा चर्चित रहा है। नीलेश ने अनेक नाट्य लेखन लिखें है । कविता संग्रह, उपन्यास और नाट्य लेख पर उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार से नवाजा जा रहा है। यहां हम बिजूका के पाठकों के लिए उनके नए कविता संग्रह - खिड़की खुलने के बाद, से कुछ कविताएं साझा कर रहे हैं। आशा है कि बिजूका के पाठकों को इन्हें पढ़कर अच्छा लगेगा।



ग्यारह कविताएँ

चक्र 


 1.... भूख का चक्र

सबके हिस्से मजदूरी भी नहीं अब
षरीर में ताकत नहीं तो मजदूरी कैसे

छोटे नोट और सिक्के हैं चलन से बाहर

पाँच सौ के नोट पर छपी
पोपले मुँह वाली तस्वीर भी
कई दिन से भूखी है
वो भी शिकार है तंत्र के चक्र में भूख की ।  

2....फैशन का चक्र

फैशन आजकल में
क्या छोडूँ और क्या तो पहनूँ
मैचिंग बीते जमाने की बात है
अब जमाना है कंट्रास्ट का
डिफरेंट मिक्स एंड मैच
लेकिन
लाल के साथ नीला बिल्कुल नहीं
रेड का फोबिया खत्म हो चुका है अब
आजादी के मायने की बात न करना
ये गुलामी बड़ी मोहक है ।

एकदम घुप्प अंधेरे में चलता है चाक
न कुम्हार दिखता है न दिखता है आकार
घूम-घूमकर लौटता है फैशन
फसल कोई बोता है
काटता है कोई और
यही है फैशन का चक्र  ।


3....झूठ का चक्र

एक झूठ बोला
बचते-बचाते दो-चार झूठ और बोले
एक नहीं, सौ नहीं, हज़ारों-हज़ार झूठ बोले
आखिर में लड़खड़ाती जुबान में
थक हारकर सच बोला ।

सच र्धेर्य नहीं खोता
झूठ की मृत्यु की प्रतीक्षा भी नहीं करता
झूठ करता है वो सब कुछ
जिसे करने की सच सोचता भी नहीं
तर्क में नहीं
कुतर्क में घुटता है दम झूठ का  ।

4....मौसम का चक्र

थोड़ा-थोड़ा सब कुछ लेने के फेर में
नहीं मिलता कुछ भी
मौसम बदलता है तो बदलती है सोच
अपने चरम पर पहुँचता
हर चार माह में बदलता
मौसम भी बनाता है हमें निकम्मा ।

5.....प्यार का चक्र

उछालती जब उसे बाँहों में
दिल काँपता था मेरा
उसकी दूध की उल्टी से
सूखता था मेरे भीतर का पानी
एक वृक्ष की तरह
उसकी जड़ें मेरे भीतर तक फैलती चली गईं ।

सोचती
जब अठारह का हो जाएगा
छोड़ दूँगी घने जंगल में
बर्फीले पहाड़ों के ऊपर होगा उसका मचान
अन्तहीन आकाश में उड़ते देख
पीठ फेर लूँगी ।

बदलती दुनिया, जोखि़म, रोमांच से प्यार
बड़ी लम्बी उछाल है उसकी
जाने क्या होता है अब मेरे भीतर
फड़फड़ाती हूँ उसे उड़ते देख
अपने हाथों को ढाल बना
उड़ना चाहती हूँ उसके संग ।

प्यार का ये चक्र
घूमकर आ ठहरता है उसी जगह
जहाँ...मैं सोचती हूँ
बस एक बरस और ।


6....हँसने का चक्र

हँसने हँसाने का दूसरा नाम है जीवन
लेकिन जाने कब कैसे और क्यों
हँसना छोड़ दिया हमने
हँसी को छोड़ दौड़ के पीछे लग गए
धीरे-धीरे हँसी सेल्समेन, सेल्सगर्ल्स और
क्रेडिट कार्ड बेचने वालों की हो गई
हँसी को शिष्टाचार के संग रोजगार बनाया उन्होंने
ठगे जाने के भय से न हँसे न मुस्कुराए
रो भी न सके हम ।

हँसना जरूरी है निरोगी काया के लिए
हँसी क्लब में प्रवेश के लिए मोटी फीस भरी
हँसने के नाम पर
कैसी डरावनी आवाजें निकालने लगे हम
हमेषा बुरा माना जाता है बिना वजह दाँत दिखाना
नदी किनारे मिलती है सच्ची हँसी
नदियों को हमने जाने कब का बेच दिया
हँसने का कोई चक्र नहीं
बिकने की कोई उम्र नहीं ।

7.....रोने का चक्र

तुमने जन्म लिया तो रोए
भूख लगी तो रोए
मन की कोई चीज न मिली तो रोए
अपनों से बिछुड़ने पर रोए, खूब रोए
खुशी में फूट-फूटकर नहीं रोए कभी
आँखें गीलीं हुईं और तुमने कहा
ये आँसू खुशी के आँसू हैं ।
फिर
तुमसे कहा गया
बात-बात पर रोना अच्छी बात नहीं
रोने से नहीं मिलता कुछ भी
तुमने
अपने भीतर आँसूओं का कुआँ बना लिया
जो मारे ठंडक के जम गया
बहुत दिन से नहीं रोए सोचकर
अचानक तुम रोए खूब रोए
जीवन में रोने से नफरत करना भी

एक रोना है ।   


8....सोचने का चक्र

जब
महानगरों को देखा
चकाचौंध में उनकी घिग्गी बँध गई मेरी
भाषा ने साथ छोड़ दिया
खुद की भाषा को छोड़
लपलपाने लगी दूसरे की भाषा में
स्वचालित सीढ़ियों से डरते
पानी को बिकते, खुद को फिकते देख
अपनी जगह लौट आई
लौटकर
गाँवों, नगरों को महानगर में बसाने का सोचने लगी
नगर, उपनगर, गाँव, देहात, कस्बे महानगर
चकाचौंध, धिग्गी, लपलपाहट, सनसनाहट
नींद ने मेरा साथ छोड़ दिया
नींद को बुलाने के लिए
एक से हज़ार तक गिनती गिनने लगी
गिनते हुए गिनती के बारे में सोचने लगी ।

9....यात्रा का चक्र

बंजर जिंदगी को पीछे छोड़ देना
बारिश को छूना चाँद बादलों से यारी
नंगे पाँव घास पर चलकर ओस से भीग जाना
खाना-बदोष और बंजारों के छोड़े गए घरों को देखना
खुद को तलाशना उन जैसा हो जाना
न होने पर ईर्ष्या का उपजना
प्राचीन इमारतों के पीछे भागना
स्थापत्य मूर्तियों को निहारना
एक पल में कई बरस का जीवन जी लेना
ट्रेन का छूट जाना जेब का कट जाना
किसी के छूटे सामान को देखकर
बम आर.डी.एक्स. की आषंका से सिहर जाना
घर पहुँचना और पहुँचकर घर को गले लगा लेना
यात्रा का पहला नाम डर, दूसरा फकीरी  ।

बहुत दिनों से जाना चाहती हूँ यात्रा पर
लेकिन जा नहीं पा रही हूँ
एक हरे भरे मैदान में
तेज, बहुत तेज गोल चक्कर काट रही हूँ
यात्रा के चक्र को पूरा करते
खुद को अधूरा छोड़ रही हूँ ।

10....नींद और स्वप्न का चक्र

नींद के गुण दोष
स्वप्न के गुण दोष हैं
अनिद्रा की षिकार नहीं
फिर भी
नींद नहीं मेरे पास ।
कहती है नींद
खुद के लिए जियो
स्वप्न कहते हैं
औरों के लिए जियो ।
न जागती हूँ न रोती हूँ
नींद से भरी
स्वप्न की पगडंडी पर चलती हूँ ।

11...जीवन का चक्र

जीवन क्या है
कभी हँसना कभी रोना
कभी मिलना कभी बिछड़ना
कभी सुख की कामना करना
कभी दुख को परे धकेलना
कभी दुनिया पर तंज कसना
कभी मोह माया को गले लगाना
कभी नंगे पाँव
इस भवसागर से कूच कर जाना ।

जीवन की शुरुआत तुमसे
अंत भी तुमसे
बीच में मध्यांतर
मध्यांतर में एक नहीं, कई मोड़
किसी एक मोड़ का जिक्र
चक्र को अधबीच में रोक देगा ।

तुमने
एक नहीं, हज़ार इच्छाओं को जन्म दिया
हर इच्छा ने पूरे होने तक
कई बार गिराया, उठाया कई बार तुम्हें
कुछ ने तुम्हें बौना कर अपना कद बढ़ाया
किसी एक को जन्म लेने से पहले
तुमने मार डाला
कौन था वो
जिसे जन्म लेने से पहले तुमने पैनेपन के साथ मारा
रोते हो हर रात उसके संग
कि तुमने उसे जन्म नहीं लेने दिया
बेल की तरह तुमसे लिपटी
तुम्हें तनकर रहना जो सिखाती
उस अजन्मी इच्छा का नाम है
जीवन का चक्र ।

कहने सुनने से जो छूट गया
जो कहा नहीं गया अभी तक
जो रचा नहीं गया अभी तक
हर बार कहने में जो छूटता है
वहीं से शुरूरू होता है जीवन का चक्र ।
०००
06 जनवरी बुधवार से 09 मार्च मंगलवार 2010 भोपाल

23 सितंबर, 2017

सीमा आज़ाद की कविताएं
___________________


स्वतंत्र पत्रकार सीमा आज़ाद सामाजिक राजनैतिक पत्रिका- दस्तक धरे समय की' की सम्पादक है। आप पीयूसीएल उत्तर प्रदेश की संगठन सचिव है। सीमा को माओवादियों से संबंध होने के आरोप लगाया गया और इस वजह ढाई साल जेल में रखा गया।

22 सितंबर, 2017




उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के 26 वर्ष

मनाली बर्मन

आज शासक वर्ग की तरफ से हमें तरह-तरह की कहानियां सुनाई जा रही है। "मन की बातें" "चाय पर चर्चा" आदि आदि। LPG - liberalization, Privatisation & Globalisation, यानी  की उदारीकरण निजीकरण तथा वैश्वीकरण की नीतियों को लागू हुए 26 से भी अधिक हो चुके हैं। ऐसे में यह बेहद जरुरी हो जाता है कि हम भी तथ्य तथा आंकड़ों पर अपनी एक पुख्ता समझ बनाएं। यह जानना बेहद जरूरी है किन 26 सालों के वैश्वीकरण का आर्थिक पक्ष क्या है? राजनीतिक पक्ष क्या है?
    24 जुलाई, 1991; दोपहर का एक बजना चाह रहा था। कांग्रेस की नरसिम्हाराव की सरकार मात्र एक महीना पहले ही जीत कर आई थी। हवा में एक विशेष तरह का माहौल था कि कुछ होने वाला है। आप में से बहुत सारे तो उस समय शायद पैदा भी नहीं हुए थे। ऐसे में एक बजट पेश किया गया। डॉक्टर मनमोहन सिंह, जो कि एक अर्थशास्त्री हैं, उन्होंने तब तक कि अपनी सारी मान्यताओं से अलग एक बजट पेश किया। बजट में इकबाल के गीत गाए गए। (सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा)। उस बजट को देश की अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी बूटी, रामबाण और ना जाने क्या क्या कहा गया। तमाम तरह की लुभावनी चिकनी-चुपड़ी बातें की गईं। उन्होंने अपने बजट के भाषण का अंत ऐसे किया था, " मैं आगे के लंबे सफ़र में आने वाले मुश्किलों,  दुविधाओं तथा परेशानियों को कम कर के नहीं आंकना चाहता। पर मैं यह एलान करता हूं कि अब वह समय आ गया है कि हम दुनिया को बता दें कि हमारा देश एक आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए पूरी तरह तैयार है। हम सारी दुनिया को साफ और खुले शब्दों में बता देना चाहते हैं कि भारत अब जाग चुका है। अब भारत दहाड़ेगा और यह निश्चित है कि वह कामयाब होगा और दुनिया में छा जाएगा!"  ऐसा माहौल बन रहा था कि जैसे किसी डरावनी फिल्म का अंत बस होने ही वाला हो!  पीछे-पीछे संगीत बज रहा हो!
       जबकि 24 जुलाई से पहले अखबारों में यह लगातार बताया जा रहा था कि भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है। अब हम डूबने वाले हैं! साहूकार हमें पकड़ने वाले हैं! हमारा ये हो जाएगा, हमारा वो हो जाएगा, हमारा सत्यानाश हो जाएगा! 4 जुलाई को पी. चिदंबरम ने वित्तीय बजट पेश किया। 18 से 22 जुलाई के बीच भारत ने अपना 47 टन सोना गिरवी रखा। उसके बदले में 20 करोड़ डॉलर लेकर आए। और फिर हुआ मनमोहन का बजट पेश। आज उस घटना को 26 साल से भी अधिक हो गए हैं। इन 26 सालों में क्या नया हुआ? क्या विकास हुआ? कैसा व किसका विकास हुआ? यह हमें समझना है, जानना है ; पर इसकी बात आज देश में कहीं नहीं हो रही।
         
       आइए जरा भावनाओं को थोड़ा रोककर आंकड़ों में बात करते हैं। जरा देखें तो कि हमें बताया क्या जा रहा है और असल में है क्या?

 शासक हमें दो बातों के बारे में बताते हैं :-
 1 जीडीपी
2 ग्रोथ
     जीडीपी का मतलब है - हमारी अर्थव्यवस्था का आकार, यानी कि 1 वर्ष में देश के अंदर कितना उत्पादन हुआ, कितना  निर्यात हुआ, कितनी वस्तुओं का उत्पादन  हुआ, कितनी सेवाओं का उत्पादन हुआ। यानि कि देश के सभी लोगों का खर्च और देश के सभी लोगों की आय
   सन् 1991 में देश का जीडीपी 270 बिलियन डॉलर था। आज 2700 बिलियन डॉलर है। 2700 बिलियन डॉलर का मतलब क्या है। 2700 बिलियन डॉलर आखिर होते कितने हैं? इसका मतलब है कि अगर इस राशि को देश के 130 करोड़ लोगों में बांट दिया जाए तो हरेक के हिस्से में लगभग डेढ़ लाख रुपेया आ जाएंगे। अब औसतन 5 लोगों का एक परिवार मान कर चले तो हर परिवार का हिस्सा लगभग 7-7.5 लाख सालाना हुआ। मेरे ख्याल से इतने में एक परिवार सम्मानजनक व ठीकठाक  ढंग से अपनी गुजर-बसर कर सकता है ।

अब जीडीपी में दस गुणा वृद्धि के हिसाब से देखें तो हमने इन 26 वर्षों में अच्छी तरक्की की है। दूसरी चीज है - ग्रोथ, यानी कि आर्थिक विकास। पहले हमारे ग्रोथ 3% के आसपास हुआ करती थी जो अब 7.8%  तक पहुंच गई है। शेयर बाजार सूचकांक 1000 से बढ़कर 30,000 से भी ज्यादा पर पहुंच गया है। उस समय मैसेज 50 लाख फोन हुआ करते थे, आज 106 करोड़ फोन हैं। यानी कि सब बढ़िया चल रहा है! है कि नहीं?
  उस समय विदेशी मुद्रा भंडार एक बिलियन डॉलर भी नहीं था, आज हमारे पास 380 बिलियन डॉलर की फॉरेन एक्सचेंज है। हम बेहद ताकतवर हो चुके हैं! तो क्या अब यह मान लिया जाए कि अब हम महाशक्ति बन चुके हैं? आइए यह माल लेने से पहले कुछ और आंकड़े देखते हैं।
    सब कुछ अच्छा चल रहा है! उत्सव जारी है! परंतु इस सारी चमक-दमक के बीच में हमारे शासकों को बस एक ही बात चुभ रही है कि कुछ लोग दबे-छुपे या जोर से, चुपके-चुपके या सरे-आम, अलग-थलग या एक साथ, ये बातें कर रहे हैं कि यह सारा विकास गरीबो तक पहुंचा ही नहीं है। अब इस मर्ज की दवा भी वे लोग कर ही लेते अगर उनको पता चल जाता कि ये गरीब कौन हैं। पिछले 7-8 सालों में गरीबी को समझने के लिए अनेकों कमेटियां बनीं :- तेंदुलकर कमेटी, रंगराजन कमेटी, वर्ल्ड बैंक की कमेटी, यूएनडीपी, आदि-आदि! कमेटी पेब कमेटी! कोई कह रहा है कि 10 में से एक गरीब है तो कोई कह रहा है कि 10 में से 8 गरीब हैं। अब 130 करोड़ की आबादी में एक गरीब होने का मतलब है 13 करोड़ गरीब! और 8 गरीब होने का मतलब है कि 130 में से 100 करोड़  लोग गरीब हैं।
      अब सन् 1991 में उन्होंने जो नीति बनाई, उसका प्यार से, पुचकार से LPG - Liberalization,  Privatisation, & Globalisation यानी कि उदारीकरण, निजीकरण, तथा वैश्वीकरण नाम रखा गया।  इसे उन्होंने दवाई की तरह पेश किया, जिसका असर हमें आज देखने को मिल रहा है।
   लेकिन किसी भी देश के विकास को मापने का एक और पैमाना है जिसे मानव विकास सूचकांक ( HDI - Human Development Index) कहते हैं। इसकी अवधारणा एक पाकिस्तानी अर्थशास्त्री महबूब -उल -हक ने दी थी। उन्होंने कहा कि सिर्फ जीडीपी से किसी देश की जनता के सही विकास का पता नहीं चलता। कुछ और पैमाने भी होनी चाहिएं। उन्होंने दो पैमाने जोड़े। पहला था - लोगों का स्वास्थ्य और दूसरा लोगों की शिक्षा।
     आज भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। केवल पांच देश हमारे से ऊपर हैं। परंतु HDI में हमारा स्थान एकदम से 131 वां हो जाता है!  श्रीलंका 70 वें स्थान पर है और चीन 90 वें स्थान पर।  हमें सिर्फ एक बात की खुशी रहती है कि पाकिस्तान हमसे पीछे है ! वह 147 वें पायदान पर है। इस 'सुपरपावर' देश में हर साल जन्म लेने वाले बच्चों में से 20 लाा बच्चे 5 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अकाल मृत्यु के गाल में समा जाते हैं! यानी कि हर 15 सेकंड में एक बच्चा दम तोड़ देता है। हमारे देश में 50% बच्चे कुपोषित हैं (इसका मतलब है कि उनकी उम्र के हिसाब से उनका वजन और कद दोनों कम है)। 75% बच्चों में खून की कमी है। दुनिया में हर साल एक करोड़ लोग TB से ग्रसित होते हैं।  उनमें से 28 लाख लोग अकेले हमारे देश में हर साल चपेट में आते हैं। यह एक ऐसी बीमारी है जो कुपोषण की वजह से फैलती है। अगर बढ़िया खाना और स्वच्छ वातावरण मिले तो यह आसानी से ठीक हो सकती है। यह मात्र एक मर्ज के बारे में जिक्र नहीं है, बल्कि हमारे प्रदूषित वातावरण और पौष्टिकता विहीन व अपर्याप्त खाने के बारे में एक टिप्पणी है।
   दुनिया के सबसे ज्यादा अशिक्षित लोग हमारे देश में हैं। देश की 30% जनता तो निरक्षर है। ये लोग अपना नाम तक लिखना नहीं जानते। मतलब यह है कि अपना नाम तक लिखना भी हमारे देश में 39 करोड़ लोगों को नहीं आता!
  औद्योगिक  क्षेत्र में 80 के दशक में अगर मुनाफे का एक रुपया मालिक की जेब में जाता था तो 2 रुपए 70 पैसे कर्मचारियों (मजदूर व प्रबंधन) के पास जाते थे। कर्मचारियों में बंटने वाली यह राशि अब घटकर सिर्फ 27 पैसे रह गई है।
  पिछले 20 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है। इसमें महिला किसानों और खेतिहर मजदूरों की संख्या शामिल नहीं है। हर साल 50 लाख किसान खेती छोड़कर कुछ और काम करने को मजबूर हो रहे हैं।
  आजादी के बाद, विकास के नाम पर देश में 6.5 करोड लोग विस्थापित हुए हैं। यानी कि सन् 1947 के बाद हर साल 10 लाा लोग बेकार-बेघर-वेदर हुए। विभाजन के समय में भी सिर्फ एक करोड़ लोग विस्थापित हुए थे।

