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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 दिसंबर, 2018

मैं क्यों लिखता हूँ:


मैं इस नशे का आदी हो चुका हूँ।

 आनंद हर्षुल


लिखने की लगभग अड़तीस बरस की उम्र गुजार देने के बाद, ‘मैं क्यों लिखता हूँ ?‘ यह सोचना, अब बहुत ही उलझन भरा है। इतना उलझन भरा कि इस प्रश्न को, अपने भीतर खोजने के प्रयास में, अपने ही भीतर भटक जाने की संभावना अब ज्यादा रह गयी है। एक लंबे समय के बाद, अपने सोचे हुए में से, बचे हुए को जब मैं देखता हूँ तो अचंभित रह जाता हूँ। सोचे हुए में से जो बचा है, वह अपरिचित-सा बचा है। बचा है मुझे चौंकाता और अचंभित करता। एक हद तक दुखी करता-सा बचा है...



आनंद हर्षुल 

सन् उन्नीस सौ अस्सी के आसपास मैंने लिखना शुरू किया था या उससे कुछ पहले ही और उस समय मुझे लगता था कि मैं एक बड़ा काम कर रहा हूँ। अपने बीस-इक्कीस बरस की उम्र में, मैं अपने लिखे को लेकर बड़े स्वप्नों में था। बड़ी उम्मीदें थीं। उन दिनों, दुनिया सिकुड़ कर इतनी छोटी नहीं हुई थी, जितनी आज दिख रही है, पर मेरे स्वप्न में जो मेरे लेखक बनने से उपजा था--दुनिया छोटी ही थी, इतनी कि मेरी हथेली पर आ गयी थी। मैं एक संकोची लेखक था। मितभाषी। मुझे बस अपने लिखे पर भरोसा था। संपादकों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था। मैं दो-तीन वाक्यों के पत्र के साथ, संपादकों को अपनी रचना भेजता था, जिसमें रचना का भेजा जाना ही इंगित हो पाता था। रचना पर निर्णय लेने के लिए, संपादक का रचना को पूरा पढ़ना जरूरी हो जाता था। पर मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। मेरी पहली कहानी सोमदत्त जैसे संपादक ने बहुत ही सम्मान के साथ ‘साक्षात्कार‘ में छापी। मैंने कहानी का शीर्षक रखा था-‘बैठ हुए हाथी के भीतर का लड़का‘। सोमदत्त जी ने मुझे पत्र लिखा कि अगर आपकी सहमति हो तो कहानी के शीर्षक से ’का’ को हटा देते हैं। इस तरह मेरी पहली कहानी का शीर्षक बना- ‘बैठ हुए हाथी के भीतर लड़का‘। यह बात, यहाँ इसलिए उल्लेखनीय है कि सोमदत्त जी एक नए लेखक की पहली कहानी के  शीर्षक से ‘का‘ शब्द हटाने के लिए, उससे पूछ रहे थे। वे रचना का सम्मान कर रहे थे। जाहिर है कि अप्रत्यक्ष रूप में, इसमें एक नए लेखक के लिखे का सम्मान और एक अप्रतिम संपादक की अद्भुत संपादकीय दृष्टि--दोनों ही शामिल थे।




तो जो एक अच्छी शुरूआत होती है, वह तुरंत आपकी आदत बन जाती है। रचना में शब्द के सम्मान की आदत जो मेरे भीतर थी, वह बनी रह गयी। मेरे एक कहानीकार मित्र ने, मेरी पहली कहानी को पढ़ कर कहा था कि तुम कहानी में एक-एक वाक्य को जितनी सावधानी से रचते हो, कहानी लिखने में उसकी जरूरत नहीं है। यह तो कविता की रचना प्रक्रिया है। शायद वे ठीक कह रहे हों। मैं कविता से कहानी में आया था और मेरे रचने में कविता का स्वभाव बचा रह गया था। मेरे युवा कहानीकार मित्र, उप संपादक भी थे, पर मैं उनकी बात समझ नहीं पाया था और कहानी लिखते हुए, एक-एक वाक्य में सावधान बना रह गया था। अब लगता है कि मैंने ठीक ही किया था कि अब अपने लिखे को लेकर, एक तरह की संतुष्ठि मेरे भीतर है। उनकी बात मैं मान लेता तो शायद इसे मैं खो देता। पता नहीं आगे लिख पाता भी की नहीं। पर इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि मेरे कहानी लिखने का औसत बहुत कम हो गया। वह मेरी संतुष्ठि और आलस्य पर टिक कर, साल में एक कहानी का रह गया।

जाहिर है यह कोई अच्छा औसत नहीं है। पर अब मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ। मैंने एक-एक कहानी के लिए, एक-एक वर्ष देकर, कई वर्ष खो दिए हैं। इस तरह मैंने बाद के दिनों में कई संपादकों को नाराज कर दिया है। मैं आज तक कोई कहानी पंद्रह दिन में नहीं लिख पाया हूँ, एक माह में भी नहीं, चार माह में भी नहीं... इस तरह यह कहा जा सकता है कि मुझे ठीक-ठीक कहानी लिखना नहीं आता है, बस मैं उसे साधने की कोशिश करता रहता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि मेरी इस कोशिश को, सोमदत्त, ज्ञानरंजन, राजेन्द्र यादव, कमला प्रसाद, हरिनारायण...जैसे संपादक मिलते रहे हैं और मैं, कहानीकार बचा रह गया हूँ।




लेखन के अपने प्रारंभिक दौर में, मेरे स्वप्न में जो था जाहिर है, वह मैं अपने पूर्वज और समकालीन लेखकों के बीच से गुजरते हुए ही सोच रहा था। मस्तिष्क में यह साफ था कि ऐसा लिखा और सोचा जाए, जैसा लिखा और सोचा न गया हो। बिलकुल अलग। यथार्थ को चारों ओर से देखने की कोशिश की जाए। और जब मैंने यह कोशिश की तो पाया कि यथार्थ के पास जाओ तो वह हवा में थोड़ा ऊपर उठ जाता है। तुम किसी परिंदे की तरह उड़ते हुए, यथार्थ को सभी दिशाओं से देख सकते हो। देख सकते हो जैसे पृथ्वी के चारों ओर घूमते ग्रह, देखते हैं पृथ्वी को। यथार्थ के इस जादू को, मैं अपने लिखने के प्रारंभिक दौर से ही महसूस कर रहा हूँ। कर रहा हूँ महसूस आज अड़तीस साल बाद भी। यही वह जादू है जो मुझे लिखने-पढ़ने की दुनिया में अब तक स्थिर बनाए रखा है।

  यथार्थ के साथ मेरा यह रिश्ता तो अब तक बना हुआ है, पर ‘मैं क्यों लिखता हूँ ?‘ इस प्रश्न पर, अब धुंध गहरा गयी है। जब मैंने लिखना शुरू किया था, तब जो धुंध थी अपने लिखने को लेकर--वह समझ की धुंध थी जो लिखना-पढ़ना शुरू करते ही, एक युवा लेखक ने अपने भीतर रची थी। दरअसल वह एक स्वप्न-धुंध थी। इतने बरसों में अब वह स्वप्न- धुंध छट गयी है। मेरे भीतर के इस प्रारंभिक स्वप्न-धुंध को, मेरे लिखने-पढ़ने के अड़तीस बरसों में, हिंदी के रचना समाज ने ही, मेरे भीतर से हटा दिया है। यह किसी नन्हे बच्चे की हथेली में बैठी तितली के उड़ जाने-सा ही है कि बच्चा हथेली में तितली के वापस आने को इंतजार करता, आसमान की ओर देखता, बूढ़ा हो गया है। उसे पता ही नहीं है कि जो तितली उसकी हथेली से उड़ी थी, वह कब की मर चुकी है...