     पिछले 25 सालों में दंगे भी खूब हुए हैं। सन् 2013 में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 6.5 करोड़ लोग टेंपो में गुजर -बसर कर रहे थे। उनमें 40% दलित थे और 40% आदिवासी !
    तस्वीर का दूसरा पहलू यह है किस देश का अमीर तबका पिछले 25 सालों में और अमीर हुआ है। बहुत अधिक अमीर हुआ है। देश की ऊपर की 10% आबादी के पास 80% धन-संपदा है और बाकी की 90% जनता के पास सिर्फ 20% धन-संपदा है। देश के सबसे अमीर 1% लोगों के पास देश की 60% धन-संपदा है। मात्र 57 (सत्तावन) लोगों के पास उतनी संपत्ति है, जितनी देश के नीचे के 70% (91 करोड़)  लोगों के पास है!  खरबपतियों क्लब में तो हम छा ही गए हैं! सन् 1991 में हमारे पास केवल 2 खरबपति थे, और अब पूरी दुनिया के तकरीबन 2000 खरबपतियों में से 101 खरबपति हमारे हैं!

  समाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य

दुनिया के विकसित देश अपनी जीडीपी का 30 से 35% जनता की बुनियादी सुविधाओं पर खर्च करते हैं। हमारा देश मात्र 2.39 प्रतिशत खर्च करता है। आज के दिन हमारा बजट जीडीपी का सिर्फ 10 से 12% तक है। इस साल का बजट तकरीबन 20 लाख करोड रुपए का है। इसमें से एक चौथाई हिस्सा, लगभग 5 लाख करोड़ रुपए सरकार ने ब्याज दे दिया है - पुराने कर्जे का! एक चौथाई रक्षा पर खर्च किया है, लगभग 4.5 लाख करोड रुपए।
  कृषि पर देश की लगभग 50% जनता निर्भर है। सरकार की तरफ से कृषि के लिए न्यूनतम वेतन 328 रुपए प्रतिमाह है!
   देश में 42% बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते! 50% सरकारी स्कूलों में टॉयलेट तक नहीं है। एक चौथाई स्कूलों में पीने का पानी नहीं मिलता है। शिक्षा पर जीडीपी का मात्रा आधा प्रतिशत ही खर्च किया जाता है। उच्च शिक्षा का बजट केवल 33000 करोड़ रुपए का है।  उसमें से भी 12000 करोड़ रुपए आईआईटी और एनआईटी संस्थानों को दे दिए गए हैं, जो केवल 64 है पूरे देश में। दूसरी तरफ, AICTE (ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) को सिर्फ 485 करोड रुपए दिए गए हैं।
 
स्वास्थ्य में जीडीपी का मात्र 0.3 प्रतिशत खर्च किया गया है। उसमें भी ज्यादातर राशि नए-नए AIIMS खोलने में लगा दी है।
   जब भी किसानों या मजदूरों को कोई सब्सिडी दी जाती है या उनके लिए कोई कल्याणकारी योजना बनाई जाती है तो मीडिया तथा उपरी तबकों द्वारा खूब हो-हल्ला मचायाह जाता है। कहा जाता है इनको यह जो खैरात दी जा रही है,  वह पूरे देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा रही है। लेकिन अमीरों को दी जाने वाली सब्सिडी या छूट पर बात ही नहीं की जाती उसे छुपा कर रखा जाता है।
   आओ जरा धन्नासेठों को दी जानेवाली टैक्स रियायतों पर बात करें। बजट में 'रिवेन्यू फॉरगोन ' के नाम से एक कालम होता है, जिसमें वर्ष भर में माफ किए गए कुल राजस्व का विवरण  होता है । याा की 'बड़े दिलवाली' सरकारों ने बेचारे अडाणीयों -अंबानियों, माल्या-मोदियों का कितना टैक्स माफ कर दिया। इस साल का रेवेन्यू फॉरगोन 6.3 लाख करोड़ रुपए है। सन् 2005-6  से लेकर  अब तक धनिकों का 55 लाख करोड़ रुपए का रेवेन्यू माफ किया जा चुका है।
    बैंकों का 6.5 लाख करोड़ का एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट) है। यानी कि बड़े-बड़े लोग बैंकों से उधार लिया गया इतना पैसा वापस नहीं देने वाले। सबसे ज्यादा लोन लेने वाले वाले ऊपर के केवल 400 लोगों के पास 16 लाख करोड़ रुपये का लोन है!
  दोस्तों क्या आपको कभी कभी ऐसा नहीं लगता कि यह एक ही देश की बात हो रही है या फिर दो देशों की! 'हमारी' सरकार 90% जनता के लिए काम करती है या फिर मात्र 10% के लिए।  क्या इन सब आंकड़ों से एक बात पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो जाती कि देश की गरीबी का मसला आर्थिक नहीं, बल्कि पूरे तौर पर राजनीतिक है?


- मनाली बर्मन (IIT कानपुर)


प्रदीप सिंह की कविताएं


युवा कवि प्रदीप सिंह सुन्दर नगर हिसार में रहते हैं। आप 100 प्रतिशत शारिरिक विकलांगता के चलते स्कूली पढ़ाई नहीं कर सके।
मगर कविताएं लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि रखते हैं।  आपका एक कविता संग्रह- थकान से आगे , प्रकाशित है। तमाम  पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है।


घर

कुछ बेतरतीब
थोड़ा करीने से सजा
अटा पड़ा कहीं
कहीं खाली पड़ा
गमलों की हरियाली पर हर्षाता
सीलन के धब्बों को मुंह चिढाता
कभी भक्ति में लीन
कभी पार्टियों में डिस्को थीम
कहीं सो रहा
तो
कहीं खेल रहा होता है
इन्ही
सब बातों से
एक घर, घर होता है...
..................


मैं 

मैं
सिर्फ और सिर्फ
मैं
सारी जिंदगी
बस
मैं ही मैं

मेरे लिए
इस मैं से बड़ी
सजा और क्या होगी!
.........................


छोटी चीज़ें

एक
छोटी-सी चिंगारी
कर
सकती है
शहर में आगजनी

एक
गाली भी
घोल
सकती है
शहर की
फ़िज़ां मे कड़वाहट

मोहल्ले का
छोटा-सा झगड़ा
लगवा
सकता है
शहर में कर्फ्यू

छोटी चीज़ें
अपने भीतर
अक्सर
बड़ी संभावनाएं लिए पैदा होती हैं...
०००



संपर्क: 286, Sunder Nagar Near New grain Market Hisar- 125001 (Haryana)
मोबाइल+919468142391
ई-मेल- singhpardeep916@gmail.com

21 सितंबर, 2017


संजीव कौशल की कविताएं


संजीव कौशल का पहला कविता संग्रह ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित।
हंस, वर्तमान साहित्य, नया पथ, अनभै साँचा, मंतव्य, लोकविमर्श, लोकमत, उम्मीद, वरिमा, यथास्तिथि से टकराते हुए, दैनिक भास्कर आदि में कविताएं, लेख, समीक्षाएं प्रकाशित। विश्व साहित्य से शुनतारो तानिकावा, कार्लोस ड्रुमंड दी आंद्रादे, एड़म जगेएवस्की, चाल्र्स वकोस्की की कविताओं के अनुवाद ’उम्मीद’ में प्रकाशित। बीसवीं शताब्दी के प्रमुख पोलिश कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुिदत संग्रह शीघ्र प्रकाश्यहिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद। मुक्तिबोध की ’एक साहित्यिक की डायरी’ के अंग्रेजी में अनुवाद के साथ ही हिंदी के समकालीन कवियों की कविताओं का अनुवाद भी कर रहे हैं।
यहां संजीव कौशल की चंद कविताएं प्रस्तुत है ।



1. चूल्हे


आग के घर हैं चूल्हे

जहाँ घरेलू बनती है आग

चूल्हे जहाँ भी होते हैं

घरों में तब्दील हो जाती हैं वे जगहें

दीवारों के बगैर

कि घरों की नींव होते हैं चूल्हे

जिनके कंधों पर जन्म लेता है समाज


दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं

जहाँ चूल्हे न हों

कि इंसानों के पहले दोस्त हैं वे

भूख से बंधे हुए

जहाँ जहाँ जाते हैं लोग

चूल्हे जाते हैं वहाँ

ख़ानाबदोश आँखों में

फूलती रोटियों के ख्वाब संभाले हुए


सरहदों के उस तरफ

सुबह शाम जब उठता है धुआँ

रोटी की खुश्बूू  में खोया हुआ

घर उतर आता है सैनिक की आँखों में

मीलों दूर माँ की हथेलियाँ

बेलती हैं मक्का की चँदियां

हर पल उठती हूँक को दबाए

प्यार के चूल्हे पर सेंकने के लिए


माँएं ऐसे ही बेलती हैं चँदियां सब जगह

प्यार में गुँथी हुईं

सरहदों के इस तरफ हो या उस तरफ

कैद नहीं रहती खुशबू रोटियों की कहीं

फिर क्यों चलती हैं गोलियाँ

क्यों बुझा देती हैं वे

धड़कनें चूल्हों की


खुशी  के हर उत्सव में पूजे जाते हैं चूल्हे

चूल्हों पर कभी नहीं रखता कोई पैर

और जो उजाड़ते हैं दूसराें के चूल्हे

छोड़कर चले जाते हैं चूल्हे उन्हें


एक चूल्हा हमें भी चाहिए अपने भीतर

कि बचायी जा सके चारों तरफ फैली हुई आग

बचाया जा सके जीवन का स्वाद

आँखों की नमीं

ज़ुबाँ की मिठास

कि जब नहीं रहते चूल्हे हमारी कल्पनाओं में

तभी लगती है आग

कि चूल्हे ही हैं जो करते हैं अलग

इंसानी बस्तियों को जानवरों के झुण्ड़ों से


2. उजालों के पार


कितने उजालों में खोए हो तुम

कि तुम्हें जब भी छूता हूँ

मेरी उँगलियों में

परछाइयाँ भर जाती हैं


कभी मिलो

इन उजालों के पार

कि सुना है

रात में

परछाइयाँ सो जाती हैं


3. ग़ुब्बारे


डंडे से बँधे-बँधे उड़ते

ग़ुब्बारों सी

उड़ रही थी बाहें उसकी

उड़ते बाल

उड़ते साल

उड़ते कदम

उड़ते स्वप्न

सब कुछ उड़ रहा था

टूटे बटनों की शर्ट के साथ


उड़ते ग़ुब्बारों के बीच ठहरी

उसकी आँखों का रंग भी

उड़कर

छितर गया था

रंगीन ग़ुब्बारों पर

‘पाँच रुपए में एक’ की

आवाज़ में उड़ उड़ कर


4. झील के चेहरे पर


झील के चेहरे पर

दौड़ती लहरें

हँसी है मेरी आँखों की


देखो!

तुम्हारी नज़रें

उछालती रहती हैं

बातें

दिन-रात


5.  गुज़ारिश


रोज़ ही छूट जाता है

मेरा कुछ न कुछ

तुम्हारे आस पास

कि मैं हो रहा हूँ ख़ाली ख़ुद से


कभी कभी लगता है

कि यूँ होते होते

हो जाऊँगा ख़ाली एक ​दिन

पूरी तरह से मैं

तब ख़ुद को ढूढ़ूँगा

तुममें मैं

कि ज़रा बचा कर रखना मुझे

थोड़ा सा अपने आप में


6. सलाह


याद रहते हैं तुम्हें

​दिन मुलाक़ातें, तारीख़ें

चेहरे,उनकी हँसी

एक एक तफ़सील सलवटों की


क्यों रखती हो

इतनी चीज़ें

संभालकर तुम

कि लोग अलमारी समझने लगते हैं तुम्हें


7. पुल


नन्ही तुमसे ज़्यादा मिलता है

या मुझसे

मालूम नहीं

शायद दोनों ही से मिलता है

उसका कुछ न कुछ


कभी कभी लगता है

जैसे हम दोनों का चेहरा है नन्ही

एक साथ मिला हुआ

जैसे काटकर चिपकाई हों

आँखें नाँक और कान

जैसे उसकी हँसी में घुली हो

हम दोनों की ख़ुशी

जैसे उसकी चाल में शामिल हो

हम दोनों की चाल

जैसे वो एक पुल हो

हम दोनों के दरमियाँ

जिस पर पहुँच

मैं पहुँचता हूँ तुम तक


8. नाव


किताबों से धूल झाड़ते हुए

कल एक नाव मिली

नन्ही की

विचारों के भँवरों में फँसी

जूझती हुई

मैंने ज़रा सा सहलाया उसे

और वो

मेरी हथेलियों पे तैरने लगी


9.  माँएं होती हैं चींटियाँ


चींटियों को देखकर

माँ की याद आती है मुझे

वो भी ऐसे ही उतार लेती थी

कढ़ाई में जमी रह गई सब्ज़ी की परत

रूखी रोटी से


सबको खिलाने के बाद

यही लिपटी हुई

बची रह जाती थी सब्ज़ी

सब्ज़ी का अहसास दिलाती हुई

और हमें यह झाँसा

कि वो रूखी नहीं खा रही

सब्ज़ी से खा रही है रोटी


माँएं वास्तव में चींटियाँ होती हैं

लगातार चलती रहती हैं वे

इस कोने से उस कोने

कामों को जैसे सूँघती चलती हैं

और दबा कर अपने मज़बूत हाथों में

लिए चलती हैं उन्हें यहाँ से वहाँ


वे चींटियों की तरह ही होती हैं ताक़तवर

तभी तो उठा लेती हैं

अपने से कई गुना बड़ा घर

अपने छोटे से सर पर


चींटियाँ होती हैं माँएं

बचाकर रखने की अपनी आदत में

चीज़ें

मुश्किल वक़्त के लिए


चींटियाँ होती हैं वे

अपने शरीर में

कि हड्डियों के सिवाय

कुछ नहीं होता उनमें


चींटियाँ होती हैं माँएं

कि ज़रा-सी आहट से मुश्किल की

फैल जाती है खलबली उनमें

और निकल पड़ती हैं वे

अंडी-बच्चों की हिफाज़त में


चींटियाँ होती हैं वे

लड़ते हुए अपनी रक्षा में

कि दाँतों को गहरा गाड़ देती हैं

कि मरकर भी नहीं छूटती उनकी पकड़

घर के दुश्मन से


चींटियाँ होती हैं माँएं

रास्ते में बतराते हुए

रुककर हालचाल पूछते हुए

दूसरी चींटियों से


ये ज़्यादातर लकीरों में चलती हैं

और भटककर

फिर से मिल जाती हैं उन्हीं लकीरों में

कि माँएं लकीरों में रहती हैं सारी जि़ंदगी

अपनी हथेलियों की


चींटियों को मरते नहीं देखा है मैंने

और ना हीं देख पाते हैं हम

माँओं को मरते हुए

​दिन-रात खपते हुए

ईंधन-सी

घर भट्टी में


माँएं होती हैं चींटियाँ

कि जाने अनजाने कुचल दी जाती हैं

बेख़बर पैरों से

चींटियों की तरह


10. धूल होते पिताओं के लिए


जब से देखा कुछ इस तरह देखा

कि पिता और धूल साथ साथ ​दिखे

एक अजीब रिश्ते में बंधे हुए

एक दूसरे के साथ

एक दूसरे को मात देते हुए


बालों पलकों कपड़ों पे

समान रूप से बैठी ये धूल

जमी रहती थी उनकी हथेलियों पे

भाग्य की रेखाओं को जैसे पाट देना चाहती हो

अपनी कालिख़ से


ये थी

उनके हर प्रयास में

परेशानियों पे मुस्कुराती हुई

सांसों को ज़रा तेज करती हुई

चुअते पसीने में किरकिराहट भरती हुई


पानी के दो चार छपकों में ही

निकल जाती थी बहुत सी धूल

और कुछ को, झाड़ पोछ कर निकाल देती थी माँ

बाहर घर से

फिर भी रात में उठते पिता के ठोंसे

सबूत थे, सीने में बैठी धूल के

जहाँ नहीं पहुँच सकती थी माँ

जहाँ बेकार थे सारे नुस्खे़ उसके


घर में ऐसी कोई जगह न थी

जहाँ एक क़तरा धूल न मिले

पिता का जैसे अहसास कराती हुई

जो धीरे धीरे धूल हो रहे थे

च़ीजों को बनाने बचाने के प्रयास में


धूल में बसा पिता का चेहरा

इतना आम हो गया था

कि वही पहचान बन गया था अब

और वह हर जगह होता

गेहूँ के साथ चक्की के पाटों में पिसने से लेकर

हमारी किताबों की इबारतों में दबने तक


यही था जो भर रहा था जोश हममें

उस धूल भरे माहौल में

धूल होता हुआ

आँधियों हवाओं से जूझता हुआ

फिर भी अड़ा हुआ

जुता हुआ अपनी कोशिशों में


उनके आते ही घर की दीवारें

ज़्यादा सुरक्षित हो जाती थीं

कि उनका वज़ूद, मज़बूत घर था

दीवारों सा उठा हुआ

ऐसी दीवारें, जो घट बढ़ सकती थीं

हमारी ज़रूरतों के हिसाब से


जाड़ों में इस तरह झड़ती थी धूल

ख़ुद-व-ख़ुद उनके शरीर से

जैसे पता बताती हो

कि किस मिट्टी के बने थे वो


ख़ैर मिट्टी जो भी रही हो

इतना ज़रूर सोख लेती थी पानी

कि नमीं बनी रहती थी साल दर साल

कि पसीने की एक एक बूँद

बारिशों की तरह सींचती थी हमारी प्यास


रास्ते में चलते हुए

जब भी मेरी आँखों में धूल आ जाती है

मेरा ध्यान

पिता की ओर चला जाता है

जैसे धूल हस्ताक्षर हो उनका

जैसे लिखी हो एक एक कर में

एक एक दास्तान

उनकी मेहनत की


11.  क़ुतुबमीनार


नूतन का पीछा करते

देव आनन्द के साथ

पहली बार गया था

क़ुतुबमीनार में मैं

कि बड़ी रोमांचक लगी थीं

वो सीढ़ियाँ

जो घूम घूम कर ऊपर को चढ़ती जाती थीं

और वो झरोखे

जो खुले थे हर तरफ

देख रहे थे इस शहर को

सदियों से बड़ा होते हुए

और ये शहर

बड़ा और बड़ा होता रहा

और होती रहीं ऊँचीं

इमारतें इसकी

कि इन इमारतों से अब

छोटी नज़र आती है मीनार

और वहाँ से देखने पर

रेंगता-सा नज़र आता है आदमी


वहाँ सीढ़ियाँ उतरती चढ़ती तो हैं

मगर किसी का पीछा करता

कोई गुनगुनाता नहीं है वहाँ



12.  हंडे वाले


अपने सरों पे लादे रहते हैं ये

हंडे रोशनी के

फिर भी

कितने ओझल हैं इनके चेहरे

कि ये दिखते ही नहीं

एक से लगते हैं सभी

चेहरे अँधेरे के


कहने को सर पे है

मगर नहीं छलकती

कोई बूूँद रोशनी की इनके चेहरों पे

कि चलते रहते हैं ये गुमसुम

खुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह

बारातियों के साथ-साथ

दमकते चेहरों पे

रोशनी मलते हुए


जैसे धोकर निखारी हो रात

हंडों के शीशों की तरह

ऐसे पेरते हैं रोशनी रात भर

फिर भी कितने काले हैं इनके हाथ

जैसे आई हो हिस्से में इनके

काली सूखी रात


13. पानी पूरी


ख़्वाब के अरमानों सी फूलती हैं वे

खौलती कढ़ाई के अंदर

और सहेज कर रख लेती हैं

अपने हिस्से का खालीपन अपने भीतर

और चल पड़ती हैं

धुंधियाते दमघौटूं रसोई घरों की चौखटों के पार

तंग गलियों से होतीं

पथरीले चौराहाें की ओर

थोड़े मीठे थोड़े नमकीन थोड़े चटपटे ख्वाब

अनाड़ी आँखों में संजोये

ढकेलों की पुरानी चालों पे हिचकोले खाती हुईं


बाज़ार की सौदेबाज निगाहें

ताड़ती हैं उन्हें हर कदम

फब्तियाँ कसती हैं

गठीले शरीरों के करारेपन पे

मगर चलती जाती हैं वे

इतिहास की फीकी सुरंगों से थोड़ा नमक लिए

कि कड़कड़ाके टूटने से भी नहीं डरतीं

खिलखिलाती हुईं गुम हो जाती हैं

पानी पूरियाँ

हमारे मिज़ाजों ज़ायक़ा बदलने के लिए


14. देश प्रेम के मायने


जब सोचता हूँ

सम्मान और कृतज्ञता से भर जाता हूँ

कि कैसे बनता है मेरा एक एक दिन

हज़ारों हाथों से बुना हुआ


ये मकान जिसे घर बुलाता हूँ मैं

जो दुनिया में मेरे होने का पता है

किसने बनाया था मुझे याद नहीं

ये सड़क जिस पर चलता हूँ मैं

जो बाँधती है सारी दुनिया से मुझे

किसने बनायी थी कुछ पता नहीं

ये सब्जियाँ  दालें अन्न और फल

जिनसे जिन्दा हूँ मैं

मैंने नहीं किसी और ने उगाए हैं मेरे लिए

ये शर्ट ये पैंट ये स्वैटर

जिन्हें पहन हर मौसम से जीत जाता हूँ

न जाने किन हाथों ने सिले हैं मेरे लिए


ये किताबें जिन हाथों ने छापी होंगी

उन्होने ही सोखी होगी सारी कालिख

जादूयी शब्दों की

रातभर जागकर

उन्हीं हाथों ने लगाया होगा खेतों में पानी

थापी होंगी ईंटें, बटे होंगे धागे, चलायी होंगी कैंचियाँ

हथोड़े बजाए होंगे, तोडे़ होंगे पत्थर

दोपहरी भर नंगे सर

उतरे होंगे नालियों में वही

उठायी होगी पूरी दुनिया की गंद

दबे होंगे वही खदानों में, जले होंगे वही कारखानों में

उन्हीं ने निखारे होंगे सोने चाँदी हीरे जवाहरात

गलाया होगा लोहा बंदूकों तोपों के लिए

बनाया होगा बारूद दहकते सपनों से

बिना किसी पेटेंट, किसी कॉपी राइट के


लाखों हैं चीजें जिन्हें गिनकर बता सकता हूँ मैं

जो मैंने नहीं किसी और ने बनायी हैं

और जिन्होने बनायी हैं

उनसे मिला तक नहीं  हूँ मैं

यहाँ तक कि कभी सोचा भी नहीं है उनके बारे में


अगर, मैं बनाता तो क्या बना पाता

घर?

मगर कहाँ से लाता ईंटें बालू बदरपुर सीमेंट रोड़ी सरिया औजार

सौ हाथ और सदियों  का हुनर

अगर न होते ये लोग

और न करते वे हजारों हजारों काम

जीना सम्भव नहीं होता एक भी दिन

चाहे हम कोई भी होते, कितने ही तुम्मन खाँ

ये लोग ही हैं जिन्होने बनायी है सारी दुनिया

यही हैं जो बनाते हैं गाँव शहर देश

यही हैं देश मेरे लिए

कि इनके बिना कोई देश सम्भव नहीं

अगर करना है तो इन्हीं से करो प्रेम

कि देश प्रेम के असली मायने यही हैं

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अनुप्रिया की कविताएं



अनुप्रिया ने एम. ए.अंग्रेजी व बी. एड. की पढ़ाई की है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में एम. ए. हिंदी (उत्तरार्द्ध) की छात्रा है। कविताएं लिखती-पढ़ती है। इनकी कविताओं में प्रेम प्रमुखता से  प्रकट होता है। 

20 सितंबर, 2017

मार्क्स की स्मृतियां

गतांक से आगे



4. मार्क्‍स की शैली



यह कहा जाता है कि मार्क्‍स की कोई शैली नहीं थी या बड़ी बुरी शैली थी। यह वे लोग कहते हैं जिन्‍हें यह नहीं मालूम कि शैली है क्‍या-मीठे मीठे भाषण देने वाले और नारेबाज जो मार्क्‍स को समझ नहीं सके और समझने के अयोग्‍य थे; मानवी दुख और मानवी नीचता के गहनतम गर्त से विज्ञान और भावना के उच्‍चतम शिखर तक मार्क्‍स की बुद्धि की उड़ान को समझने में असमर्थ थे। बुफौं का कथन-शैली ही मनुष्‍य है-यदि किसी के बारे में सच है तो मार्क्‍स के बारे में। मार्क्‍स की शैली से स्‍वयं मार्क्‍स का सच्‍चा रूप प्रगट होता है। उन्‍हें सचाई से ऐसा प्रेम था कि वह सत्‍य के अलावा कोई धर्म न जानते थे। यह जानते ही कि उनका सिद्धांत गलत है वह तुरंत उसे बदल देते थे फिर वह उन्‍हें चाहे जितना प्रिय हो और चाहे जितने परिश्रम का फल हो। ऐसा आदमी अपनी लेखनी से अपने सत्‍य स्‍वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा सकता था। दिखावा, बनावट या ढोंग करने में असमर्थ, अपने जीवन के समान अपने लेखों में भी वह सदा सच्चे रहते थे। यह सच है कि इतना विविधतापूर्ण, विशाल और बहुमुखी स्‍वभाव होने के कारण उनकी शैली दूसरे कम, जटिल और संकीर्ण चित्त वाले आदमियों जैसी अपरिर्वतनशील, एक सी और नीरस नहीं हो सकती। 'कैपीटल' का मार्क्‍स, '18वीं ब्रूमेअर' का मार्क्‍स और 'हर वोग्‍ट' का मार्क्‍स तीन अलग-अलग आदमी हैं। परन्‍तु अपनी विभिन्‍नता में भी वही एक मार्क्‍स है, उस त्रिमूर्ति में एक ही व्‍यक्तित्‍व है-एक ऐसा महान व्‍यक्तित्‍व जो विभिन्‍न क्षेत्रों में अपने को विभिन्‍न प्रकार से अभिव्‍यक्‍त करता है परंतु फिर भी रहता हमेशा वही है। कैपीटल की शैली मुश्किल जरूर है परन्‍तु क्‍या उसका विषय आसानी से समझ में आनेवाला है? शैली मनुष्‍य के अनुसार ही नहीं, विषयानुसार भी होती है, उसे विषय के अनुकूल बनाना पड़ता है। विज्ञान का कोई आसान राजमार्ग नहीं है, सबसे कुशल गुरु को भी परिश्रम से जूझना और ऊपर चढ़ना पढ़ता है। कैपीटल की शैली के कठिन, जटिल या अपरिमार्जित होने की शिकायत करना तो सिर्फ विचार शिथिलता और सोचने की अयोग्‍यता को स्‍वीकार करना है।

क्‍या '18वीं ब्रूमेअर' जटिल है? क्‍या वह बाण गूढ़ होता है जो सीधा अपने निशाने पर जाता है और मांस में घुस जाता है? क्‍या मजबूत हाथ से फेंका हुआ वह भाला जटिल होता है जो दुश्मन के ठीक हृदय में लगता है? '18वीं ब्रूमेअर' के शब्‍द तीर हैं, भाले हैं। वह शैली आग की तरह प्रचण्‍ड और घातक है। यदि घृणा, या स्‍वतंत्रता का उज्‍ज्वल प्रेम कभी जलते हुए, तीक्ष्ण और महान शब्‍दों में व्‍यक्‍त हुआ है तो '18वीं ब्रूमेअर' में। उसमें टैसिटस का रोष और कठोरता जूवेनल के तीक्ष्‍ण व्‍यंग और दान्‍ते के पवित्र क्रोध से मिला हुआ है। इसमें शैली का वही रूप है जो रोमवासियों के लिये था, यानी लोहे के एक तेज यंत्र का जो लिखने और भौंकने के लिये काम में आता था। शैली हृदय पर आघात करने के लिये अस्‍त्र के समान है।

और हर वोग्‍ट में-वह हास्‍य, वह प्रसन्‍नता है जो फालस्‍टाफ को और उसमें व्‍यंग के अनन्‍त कोष को खोज निकालने पर शेक्सपियर को हुई होगी।

खैर, अब मैं मार्क्‍स की शैली के बोर में और कुछ नहीं कहूँगा। मार्क्‍स की शैली सचमुच मार्क्‍स है। उन पर छोटी से छोटी जगह में ज्‍यादा से ज्‍यादा सामग्री ठूँसने की कोशिश करने का दोष लगाया गया है, परन्‍तु यही तो मार्क्‍स का स्‍वरूप है।

मार्क्‍स शुद्ध और सत्‍य अभिव्‍यंजना के असाधारण मूल्‍य को समझते थे और गेटे, लेसिंग, शेक्सपियर, दांते और सरवेन्‍टीज के रूप में, जिन्‍हें वह रोज पढ़ते थे, उन्‍होंने सबसे बड़े कलाकारों को छाँटा था। भाषा की शुद्धता और सत्‍यता का वे हमेशा ध्‍यान रखते थे और उसके लिये बड़ी मेहनत करते थे।

मार्क्‍स कट्टर शुद्धतावादी थे और बहुधा सही मुहावरे के लिये वह देर तक और बड़े परिश्रम से खोज करते थे। वह जरूरत से ज्‍यादा विदेशी शब्‍दों के प्रयोग को नापसन्‍द करते थे। यदि फिर भी जहाँ विषय के लिये आवश्‍यक नहीं था वहाँ उन्‍होंने स्‍वयं बहुधा विदेशी शब्‍दों का प्रयोग किया है तो यह शायद इसीलिये कि वह बहुत समय तक विदेश में, खासकर इंग्‍लैण्‍ड में रहे थे। मार्क्‍स ने अपने जीवन के दो तिहाई से ज्‍यादा हिस्‍से को विदेश में बिताया पर उन्‍होंने हमारी जर्मन भाषा के हमारे जर्मन निर्माताओं के लिये बहुमूल्‍य काम किया। नये और शुद्ध जर्मन शब्‍दों और शब्‍दों के प्रयोग में वह अद्वितीय हैं।



5. राजनीतिज्ञ, अध्‍यापक और मनुष्‍य के रूप में मार्क्‍स

मार्क्‍स के लिये राजनीति एक अध्‍ययन की वस्‍तु थी। कोरी राजनीतिक बातचीत और उसे करनेवालों से वह विष के समान घृणा करते थे। वास्‍तव में इससे ज्‍यादा मूर्खता की दूसरी चीज क्‍या हो सकती है? इतिहास मानव-जगत और प्रकृति की सब कार्यशील शक्तियों का फल है, मनुष्‍य के विचारों, भावों और आवश्‍यकताओं का फल है। परन्‍तु राजनीति सैद्धांतिक रूप में, 'समय के कर्घे' में काम करती हुई इन लाखों-करोड़ों शक्तियों का ज्ञान है, और व्‍यावहारिक रूप में वह इस ज्ञान द्वारा निश्चित कर्म है। इसलिए राजनीति सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक दोनों तरह का विज्ञान है।

जब मार्क्‍स उन कूड़मगजों की बात करते थे जो कुछ पुराने घिसे-पिटे वाक्‍यों के द्वारा मामला तै कर देते है, और जो अपने उल्‍टे-सीधे विचारों और इच्‍छाओं को सच मानकर होटल की मेज पर, अखबारों में, जन-सभाओं में और पार्लियामेंटों में, दुनिया के भाग्‍य का निबटारा कर देते हैं, तो वह बड़े नाराज हो जाते थे। वह सौभाग्‍य की बात है कि दुनिया ऐसे आदमियों की ओर ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देती। उक्‍त कूड़दिमागों में कुछ बड़े मशहूर, बड़े सम्‍मानित ''महापुरुष'' भी थे।

इस विषय में मार्क्‍स ने केवल आलोचना ही नहीं की है, उन्‍होंने एक आदर्श भी उपस्थित किया है। खासकर हाल में फ्रांस की घटनाओं और नेपोलियन की राजसी क्रांति के बारे में अपने लेखों में और ''न्‍यूयार्क ट्रिब्‍यून'' को लिखे अपने पत्रों में उन्‍होंने इतिहास की राजनीतिक लेखन शैली के उत्‍कृष्‍ट नमूने दिये हैं।

यहाँ एक तुलना के बारे में मुझे लिखना ही पड़ेगा। बोनापार्ट की जिस राजसी क्रांति के बारे में मार्क्‍स ने अपनी '18 वीं ब्रूमेअर' लिखी, उसी के ऊपर फ्रांस के रोमांटिक और शब्‍दावली के कलाकारों में सर्वश्रेष्‍ठ लेखक, विक्‍टर ह्यूगो ने भी एक मशहूर किताब लिखी थी। इन दोनों आदमियों और उनकी रचनाओं में कितना महान अंतर है? एक तरफ तो भयानक शब्‍दावली और शब्‍दों का दानव, दूसरी ओर नियमानुसार सजी हुई सच्‍ची घटनाएँ और एक शांत और गंभीर राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक जो क्रुद्ध है परंतु जो अपने क्रोध से अपने फैसले को कभी बिगड़ने नहीं देता।