   


मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मैं यह जानता हूँ कि मैं अपने और अपने जैसे हिंदी के लेखकों के लिए लिख रहा हूँ। मेरी रचना के जो थोड़े-बहुत पाठक हैं तो वे हैं जो या तो लेखक हैं या लेखक होने के प्रयत्न में हैं। शुद्ध-पाठक नदारद है। इस देश में जिनकी मातृभाषा हिंदी है, वे भी अंग्रेजी के पाठक है। हमारे यहाँ अंग्रेजी फैशन की भाषा है। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि हमारे हिंदी समाज को, अंग्रेजी किताब पकड़ा हाथ जितना सुंदर और अभिजात्य प्रतीत होता है, हिंदी की किताब पकड़ा हाथ, उतना ही असुंदर और दरिद्र प्रतीत होता है। हिंदी की किताबें हमारे हाथ से छूट गयी हैं। दरअसल, शुद्ध-पाठक, हिंदी भाषा के पास से नदारत होता जा रहा है। यह एक हिंदी के लेखक के रूप में मेरी स्वाभविक चिंता का विषय है। जब मैं हिंदी के पास  से, हिंदी के गर्व को खोता देख रहा हूँ। देख रहा हूँ कि मैं जिस भाषा का लेखक हूँ, वह लगातार सिकुड़ती जा रही है। यह सिर्फ उपनिवेश वाद से जन्मी समस्या भर नहीं है, इसकी जड़ें हमारे भीतर के सांस्कृतिक विचलन के भीतर भी है। हमने जाने कब से अपनी परंपरा को देखना और उस पर गर्व करना छोड़ दिया है। हम हिंदी भाषी, सांस्कृतिक पतन के सबसे अच्छे उदाहरण हैं।
 
 मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मेरा आसपास भी यह नहीं
जानता कि मैं हिन्दी का लेखक हूँ। अगर जानता भी है तो एक हिंदी के लेखक के आसपास होने पर, उसे कोई गर्व नहीं है। मुझे पढ़ा तो मेरे आसपास ने बिलकुल नहीं है। मेरे परिजन तक मुझे शायद ही पढ़ते हैं। मैंने अपने जिन परिजनों को अपनी किताबें समर्पित की हैं और आत्मीयता से भेंट की हैं, वे उन्हें शायद ही पढ़  पाए हैं। पर वे मेरी किताबों को अपने घरों में, दिखने की जगह पर रख भी नहीं पाए हैं।  पता नहीं, उन्होंने मेरी किताबों को, घर के किस कोने में कहाँ फेंक दिया है। डाल दिया है, घर के किस कोने में पता नहीं। जानता हूँ कि मेरे अपनों ने भी, मुझे पढ़ा तो नहीं ही है, रखा भी नहीं है--सम्मानजनक जगह पर।

 
मैं क्यों लिखता हूँ ? जब हिंदी भाषी प्रचूर आबादी के बावजूद, आज तक इतनी रेल, बस, हवाई यात्रा में, मुझे अपनी किताब पढ़ता कोई आदमी नहीं दिखा है। मेरी किताब छोड़िए, हिंदी की कोई भी किताब पढ़ता आदमी एक दुर्लभ दृश्य है। यह स्थिति तब है, जब सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इस देश के 41.1 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिंदी है और 53.6 प्रतिशत लोगों की यह बोलचाल की प्रथम या द्वितीय भाषा है। जाहिर है कि स्थिति बहुत दयनीय है और इसने हिंदी  के लेखक को भी बहुत दयनीय बना दिया है। अभी हाल ही में हिंदी के एक प्रतिष्ठित लेखक ने अपनी किताब की बिक्री का आंकड़ा पाँच सौ से कुछ अधिक होने पर, फेसबुक में इस बात का उत्सव मनाया है, क्योंकि इससे पहले उनकी कोई किताब पाँच सौ से अधिक नहीं बिक पायी थी। यह हाल तब ह,ै जब वे एक प्रतिष्ठित और बहुपठित कथाकार-उपन्यासकार हैं। इससे कविता-पुस्तक की बिक्री संख्या का अनुमान आप सहज लगा सकते हैं। मैंने सुना है कि अधिकांश हिंदी के कवियों को अपनी किताब स्वयं के व्यय पर छपानी पड़ती हैं। कहानीकारों को तो प्रकाशक बिना पैसा लिए छाप देते हैं। जब कहानी-उपन्यास की बिक्री संख्या कभी-कभार ही पांच सौ से अधिक छू पाती है तो कविता की किताब की बिक्री संख्या का आप सहज ही अंदाज लगा सकते हैं।


 



 मैं क्यों लिखता हूँ ? जब मैं यह पाता हूँ कि लिखने के लिए मेरा नौकरी करना जरूरी है। मैं उस भाषा का लेखक हूँ, जिसमें लिखा मुझे साल भर का खाना-कपड़ा भी नहीं दे पाता है। मेरी एक किताब से साल भर में मुझे जो रायल्टी मिलती है, वह इतनी हास्यास्प्रद है कि मैनें रायल्टी का मजाक उड़ाने के लिए, उस राशि से स्काच की बोतल खरीदनी शुरू कर दी है। आप हँस सकते हैं इस बात पर कि मुझे साल भर में इतनी रायल्टी मिलती है कि मैं स्काच की दो बोतल एक साल में खरीद पाता हूँ। स्काच की इन दो बोतलों के लिए, मैं हमेशा अपनी नौकरी को दाँव पर लगाता रहा हूँ। मैं अपनी नौकरी में इस तरह रहा कि झमाझम बारिश में पेड़ के नीचे खड़ा हूँ, बारिश के बंद होने का इंतजार करता। यह मनाता कि बारिश के साथ-साथ गिर न जाए, बिजली इस पेड़ पर, जिसके नीचे मैं खड़ा हूँ और बारिश के बंद होने के बाद मैं जा सकूँ जीवित अपने घर। घर में अपने लिखने की टेबल तक पहुँच सकूँ। अगर आप ठेठ लेखक हैं। नौकरी में भी पहले लेखक हैं, बाद में मुलाजिम तो बिजलियाँ आपके ऊपर, गिरती रहती हैं। मेरे उच्च अधिकारियों को मुझसे हमेशा शिकायत रही कि मैं साहब को साहब नहीं समझता हूँ और वे हमेशा मुझसे नाराज रहे। नौकरी हमेशा मेरे लिए कठिन बनी रही। पर मुझे खुशी है कि दिन-रात अपनी नौकरी में साँस लेने वाले उन बेवकूफों को मैने अपना साहब नहीं समझा। हमेशा अपने भीतर लेखक गर्व को बनाए रखने का सुख मेरे पास रहा। यह कभी मेरे भीतर नहीं रहता, अगर जैसा मैं नौकरी में अब तक रहा--बिजली और बारिश में भींगता, उससे थोड़ा भी हटकर रहता। पर आप सोच सकते हैं कि साल भर में दो स्काच की बोतल के एवज में, मेरे लेखक ने अपनी नौकरी से जो खेल किया है, वह कतई बुद्धिमानी का खेल नहीं है। पर मुझे इसका कोई दुख नहीं है। मेरे लिखने ने, मुझे बहुत हद तक अच्छा और सच्चा बनाए रखा है।

 
मैं क्यों लिखता हूँ ? जब हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक और आलोचक, दो कौड़ी के अधिकारी-लेखकों को अपने त्वरित लाभ के लिए, महान लेखक सिद्ध करने में तुले रहते हैं। हिंदी समीक्षा तो उनके चरणों पर गिरी पड़ी है। आप देखें कि एक अधिकारी-लेखक की एक औसत किताब पर, जितनी समीक्षा पत्रिकाओं में प्रकाशित होती है, उस संख्या का दस प्रतिशत भी एक अच्छी किताब पर समीक्षा नहीं आ पाती है। दरअसल एक अधिकारी को खुश करने में संपादक, समीक्षक और लेखक, सभी का लाभ है। हिंदी के बहुत से आयोजन, इन तथाकथित अधिकारी लेखकों के बूते ही संभव होते हैं।



   