एक ओर समुद्र-फेन की तरह उड़ती छलछलाती भाषा, करुण शब्‍दावली, वीभत्‍स व्‍यंग-चित्र हैं, और दूसरी ओर है सघे हुए तीर के समान प्रत्‍येक शब्‍द, अपनी नम्रता से ही विश्‍वास उत्‍पन्‍न करने वाला नग्र सत्‍य-क्रोध नहीं बल्कि सत्‍य की स्‍थापना और उसकी आलोचना। विक्टर हयूगो लिखित 'छोटा नैपोलियन' के उस समय दस संस्‍करण छपे पर आज उसका नाम भी कोई नहीं लेता। दूसरी ओर आज से हजार वर्ष बाद भी मार्क्‍स की '18वीं ब्रूमेअर' प्रशंसा के साथ पढ़ी जायगी। विक्‍टर ह्यूगो की 'छोटा नैपोलिन' एक आतिशाबाजी थी, मार्क्‍स की '18वीं ब्रूमेअर' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सभ्‍यता के भावी इतिहासकार के लिये-और भविष्‍य में सभ्‍यता के इतिहास के अतिरिक्‍त कोई विश्‍व का इतिहास नहीं होगा- उतना ही आवश्‍यक होगा जितनी थूसिड़ाइडीज का पेलोपोनीशियन युद्ध का इतिहास।

जैसा मैं एक और जगह समझा चुका हूँ मार्क्‍स जैसे बने, वैसे वह केवल इंग्‍लैण्‍ड में ही बन सकते थे। इस सदी के मध्‍य तक जर्मनी आर्थिक रूप से जैसी अविकसित दशा में था, उसमें मार्क्‍स पूँजीवादी अर्थशास्‍त्र के आलोचक नहीं बन सकते थे और न पूँजीवादी उत्‍पादन की जानकारी प्राप्‍त कर सकते थे-उसी तरह जैसे इस आर्थिक रूप से अविकसित जर्मनी में आर्थिक रूप से विकसित इंग्‍लैण्‍ड की सी राजनीतिक संस्‍थाएँ नहीं हो सकती थीं। मार्क्‍स भी अपने वातावरण और रहने की परिस्थितियों पर उतने ही निर्भर थे जितना कोई और मनुष्‍य, और इस वातावरण और परिस्थिति के बिना वह वैसे न बन सकते जैसे हम उन्‍हें पाते हैं।

ऐसी बुद्धि पर परिस्थिति का असर पड़ते हुए और प्रकृति तथा समाज के अंदर उसे अधिकाधिक गहराई से पैठते हुए देखना, स्‍वयं अपने आप में एक गंभीर बौद्धिक सुख है। यह मेरे बड़े सौभाग्‍य की बात थी कि मुझ जैसे ज्ञान के भूखे अनुभवहीन युवक को मार्क्‍स के साथ रहने और उनसे सीखने का अवसर मिला। उनकी ऐसी बहुमुखी अथवा यों कहें कि सर्वतोमुखी प्रतिभा थी कि उसमें दुनिया भर के ज्ञान को आकलन करने की सामर्थ्‍य थी। वह प्रत्‍येक महत्‍वपूर्ण पहलू को देखते थे और किसी चीज को भी मामूली तथा बेकार नहीं समझते थे। ऐसी प्रतिभा के द्वारा मेरी शिक्षा का बहुमुखी होना अवश्‍यम्‍भावी था।

मार्क्‍स उन लोगों में थे जिन्‍होंने सबसे पहले डार्विन की छानबीन का महत्‍व समझा। सन 1859 के साल से पहले ही-वह साल जब ''जातियों की उत्‍पत्ति'' (Origin of Species) छपी और एक अद्भुत संयोग से उसी साल ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' भी छपी-मार्क्‍स ने डार्विन के नवयुग की घोषणा करने वाले कार्य के महत्‍व को समझ लिया था। डार्विन शहर के शोरगुल से दूर अपने शांत ग्रामीण घर में वैसी ही क्रांति की तैयारी कर रहे थे जैसी दुनिया के तूफानी केंद्र में स्‍वयं मार्क्‍स कर रहे थे। फर्क सिर्फ यही था कि दोनों का क्षेत्र अलग-अलग था।

खासकर प्राकृतिक विज्ञान-जिसमें भौतिक विज्ञान और रसायनशास्‍त्र सम्मिलित हैं-और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्‍स ने हर नयी चीज को, हर प्रगति को समझा। मोल शोट, लीबिंग हक्‍सले, आदि के जन-प्रिय भाषणों में हम नियमित रूप से जाते थे। इनके नाम हमारी गोष्‍टी में उतनी ही बार आते थे जितने रिकार्डो, एडम स्मिथ, मैककुलौख और स्कॉटिश तथा इटालियन अर्थशास्त्रियों के। जब डार्विन ने अपनी छानबीन से निष्‍कर्ष निकाले और उनकी घोषणा की तो महीनों तक डार्विन और उसके वैज्ञानिक कार्य की क्रांतिकारी शक्ति को छोड़कर हम लोग कुछ और बात ही नहीं करते थे। मैं यह बात खास तौर पर जोर देकर कह रहा हूँ क्‍योंकि कुछ ''उग्रपंथी'' दुश्‍मनों ने यह कहानी फैलायी है कि ईर्षा के कारण मार्क्‍स ने बड़ी अनिच्‍छा से और सिर्फ कुछ हद तक ही डार्विन के गुणों को माना था।

जहाँ दूसरे के गुणों की प्रशंसा का सवाल था वहाँ मार्क्‍स बड़े उदार और न्‍यायप्रिय थे। ईर्षा, द्वेष और घमंड से वह परे थे। झूठे बड़प्‍पन से, बनावटी यश से जिसकी आड़ में अयोग्‍यता व नीचता फैलाते हैं, उन्‍हें बड़ी घृणा थी। यही बात हर एक झूठ और झूठी चीज के लिये थी।

मेरी जान-पहचान के बड़े, छोटे और साधारण व्‍यक्तियों में मार्क्‍स उन थोड़े से आदमियों में से थे जो दंभी नहीं थे। उनके जैसे महान और बलवान और अभिमानी व्‍यक्ति के लिये दंभी होना असंभव था। वह कभी ढोंग नहीं करते थे और हमेशा अपने सच्‍चे स्‍वरूप में रहते थे। अपने को छिपाने या बनावटी चेहरा पहनने में वह एक बच्‍चे के समान असमर्थ थे। जब तक सामाजिक या राजनीतिक कारणों से जरूरी न हो वह अपने भावों और विचारों को बिना कुछ छिपाये पूरी तरह प्रकट कर देते थे और उनके विचार, उनके चेहरे पर झलक जाते थे। अगर कुछ छिपाने की जरूरत होती थी तो वह बच्‍चों की तरह घबरा जाते थे जिस पर उनके मित्रों को बड़ी हँसी आती थी।

मार्क्‍स से ज्‍यादा सच्‍चा कोई आदमी नहीं हुआ। वे सत्‍य की साक्षात मूर्ति थे। उनको देखने से ही व्‍यक्ति को अपनी असलियत मालूम हो जाती थी। हमारे निरंतर संघर्षपूर्ण ''सभ्‍य समाज'' में हमेशा सच नहीं बोला जा सकता। उससे तो दुश्‍मन के फंदे में पड़ने या समाज से बहिष्‍कार होने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं होगा। परन्‍तु यदि बहुधा हम सच नहीं बोल सकते तो इस कारण से झूठ बोलना जरूरी नहीं है। मैं अपने विचारों और भावों को शब्‍दों में प्रकट नहीं कर सकता, पर इसका यह मतलब नहीं है कि जो मेरे विचार तथा भाव नहीं हैं मुझे उन्‍हें प्रकट करना चाहिये या करना ही पड़ेगा। पहली बात बुद्धिमानी है, दूसरी ढोंग है। और मार्क्‍स कभी ढोंगी नहीं थे। वह यह कर ही न सकते थे बिल्‍कुल न बिगड़े हुए बालक की तरह। और सचमुच उनकी स्‍त्री बहुत बार उन्‍हें 'मेरा बड़ा बच्‍चा' कहा करती थी। उनसे ज्‍यादा न कोई मार्क्‍स को जानता था और न समझता था, एंगेल्‍स भी नहीं। यह सच्‍ची बात है कि जब वह 'सभ्‍य समाज' में निकलते, जहाँ बाहरी रूप पर बड़ा ध्‍यान दिया जाता है और सँभल कर बात करनी पड़ती है तब हमारा 'मूर' वास्‍तव में एक बड़ा बालक था। वह एक छोटे बच्‍चे की तरह झेंपते और लाल हो जाते थे।

बनावटी लोग उन्‍हें बड़े बुरे लगते थे। मुझे अभी तक याद है कि किस तरह उन्‍होंने हँसते हुए लुई ब्‍लाँक के साथ अपनी पहली मुठभेड़ का किस्‍सा सुनाया था। यह तब की बात है जब वह डीन स्‍ट्रीट में ही थे। उस छोटे से घर में सामने का कमरा मिलनेवालों के लिये और काम करने को लिये था। और पीछे का बाकी सब कामों के लिये। लुई ब्‍लाँक ने लेन्‍वेन को अपना नाम बताया। वह उन्‍हें सामने के कमरे में ले गयी और दूसरे कमरे में मार्क्‍स जल्‍दी से कपड़े पहनने लगे। पर दोनों कमरों के बीच का दरवाजा थोड़ा सा खुला था और उस दरार में से एक मजेदार दृश्‍य दिखाई पड़ा। वह महान इतिहासकार और राजनीतिज्ञ बहुत ठिगना सा आदमी था, मुश्किल से आठ बरस के लड़के से लंबा। लेकिन वैसे वह बड़ा घमंडी था। उस मजदूरों जैसे गोल कमरे में चारों तरफ देखने के बाद एक कोने में उसे एक बड़ा पुराना आईना मिला और वह फौरन उसके सामने जाकर डट गया। वह शान से खड़ा हो गया और अपने बौने कद को अकड़कर जितना लम्‍बा कर सकता था कर लिया। (इतनी ऊँची एड़ी के जूते पहने मैंने और किसी को नहीं देखा) और बड़े संतोष से अपने को देखते हुए वसंतकाल के प्रेम से पागल खरगोश की तरह चलने और भरसक शानदार दिखाई पड़ने की कोशिश करने लगा। श्रीमती मार्क्‍स, जो इस मजेदार दृश्‍य को देख रही थी, मुश्किल से अपनी हँसी का ठहाका रोक सकीं। जब उसका श्रृंगार खत्‍म हो गया तो मार्क्‍स ने जोर से खाँसकर अपने आने की सूचना दी जिससे वह ढोंगी आईने से एक कदम पीछे हटकर आगन्‍तुक का शान से झुककर स्‍वागत कर सका। परंतु मार्क्‍स के सामने बनावट या दिखावट से कुछ फायदा नहीं हो सकता था। और इसलिये छोटा लुई (जैसा कि बोनापार्ट से फर्क दिखाने के लिये पैरिस के मजदूर उसे कहते थे) शीघ्र ही यथासंभव स्‍वाभाविकता से बातें करने लगा।

19 सितंबर, 2017

संस्मरण:



पॉल लाफार्ज

विलहेम लीबनेख्‍ट




अनुवादक

हरिश्‍चन्द्र

अंग्रेजी संस्‍करण के प्रकाशक का वक्‍तव्‍य

17 मार्च सन 1883 को जब कार्ल मार्क्स लंदन के हाईगेट कब्रिस्‍तान में दफनाये गये तो उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये केवल थोड़े से मित्रगण जमा थे। मार्क्‍स का नाम लंदन के मजदूर-वर्ग को अज्ञात था। उनका स्‍थापित किया हुआ 'विश्‍व-मजदूर-संघ' ग्‍यारह साल पहले खत्‍म हो चुका था और जिन ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों ने एक समय उसका साथ दिया था वे भी उसे भूल चुकी थीं। केवल एक अंग्रेजी दल ऐसा था जिस पर किसी हद तक उनकी शिक्षा का असर था और वह भी अभी तक अपने को समाजवादी नहीं कहता था। एक साल और बीतने के बाद ही उसने अपना नाम 'समाजिक-जनवादी संघ' रखा। मार्क्‍स की सर्वोत्‍कृष्‍ट रचना ''कैपिटल'' का पहला भाग खत्‍म हुआ था और उनकी मृत्‍यु से सोलह बरस पहले छप चुका था परंतु उसका अंग्रेजी में अभी अनुवाद नहीं हुआ था।

परंतु कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्‍स को ये शब्‍द कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं था कि ''14 मार्च को दोपहर के पौने तीन बजे दुनिया के सबसे बड़े विचारक ने सोचना बंद कर दिया।'' ''उनका नाम सदियों बाद भी जीवित रहेगा, और उसका कार्य भी''।

एंगेल्‍स ने चालीस बरस की गाढ़ी मित्रता और बौद्धिक घनिष्ठता द्वारा उत्‍पन्‍न होने वाले विश्‍वास के साथ ये शब्‍द कहे थे, क्‍योंकि उस समय अन्‍य आदमियों से कहीं ज्‍यादा अच्‍छी तरह से उन्‍होंने मार्क्‍स की शिक्षा का पूरा महत्‍व समझ लिया था। उन्‍होंने एक साथी वैज्ञानिक और एक साथ लड़ने वाले क्रांतिकारी योद्धा के नाते ही मार्क्‍स की शिक्षा के महत्‍व को आँका था। और इतिहास ने यह दिखा दिया है कि उनका कहना सच था।

आज मार्क्‍स का आदर करने वाले केवल मुट्ठीभर आदमी नहीं हैं। मजदूर वर्ग के गद्दारों और मध्‍य वर्ग के बुद्धिजीवियों के बिगाड़ने और बुराई करने की हर एक कोशिश के बावजूद प्रत्‍येक देश में ऐसे लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है जो मार्क्‍सवाद को वर्तमान और भविष्‍य का विज्ञान मानते हैं। यह स्‍वीकृति आसानी से प्राप्‍त नहीं हुई। प्रत्‍येक पग पर इसके लिए मजदूर-आन्‍दोलन के सबसे योग्‍य और साहसी पुरुष और स्त्रियाँ लड़े हैं किन्‍तु प्रत्‍येक देश के इतिहास में ऐसा समय आ चुका है जब मार्क्‍स की शिक्षा के क्रांतिकारी रूप का दीपक बुझनेवाला ही था।

आज वह दीप उज्ज्‍वल और अजेय रूप से जल रहा है। सोवियत संघ का विशाल ज्‍योति पुंज सारी दुनिया का ध्‍यान आकर्षित करता है और प्रत्‍येक दिन, हाथ या दिमाग से काम करने वाले इस बात को समझते जा रहे हैं कि सोवियत जनता की वीरता केवल जाति के अथवा ऐतिहासिक संयोग का फल नहीं है, बल्कि मार्क्‍स की क्रांतिकारी शिक्षा की सच्‍चाई और शक्ति का परिणाम है। क्‍योंकि वह रूसी जनता ही नहीं थी जिसने लेनिन और उनकी बनाई हुई बोल्‍शेविक पार्टी के नेतृत्‍व में मार्क्‍स के क्रांतिकारी सिद्धान्‍त को सफलतापूर्वक कार्य रूप में परिणत किया। लगभग 25 बरस से, यानी 7 नवम्‍बर सन 1917 से 22 जून 1941 तक वे इतिहास के सबसे बड़े रचनात्‍मक कार्य में लगे रहे हैं। लेनिन के सबसे बड़े शिष्‍य स्‍तालिन ने साम्‍यवाद तक पहुँचने में रूसी मजदूर और किसानों का नेतृत्‍व किया। यह कम्‍युनिज्‍म की पहली मंजिल है और कम्‍युनिज्‍म भविष्‍य का वह विश्‍वव्‍यापी समाज है जिसके बारे में मार्क्‍स ने एक वैज्ञानिक के विश्‍वास से भविष्‍यवाणी की थी और जिसके लिए वह एक महान क्रांतिकारी की भाँति अथक उत्‍साह से कोशिश करते रहे। आज जब कि पूरी दुनिया की साधारण जनता के साथ-साथ सोवियत जनता के सामने भी फासिज्‍म का खतरा है, तो स्‍तालिन और समाजवादी राज्‍य की फौज ही मानवता के भविष्‍य की इस लड़ाई में स्‍वतंत्रता की सेना का नेतृत्‍व कर रही है।



मार्क्‍स की स्‍मृतियाँ

पॉल लाफार्ज



1



मैंने सबसे पहली बार कार्ल मार्क्‍स को फरवरी सन 1865 में देखा। 28 सितम्‍बर सन 1864 को सैण्‍ट मार्टिन हॉल की मीटिंग में इंटरनेशनल की स्‍थापना हो चुकी थी। मैं उनको पेरिस से इस नन्‍ही संस्‍था की प्रगति का समाचार देने आया था। मोशिये तोलाँ ने, जो अब फ्रांस के पूंजीवादी प्रजातंत्र के एक मंत्री हैं और जो बर्लिन की कान्‍फ्रेन्‍स में उसके एक प्रतिनिधि थे, मुझे एक परिचय-पत्र दिया था।

मेरी उम्र 24 बरस की थी। उस पहली भेंट का मुझ पर जो असर पड़ा उसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूलूंगा। उस समय मार्क्‍स का स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा नहीं था और वह 'कैपीटल' के पहले भाग के लिखने में कड़ी मेहनत कर रहे थे। (वह दो साल बाद सन 1867 में प्रकाशित हुआ)। उन्‍हें यह डर था कि शायद वह उसे समाप्‍त न कर सकें। और वह युवकों से बड़ी खुशी से मिलते थे क्‍योंकि वह कहा करते थे कि ''मुझे ऐसे आदमियों को सिखाना चाहिये जो मेरे बाद कम्युनिज्म के प्रचार का काम जारी रखें।''

कार्ल मार्क्‍स उन अनमोल आदमियों में थे जो विज्ञान और सार्वजनिक जीवन दोनों में प्रथम श्रेणी के योग्‍य हों। ये दोनों पहलू उनमें इतनी अच्‍छी तरह मिले हुए थे कि जब तक हम उन्‍हें एक साथ ही वैज्ञानिक और समाजवादी योद्धा के रूप में न जान लें, तब तक हम उन्‍हें नहीं समझ सकते। उनका यह विचार था। कि प्रत्‍येक विज्ञान का स्‍वयं विज्ञान के लिये अध्‍ययन करना चाहिये और जब हम वैज्ञानिक अनुसंधान का काम शुरू करें तो फल का विचार छोड़ देना चाहिये। फिर भी वह यह विश्‍वास करते थे कि अगर विद्वान मनुष्‍य अपनी अवनति न चाहता हो तो उसे सार्वजनिक कार्यों में हमेशा भाग लेते रहना चाहिये - अपनी प्रयोगशाला या अध्ययनशाला में अपने को बन्‍द करके, पनीर के कीड़े की तरह, अपने सहजीवियों के जीवन और सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये। ''वैज्ञानिक को स्‍वार्थी नहीं होना चाहिय। जो लोग इतने भाग्‍यवान हैं कि वैज्ञानिक अध्‍ययन में समय बिता सकें उन्‍हें, सबसे पहले अपने ज्ञान को मनुष्‍य की सेवा में लगाना चाहिये।'' उनका एक प्रिय कथन यह था कि ''संसार के लिये परिश्रम करो।''

मजदूर-वर्ग की विपदाओं से उन्‍हें हार्दिक सहानुभूति थी। किन्‍तु केवल भावुक कारणों से नहीं बल्कि इतिहास तथा अर्थशास्‍त्र के अध्‍ययन के उनका दृष्टिकोण समाजवादी (कम्‍युनिस्ट) बना था। उनका यह कहना था कि जिस आदमी पर निजी स्‍वार्थों का प्रभाव न हो और जो वर्ग-पक्षपात से अंधा न हो, वह अवश्‍य इसी निष्‍कर्ष पर पहुँचेगा। मार्क्‍स ने निष्‍पक्ष भाव से मानव समाज के राजनीतिक और आर्थिक विकास का अध्‍ययन किया, किन्‍तु उन्‍होंने अपने अध्‍ययन के फल को लिखा केवल प्रचार के पक्‍के इरादे से, और अपने समय तक आदर्शवादी कुहरे में खोये हुए साम्‍यवादी आन्‍दोलन के लिये वैज्ञानिक नींव जमाने के दृढ़ निश्चय से। जहाँ तक सार्वजनिक कार्यों का संबंध है, उन्‍होंने उसमें केवल मजूदर-वर्ग की विजय के लिये काम करने के विचार से भाग लिया। उस वर्ग का ऐतिहासिक कर्तव्‍य है कि समाज का राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्‍व प्राप्‍त करने के बाद कम्युनिज्म की स्‍थापना करे। इसी तरह से, शक्तिशाली होते ही पूंजीपति वर्ग का यह कर्तव्‍य था कि वह उन सामंती बंधनों को तोड़ दे जो खेती तथा तथा उद्योग-धन्‍धों के विकास में बाधा डाल रहे थे, मनुष्‍य और माल के लिये बेरोकटोक व्‍यापार और मालिकों और मजदूरों के बीच स्वतंत्र संबंध आरंभ कर दे, उत्‍पादन और विनिमय के साधनों को केन्‍द्रीभूत करे और कम्युनिस्ट समाज के लिये बौद्धिक और भौतिक सामग्री तैयार कर दे।

मार्क्‍स ने अपनी कार्यशीलता को अपनी जन्‍मभूमि तक ही सीमित नहीं रखा। वह कहते थे कि, ''मैं संसार का नागरिक हूँ और जहाँ कहीं होता हूँ वहीं काम करता हूँ।'' वास्‍तव में जिन देशों में (फ्रांस, बेल्जियम, इंग्‍लैण्‍ड) उन्‍हें घटनावश या राजनीतिक दमन के कारण जाना पड़ा वहाँ के विकसित होते हुए क्रांतिकारी आन्‍दोलन में उन्‍होंने प्रमुख भाग लिया।

परन्‍तु अपनी पहली भेंट में जब मैं उनसे मेटलैण्‍ड पार्क रोड वाले घर के पढ़ने के कमरे में मिला तो वह मुझे साम्‍यवादी आंदोलन के अथक और अद्वितीय योद्धा नहीं, बल्कि एक अध्‍ययनशील पुरुष जान पड़े। सभ्‍य संसार के प्रत्‍येक कोने से पार्टी के साथी कमरे में साम्‍यवादी दर्शन के उस पंडित की सलाह लेने के लिये इकट्ठे होते थे। वह कमरा ऐतिहासिक हो गया है। यदि कोई मार्क्‍स के बौद्धिक जीवन को घनिष्‍ठता से समझना चाहता है, तो उसे इस कमरे के बारे में जरूर जानना चाहिये। वह दुमंजिले पर था और पार्क की तरफ की चौड़ी खिड़की से उसमें खूब रोशनी आती थी। अँगीठी के दोनों तरफ और खिड़की के सामने किताबों से लदी हुई अलमारियाँ थीं जिनके ऊपर छत तक अखबारों की गड्डियाँ और हाथ की लिखी किताबें रखी हुई थीं। खिड़की की एक तरफ दो मेजें थीं जो उसी तरह विविध अखबारों, कागजों तथा किताबों से भरी हुई थीं। कमरे के बीचोबीच जहाँ रोशनी सबसे अच्‍छी थी, एक छोटी-सी लिखने की मेज थी-तीन फिट लम्‍बी और दो फिट चौड़ी, और एक लकड़ी की आरामकुर्सी थी। इस कुर्सी और एक अलमारी के बीच में, खिड़की की तरह मुँह किये हुए, एक चमड़े से ढँका हुआ सोफा था जिस पर मार्क्‍स कभी-कभी आराम करने के लिये लेटा करते थे। ताक पर कुछ और किताबें थी, उनके बीच में सिगार, दियासलाई की डिबिया, तम्‍बाकू का डब्‍बा, और उनकी लड़कियों, स्‍त्री, एंगेल्‍स और विलेहम वूल्‍फ की तस्‍वीरें थीं। मार्क्‍स को तम्‍बाकू का बड़ा शौक था। उन्‍होंने मुझसे कहा कि ''कैपीटल'' से मुझे इतना रुपया भी नहीं मिलेगा कि उसे लिखते समय मैंने जो सिगार पिये हैं उनका दाम भी निकल आये।'' दियासलाई के इस्‍तेमाल में तो वह और भी ज्‍यादा फिजूलखर्च थे। वह इतनी बार अपने पाइप या सिगार को भूल जाते थे कि उन्‍हें उसे बार-बार जलाना पड़ता था और वह दियासलाई की डिबिया बहुत ही जल्‍दी खत्‍म कर देते थे।

वह कभी भी किसी को अपनी किताबें और कागज ठीक तरह से लगाने (वास्‍तव में बिगाड़ने) नहीं देते थे। उनके कमरे की बेतरतीबी सिर्फ देखने भर की थी। वास्‍तव में हरएक चीज अपने उचित स्‍थान पर थी और वह जिस किताब या हस्‍तलेख को चाहते उसे बिना ढूंढ़े निकाल सकते थे। बातचीत करते-करते भी वह बहुधा रुक जाते और किसी अंश या आँकड़े को पुस्‍तक में से दिखाते। वह अपने कमरे की आत्‍मा को जैसे पहचानते थे और उनके कागज और किताबें उसी तरह उनकी इच्‍छा के पालक थे जिस तरह उनके अंग।

अपनी किताबों को सजाते वक्‍त वह उनकी छोटाई-बड़ाई का खयाल नहीं करते थे, बड़ी-बड़ी किताबें तथा छोटी-सी पुस्तिकाएँ बराबर-बराबर रखीं रहती थीं। वह अपनी पुस्‍तकों को आकार के अनुसार नहीं बल्कि विषय के अनुसार लगाते थे। उनके लिये पुस्‍तकें सुख का साधन नहीं, बौद्धिक यन्‍त्र थीं। वह कहते थे कि, ''ये मेरी गुलाम हैं और उनको मेरी इच्‍छा पूरी करनी पड़ती है''। उन्‍हें किताब के रूप-रंग, जिल्‍द, कागज की सुन्‍दरता या छपाई की परवाह नहीं थी। वह पन्‍नों के कोने मोड़ देते थे, कुछ हिस्‍सों के नीचे पेन्सिल से लाइन खींच देते थे और दोनों तरफ की खाली जगह को पेन्सिल के निशाने से भर देते थे। वह किताबों में लिखते नहीं थे, पर जब लेखक उल्‍टी सीधी हाँकने लगता था तो प्रश्‍न या आश्‍चर्य का चिह्न लगाये बिना नहीं रह सकते थे। पेन्सिल से लाइन खींचने का उनका ऐसा तरीका था कि वह बड़ी आसानी से किसी भी हिस्‍से को ढूँढ़ लेते थे। उन्‍हें यह आदत थी कि कुछ साल बाद अपनी कापियों और किताबों में निशाने लगाये हुए भागों को फिर पढ़ते थे ताकि उनकी स्‍मृति फिर ताजी हो जाय। उनकी स्‍मरणशक्ति असाधारण रूप में प्रबल थी। अपरिचित भाषा के पद्य याद करने की हेगल की सलाह के अनुसार बचपन से ही उन्‍होंने अपनी स्‍मरण शक्ति का विकास किया था।

उन्‍हें हाइने और गेटे कंठस्‍थ थे और बातचीत में बहुधा उन्‍हें वह उद्धृत किया करते थे। यूरोप की सब भाषाओं के प्रमुख कवियों की कविताएँ वह बराबर पढ़ा करते थे। प्रत्‍येक वर्ष वह फिर ग्रीक भाषा में एसकाइलस के नाटकों को पढ़ते थे और उसको तथा शेक्‍सपियर को दुनिया के सर्वोत्‍कृष्‍ट नाट्यकार मानते थे। उन्‍होंने शेक्‍सपियर का पूरा अध्‍ययन किया था। उसके लिये उनके मन में अगाध श्रद्धा थी और उसके सबसे साधारण पात्रों को भी वे जानते थे। मार्क्‍स का परिवार शेक्‍सपियर का भक्‍त था और उनकी तीनों लड़कियों को भी शेक्‍सपियर का बहुत सा अंश जबानी याद था। सन 1848 के कुछ दिन बाद जब मार्क्‍स अपने अंग्रेजी के ज्ञान को पूरा करना चाहते थे (उस समय भी वह अंग्रेजी अच्‍छी तरह पढ़ सकते थे) उन्‍होंने शेक्‍सपियर के सब खास-खास मुहावरों को ढूँढ़ा और उनका वर्गीकरण किया। यही उन्होंने विलियम कौबेट के वाद-विवादपूर्ण लेखों के साथ किया। कौबेट का वह बड़ा सम्‍मान करते थे। दान्‍ते तथा बर्न्‍स उनके प्रिय कवि थे और अपनी लड़कियों को बर्न्‍स की व्‍यंगात्‍मक कविता या बर्न्‍स के प्रेम के गीत गाते सुन कर उन्‍हें हमेशा आनंद आता था।

विज्ञान का प्रसिद्ध ज्ञाता, अथक परिश्रमी, कूविये जब पेरिस के म्‍यूजियम का संरक्षक था तो उसने अपने बरतने के लिये कई कमरे अलग तैयार करा लिये थे। इनमें से प्रत्‍येक कमरा अध्‍ययन की एक शाखा विशेष के लिये नियुक्‍त था। और उस विषय के लिये आवश्‍यक पुस्‍तकों, यन्‍त्रों आदि से सुसज्जित था। जब कूविये एक काम से थक जाता तो वह दूसरे कमरे में चला जाता था और बौद्धिक काम के बदल देने को आराम करने के बराबर मानता था। मार्क्‍स भी कूविये के समान अथक परिश्रमी थे परन्‍तु उसकी तरह कई कमरे रखने की उनकी सामर्थ्‍य नहीं थी। वह कमरे में इधर से उधर टहलकर आराम करते थे और दरवाजे और खिड़की के बीच में दरी पर घिसते-घिसते मैदान की पगडंडी की तरह कए साफ रास्‍ता बन गया। कभी-कभी वह सोफे पर लेट कर उपन्‍यास पढ़ते थे। बहुधा वह एक साथ कई उपन्‍यास शुरू कर देते थे जिन्‍हें वह बारी-बारी से पढ़ते थे क्‍योंकि डार्विन की तरह वह भी बड़े उपन्‍यास प्रेमी थे। उन्‍हें 18वीं सदी के उपन्‍यास पसन्‍द थे। फील्डिंग का लिख हुआ ''टॉम जोन्‍स'' उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगता था। आधुनिक उपन्‍यासकरों में उनके सर्वप्रिय थे पैल डि कौक, चार्ल्‍स लीवर, ड्यूमा और सर वाल्‍टर स्‍कॉट। स्‍कॉट के 'ओल्‍ड मॉर्टेलिटी' नामक उपन्‍यास को वह उत्‍कृष्‍ट रचना मानते थे। उन्‍हें साहस के कामों वाली और मजाकिया कहानियाँ पसन्‍द थीं। उनके लिए श्रृंगार रस के सर्वोत्‍कृष्‍ट लेखक सरवेंटीज और बाल्‍जाक थे। उनके विचार से ''डॉन क्विक्‍सोट'' ठाकुरशाही के विनाशकाल का एक महान ग्रंथ था जब कि नये विकसित होने वाले पूँजीवादी संसार में उस युग के गुणों को केवल मूर्खता और बौड़मपन समझा जाने लगा था। बाल्‍जाक के लिए उनकी श्रद्धा बहुत गहरी थी। उन्‍होंने निश्‍चय किया था कि अर्थशास्‍त्र का अध्‍ययन समाप्‍त करने के बाद बाल्‍जाक की 'ह्यूमैन कॉमेडी' की आलोचना लिखेंगे। मार्क्‍स बाल्‍जाक को समकालीन सामाजिक जीवन का इतिहासकार ही नहीं बल्कि ऐसे पात्रों का भविष्‍यदर्शी रचयिता समझते थे जो लुई फिलिप के राज्‍य में केवल अधूरे रूप में थे और बाल्‍जाक की मृत्‍यु के बाद तीसरे नेपोलियन के समय में पूर्ण रूप से विकसित हुए।

मार्क्‍स योरप की सब प्रमुख भाषाओं को पढ़ सकते थे और तीन भाषाओं में (जर्मन, अंग्रेजी तथा फ्रेंच में) ऐसा लिख सकते थे कि उस भाषा को अच्‍छी तरह जानने वाले भी उसकी तारीफ करते थे। वह बहुधा कह सकते थे कि ''जीवन के संग्राम में विदेशी भाषा एक हथियार होती है''। उनमें भाषाएँ सीखने की बड़ी योग्यता थी और इसको उनकी लड़कियों ने भी उनसे प्राप्‍त किया था। जब उन्‍होंने रूसी भाषा सीखनी शुरू की तो वह पचास बरस के हो चुके थे। यद्यपि जो मृत तथा जीवित भाषाएँ वह जानते थे उनका रूसी से कोई भी निकट का संबंध नहीं था, तब भी छ: महीने में उन्‍होंने इतनी प्रगति कर ली थी कि जो लेखक और कवि उन्‍हें पसन्‍द थे (अर्थात् पुश्किन, गोगोल और श्‍चेडरिन) उनकी रचनाएँ वह मूल में पढ़ सकते थे। रूसी सीखने का कारण यह था कि वह कुछ छानबीनों का सरकारी ब्‍यौरा पढ़ना चाहते थे। उन छानबीनों के निष्‍कर्ष इतने भयानक थे कि सरकार ने उन्‍हें दबा दिया था। मार्क्‍स के कुछ भक्‍तों ने मार्क्‍स के लिए उनकी प्रतियाँ मँगा दी थीं और पश्चिमी योरप में केवल मार्क्‍स ही ऐसे अर्थशास्‍त्री थे जिन्‍हें उनका ज्ञान था।

कविता तथा उपन्‍यास पढ़ने के अलावा मानसिक विश्राम के लिए मार्क्‍स का एक और अद्भुत तरीका था। गणित के वह बड़े प्रेमी थे। बीजगणित से उनको नैतिक सान्‍त्‍वना तक मिलती थी और अपने तूफानी जीवन की सबसे दु:खपूर्ण घड़ियों में वे उसका आसरा लिया करते थे। उनकी पत्‍नी की अन्तिम बीमारी में अपने वैज्ञानिक काम को हमेशा की तरह चलाना उनके लिए मुश्किल हो गया था और उसकी बीमारी और कष्‍ट के बारे में सोचने से बचने का उपाय केवल यही था कि अपने को गणित में डुबो दें। मानसिक कष्‍ट के इस समय में उन्‍होंने गणित पर एक निबन्‍ध लिखा। जो गणितशास्‍त्री इसे जानते हैं उनका कहना है कि यह रचना बड़ी महत्‍वपूर्ण है और मार्क्‍स की ग्रन्‍थावली में छपेगी। उच्‍च गणित में वह द्वंद्वात्‍मक गति का सबसे सादा और तर्कपूर्ण रूप निकाल सकते थे। उनकी विचारधारा के अनुसार विज्ञान की कोई शाखा तभी सचमुच विकसित कही जा सकती है जब उसका रूप ऐसा हो जाय कि वह गणित का प्रयोग कर सके।