मैं क्यों लिखता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि जिनके बारे में मैं लिखता रहा हूँ, रचता रहा हूँ जिनकी कथाएं--मेरे लगातार उन पर लिखे जाने के बावजूद, उनका जीवन बद से बदतर होता चला गया है। मैं जिनके पक्ष में लिखता रहा हूँ, उनके लिए मेरे लिखे से, किसी अत्याचारी के चेहरे पर एक सिकन तक नहीं उभरी है। अत्याचारी मुस्कुराते हुए, मेरे लिखे को देख रहा है। अत्याचारियों के पास मेरी शब्द-गालियों को (जो मैंने अपनी रचनाओं में उन्हें बकी है) फूल में बदल देने की ताकत है। मैं सोचता हूँ कि मैं क्यों लिखता हूँ, जब इतने बरसों से लगातार लिखते रहने के बावजूद, अपने शब्दों को हथियार में बदलने की ताकत मैंने अब तक अर्जित नहीं की है।

    यह सब सोचते हुए, मुझे कायदे से लिखना छोड़ देना चाहिए, पर मैं लिखता हूँ शायद इसलिए कि मुझे लगता है कि मैं अपने समय के यथार्थ को पूरी तरह समझ नहीं पाया हूँ। वह बार-बार हवा में उठता है और बदलता है बार-बार। जैसे ही मुझे लगता कि मैं अब उसे समझा गया हूँ, वैसे ही वह बदल जाता है। वह बार-बार मेरे हाथ से फिसल जाता है। बार-बार वह मुझे चुनौती देता है कि लो अपने लिखे में मुझे पकड़ो। सच यही है कि एक लेखक और यथार्थ के बीच का यह जो खेल है, उसे मैं जारी रखना चाहता हूँ। आप समझ सकते हैं कि यह खेल एक नशे की तरह है और अब मैं इस नशे का आदी हो चुका हूँ।
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परख इक्कतीस

यहाँ चौपाल से गायब हैं बातें !


गणेश गनी



नवनीत


उन दिनों गांव में मनोरंजन के कोई आधुनिक साधन उपलब्ध नहीं थे। बच्चों को सांझ का इंतज़ार रहता था। मिट्टी से बनी छतों पर या खेतों में खेलने का यही समय होता था। बड़े लोगों को भी काम से फुर्सत शाम को ही मिल पाती थी। शाम को ही छतों पर चौपाल सजते तो ज़ाहिर है अफ़साने भी चलते। किसी किसी घर से रेडियो की आवाज़ भी सुन जाती। सर्दियों में बर्फ़ के बीच कोई काम नहीं होता, सिवाए इसके कि मवेशियों को चारा पानी देना और मेले त्योहार मनाना। चारों तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़ होती और केवल छतें ही मनोरंजन का मंच होतीं। मेलों के समय दिन भर महिलाएं और पुरूष इन्हीं छतों पर हाथ गांठकर घुरेई गाते और नाचते। कदम से कदम और ताल से ताल मिलाकर गोल गोल घूमते तो लगता जैसे पृथ्वी भी अपनी गति धीमी कर इनके साथ साथ घूम रही है-

बर्फ़ में जीते लोग
बर्फ़ में नहीं मरते
उन्हें भी रहता है धूप का इंतज़ार।
बर्फ़ में दबे घरों के
बच्चों का सपना होता है
कि आँगन में भले न उगे घास
बन जाए उनके खेलने जितनी जगह
ताकि बर्फ़ में लगातार खेलने से ऊबकर
वे नंगी ज़मीन पर भी
कुछ खेल सकें।

साँझ ढलते - ढलते आज इन्तजार तब खत्म हुआ जब धौलाधार में रचे बसे कवि मित्र नवनीत शर्मा की किताब एक पत्रकार मित्र शम्भू प्रकाश ने मुझ तक पहुंचाई । मैं उतावला था कि एक ही सांस में पढ़ डालूं । यह असम्भव है कविता में भीतर तक उतरने के लिए।
नवनीत कहते हैं -

ढूँढना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्थरों के नीचे ।

नवनीत की कविताएं अपने को पढ़वाती चलती हैं । कवि पहाड़ के करीब रहता है। वो जानता है पहाड़ कितने खूबसूरत दिखते हैं दूर से। कवि पहाड़ के झरने, जंगल, खेत, घर और संस्कृति में रचे बसे संगीत को महसूस करता है और उन्हीं पलों को जीना चाहता है। एक कविता की ये पंक्तियाँ देखें -

मिलूंगा मैं
उस खास पल में
जहां बोल को तेजी से दौड़ कर छू लेती है
तबले की थाप ।

कवि छोटी छोटी घटनाओं में संवेदनशीलता से जीता है। नवनीत की कुछ कविताओं में एक जादू है, एक आकर्षण है जो बरबस अपनी ओर खींचता है-

तुमने वही सुना
जो मैंने नही कहा था
मैंने वही सुना
जो तुमने नहीँ कहा था
देखो कितनी बातें की हमने ।

कवि चाबुक चलाते हुए कह रहा है -
यहाँ चौपाल से गायब हैं बातें ।

पाठक सुन्दर बिम्बों से मुलाकात करते हुए पाठक प्रेम कविताएँ  और लोक से जुड़ी बातें पढ़ते हुए आगे बढ़ता है। कवि अपनी अलग भाषा में प्रतिरोध के स्वर भी मुखर करता है-

आए देवता पर क्रोध
तो सदियों का गुस्सा भर सकते हैं शहनाई में
सदियों का आवेग पटक सकते हैं ढोल पर
नरसिंघा के हवाले कर सकते हैं गुब्बार ।

यह समय कठिन जरूर है पर कवि अपने समाज में घट रही घटनाओं की महीन पड़ताल करता है । उसे पता है यह भी कि क्या माँगना है और कितना । यह महत्वपूर्ण है । एक जगह नवनीत कहते हैं-

इतनी भीड़ ...
इतना शोर ...
काश कोई दिलाए
दो पत्ते छाँव
एक खिड़की उजाला
दो पेड़ तन्हाई
एक गजल सांस ।

नवनीत की कविताएँ प्रकृति के बेहद करीब हैं । कवि संवेदनशील होने के साथ साथ एक ईमानदार जीवन जीना चाहता है। उसकी चाह निश्छल उड़ान भरने की होती है जबकि चारों ओर उलझनें और पेचीदगियां फैली हुई हैं । कवि मासूमियत में कह उठता है -

अगली बार
अपने पंख देना उधार
तुम्हारे पंखों से देखूंगा पौंग झील का विस्तार
देखना है धौलाधार के उस पार बसा चम्बा
तुम मुझे सिखाना
आकाश में बिना मील पत्थर
कैसे पता चलती हैं मंजिलें
कैसे कटते हैं जाल।

गाँव से कवि का रिश्ता अटूट है । यानि जड़ों से जुड़ाव के कारण कविताओं में गाय , गौरैया , खेत , किसान , पहाड़ , नदी आदि आसानी से आ जाते हैं । एक जगह कवि पूछता है -

क्या तुम्हारा शहर भी उदास होता है
जब कभी पहुँचती है
मेरे गांव का सवेरा लेकर
तुम्हारे शहर की शाम में कोई बस
थकी- मांदी ।

नवनीत शर्मा सम्वेदनशील कवि है। समाज में घट रही घटनाओं को वो बारीकी से देखते हैं, समझते हैं और फिर चुप नहीं रहते। एक कवि को चुप रहना भी नहीं चाहिए। एक जरुरी बयान में कवि कहता है-

सुन बेटी!
खूब पढ़ना तुम
भीड़ से डरना नहीं
रास्ता भीड़ को चीर कर ही निकलता है।

कवि ने भीड़ से अलग कविता का सृजन किया है। कविता में नए मुहावरे गढ़े हैं। नवनीत की भाषा सरल है। कोई मुश्किल बिम्ब नहीं हैं। इसी सरलता के कारण ये कविताएं आसानी से पाठकों तक सम्प्रेषित हो जाती हैं। नवनीत शर्मा प्रचार प्रसार से दूर रहकर धौलाधार की वादियों में चुपचाप रचनाकर्म में रमे रहते हैं। कविता के साथ जीने के लिए रोटी भी चाहिए। हृदय का भोजन कविता है, तो पेट के लिए रोटी ज़रूरी है-

आज फिर वही हुआ
क्या बड़ा, क्या मंझली, क्या छोटी
आज फिर सबके हिस्से आई
आधी आधी रोटी
पर चूंकि भूखे बच्चे के लिए रोटी का विकल्प
एक सुंदर कहानी से ज़्यादा कुछ नहीं होता
और कहानी में परियों से ज़्यादा कुछ नहीं होता।

कविताएं बड़े बड़े दावे नहीं करतीं, लेकिन छोटी छोटी घटनाओं और साधारण सी दिखने वाली चीजों पर लिखी बात बड़ी ही सहजता से बहुत महत्वपूर्ण बात कह जाती है। यह नवनीत की लिखी कविताओं में देखा जा सकता है और यही कुछ बातें हैं जो उन्हें गम्भीर कवि बनाती हैं-

गैस का चूल्हा साफ करते करते
घिसने से बच जाते हैं
शब्द के जो हिस्से
वे कुछ सालों बाद
लोकगीतों में मिलते हैं।

पिता पर कविता कम लोगों ने लिखी हैं, जिहोंने लिखी भी हैं तो पिता की भूमिका को कम आंका है या कुछ शब्दों के प्रयोग में कंजूसी की है। कवि पिता से सम्वाद करते हुए पाठक को भी वही अनूभूति दिलवाता है-

मेरे पास उम्मीद थी
आपके पास समय नहीं था ।

नवनीत शर्मा की कविता में जीवन की छोटी छोटी घटनाओं का दिल छू लेने वाला वर्णन होता है। इनमें जीवन की जरूरी बातें छिपी होती हैं जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है-

शिकायत करती हैं दो सहमी आंखें
अर्से से नहीं देखा चौखट के बाहर का सूरज।

कवि उस भाव को भी व्यक्त करना नहीं भूलता जो बातों बातों में छूट जाता है। कई बातें तब रह जाती हैं जब हम सोचते हैं कि अभी समय नहीं आया है। अधूरी और अनकही बातें जब छूट जाती हैं तो बड़ी पीड़ा होती है-

कहना हवाओं से
मैं फिर आऊंगा
इस बार नहीं कहा जा सका सबसे सब कुछ
नदियों से कहना
पहाड़ याद करता है
बादलों को देना
धूप में तपती भाषा का पता।

नवनीत शर्मा एक आखिरी ख़त लिखना चाहते हैं, एक अंतिम सन्देश देना चाहते हैं-

कोयल से कहना
कोई सुने न सुने
गाती रहे
ठीक वैसे जैसे बाँसुरी चुप नहीं बैठती।


गणेश गनी


एक आखिरी बात अपने खत में जब कवि लिखता है तो वो पढ़कर सुनाने लायक है और बात यदि कही गई है तो फिर सुनी जानी चाहिए-

समाजशास्त्रियों से कहना
अभी बैठे रहें
रात बीतते ही
अकेलेपन से ठिठुरे लोग आएंगे
उनके लिए रख लेना
संबंधों का थोड़ा ताप।
००





परख तीस नीचे लिंक पर पढ़िए

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 किरण यादव की कविताएं



किरण यादव 


एक 
अनंत प्रेम

फूलों की खूशबू
सावन की बौछारों में
चारों ओर महक रही है
यह गँध मुझे भटकाती है
उन पुराने बीते हुए दिनों में
तब अचानक ह्रदय के तार बज उठते है
नई कोपलें फूटने लगती है
आज तुम भले ही नही हो
पर तुम्हारा कोमल स्पर्श
मेरे बालों को सहलाता
तुम्हारी आवाज सुहावने मौसम सी गुंजती
बस मैं एक टक
उस खुले आकाश को निहारती हूँ
जिसका ह्रदय विशाल है
प्रेम अनंत है
मै उसके बाहुपाश में सिमट जाने को तत्पर हूँ
हवाएँ उसका प्रेम संदेश लाई है
जो आ मुझसे टकराई है
फुसफुसाते होंठ
दबी हँसी खिलखिलाना चाहती है
दो घड़ी बैठूँ , तुम्हारे साथ बतियाऊँ
इच्छाएँ एकटक तुम्हें निहारती है
मैं तो यही हूँ
पर तुम कहाँ हो.!!





दो 
मन दर्पण

चेहरा तो हम रोज़
देखते है
दर्पण में
पर मन रूपी दर्पण के
कपाट जब खुलेंगे
तब हम कर पाएँगे
दर्शन उसमें अपने
आत्म -स्वरूप का ..!




तीन 
यादें

तुम आए
चले गए
ले गए साथ
मेरा सब कुछ
तुमसे बिछड़े हम
ना जाने फिर मिलेंगे कब
अब रहते है
ख़ामोश ,तन्हा
उदास , अकेले
अपने से अनजान
हो गए ख़ाली - ख़ाली
मेरे दिन और दिन से
कड़ी रात
आँखें अब नींद को तरसती है
करवट लिए बदन कराहता है
निरंतर संवाद
तेरे और मेरे बीच में चलता है
तुम्हारी यादें
रोज़ दस्तक देती है
मेरे दिल के दरवाज़े पे
डूब जाते है सितारें
मेरी पलकों के अंधेरे में
ये साँसें है जो तपिश का अरथ
समझ








चार 

रोज़ तुम मिलते थे
गली के नुक्कड़ पर
इस छोर तो उस छोर
नज़र उठाके नही देखा
कभी तुम्हारी ओर
 लाते थे सुर्ख़ गुलाब
अपनी पसंद के लिए
करती रोज़ इनकार
मैं लेने से
था पाकीज़ापन
ना तुमने आना छोड़ा
ना मैंने छोड़ा गली के उस पार जाना .।।





पांच

आज संगिनी
के सामने
माँ !
की ममता का
दम घुटने लगा है .!!!



छः
चाँद

रात भर
चाँद और मैं
साथ थे
बाँहें फैला
आलिंगन
माथे पे चुंबन किया
प्रेम में डूबी रात
पंखुड़ियों से खिले थे गुलाब .!!!




सात
अनंत सोचे

अनंत सोचे
दुबकी बैठी है
मन की गुफा में
ठिठकती है ख़ुशियाँ
पीछा करती है परछाईयाँ
विचारों के भँवर में
जीवन की चाह छुपी है
जहाँ हथेली की लकीरें
थोड़ा इंतज़ार करने को कहती है ..!!!!




आठ
बीज

रोप दिए है बीज
उड़ेगी सौंधी महक
परतें खुलेगी
कोपलें झांकेगी
महकेंगे पुष्प
थिरकेगे पत्ते .!!!



नौ 
बूढ़ी आँखें

समय का बदला
मंज़र देख
अपना बीता हुआ
समय याद करती है
मेढ़े ,
खेतों की पगडंडी
और कच्चे घर तलाश करती है ..!!!



दस 
खुल रही है
साँकल मन की
पग-पग पर राहों के
खुलेंगे द्वार ,
मलिनता धो लूँ
पहनूँ उजले तन पर लिबास
अनगिनत दिशाएँ देख रही
खोल - खोल मुझको
अपने किवाड़ ...!!!
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परिचय 
नाम   किरण यादव
पिता - रणजीत सिंह यादव
माता- राजबाला देवी
जन्म - 1.1.1980
स्थान - गुड़गाँव , हरियाणा
निवास - साउथ दिल्ली
शिक्षा वाणिज्य
हिंदी साहित्य से गहरा लगाव
यह प्रेरणा स्कूल से ही मिली
अनुभव से जो सीखा वही लिखने की कोशिश रहती है
निरंतर अध्ययन का सिलसिला जारी है
मैं अपनी प्रथम पुस्तक काव्य संग्रह मे व्यस्त हूँ
और जनवरी में साझा पुस्तक भी आने की तैयारी है


किरण यादव 
नई दिल्ली 
9891426131

27 दिसंबर, 2018

हेमलता यादव की कविताएं





हेमलता यादव 



जाल
वह खरगोश सी
चपल मुलायम रेशमी
चतुरता का लिबास ओढ़े
निरी मासूम
मैं शिकारी सा
भरोसे के बाण छोड़ता
बातचीत की कमान से
उसकी उजली सी हँसी
मेरे होठों पर फैलती गई
और मेंनें पी ली
उसकी देह की रोशनी
जो फूटी थी
उसकी हँसी के साथ
मेरे लिए अवसर
लंबे इंतजार के बाद
उसके लिए हादसा
कि जाल उसने
देखा ना था