मार्क्‍स का पुस्‍तकालय, जिसमें जीवन भर की खोज के परिश्रम से एक हजार से ज्‍यादा किताबें जमा थीं, उनकी आवश्‍यकताओं के लिए काफी नहीं था। इसलिए वह ब्रिटिश म्‍यूजियम के वाचनालय में नियम से जाते थे और वहाँ की सूची को बहुत मूल्‍यवान समझते थे। उनके विपक्षियों को भी यह स्‍वीकार करना पड़ता था कि वह प्रकाण्‍ड विद्वान थे। और केवल अपने प्रिय विषय अर्थशास्‍त्र में ही नहीं बल्कि सब देशों के इतिहास, दर्शन और साहित्‍य में भी उनका ज्ञान अगाध था।

यद्यपि वह हमेशा देर से सोते थे तब भी वह हमेशा आठ और नौ बजे के बीच में उठ जाते थे। काली कॉफी का प्‍याला पीकर और अखबारों को पढ़कर वह अपने पढ़ने के कमरे में चले जाते, और दूसरे दिन सबेरे के दो-तीन बजे तक काम करते रहते थे। बीच में वह सिर्फ खाने के लिए, और - अच्‍छे मौसम में - हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में टहलने के लिए उठते थे। दिन में वह एक या दो घंटे सोफे पर सो लेते थे। युवावस्‍था में उन्‍हें सारी रात काम करते हुए बिताने की आदत थी। मार्क्‍स के लिए काम करना तो एक व्‍यसन हो गया था और वह भी ऐसा तल्‍लीन करने वाला कि वह खाना तक भूल जाते थे। बहुधा उन्‍हें कई बार बुलाना पड़ता था; तब वह खाने के कमरे में आते थे और अन्तिम कौर मुश्किल से खत्‍म होता था कि वह उठ कर वापिस अपनी मेज पर जा बैठते थे। वह खाते कम थे और उन्‍हें भूख न लगने की शिकायत तक रहा करती थी। सुअर का गोश्‍त, धुँए पर पकी मछली और अचार जैसे चटपटे खानों से वह वह इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते थे। उनके मस्तिष्‍क की अपूर्व कार्यशीलता का दण्‍ड उनके पेट को भरना पड़ता था; दिमाग के लिए वास्‍तव में उन्‍होंने अपने पूरे शरीर को बलिदान कर दिया था। विचार करना उनके लिए सबसे बड़ा सुख था। मैंने बहुधा उनको अपनी युवास्‍था के गुरु हेगेल का यह कथन उद्धृत करते हुए सुना है कि, ''किसी धूर्त का एक पापपूर्ण विचार भी किसी दैवी चमत्‍कार से उच्‍च और पवित्र है।''

उनका शरीर निश्‍चय ही बड़ा बलवान रहा होगा, नहीं तो वह कभी इतने असाधारण जीवन और ऐसी थकाने वाली दिमागी मेहनत को नहीं सह सकते। औसत से कुछ ज्‍यादा लम्‍बे, चौड़े कन्‍धे, चौड़ी छाती-कुल मिलाकर उनके अंग सुडौल थे, यद्यपि उनके पैर शरीर की तुलना में छोटे थे (जैसा कि यहूदी जाति में अकसर होता है)। अगर अपनी जवानी में वह व्‍यायाम का अभ्‍यास करते तो अत्‍यन्‍त बलवान आदमी बन जाते। उनका एकमात्र शारीरिक व्‍यायाम था हवाखोरी। लगातार सिगार पीते और बातचीत करते हुए और थकान की कोई भी निशानी दिखाये बिना यह घन्‍टों चल सकते थे और पहाड़ों पर चढ़ सकते थे। यह कहा जा सकता है कि वह अपना काम कमरे में टहलते हुए करते थे। केवल थोड़ी देर के लिये वह डेस्‍क के सामने बैठ जाते ताकि फर्श पर टहलते हुए उन्‍होंने जो सोचा है उसे लिख डालें। इस तरह टहलते-टहलते बातचीत करने का भी उन्‍हें शौक था। हाँ, जब तर्क-वितर्क गरमागरम होता या बात विशेष महत्‍वपूर्ण होती तो वे बीच-बीच में जरा रुक जाते थे।

बहुत साल तक हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में उनके साथ शाम को हवाखोरी करने मैं भी जाया करता था। और मैदानों के बीच इन्‍हीं हवाखोरियों में मैंने उनसे अर्थशास्‍त्र की शिक्षा पायी। मेरे साथ इस बातचीत में उन्‍होंने ''कैपीटल'' के पहले भाग को, जिस वे उस समय लिख रहे थे, मेरे सामने विकसित किया। जैसे ही मैं घर पहुँचता वैसे ही अपनी योग्‍यतानुसार जो कुछ मैंने सुना था उसका सार लिख लेता था। परन्‍तु शुरू में मार्क्‍स की तीक्ष्‍ण और जटिल विचारधारा को समझने में बड़ी मुश्किल हुई। दुर्भाग्‍यवश मेरे ये अमूल्‍य कागज खो गये हैं क्‍योंकि कम्‍यून के बाद पैरिस और बोरदों में पुलिस ने मेरे कागज हथिया लिये और जला डाले। एक दिन मार्क्‍स ने अपने स्‍वभावानुसार बहुत से प्रमाणों और विचारों के साथ मानव समाज के विकास के अपने अद्भुत सिद्धांत का बखान किया था। वह मैंने लिख लिया था। पर अन्‍य कागजों के साथ वे भी पुलिस के हाथों पड़ गये। मुझे उन कागजों के खो जाने का विशेष दु:ख है। मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आँखों के सामने से पर्दा हट गया हो। पहली बार मैंने विश्‍व-इतिहास के तर्क को समझा और समाज और विचारों के विकास के भौतिक कारणों को ढूँढ़ निकालने लायक हो गया-वह विकास जो बाहर से देखने से इतना तर्कहीन जान पड़ता है। इस सिद्धांत से मैं चकित हो गया और यह प्रभाव बरसों तक रहा। अपनी मामूली योग्‍यता से जब मैंने यह सिद्धांत मैड्रिड के साम्‍यवादियों को समझाया तो उन पर भी यही प्रभाव हुआ। मार्क्‍स के सिद्धांतों में यह सबसे महान है और निस्‍संदेह आदमी के दिमाग से निकला हुआ सर्वोत्‍कृष्‍ट सिद्धांत है।

मार्क्‍स का दिमाग ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्‍यों तथा दार्शनिक सिद्धांतों से अकल्‍पनीय मात्रा में सुसज्जित था और कड़े बौद्धिक परिश्रम से इकट्ठे किये हुए अपने ज्ञान और अनुभव का प्रयोग करने में उन्‍हें आश्‍चर्यजनक निपुणता प्राप्‍त थी। चाहे जिस समय और चाहे जिस विषय पर वह किसी भी प्रश्‍न का ऐसा जवाब दे सकते थे जो हर एक के लिये पूरी तरह संतोषजनक होता था। उनके उत्तर के पीछे हमेशा महत्‍वपूर्ण दार्शनिक विचार भी होते थे। उनका दिमाग उस लड़ाई के जहाज के समान था जो पूरी तैयारी से बन्‍दरगाह में खड़ा रहता है और इस बात के लिये तैयार रहता है कि किसी भी क्षण विचार के किसी भी सागर में चले पड़े। निस्‍संदेह ''कैपीटल'' ऐसे दिमाग की देन है जिसकी शक्ति अद्भुत आर ज्ञान अगाध है। परन्‍तु मेरे लिये और उन सबके लिये जो मार्क्‍स को अच्‍छी तरह जान चुके हैं, न तो ''कैपीटल'' और न उनकी अन्‍य कोई रचना उनके ज्ञान की पूरी मात्रा को, या उनकी योग्‍यता और अध्‍ययन की महानता को पूरी तरह प्रदर्शित करती है। वह स्‍वयं अपनी रचनाओं से कहीं महान थे।

मैंने मार्क्स के साथ काम किया है। यद्यपि मैं मार्क्‍स का केवल मुंशी था तो भी उनके लिखते समय मुझे यह देखने का अवसर मिला कि वह सोचते और लिखते किस प्रकार थे। उनके लिये उनका काम मुश्किल और साथ ही साथ आसान भी था। आसान इसलिये कि चाहे जो विषय हो, उसके संबंध में तथ्‍य और विचार प्रथम प्रयास में ही बहुतायत से उनके दिमाग में उठ खड़े होते थे। परन्‍तु इसी बाहुल्‍य से उनके विचारों की पूर्ण अभिव्‍यक्ति कठिन हो जाती थी और उन्‍हें परिश्रम अधिक करना पड़ता था।

बीको ने लिखा है, ''केवल सर्वज्ञ ईश्‍वर ही वस्‍तु की वास्‍तविकता को जान सकता है। मनुष्‍य वस्‍तु के बाहरी रूप से अधिक कुछ नहीं जानता!'' मार्क्‍स बीको के ईश्‍वर की भाँति वस्‍तुओं को देखते थे। वह केवल ऊपरी सतह को नहीं देखते थे बल्कि गहराई में जाकर प्रत्‍येक भाग के परस्‍पर संबंधों का निरीक्षण करते, प्रत्‍येक भाग को अलग-अलग करते और उसके विकास के इतिहास का अनुसंधान करते। फिर वस्‍तु के बाद वह उसके वातावरण को लेते और एक दूसरे पर दोनों के असर को देखते। अपने अध्‍ययन के विषय का पहले वह उद्गम देखते, उसमें जो परिवर्तन, विकास और क्रांति हुई है उस पर विचार करते। वह किसी वस्‍तु को अपने ही अस्तित्‍व में पूर्ण अपने वातावरण से अलग नहीं समझते थे, बल्कि संसार को अत्‍यंत जटिल और सदैव गतिशील मानते थे। उसकी विभिन्‍न तथा निरन्‍तर परिवर्तनशील क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के साथ संसार के पूर्ण जीवन की व्‍याख्‍या करना उनका ध्‍येय था। फ्लॉबेअर और डी गॉन्‍क्‍वा के मत के लेखक यह शिकायत करते हैं कि जो कुछ हम देखते हैं उसका सच्‍चा वर्णन करना मुश्किल है। परंतु वे जिसका वर्णन करना चाहते थे वह तो वीको का बताया हुआ बाहरी रूप मात्र है, उस वस्‍तु द्वारा उनके अपने मन पर पड़ी हुई छाप से अधिक किसी बात का वर्णन वे लोग नहीं करना चाहते थे। जिस काम का बीड़ा मार्क्‍स ने उठाया उसके मुकाबले में उनका साहित्यिक काम तो बच्‍चों का खेल था। वास्‍तविक सत्‍य को जानने के लिये, और उसकी इस भाँति व्‍याख्‍या करने के लिये कि दूसरे उसे समझ सकें, असाधारण विचारशक्ति और योग्‍यता की आवश्‍यकता है। मार्क्‍स अपनी रचनाओं में बराबर परिवर्तन करते रहते और सदा यही समझते थे कि व्‍याख्‍या विचार के अनुकूल नहीं हुई। बाल्जाक की एक मनोवैज्ञानिक रचना, ''अज्ञात महान रचना'' का, जिसमें से जोला ने बहुत कुछ चुरा लिया था, उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा क्‍योंकि कुछ हद तक उसमें उनके भावों का वर्णन था। योग्‍य चित्रकार अपने दिमाग में बने हुए चित्र को ठीक वैसा ही बनाने की इच्छा से इतना पागल बना रहता है कि वह तूलिका से बार-बार कपड़े पर रंग लगाता है। यहां तक कि अंत में वह चित्र केवल रंगों का एक रूपहीन मिश्रण बन जाता है। परन्‍तु तब भी चित्रकार की पक्षपातपूर्ण आँखों को वह वास्‍तविकता का निर्दोष चित्र जान पड़ता है।

कुशल विचारक (दार्शनिक) होने के दोनों आवश्‍यक गुण मार्क्‍स में थे। उनमें किसी वस्‍तु को उसके विभिन्‍न अंगों में विभाजित करने की अनुपम शक्ति थी, और वह वस्‍तु को उसके सब अवयवों और विकास के रूपान्‍तरों के साथ पुननिर्माण करने में और उसके आन्‍तरिक संबंधों को खोज निकालने में भी निपुण थे। कुछ अर्थशास्त्रियों ने, जो विचार करने में असमर्थ है, उन पर आरोप किया है कि किसी बात को समझाते समय मार्क्‍स अमूर्त सिद्धांतों से उलझते रहते हैं, ठोस वस्‍तुओं की बात नहीं करते। किन्‍तु यह आरोप सही नहीं है। मार्क्‍स रेखागणित के विद्वानों की विधि का व्‍यवहार नहीं करते, जो अपनी परिभाषा को चारों ओर के संसार से अलग करके असलियत से दूर किसी जगत में अपने निष्‍कर्ष निकालने बैठते हैं। ''कैपीटल'' की विशेषता इस बात में नहीं है कि उसमें विलक्षण परिभाषाएँ अथवा चीजों को समझाने के विलक्षण गुर दिये हुए हैं। ये चीजें हम उस ग्रंथ में नहीं पाते। किन्‍तु उसमें अत्‍यंत सूक्ष्‍म विश्‍लेषणों की लड़ी-सी मिलती है। इन विश्‍लेषणों के द्वारा मार्क्‍स वस्‍तु के क्षणिक से क्षणिक रूप, और मात्रा में होने वाले छोटे से छोटे अंतर अथवा हरेफेर को भी सूक्ष्‍मता से प्रगट कर देते हैं। वह रूप में इस बात को देखते हैं कि जिन समाजों में उत्‍पादन की प्रणाली पूंजीवादी है उनकी संपत्ति माल के विशाल संग्रह के रूप में होती है। माल, यानी स्‍थूल वस्‍तुएँ ही वे अवयव हैं जिनसे पूंजीवादी संपत्ति बनती है, गणित के निर्जीव तथ्‍य नहीं। मार्क्‍स फिर माल की अच्‍छी तरह जाँच-पड़ताल करते हैं। उसे प्रत्‍येक दिशा में घुमाते फिराते है, उलटते पलटते हैं और उसमें से एक के बाद दूसरा भेद निकालते हैं-वे भेद जिनका सरकारी अर्थशास्त्रियों को कभी पता भी नहीं लगा और जो कैथोलिक धर्म के रहस्‍यों से संख्‍या में ज्‍यादा और अधिक गूढ़ हैं। माल का हर ओर से अध्‍ययन करने के बाद वह उसके अन्‍य मालों के साथ संबंध, यानी विनिमय को देखते हैं, फिर उसके उत्‍पादन और उत्‍पादन के लिये आवश्‍यक ऐतिहासिक परिस्थिति को देखते हैं। वह माल के विभिन्‍न रूपों का निरीक्षण करते हैं और यह दिखाते हैं कि एक रूप कैसे दूसरे में बदल जाता है और किस प्रकार एक रूप अवश्‍यमेव दूसरे रूप का जन्‍मदाता होता है। इस क्रिया के विकास का तर्कपूर्ण चित्र इस अपूर्व क्षमता के द्वारा दिखाया गया है कि हम शायद यह समझें कि मार्क्‍स ने उसे गढ़ लिया है। परंतु वह वास्‍तव है और माल की असली गति की ही अभिव्‍यक्ति है।

मार्क्‍स हमेशा बड़ी ईमानदारी से काम करते थे। वह कोई ऐसी बात नहीं लिखते थे जिसे वह प्रमाणित न कर सकें। इस मामले में उन्‍हें उद्धृत कथन से संतोष नहीं होता था। वह सदैव मौलिक स्रोत खोज निकालते थे, उसके लिये चाहे जितना कष्‍ट उठाना पड़े। किसी साधारण-सी चीज की सच्‍चाई की खोज में वह बहुधा ब्रिटिश म्‍यूजिअम जाते थे। इसलिये उनके आलोचक कोई ऐसी त्रुटि नहीं निकाल सके जो लापरवाही के कारण हुई हो, न वे यह दिखा सके कि मार्क्‍स के कोई निष्‍कर्ष ऐसे तथ्‍यों पर आधारित हैं जो जाँच करने से सही न निकलें। मौलिक लेखकों को पढ़ने की उनकी आदत के कारण उन्‍होंने बहुत से ऐसे लेखकों को पढ़ा जो लगभग अज्ञात थे और जिनको केवल मार्क्‍स ने ही उद्धृत किया है। ''कैपीटल'' में अज्ञात लेखकों के इतने उद्धरण हैं कि यह समझा जा सकता है कि उन्‍हें ज्ञान का दिखावा करने के लिये रखा गया है। परन्‍तु मार्क्‍स को बिल्‍कुल दूसरी भावना प्रेरित कर रही थी। वह कहते थे कि ''मैं ऐतिहासिक न्‍याय करता हूँ और प्रत्‍येक मनुष्‍य को जो उचित होता है, दूता हूँ।'' जिसने सबसे पहले एक विचार की अभिव्‍यक्ति की थी अथवा औरों से अधिक सच्‍चाई से अभिव्‍यंजना की थी, उस लेखक का नाम लिखना वह अपना कर्त्तव्‍य समझते थे, चाहे वह कितना ही साधारण और अज्ञात क्‍यों न हो।