विलुप्त नदी

जब कोई नदी
अपना सर्वस्व समेट
मिल जाती है सागर में
सागर डर जाता है
गरजने से पहले
उमड़ता है दर्द में
सागर का हर
स्पंदन हो जाता है मूक
और हताश भी
कहीं अपनी संगनी के
साथ उसका मिलन
आखरी न हो, क्यूंकि
सागर इंतजार करता रहा
और सो गई कई नदियां
सदा के लिए




अंकुर

मत गाओ
प्रार्थना गीत वातुकि
कोई नहीं लौटा
विद्वेष के इस संकरे गलियारे
के पार जाकर
थोड़ी राख बुझे चुल्हे
की लपेट दो मेरे शरीर पर
कि घृणा के तंग गलियारे
की दमघोटु नमी से
बच सकूं शायद
लेकिन नफ़रत घोटता
आँखियाना दलदल
भीतर ही भीतर समेट लेता है
पैर, हाथ, आंते और आँखें         
मानवीय सहृदयता से
लबालब जल के सोये
तालाब तक पहुचने से पहले
फिर भी तुम्हारा यलावत्
कोशिश करेगा सोये जल को
अंजुरी में भर लोटने की
शायद मानवीय भावनाओं के
कुछ अंकुर फूट पड़े
अंजुरी भर जल से
कबीले की मृत्यु लिप्त
पथरीली अनुभुतियों पर                                                       


नरेश कश्यप 



अट्ठाहस

वातुकि मग्न थी
मधुमास की बेला में
कि यलावत
अचानक उठ खड़ा हुआ
जादुई मंत्र में वशित
चक्करदार घुमने लगा
वातुकि कुछ समझ न सकी
यलावत को थामने
आगे बढ़ी कि....

ठोक दी
उसने एक कील
मजबूती से वातुकि की छाती में
वह दर्द से चिंघाड़ उठी
यलावत को झटक
अपना लहु समटेने लगी
यलावत अब होश में आया
वातुकि को बाहों
में थाम चीखने लगा
पर जा चुकी थी
वो उससे दूर

जादुई कबिला दूर
अट्ठाहस कर रहा था,
हो गया था जादुई कबीले का
एक और प्रयोग
सफल






साँझ का डर

सम्भल कर जाना यलावत्
दुर्घटनाएं प्रत्येक चार कदम पर
रास्ता देखतीं है
जाने कब आकर चिपट जाएं

डर में जीने से ज्यादा बुरा
कुछ नहीं वातुकी
कभी एक डर तो कभी दूसरा

 मैं जरा
बच्चों को देख आता हुं.........
देखो कबीला भी कितना डरावना
लगने लगता है अचानक
जब सांझ तलक
बच्चे घर नहीं लौटते

नरेश कश्यप 




 घृणा

घृणा चुपचाप 
चली आई
जीवन के दूसरे ही पहर
खुले दरवाजों से
रेंगकर पहुँच गई
वातुकि और यलावत
के जिस्मों तलें



शांत घृणा

जैसे किसी ने चुपचाप
तेजाब से
सींच दिया हो पौधा कोई
चीख भी न पाए दोनों
इस भय से कि कहीं
कबीले में न फैल जाए
मुँह से फुटकर घृणा के रक्तबीज
यलावत रात अंधेरे
कबीले से दूर पेड़ पर चढ़ हूँकने लगा
वातुकि कुलदेवता की सिल पर सर
पटकने लगी
निरन्तर निरन्तर
आज तक अनवरत
सुनाई दे जाता है कभी जब
मुझे भी ये विलाप
भर जाती हुँ में भी
घृणा के प्रति घृणा से
आह! कैसे मिटाउ
आधुनिक सभ्य कबीलों से घृणा





चतुर एकलव्य


निषादपुत्र
एकलव्य का
दाहिना अंगूठा आज
तक नहीं उग
पाया गुरु द्रोण
जो उच्चवर्ण के
एकाधिकार संरक्षण हेतु
मांगा था आपने जब
सह न पाए थे
प्रखर एकलव्य का
समानता प्राप्त करता कौशल
सदियों उपरांत आज भी
जंगल के किसी कोने में पड़ा
एकलव्य का
अंगूठा फड़फड़ा
रहा है छिपकली
की पूछ की तरह
दुबारा उगने के लिए






गुरू द्रोण

क्या अब पुनः आओगे
एकलव्य से गुरू दक्षिणा लेने
आज भी उसके हाथों में
बाणों की जगह कलम
की शक्ति
भूस देगी प्रत्येक
भूकनें वाले
कुत्ते का मुंह
अब क्या मांगोगें
अनामिका, माध्यिका
या तर्जनी
इस बार इतने
विश्वास के साथ
मत आना गुरू द्रोण
सदियों के उत्पीड़न ने
एकलव्य को
चतुर बना दिया है
अंगूठा तो उगा
नहीं लेकिन
आपकी पक्षपाती
दृष्टि देखकर
उंगुलियां काटने से पहले
एकलव्य सोचेगा जरूर




नरेश कश्यप 

धर्म

गढ़ के धर्म मानव ने
स्थिर किये विश्वास
विश्वासों से जगी उम्मीद
उम्मीदों ने संवारा जीवन
धर्म फैलता गया
मानव सिमटता गया
आज
धर्म से गढ़ा जाता है मानव
और विश्वास की बिसात पर
सम्प्रदाय के घ्रणित खेल से
आंतक में गुजरता है जीवन

 00
साक्षात्कार: डॉ हूबनाथ पाण्डेय



कई महीनों की कोशिश के बाद आज मुंबई विश्वविद्यालय के असोसिएट प्रोफेसर डॉ हूबनाथ पाण्डेय जो एक कवि, लेखक और आलोचक भी हैं, से साक्षात्कार के लिए मुलाक़ात करना संभव हुआ। उनकी व्यस्तता, उनके आसपास विद्यार्थियों की जमघट, लेक्चर के लिए आते ही उन्हें अपने रूम से निकलते देखना। अक्सर उनकी व्यस्तता मुझे साक्षात्कार के लिए मिलने का वादा लेने से भी पीछे खींचती रही। इतनी व्यस्तता के बावजूद विद्यार्थी उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और हूबनाथ सर उनका समाधान पूरे मनोयोग से कराते भी रहें। इस साक्षात्कार के लिए उनकी सहमति जानने पर, पहले .... इसकी कोई जरूरत नहीं है, .... फिर क्या होगा साक्षात्कार से, .... तुम खुद ही प्रश्न का उत्तर दे दो, ..... फिर ठीक है किसी दिन मिलते हैं ..... के बाद आखिरकार दिन तय होने की तारीख .... रद्द होना ..... और आज वह दिन कि मैं उनका साक्षात्कार ले पाई .... वाकई एक अत्यंत सुखद अनुभूति है। 

     खुद के लिए नहीं, पर किसी की व्यथा सुन कर मदद के लिए दौड़ जाने वाले, फोन पर भी बीमारी का इलाज बताने वाले, सहायता की ख़ातिर हर संभव कोशिश करने वाले हूबनाथ सर जिनसे विद्यार्थी पारिवारिक परेशानी का हल पूछने से भी नहीं कतराते। अक्सर सुबह-सुबह विश्वविद्यालय में पौधों में पानी डालते, कौओं या अन्य पक्षियों की तस्वीर लेते उन्हें देखा जा सकता हैं। किसी कार्यक्रम में उपस्थिती न देते हुए किसी जरूरतमंद की मदद करते उन्हें देखना मामूली बात है। डॉ हूबनाथ पाण्डेय जिन्हें मैं सर कहती हूँ मेरे गुरु भाई भी हैं। आइए उनके उदगार, शब्दों और पंक्तियों पर गौर करें, अलग कुछ सुने, कुछ गुने .. !!  
०००

रीता दास राम


साहित्यकार को यह गलत फ़हमी है कि वह कोई बहुत बड़ा काम कर रहा है: डॉ हूबनाथ पाण्डेय

रीता दास राम


दूसरी कड़ी

रीता : आपकी कविता संग्रह ‘मिट्टी’ में 11 वीं कविता है “आओ ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम सिकंदर कहते है, ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम नेपोलियन, अशोक, या अकबर कहते थे, राम-कृष्ण, गौतम, यीशु, पैगंबर कहते है” इन सभी को मिट्टी से जोड़ कर, धरती से जोड़ कर, आप क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं?



डॉ हूबनाथ पाण्डेय


डॉ हूबनाथ : इस कविता में मैं कहना चाहता हूँ कि दुनिया में कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो उसको अंत में मिट्टी में ही मिलना है। यह बात सभी जानते तो हैं पर मानने को तैयार नहीं हैं। जबकि देह तक ही हम सीमित है। देह के बाद कुछ भी हमारा रह जाने वाला नहीं है। देह से परे खुशबू एक ऐसी चीज़ है जो हमेशा रह जाएगी। एक कविता है कि फूल तो मुरझा जाता है पर फूल की खुशबू मिट्टी में रह जाती है। जब उसमें पानी पड़ता है। सौंधी खुशबू आती है। वह उन लोगों की अच्छाईयों की होती है जो मिट्टी में मिल चुके हैं। हमें अपने कर्म को महत्व देना चाहिए, देह को नहीं। देह से पाने वाले सुखों को नहीं। सुविधाओं को नहीं। भौतिकता को नहीं। तभी तस्वीर बदल सकती है। ये जितने नाम नेपोलियन, अशोक, अकबर, राम, कृष्ण, गौतम, यीशु, पैगंबर है, वह सारे के सारे मिट्टी हो चुके हैं। फिर भी उनका नाम लिया जा रहा है। वह उनके देह का नहीं बल्कि उनके कर्मों का। अगर हम अपने कर्मों को महत्व दें, अपने सिद्धांतों को, उसूलों को, अपने विचारों को तो तस्वीर बदल सकती है।

रीता : इसका मतलब सिकंदर, नेपोलियन, अशोक इन सभी से आप प्रभावित रहे जैसे राम, कृष्ण, गौतम, यीशू ..... !!

डॉ हूबनाथ : मैंने कुछ उदाहरण लिए जिन्हें लोग जानते हैं। ईसा मसीह से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित रहा। अभी भी वह मुझे अच्छे लगते हैं। एक सीधी सी बात है कि जीजस को लगा कि वह ईश्वर की संतान है। वही नहीं, सारे के सारे लोग ईश्वर की संतान है। यह उस जमाने (समय) में जीजस ने कहा। जबकि राजा ही ईश्वर की संतान है ऐसी अफवाह फैली थी। जब जीजस से कहा गया कि ‘आप जो कह रहे हो वह गलत है। अगर आप यह स्वीकार कर लो तो आपको माफ भी किया जा सकता है।’ यदि उस वक्त जीजस इतना कह देते कि ‘ठीक है मेरी जान बख़्श दो। मैंने जो कहा वो गलत है।’ तो वह बच सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। जब इंसान एक बार जिस चीज़ को महसूस कर लेता है और उसके लिए जब वह जान भी देने को तैयार हो जाता है। तो वह बात पूरी कायनात में पसर जाती है। अगर जीजस ने अपनी जान बचानी चाही होती तो आज उनका कोई नाम भी नहीं लेता। उन्होंने अपना उसूल बचाना चाहा। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं। जैसे सुकरात, 79 की उम्र में उसको ज़हर पीना पड़ा। वह माफी माँग लेता तो दस साल और जीता। तब शायद उसको कोई जानता नहीं। जब तक आप अपनी देह को सत्य मानोगे तो आप सही ढंग से जी नहीं सकते। सत्य देह से परे जाना है। सत्य के लिए देह का त्याग करने की हिम्मत होनी चाहिए। तभी आप महान हो सकते हो। दूसरी बात जो जीजस की सबसे अच्छी थी वह यह कि गरीबों के लिए करुणा का भाव। अमीरों के प्रति तो हम दुनिया भर के भाव व्यक्त करते हैं। डर के मारे या लालच के मारे। पर गरीब आदमी जो विपन्न है उसके लिए आपके मन में करुणा नहीं रही तो समाज कभी बदल नहीं पाएगा। जीजस एक अलग ढंग के समाजशास्त्री थे या कहा जा सकता है समाजवादी थे।

रीता दास राम और डॉ हूबनाथ पाण्डेय


रीता : आज के दौर में मुस्लिम समाज को लेकर काफी कुछ कहा जा रहा है जो माहौल है और आपकी कविता में पैगंबर का नाम भी है। आप का क्या कुछ कहना है ...... !!

डॉ हूबनाथ : पैगंबर भी मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। अच्छे इस मायने में लगते हैं कि उस आदमी ने जैसा चाहा वैसी जिंदगी जी। मोहम्म्द साहब के घर में कुल जितने सामान थे उसकी एक छोटी पोटली बन सकती है। बहुत गिनती के बर्तन, गिनती के कपड़े, एक खजूर की चटाई उनकी बहुत थोड़ी जरूरतें थी। उनका कहना था कि सारी समस्या इन साधन को लेकर है। मोहम्म्द साहब जिस जमाने में थे उस जमाने में कुछ लोगों के पास संपत्ति ढेर सारी थी। कुछ लोग उसके लिए मर रहे थे। अगर लोग अपनी जरूरत सीमित कर ले तो बहुत लोगों तक बहुत सी चीज़ पहुँच सकती है। अगर हम अपनी भूख को थोड़ा सा कम कर ले तो भूख के कारण कोई मरेगा नहीं। अगर हम अपनी प्यास को थोड़ा कम कर ले तो कोई प्यासा मरेगा नहीं। उन्होंने कहा आप भूख को पहचानों। आप प्यास को पहचानों। यही कारण है जो उन्होंने रोजे की बात रखी। रोजे में आप भूखे रहोगे तो दूसरे की भूख का एहसास आपको होगा। आप प्यासे रहोगे तो दूसरों की प्यास का एहसास आपको होगा। तब आप दूसरे का हक नहीं मारोगे।

रीता : आज इन महत्वपूर्ण विभूतियों के वचनों की प्रासंगिकता क्या कोई समझता है?

डॉ हूबनाथ : असल में सारे महापुरुषों के साथ एक जैसा ही हुआ। मोहम्म्द साहब को भी लोगों ने सही ढंग से नहीं समझा। असल में एक होता है ‘व्यक्ति’ और एक होता है उसका ‘संदेश’।  व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं होता, संदेश महत्वपूर्ण होता है। हमने संदेश पर ध्यान नहीं देकर व्यक्ति को महत्वपूर्ण माना। जैसे रामायण में राम महत्वपूर्ण नहीं है। उनके द्वारा दिया जाने वाला संदेश महत्वपूर्ण है। हमने राम के संदेश को अलग रख दिया और राम की जन्मभूमि बनाने के चक्कर में देश के टुकड़े टुकड़े करने चाहे। मोहम्मद के जीवन संदेश को आत्मसात ना करते हुए मोहम्मद को पकड़ लिया गया। जीजस के संदेश को छोड़ कर जीजस को पकड़ लिया। हमने व्यक्ति पूजा करनी शुरू की सिद्धांतों पर ध्यान नहीं दिया। न ध्यान दिया न उसका आचरण किया। यह सिद्धान्त सिर्फ किताब में छापने के लिए नहीं थे। बल्कि जीवन में उतारने के लिए थे। ये कोड ऑफ कंडक्ट थे। पर हमने उन्हें आचार संहिता की तरह नहीं लिया। मंत्रों की तरह लिया। उनका पाठ करते रहे। रमजान आएगा तो उनको पढ़ेंगे। जीवन में नहीं उतारेंगे। महापुरुषों के साथ पूरी दुनिया में ऐसा ही होता रहा। आज भी यही है कि संदेश हमें नहीं चाहिए। हमें उस व्यक्ति की पूजा करनी है। और फिर हमें राजनैतिक दल तैयार करना है।


डॉ हूबनाथ पाण्डेय और रीता दास राम


रीता : तो आज आपको क्या लगता है कि किसी यीशु या पैगंबर की वापस जरूरत है ?