उनका साहित्यिक अन्‍त:करण उनके वैज्ञानिक अन्‍त:करण से कम न्‍यायप्रिय नहीं था। जिस तथ्‍य की सत्‍यता का उन्‍हें पूरा भरोसा नहीं होता था उसका वह कभी विश्‍वास नहीं करते थे, बल्कि जब तक किसी विषय का पूरा अध्‍ययन न कर लें तब तक वह उसके बारे में बोलते ही न थे। जब तक वह अपना लेख बार-बार पढ़ नहीं लेते थे और जब तक उसका रूप संतोषजनक नहीं हो जाता था, तब तक वह कुछ भी नहीं छपवाते थे। पाठकों के सामने अपने अधूरे विचार रखना उनके लिये असह्य था। पूरी तरह दुहराये बिना अपनी पुस्‍तक दिखाने में उनको अत्‍यन्‍त कष्‍ट होता। उनकी यह भावना इतनी प्रबल थी कि उन्‍होंने मुझसे कहा कि अधूरा छोड़ने की अपेक्षा मैं अपनी पुस्‍तकों को जला देना पसन्‍द करूँगा। उनके काम करने के तरीके की वजह से उन्‍हें बहुत बार ऐसी मेहनत करनी पड़ती जिसका अनुभव उनकी पुस्‍तकों के पाठकों को मुश्किल से हो सकता है। जैसे इंग्‍लैण्‍ड के कारखानों के संबंध में पार्लियामेंट के बनाये हुए नियमों के बारे में ''कैपीटल'' में लगभग बीस पन्‍ने लिखने के लिये उन्‍होंने जाँच की समितियों तथा अंग्रेजी और स्‍कॉटलैण्‍ड की मिलों के इन्‍सपेक्‍टरों की लिखी हुई सरकारी रिपोर्टों का एक पूरा पुस्‍तकालय पढ़ डाला। पेन्सिल के निशानों से मालूम होता है कि उन्‍होंने इन्‍हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ा था। उनका विचार था कि ये पूँजीवादी उत्‍पादन प्रणाली के विषय में सबसे महत्‍वपूर्ण और उपयोगी कागजों में से थे। जिन आदमियों ने इन्‍हें तैयार किया था उनके बारे में मार्क्‍स की बहुत अच्‍छी राय थी। मार्क्‍स कहते थे कि अन्‍य देशों में ऐसे आदमी शायद ही मिल सकेंगे जो, ''इतने योग्‍य, इतने पक्षपात रहित और बड़े आदमियों के डर से इतने मुक्‍त हों, जितने कारखानों के अंग्रेज इन्‍सपेक्‍टर होते हैं''। ''कैपीटल'' के पहले भाग की भूमिका में यह असाधारण प्रशंसा लिखी मिलेगी।

मार्क्‍स ने इन सरकारी पुस्तिकाओं में से अनेक तथ्‍य निकाले। ये पुस्तिकाएँ हाउस ऑफ कामन्‍स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्‍यों को बाँटी जाती थीं। वे लोग इनको निशाना बना कर इस बात से अपने हथियारों की शक्ति का अनुमान किया करते थे कि गोली ने कितने पन्‍नों को पार किया। कुछ लोग तोल के हिसाब से इन्‍हें रद्दी कागजों में बेच देते थे। यह उपयोग सबसे अच्‍छा था क्‍योंकि इसके कारण मार्क्‍स को अपने लिये लौंग एकर के एक रद्दी बेचने वाले कबाड़ी से ये पुस्तिकाएँ सस्‍ते दामों में मिल गयीं। प्रोफेसर बीजले का कहना है कि मार्क्‍स ही एक ऐसा आदमी था जो इन सरकारी छानबीनों की ज्‍यादा कदर करता था और उसी ने दुनिया में इनकी जानकारी फैलायी। परन्‍तु बीजले को यह नहीं मालूम था कि सन 1845 में एगेल्‍स ने इन अंग्रेजी सरकारी पुस्‍तकाओं में से अपने लेख ''सन 1844 में इंग्‍लैण्‍ड में मजूदर-वर्ग की दशा'' के लिये बहुत से अंश लिये थे।



2

जो मार्क्‍स के मानव हृदय को जानता चाहते है, उस हृदय को जो विद्वत्ता के बाहरी आचरण के भीतर भी इतना स्निग्‍ध था, उन्‍हें मार्क्‍स को उस समय देखना चाहिये जब उनकी पुस्‍तकें और लेख अलग रख दिये जाते थे, जब वह अपने परिवार के साथ होते थे और जब वह रविवार की शाम को अपनी मित्र मंडली में रहते थे। ऐसे समय में वह बड़े अच्‍छे साथी साबित होते थे। हँसी मजाक तो जैसे उमड़ा पड़ता था। उनकी हँसी दिखावटी नहीं होती थी। कोई मौके का जवाब या चुटीला वाक्‍य सुनकर घनी भौहों वाली उनकी काली आँखें खुशी से चमकने लगती थीं।

वह बड़े स्‍नेहपूर्ण, दयालु और उदार पिता थे। वह बहुधा कहते थे कि ''माँ-बाप को अपने बच्‍चों से शिक्षा लेनी चाहिये''। उनकी लड़कियाँ उनसे बड़ा स्‍नेह करती थी और उनके आपस के संबंध में पैतृक शासन लेशमात्र भी नहीं था। वह उन्‍हें कभी कुछ करने की आज्ञा नहीं देते थे। केवल उनसे अपने लिये कोई काम करने का अनुरोध करते या जो उन्‍हें नापसन्‍द होता वह न करने की उनसे प्रार्थना करते। परन्‍तु फिर भी शायद ही कभी किसी पिता की सलाह उनसे अधिक मानी गयी होगी। उनकी लड़कियाँ उन्‍हें अपना मित्र समझती थीं और उनके साथ अपने साथी के समान बर्ताव करती थी। वह उन्‍हें पिताजी नहीं बल्कि 'मूर' कहती थीं। उनके साँवले रंग, काले बाल और काली दाढ़ी के कारण उन्‍हें यह उपनाम दिया गया था। परन्‍तु इसके विपरीत सन 1848 तक में, जब वह तीस बरस के भी नहीं थे, कम्युनिस्ट लीग के अपने साथी सदस्‍यों के लिये वह 'बाबा मार्क्‍स' थे।

अपने बच्‍चों के साथ खोलते हुए वह घंटों बिता देते थे। बच्‍चों को अभी तक वह समुद्री लड़ाइयाँ और कागजी नावों के उस पूरे बेड़े का जलाना याद है जिसे मार्क्‍स बच्‍चों के लिए बनाते थे और पानी की बाल्‍टी में छोड़कर उसमें आग लगा देते थे। इतवार को लड़कियाँ उन्‍हें काम नहीं करने देती थीं। उस रोज वह दिन भर के लिये बच्‍चों के हो जाते थे। जब मौसम अच्‍छा होता था तो पूरा कुटुम्‍ब देहात की ओर घूमने जाता था। रास्‍ते के किसी होटल में रुककर पनीर, रोटी और जिंजर बीअर का साधारण भोजन होता। जब बच्‍चे बहुत छोटे थे तो वह रास्‍ते भर उन्‍हें कहानियाँ सुनाते रहते जिससे वे थकें नहीं। वह उन्‍हें कभी न खत्‍म होने वाली कल्‍पनापूर्ण परियों की कहानियाँ सुनाते थे, जिन्‍हें वह चलते-चलते गढ़ते जाते थे। और रास्‍ते की लम्‍बाई के अनुसार उन्‍हें घटाते-बढ़ाते रहते थे ताकि सुनने वाले अपनी थकान भूल जायें। मार्क्‍स की कल्‍पना शक्ति बड़ी समृद्ध और काव्‍यपूर्ण थी और अपने प्रथम साहित्यिक प्रयास में उन्‍होंने कविताएँ लिखी थीं। उनकी स्‍त्री इन युवावस्‍था की कविताओं का बड़ा आदर करती थीं परन्‍तु किसी को देखने नहीं देती थीं। मार्क्‍स के माँ-बाप अपने लड़के को साहित्यिक या विश्‍वविद्यालय का अध्‍यापक बनाना चाहते थे। उनके विचार से अपने को साम्‍यवादी आन्‍दोलन में लगाकर और अर्थशास्‍त्र के अध्‍ययन में लगकर (इस विषय का उस समय जर्मनी में बहुत कम आदर किया जाता था) मार्क्‍स अपने को नीचा कर रहे थे।

मार्क्‍स ने एक बार अपनी लड़कियों से ग्राची के बारे में नाटक लिखने का वादा किया था। दुर्भाग्‍यवश यह इरादा कभी पूरा नहीं हुआ। यह देखना बड़ा मनोरंजक होता कि 'वर्ग-संघर्ष का योद्धा' (मार्क्‍स को यही कहा जाता था) प्राचीन संसार के वर्ग-संघर्षों की इस भयानक और उज्‍ज्वल घटना को कैसे दिखाता। यह अनेक योजनाओं में से केवल एक थी जो कभी पूरी नहीं हो सकी। उदाहरणार्थ वह तर्कशास्‍त्र पर एक पुस्‍तक लिखना चाहते थे और एक दर्शनशास्‍त्र के इतिहास पर। दर्शन युवाकाल में उनके अध्‍ययन का प्रिय विषय था। अपनी योजना की हुई सब किताबों को लिखने का अवसर पाने और संसार को अपने दिमाग में भरे हुए खजाने का एक अंश दिखाने के लिये उन्‍हें कम से कम सौ बरस तक जीने की जरूरत होती।

उनके जीवन भर उनकी स्‍त्री उनकी सच्ची और वास्‍तविक साथी रही। वे एक दूसरे को बचपन से जानते थे और साथ-साथ बड़े हुए थे। जब उनकी सगाई हुई तो मार्क्‍स केवल सत्रह बरस के थे। सन 1843 में उनकी शादी हुई। किन्‍तु उसके पहले उन्‍हें नौ बरस तक इंतजार करना पड़ा था। पर उसके बाद श्रीमती मार्क्‍स के देहान्‍त तक-जो उनके पति से कुछ ही समय पहले हुआ- वे कभी अलग नहीं हुए। यद्यपि उनका जन्‍म और पालन पोषण एक अमीर जर्मन घराने में हुआ था, तो भी उनकी सी समता की प्रबल भावना होना कठिन है। उनके लिये सामाजिक अंतर और विभाजन थे ही नहीं। उनके घर में खाने के लिये अपने काम के कपड़े पहने हुए एक मजदूर का उतनी ही नम्रता और आदर से स्‍वागत होता था जितना किसी राजकुमार या नवाब का होता। अनेक देश के मजूदरों ने उनके आतिथ्‍य का सुख पाया। मुझे विश्‍वास है कि जिनका उन्‍होंने इतनी सादगी और सच्‍ची उदारता से सत्‍कार किया उनमें से किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका सत्‍कार करने वाले की ननसाल आरगाइल के ड्यूकों के वंश में थी और उसका भाई प्रशा के राजा का राजमंत्री रह चुका था। किंतु इन सब चीजों का श्रीमती मार्क्‍स के लिये कोई महत्‍व भी नहीं था। अपने कार्ल का अनुसरण करने के लिये उन्‍होंने इन सब चीजों को छोड़ दिया था और उन्‍होंने अपने किये पर कभी पछतावा नहीं किया, अपनी दरिद्रता के सबसे बुरे दिनों में भी नहीं।

उनका स्‍वभाव धैर्यवान और हंसमुख था। मित्रों को लिखे हुए उनके पत्र उनकी सरल लेखनी के अकृत्रिम उद्गारों में भरे होते थे और उनमें एक मौलिक और सजीव व्‍यक्तित्‍व की झाँकी मिलती है। जिस दिन उनका पत्र आता था उस दिन उनके मित्र खुशी मनाते थे। जोहान फिलिप बेकर ने उनमें से बहुतों को छापा है। निष्‍ठुर व्‍यंग लेखक, हाइने मार्क्‍स की खिल्‍ली उड़ाने की आदत से डरता था। परन्‍तु श्रीमती मार्क्‍स की पैनी बुद्धि की वह बड़ी तारीफ करता था। जब मार्क्‍स दम्‍पत्ति पैरिस में ठहरे तो वह बहुत बार उनके यहाँ आता। मार्क्‍स अपनी स्‍त्री की बुद्धि व आलोचना-शक्ति का इतना आदर करते थे कि (जैसा उन्‍होंने मुझे सन 1866 में बताया) अपने सब लेखों को वह उन्‍हें दिखाते थे और उनके विचारों को बहुमूल्‍य समझते थे। छापेखाने में जाने से पहले वही उनके लेखों की नकल कर दिया करती थीं।

श्रीमती मार्क्‍स के बहुत से बच्‍चे हुए। उनके तीन बच्‍चे उनकी दरिद्रता के उस जमाने में बचपन में ही मर गये जिसका उनके कुटुम्‍ब को सन 1848 की क्रांति के बाद सामना करना पड़ा। उस समय वे भागकर लंदन में सोहो स्‍क्‍वेअर की डीन स्‍ट्रीट पर दो कमरों में रहते थे। मेरी उनकी केवल तीन लड़कियों से जान-पहचान हुई। सन 1868 में जब मार्क्‍स से मेरा परिचय हुआ तो उनमें से सबसे छोटी, जो अब श्रीमती एवलिंग हैं, बड़ी प्‍यारी बच्‍ची थी और लड़की से ज्‍यादा लड़का मालूम होती थी। मार्क्‍स बहुधा हँसी में कहा करते थे कि इलीनोर को दुनिया को भेंट करते समय उनकी स्‍त्री ने उसके लिंग के बारे में गलती कर दी है। बाकी दोनों लड़कियाँ एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी बड़ी सुन्‍दर और आकर्षक थीं। उनमें से बड़ी, जो अब श्रीमती लौंगुए हैं, अपने बाप की तरह पक्‍के रंग की थी औ उसकी आँखें और बाल काले थे। छोटी, जो अब श्रीमती लाफार्ज हैं, अपनी मां के ऊपर थी। उसका रंग गोरा और गाल गुलाबी थे और सिर पर घुंघराले बालों की घनी लट थी जिसकी सुनहरी चमक से मालूम होता था कि उसमें डूबता सूरज छिपा हो।

इसके अलावा मार्क्‍स-परिवार में एक और महत्‍वपूर्ण प्राणी था जिसका नाम हेलेन डेमुथ था। वह किसान परिवार में जन्‍मी थी और काफी छोटी उम्र में ही, जेनी फौन वेस्‍टफेलन की कार्ल मार्क्‍स के साथ शादी होने के बहुत पहले ही, वह वेस्‍टफेलन परिवार में नौकर हो गयी थी। जब जेनी की शादी हुई तो हेलेन उसने मार्क्‍स परिवार के भाग्‍य का अनुसरण किया। यूरोप-भर में यात्राओं में वह मार्क्‍स और उनकी स्‍त्री के साथ गयी और उनके सब देश निकालों में उनके साथ रही। वह घर की कार्यशीलता की मूर्तिमान भावना थी और यह जानती थी कि मुश्किल से मुश्किल हालत में किस तरह काम चलाना चाहिये। उसकी किफायत, सफाई और चतुराई के ही कारण परिवार को दरिद्रता की सबसे बुरी दशा नहीं भोगनी पड़ी। वह घरेलू कामों में निपुण थी। वह रसोई बनाने वाली और नौकरानी का काम करती थी, बच्‍चों को कपड़े पहनाती थी, बच्‍चों के लिये कपड़े काटती थी और श्रीमती मार्क्‍स की मदद से उन्‍हें सीती भी थी। वह घर चलाती थी और साथ ही साथ मुख्‍य नौकरानी भी थी। बच्‍चे उसे अपनी माँ के समान प्‍यार करते थे। वह भी उसी तरह उन्‍हें प्‍यार करती थी और उनपर उसका माँ जैसा ही असर था। मार्क्‍स तथा उनकी स्‍त्री दोनों उसे एक प्रिय मित्र मानते थे। मार्क्‍स उसके साथ शतरंज खेला करते थे और बहुत बार हार जाते थे। मार्क्‍स-परिवार के लिये हेलेन का प्रेम आलोचनात्‍मक नहीं था। जो कोई मार्क्‍स की बुराई करता उसकी हेलेन के हाथों खैर न थी। जिसका भी कुटुम्‍ब से घना संबंध हो जाता था उसकी वह माँ की तरह देखभाल करने लगती थी। यह कहना चाहिये कि उसने पूरे परिवार को गोद ले लिया था। मार्क्‍स और उनकी स्‍त्री के बाद जीवित रहकर अब उसने अपना ध्‍यान और देखभाल एंगेल्‍स के ऊपर लगा दी है। उसका युवावस्‍था में एंगेल्‍स से परिचय हुआ था और उनसे भी वह उतना ही स्‍नेह करती थी। जितना मार्क्‍स के परिवार से।

इसके अलावा यह कहना चाहिये कि एंगेल्‍स भी मार्क्‍स के कुनबे का ही एक आदमी था। मार्क्‍स की लड़कियाँ उन्‍हें अपना दूसरा पिता कहती थीं। वह और मार्क्‍स एक प्राण दो काया के समान थे। जर्मनी में बरसों तक उनका नाम साथ-साथ लिया जाता था और इतिहास के पन्‍नों में उनका सदा साथ-साथ लिखा जायगा। मार्क्‍स और एंगेल्‍स ने प्राचीन काल के लेखकों द्वारा चित्रित मित्रता के आदर्श को आधुनिक युग में पूरा कर दिखाया। उनकी युवावस्‍था में भेंट हुई, उनका साथ ही साथ विकास हुआ, उनके विचारों और भावों में सदैव बड़ी घनिष्‍ठता रही, दोनों ने एक ही क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लिया और जब तक वे साथ रह सके दोनों साथ-साथ काम करते रहे। यदि परिस्थिति ने उन्‍हें अलग न कर दिया होता तो संभवत: वे जीवन भर साथ रहते।