डॉ हूबनाथ : वे आएंगे भी तो ये लोग उनका फिर वही हश्र करेंगे। इंसान को जागने की जरूरत है। हर आदमी के भीतर यीशु और पैगंबर है। महावीर है। ये अच्छाई के प्रतीक है। अच्छाई तो हर आदमी में है। लेकिन आदमी उस अच्छाई को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर रहा है दूसरों के लिए नहीं।   
रीता : समाज, व्यवस्था और राजनीति से देश में जो हालात उत्पन्न हुए या होते हैं उस पर अपने समकालीन कवियों के लेखन से क्या आप संतुष्ट है?

डॉ हूबनाथ : समकालीन कवि या लेखकों के लेखन से मेरा बहुत ज्यादा परिचय नहीं। मैं बहुत ज्यादा पढ़ता नहीं हूँ। मतलब साहित्य नहीं पढ़ता हूँ। मेरे पढ़ने का क्षेत्र सोशोलोजी है। फिलोसफ़ी है। सायकोलोजी है। यह सब मैंने पढ़ा है। पढ़ता रहता हूँ।

रीता : किसमें रुचि सबसे ज्यादा है?

डॉ हूबनाथ : फिलोसफ़ी में सबसे ज्यादा रुचि रही है। फ़िलोसोफी का करंट सिनारियों है और मेरे प्रिय फिलोसफरस को ही मैं पढ़ता रहता हूँ।

रीता : आपकी कविता आपका व्यक्तित्व है। कविता में समाज और संस्कृति के प्रति आप जागरूक हैं ... !

डॉ हूबनाथ : संस्कृति की साधारण परिभाषा हम देखें तो इंसान अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए जो मटेरियलिस्टिक रचना करता है वह संस्कृति है। यानि आपका घर, आपके कपड़े, आपका खान-पान, आपकी वेश-भूषा, आपके फ्लाय ओवर, आपकी सड़के यह सब संस्कृति का हिस्सा होती है। फिर बाद में चल कर संस्कृति दो भागो में बट जाती है। एक मानसिक संस्कृति दूसरी भौतिक संस्कृति। मानसिक संस्कृति में फिर अध्यात्म और धर्म ये सारी चीज़ें आती है। पर धर्म मानने वाले यह नहीं मानते। वे कहते है संस्कृति हमारा हिस्सा है। मैंने रामायण बाद में पढ़ी, बायबल पहले पढ़ी। कुरान पहले पढ़ी, रामायण बाद में पढ़ी। मेरे मित्र मुस्लिम और ईसाई ज्यादा थे। हिन्दू मित्र कम थे इस वजह से इनका प्रभाव मुझ पर पड़ता रहा।

रीता : आपने समकालीन को तो नहीं पढ़ा लेकिन क्या आप अपने लेखन से संतुष्ट है?

डॉ हूबनाथ : असंतोष से ही तो लेखन पैदा होता है। संतुष्ट हो गए तो लेखन ख़त्म हो गया ना !

रीता : अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी का हक है इसमें आपकी अपनी रणनीति के बारे में पाठक जानना चाहेंगे ?

डॉ हूबनाथ : रणनीति नहीं है। संविधान में पूरे देश के लोगों को यह अधिकार दे ही दिया है कि जो हमारे फंडामेंटल राइट्स है उसमें फ़्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन भी है। हिंदुस्तान का जो सबसे बड़ा धर्म ग्रंथ है इस समय वो संविधान है। जब हमारा संविधान यह हक दे रहा है तो किसी को यह हक नहीं जाता है कि इसको छिनने की कोशिश करें। कोई ऐसा करता है तो हमें उसका प्रतिकार करना चाहिए। विरोध करना चाहिए। कविताएं जो है इसी बात का प्रतीक है कि फ़्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन है। मैं अपने मन की बात कह सकूँ। उसमें एक क्लॉज़ (clause) यह भी है कि आप किसी दूसरे का मन दुखा कर अपनी बात नहीं कह सकते। किसी को आहत कर के कुछ कहा जाय तो वह फ़्रीडम ऑफ एक्स्प्रेशन में नहीं आता है। हर आजादी की कुछ बन्दिशें तो होती ही है। आदमी एक पैर पर खड़ा हो सकता है इतनी आजादी है दोनों पैर उठाएगा तो गिर पड़ेगा।

रीता : याने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी एक लिमिटेशन है .... !

डॉ हूबनाथ : लिमिटेशन होती ही है। सबकी होनी चाहिए। सबसे बड़ा लिमिटेशन हमारा विवेक है। होना भी चाहिए। हम जो कह रहे हैं वो समाज और समय के लिए कितना जरूरी है। यह हर एक व्यक्ति को सोचना जरूरी है।

रीता : आपकी कविताएं मुखर, बुलंद समाज में हो रहे घटित का विरोध जताते हुए कटाक्ष प्रकट करती है कभी आक्रामक सी भी होती है। क्या यह आपका आक्रोश है .... अगर है तो भावुक कवि मन कहाँ है?

डॉ हूबनाथ : भावुक तो मैं बिलकुल नहीं हूँ। यह आक्रोश ही होता है जो व्यक्त हो जाता है। वह असंतोष ही होता है वो बाहर आ जाता है। मेरी कविताओं में बहुत खूबसूरत कविताएं, पेड़-पौधे, पंछी, बहार-वहार यह सब नहीं मिलेंगे।

रीता : पंछी, पशु तो बहुत मिलते हैं आपकी कविताओं में साँड, बैल, मछली, बकरी, कौए सभी मिलते हैं।

डॉ हूबनाथ : हाँ वह सभी है पर रोमेंटिक मूड में नहीं मिलेंगे। उनका एक सामंजस्य है। वे मुझे संदेश दे रहे होते हैं या मैं उनसे संदेश ले रहा होता हूँ। तब उनकी बात करता हूँ। कौए मुझे बचपन से ही अच्छे लगते रहे हैं। जब मैं फोटोग्राफी करता था तो सैकड़ों-हजारों तस्वीरें मैंने कौए की ली है। मैंने जितनी भी फोटो ली हैं उस में दस प्रतिशत भी इंसान का चेहरा नहीं होगा। मुझे कौए का शेप अच्छा लगता है। उसकी चाल अच्छी लगती है। उसकी आँखें अच्छी लगती है। वह पूरा ओवर आल, उसका एक्स्प्रेशन अच्छा लगता है। कौए को हम बुरा मानते हैं जबकि वह हमारी गन्दगी साफ करता है। कबूतर जो सिर्फ़ गंदगी करता है उसे हम शांति का प्रतीक मानते हैं। गौरैया तो बहुत दुष्ट पंछी हैं वो आपको एक पल चैन से बैठने नहीं देती लेकिन वह आपके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। कौआ आया नहीं कि आप उसे भगाना शुरू करते हो। हाँ, पितृपक्ष में थोड़ी इज्जत कौए की हो जाती है।

रीता : आज शिक्षा के क्षेत्र में भी राजनीति का हस्तक्षेप है। विश्वविद्यालयों का बुरा हाल है। जेएनयू के बारे में कई बातें सुनने में आती है कि अब वह राजनीति का अखाड़ा हो गया है। विद्यार्थियों में भी इस राजनीति का बुरा असर देखने मिलता है। विद्यार्थियों की स्थिति, यह सब जो हो रहा है, बतौर एक प्रोफेसर आप क्या कहना चाहेंगे?