सन 1848 की क्रांति के दमन के बाद एंगेल्‍स को मेंचेस्‍टर जाना पड़ा और मार्क्‍स को लंदन में रहना पड़ा। फिर भी चिट्ठी-पत्री द्वारा अपने बौद्धिक जीवन की घनिष्‍ठता उन्‍होंने बनाये रखी। लगभग हर रोज वे एक दूसरे को राजनीतिक और वैज्ञानिक घटनाओं, और जिस काम में वे लगे थे उसके बारे में लिखते रहते थे। जैसे ही एंगेल्‍स को मेंचेस्‍टर से अपने काम से फुरसत मिली उन्‍होंने लंदन में अपने प्रिय मार्क्‍स से केवल दस मिनिट के रास्‍ते की दूरी पर अपना घर बनाया। सन 1870 से सन 1883 में मार्क्‍स की मृत्‍यु तक मुश्किल से कोई दिन ऐसा बीतता होगा जब वे दोनों घरों में से एक घर में आपस में न मिलते हों।

जब कभी एंगेल्‍स मेंचेस्‍टर से आने का इरादा प्रकट करते थे, तो मार्क्‍स के परिवार में बड़ी खुशी मनायी जाती थी। बहुत दिन पहले ही उनके आने के बारे में बातचीत होने लगती थी। और आने के दिन तो मार्क्‍स इतने अधीर हो जाते थे कि वह काम नहीं कर सकते थे। अंत में भेंट का समय आता था और दोनों मित्र सिगरेट और शराब पीते और पिछली भेंट के बाद जो कुछ हुआ उसकी बातें करते हुए सारी रात बिता देते थे।

एंगेल्‍स की राय को मार्क्‍स और सब की सम्‍मति से ज्‍यादा मानते थे। एंगेल्‍स को वह अपने सहयोगी होने के योग्‍य समझते थे। सच तो यह है कि एंगेल्‍स उनके लिये पूरी पाठक-मंडली के बराबर थे। एंगेल्‍स को समझाने के लिये या किसी विषय पर उनकी राय बदलने के लिये मार्क्‍स किसी भी परिश्रम को अधिक नहीं समझते थे। उदाहरणार्थ, मुझे मालूम है कि एल्बिजेन्सिज की राजनीतिक और धार्मिक लड़ाई के बारे में किसी साधारण बात पर (मुझे अब याद नहीं आता कि वह क्‍या बात थी) एंगेल्‍स का विचार बदलने के उद्देश्‍य से तथ्‍य ढूंढ़ने के लिये उन्‍होंने कई बार पूरी पुस्‍तकें पढ़ीं। एंगेल्‍स का मत परिवर्तन कर लेना उनके लिये एक बड़ी विजय होती थी।

मार्क्‍स को एंगेल्‍स पर गर्व था। उन्‍होंने बड़ी खुशी के साथ मुझे अपने मित्र के नैतिक व बौद्धिक गुण गिनाये और, केवल उनसे मेरी भेंट कराने के लिये, उन्‍होंने मेंचेस्‍टर तक यात्रा की। वह एंगेल्‍स के ज्ञान की बहुमुखता की बड़ी तारीफ करते थे और उन्‍हें इसकी चिंता रहती थी कि कहीं उनके साथ कोई दुर्घटना न हो जाय। मुझसे मार्क्‍स ने कहा कि मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि खेतों में से पागलों की तरह तेज घोड़ा दौड़ाने में वह कहीं गिर न जाये।

मार्क्‍स जैसे स्‍नेही पति व पिता थे वैसे ही अच्‍छे मित्र भी थे। उनकी स्‍त्री, उनकी लड़कियाँ, हेलेन डेमुथ और फ्रेडरिक एंगेल्‍स उन जैसे आदमी के स्‍नेह के योग्‍य थे।

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मार्क्‍स ने अपना जीवन उग्र पूंजीवादी दल के नेता के रूप में शुरू किया था परन्‍तु जब उनके विचार बहुत साफ हो गये तो उन्‍होंने देखा कि उनके पुराने साथियों ने उनको छोड़ दिया और उनके समाजवादी होते ही उनके साथ दुश्‍मन जैसा बर्ताव करने लगे। उनके विरुद्ध बड़ा शोर मचाया गया, उनकी बुराई की गयी और उनपर अनेक आक्षेप किये गये, और फिर उन्‍हें जर्मनी से निकाल दिया गया। इसके बाद उनके और उनकी रचनाओं के विरुद्ध मौन रहने का षडयंत्र रचा गया। उनकी पुस्‍तक ''लुई नैपोलियन की 18वीं ब्रमेअर'' का पूरा बहिष्‍कार कर दिया गया। उस पुस्‍तक ने यह सिद्ध कर दिया कि सन 1848 के सब इतिहासकारों और लेखकों में एक मार्क्‍स ही थे जिन्‍होंने दूसरी दिसम्‍बर सन 1851 की राजनीतिक क्रांति के कारणों और परिणामों की असलियत को समझा और उसका वर्णन किया था। उसकी सच्‍चाई के बावजूद एक भी पूंजीवादी पत्रिका ने इस रचना का उल्‍लेख तक नहीं किया। ''दर्शनशास्‍त्र की दरिद्रता'' (जो प्रूधों की पुस्‍तक ''दरिद्रता का दर्शनशास्‍त्र'' का उत्तर थी) और ''अर्थशास्‍त्र की आलोचना'' का भी बहिष्‍कार किया गया। विश्‍व मजदूर संघ की (पहले इंटरनेशनल की) स्‍थापना और ''कैपीटल'' के पहले भाग के छपने से पंद्रह बरस से चलने वाले इस षड्यंत्र को तोड़ दिया था। मार्क्‍स की अब अवहेलना नहीं की जा सकती थी। विश्‍व संघ बढ़ा और अपने कामों की बड़ाई से उसने दुनिया को भर दिया। यद्यपि अपने को पीछे रखकर मार्क्‍स ने दूसरों को प्रमुख कार्यकर्त्ता होने दिया पर संचालक का पता जल्‍दी ही लग गया। जर्मनी में सामाजिक जनवादी दल की स्‍थापना हुई और वह जल्‍दी ही इतना बलवान हो गया कि उस पर हमला करने के पहले बिस्‍मार्क ने उसकी खुशामद की। लास्‍साल के एक चेले श्‍वीट्जर ने एक लेखमाला लिखी, (जिसे मार्क्‍स ने भी उल्‍लेखनीय समझा) जिसने मजदूर वर्ग के नेताओं को 'कैपीटल' का ज्ञान कराया। इंटरनेशनल कांग्रेस ने जोहान फिलिप बेकर का प्रस्‍ताव पास किया कि इस किताब को अंतरराष्‍ट्रीय सोशलिस्‍टों को मजदूर वर्ग का धर्म- ग्रंथ समझना चाहिये।

18 मार्च सन 1871 के विद्रोह के बाद जिसने विश्‍व संघ के आदेशानुसार चलने की कोशिश की थी और कम्‍यून की पराजय के बाद, (जिसको विश्‍व संघ की सार्वजनिक सभा ने सब देशों के पूँजीवादी अखबारों के आक्षेपों से बचाया) मार्क्‍स का नाम दुनिया भर में विख्‍यात हो गया। अब सारे संसार में उनको वैज्ञानिक समाजवाद का अज्ञेय सिद्धांतेवत्ता और प्रथम अंतरराष्‍ट्रीय मजूदर आंदोलन का नेता मान लिया गया। हर देश में ''कैपीटल'' समाजवादियों की मुख्‍य पुस्‍तक हो गयी। सब समाजवादी और मजदूर पत्रिकाओं ने उनके सिद्धांतों को फैलाया और न्‍यूयार्क की एक बड़ी हड़ताल में मजूदरों को दृढ़ रहने की प्रेरणा देने के लिये और उनको अपनी माँगों की न्‍यायपूर्णता दिखाने के लिये मार्क्‍स के लेखों के उद्धरण इश्तिहारों के रूप में छापे गये। ''कैपीटल'' का जर्मन से और प्रमुख यूरोपीय भाषाओं (रूसी, फ्रेंच व अंग्रेजी में) अनुवाद किया गया। किताब के उद्धरण जर्मन, इटालियन, फ्रेंच, स्‍पैनिश और डच भाषा में छपे। जब कभी भी यूरोप या अमरीका में विरोधियों ने मार्क्‍स के सिद्धांतों का खंडन करने की कोशिश की है, तो समाजवादी अर्थशास्‍त्री उसका उपयुक्‍त उत्तर दे सके हैं। आज तो वास्‍तव में जैसा विश्‍व संघ के उपरोक्‍त अधिवेशन ने कहा था, ''कैपीटल'' सर्वहारा वर्ग का धर्म-ग्रंथ हो गया है।

परन्‍तु अंतरराष्‍ट्रीय समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लेने से मार्क्‍स को अपने वैज्ञानिक अध्‍ययन के लिये बहुत कम समय बचता था। और उनकी स्‍त्री तथा बड़ी लड़की, श्रीमती लौंगुएँ, की मृत्‍यु ने इस काम में और भी घातक विघ्न डाला।

मार्क्‍स तथा उनकी स्‍त्री का संबंध अत्‍यंत घनिष्‍ठ और परस्‍पर निर्भरता का था। उसकी सुंदरता पर मार्क्‍स को खुशी और अभिमान था और उसकी भक्ति ने उनके लिये उस गरीबी को सहना आसान कर दिया था जो उनके क्रांतिकारी समाजवादी के तरह-तरह के जीवन का आवश्‍यक अंग थी। जिस बीमारी ने श्रीमती मार्क्‍स को कब्र तक पहुंचाया उसने उनके पति के जीवन को भी कम क‍र दिया। उनकी लंबी और दुखदायी बीमारी में मार्क्‍स थक गये-दुख से मानसिक रूप में, और न सोने से और हवा और कसरत की कमी से शारीरिक रूप में। इन्‍हीं कारणों से उनके फेफड़ों में आसानी से वह सूजन हो गयी जो कि उनकी भी मृत्‍यु का कारण हुई।

श्रीमती मार्क्‍स का दूसरी दिसम्‍बर सन 1881 को देहांत हुआ। मरते दम तक वह कम्‍युनिस्‍ट और भौतिकतावादी रहीं। उन्‍हें मृत्‍यु से कोई डर नहीं लगता था। जब उन्‍हें अंत समय निकट जान पड़ा तो उन्‍होंने कहा, ''कार्ल, मेरी ताकत खत्‍म हो गयी''। यही उनके अंतिम शब्‍द थे जो सुने जा सके। पाँचवी दिसम्‍बर को हाईगेट के कब्रिस्‍तान की अधार्मिक भूमि में उनको दफनाया गया। जीवन भर के उनके विचारों और उनके पति की सम्‍‍मति के अनुसार जनाजे को सार्वजनिक नहीं बनाया गया और शव के अंतिम निवास-स्‍थान तक केवल थोड़े से घनिष्‍ठ मित्र साथ गये। कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्‍स ने कहा :

''मित्रो! जिस ऊँचे विचार वाली स्‍त्री को हम यहाँ दफना रहे हैं वह सन 1814 में साब्‍जवीडल में पैदा हुई थी। कुछ ही दिन बाद इनके पिता बैरन फौन वेस्‍टफेलन राज्‍य के मंत्री नियुक्‍त हुए और उनकी ट्रेव्‍स को बदली हो गयी और वहाँ वे मार्क्‍स के परिवार के गाढ़े दोस्‍त हो गये। बच्‍चे साथ-साथ बड़े हुए। दोनों प्रतिभाशाली स्‍वभावों ने एक दूसरे को पाया। जब मार्क्‍स विश्‍वविद्यालय में गये तब इन दोनों ने अपने जीवन को एक सूत्र में बांधने का निश्‍चय कर लिया था।

''पहले राइनिश जाइटुंग के दमन के बाद, जिसके कुछ समय तक मार्क्‍स सम्‍पादक थे, सन 1843 में उनका विवाह हो गया। तब से जेनी मार्क्‍स ने अपने पति के भाग्‍य, परिश्रम और संघर्ष में हिस्‍सा ही नहीं लिया बल्कि अच्‍छी तरह समझकर और बड़े जोश से उनमें हाथ बँटाया।

"तरुण दम्‍पति पैरिस गये क्‍योंकि उनको देश निकाला, जो पहले उनकी अपनी इच्‍छा के कारण था, अब वास्‍तव में मिल गया। प्रशा की सरकार ने मार्क्‍स का वहाँ भी पीछा न छोड़ा। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अलैक्‍जेंडर फौन हमबोल्‍ड्ट जैसे आदमी ने भी मार्क्‍स के निर्वासन की आज्ञा जारी करने में सक्रिय भाग लिया। मार्क्‍स के कुटुम्‍ब को ब्रूसेल्‍स भागना पड़ा। इसके बाद फरवरी की क्रान्ति हुई। उसके बाद जो गड़बड़ फैली उससे ब्रूसेल्‍स भी अछूता न बचा और बेल्जियम की सरकार सिर्फ मार्क्‍स को कैद करने से संतुष्‍ट नहीं हुई बल्कि उसने उनकी पत्‍नी को भी बिना कारण जेल में डालना उचित समझा।

''जो क्रान्तिकारी प्रगति सन 1848 के आरम्‍भ में शुरू हुई थी वह अगले साल ही खत्‍म हो गयी। निर्वासन फिर शुरू हुआ-पहले तो पैरिस में और फिर फ्रांस की सरकारी दुबारा कोशिश से लन्‍दन में। इस बार तो जेनी मार्क्‍स के लिए यह सचमुच का निर्वासन था और उन्‍हें निर्वासन के सब दु:ख झेलने पड़े। फिर भी उन्‍होंने भौतिक कठिनाइयों को शांति से सहा यद्यपि इसके कारण उनको अपने दो लड़कों व एक लड़की की मौत के मुँह में जाते हुए देखना पड़ा। उनको इससे घोर दु:ख इस बात का हुआ कि सरकार और पूँजीवादी विरोधी दल, झूठे उदारपंथियों से लेकर जनवादियों तक, सब उनके पति के विरुद्ध एक बड़े भारी षड्यंत्र में मिल गये थे। उन लोगों ने मार्क्‍स पर अत्‍यन्‍त घृणित और नीच दोष लगाये थे। सब अखबारों ने उनका बहिष्‍कार कर दिया जिससे कुछ समय तक वह ऐसे दुश्‍मन के सामने निहत्‍थे खड़े रहे जिसे वह और उनकी स्‍त्री केवल घृणित ही मान सकते थे। और यह दशा बहुत समय तक रही।

''परन्‍तु इस परिस्थिति का भी अंत हुआ। यूरोप के सर्वहारा वर्ग को थोड़ी बहुत स्‍वतंत्रता मिली और इंटरनेशनल (विश्‍व संघ) की स्‍थापना की गयी। मजदूरों का वर्ग-संघर्ष एक देश से दूसरे देश में फैला और कार्ल मार्क्‍स, अगुओं के भी अगुआ होकर लड़े। मार्क्‍स पर किये गये आरोपों को श्रीमती मार्क्‍स ने हवा के सामने भूसे की तरह उड़ते देखा। सामन्‍तवादियों से लेकर जनवादियों तक, सब विभिन्‍न प्रतिगामियों ने जिस सिद्धांत का दमन करने के लिये इतनी मेहनत की थी, उनको उन्‍होंने सारे सभ्‍य संसार की भाषाओं में खुले आम प्रतिपादित होते देखा। मजूदर-आंदोलन उनके प्राणों का प्राण था, उसे उन्‍होंने रूस से अमरीका तक पुरानी दुनिया की नींव को हिलाते हुए देखा और प्रबल विरोध के होते हुए भी विजय के अधिकाधिक विश्वास के साथ आगे बढ़ते देखा। राइशटाग के (जर्मन पार्लियामेण्‍ट के) पिछले चुनाव में जर्मन मजदूरों ने अपनी अपार शक्ति का जो प्रबल प्रमाण दिया उसे देखकर उन्‍होंने अपार संतोष का अनुभव किया।

''जिस स्‍त्री की बुद्धि इतनी तीक्ष्‍ण और आलोचनात्‍मक थी, जिसे इतनी राजनीतिक समझ थी, जिसमें इतना उत्‍साह और शक्ति थी, मजदूर आंदोलन के अपने साथी योद्धाओं के लिये जिसके मन में इतना स्‍नेह था, ऐसी स्‍त्री ने पिछले चालीस बरसों में क्‍या-क्‍या किया, यह जनता को मालूम नहीं है। यह सम-सामयिक अखबारों के पन्‍नों में अंकित नहीं है। यह सिर्फ उन्‍हें मालूम है जिन्‍होंने इस सबका अनुभव किया है। परन्‍तु इसका मुझे भरोसा है कि कम्‍यून के दमन के बाद भागे हुए आदमियों की स्त्रियाँ बहुत बार उन्‍हें याद करेंगी और हम में से बहुत से उनकी चतुर और साहसपूर्ण सलाह की कमी को दुख से याद करेंगे, जो साहसपूर्ण होती थी परन्‍तु गर्वपूर्ण नहीं, चतुर होती थी परन्‍तु असम्‍मानजनक नहीं।

''मुझे उनके निजी गुणों के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उनके मित्र उन्‍हें जानते हैं और उन्‍हें सदा याद रखेंगे। यदि कभी कोई ऐसी स्‍त्री थी जिसे दूसरों को सुखी बनाने में ही चरम सुख मिलता था तो वह श्रीमती मार्क्‍स थी।''
ये य
अपनी स्‍त्री की मौत के बाद मार्क्‍स का जीवन शारीरिक और नैतिक दुख से भारी हो उठा किन्‍तु वह उसे धैर्य से सहते रहे। पर जब साल भर बाद उनकी बड़ी लड़की श्रीमती लौंगुए भी चल बसीं तो यह दुख बहुत बढ़ गया। उनका दिल टूट गया और वे इस शोक को न भूल सके। चौदह मार्च सन 1883 को 67वें वर्ष में वह अपने काम करने की मेज के सामने बैठे हुए सदा के लिये सो गये।