डॉ हूबनाथ : जिसकी बात की जा रही है वह राजनीति नहीं है। राजनीति में एक नीति होती है। राजनीति एक थ्योरी होती है। जिसको सोशल थ्योरी कहते है। वह समाज के लिए होती है। सही मायने में यदि राजनीति की बात की जाए तो वैसा यूनिवर्सिटी में नहीं हो रहा। किसी विचार धारा को लेकर हम अभी रिएक्शन में जी रहे हैं। हम किसी के विरोध में अपनी राजनीति लाने की कोशिश कर रहे हैं। जिसे राजनीति कहा जा रहा है असल में वह स्वार्थ नीति है। हम स्वार्थ में इस कदर अंधे हो चुके हैं कि स्वार्थ को हमने नीति का रूप दे दिया है। जिसे हम कूटनीति या कुटिलता कहते हैं। वह सारी चीज इसमें हैं जिसे हम राजनीति कह रहे हैं। जैसे राजनीतिक थ्योरी एक मार्क्सवाद है या नव मार्क्सवाद है। ऐसे कोई थ्योरी लेकर आप राजनीति नहीं कर रहे हो। अगर विचार धारा लेकर राजनीति कर रहे हैं तो कोई बुरी बात नहीं है। विद्यार्थी को राजनीति की जानकारी होनी चाहिए। राजनीति एक पावर है। पावर को आप समझेंगे नहीं तो वो आपको तकलीफ देगा। जैसे बिजली एक शक्ति है। उसे नहीं पहचानोगे तो वह आपको शॉक देगा। ऐसे ही राजनीति को समझना, अपनाना और समझना जरूरी है। होता यह है कि हम राजनीति की जगह स्वार्थ नीति कर रहे होते हैं। या कूटनीति कर रहे होते हैं। उसे कूटनीति भी नहीं कहेंगे तो उसे डिप्लोमेसी कहा जाता है।

रीता : जेएनयू में क्या हो रहा है।

डॉ हूबनाथ : असल में वह एक रिएक्शन है। हमारे देश में युवा बहुत ज्यादा है। बहुत तेजी के साथ युवा बढ़ रहे हैं। हर राजनैतिक सत्ता यह चाहती है कि युवाओं पर उसका कब्जा हो। युवा आपको कॉलेज और यूनिवर्सिटी में मिलते हैं। हमारे यहाँ छात्र का राजनीति चुनाव लड़ने पर बैन था। अभी नया कानून आ गया है। तो सभी पोलिटिकल पार्टियां अपना अपना ग्रुप बना रही है। बहुत दिनों से जेएनयू में मार्क्सवाद था। वामपंथी पार्टी, एसएफ़आई, स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया थी। फिर बीजेपी आई तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आया। फिर काँग्रेस की पार्टी आई। फिर शिव सेना की। फिर मनसे की। ये सारी पार्टियाँ विद्यार्थियों को अपने दायरे में कैद करना चाहती हैं और उनका इस्तेमाल करना चाहती है। विद्यार्थी इस्तेमाल हो रहे हैं। विद्यार्थियों को लगता है कि आगे चल कर उन्हें एमएलए या एमपी का टिकट मिल जाएगा।

रीता : तो विद्यार्थी लालच में है ....

डॉ हूबनाथ : विद्यार्थी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अगर कोई पोलेटिकल पार्टी विद्यार्थियों के साथ राजनैतिक पार्टी संगठन बनाती है तो वह गलत है। विद्यार्थी अपना विद्यार्थी संगठन बनाए तो वह सही है।

रीता : तो जेएनयू में क्या है विद्यार्थी संगठन ... ?

डॉ हूबनाथ : नहीं। पोलेटिकल है। .... सारे पोलेटिकल है। वो या तो सीपीआई के हैं। अब तो सीपीआई, सीपीएम एक हो गई है। कम्युनिस्ट पार्टी के हैं। या एवीबीपी के हैं।

रीता : आप मुंबई यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं। आप यहाँ असोसिएट प्रोफेसर है। आप यहाँ किस तरह की राजनीति देखते रहे हैं? शिक्षा अपने पाक रूप में इस दांव-पेंच से क्या बच पाई है?

डॉ हूबनाथ : ये ज़रा मुश्किल है ..... !! असल में बात सिर्फ़ मुंबई यूनिवर्सिटी की नहीं है। शिक्षा का जो हाल है उसे यूँ कह सकता हूँ कि आपके बाएँ हाथ की हालत क्या हो सकती है जब पूरा शरीर ही सड़ा हुआ है। बायाँ हाथ भी वैसा ही रहेगा। दायाँ हाथ भी वैसा ही रहेगा। पूरे देश में जो शिक्षा की व्यवस्था है वह अविश्वसनीय जैसी हो गयी है। उसमें दो-तीन चीज़ें है जिसकी वजह से यह हालत है। एक तो विद्यार्थी है उसे नौकरी चाहिए। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए शिक्षा के सिस्टम में आता है। हमारे इस एजुकेशन सिस्टम में समझदार बनने या दुनिया को समझने के लिए विद्यार्थी एजुकेशन सिस्टम में नहीं आता है। इसलिए हमारे यहाँ शिक्षा की भी वही केटेगीरी है। सबसे ज्यादा तनख्वाह वाली शिक्षा, उससे कम तनख्वाह वाली शिक्षा, कम तनख्वाह वाली शिक्षा, बिना तनख्वाह वाली शिक्षा। हमारे यहाँ सबसे ज्यादा डिमांड मेनेजमेंट की डिग्रीस की है। फिर उसके बाद मेडिकल साइनसेस, एंजिनियरिंग है। फिर उसके बाद कॉमर्स है। आर्ट्स सबसे नीचे आता है। आर्ट्स में भी भाषा (language) बहुत नीचे आती है। गए-गुजरे विषय, तलछट में आते हैं। आप इस तरह से जब शिक्षा का विभाजन कर दोगे तो वह शिक्षा, शिक्षा नहीं रह जाएगी। आप कोई न कोई स्वार्थ लेकर इस शिक्षा का इस्तेमाल करके अपनी जिंदगी को सुधारना या संवारना चाहते हो। यही विद्यार्थी तो शिक्षक बन कर आ रहे हैं। जब पूरे सिस्टम में ही गड़बड़ है तो शिक्षक वर्ग हो या शिक्षित वर्ग दोनों एक सरीखे होंगे। हमारे यहाँ आजादी के बाद ढेर सारे एजुकेशन कमीशन्स आए। पर उन सारे एजुकेशन कमीशन्स के शिक्षा आयोगों की सिफ़ारिशों को लागू नहीं किया गया। शिक्षा आपको निर्भय बनाती है। आपके अंदर आत्मविश्वास पैदा करती है। अगर शिक्षा आपको निर्भय न बना सके और आत्मविश्वास न पैदा कर पाए तो वह शिक्षा किसी काम की नहीं है।

रीता : ये जो यूनिवर्सिटी में राजनीति के नाम पर चल रहा है यह सब क्या है?

डॉ हूबनाथ : यह ‘राजनीति’ नहीं ‘स्वार्थ नीति’ है। ‘राजनीति’ तो बड़ा शब्द है। राजनीति में थ्योरी होती है। उसमें सिद्धांत होते है। उसके प्रति आपका समर्पण होता है। आप कोई कीमत चुकाने को तैयार होते हो। यहाँ मेरा स्वार्थ ही मेरी नीति है। अपने स्वार्थ के लिए हम विद्यार्थियों का भी इस्तेमाल करते हैं। अपने इंस्टीट्यूट का भी इस्तेमाल करते हैं। चूंकि प्रोफेसर भी उसी समाज से आ रहे हैं। प्रोफेसर कोई आसमान से टपक नहीं रहे। तो जो हालत समाज की होगी वही शिक्षा की होगी वही राजनीति की होगी। ये सब एक ही क्षेत्र में काम करते हैं।

डॉ हूबनाथ पाण्डेय और रीता दास राम
 
रीता : यदि ऐसा ही है तो क्या कुछ किया जा सकता है? जो स्थिति में सुधार हो ? ऐसे में आप विद्यार्थियों के भविष्य को कहाँ देखते हैं ? आप प्रोफेसरों और विद्यार्थियों को क्या कुछ कहना चाहेंगे ?

डॉ हूबनाथ : विद्यार्थी खुद अपने भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते हैं। विद्यार्थी जब आते हैं तो अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें मेहनत करनी चाहिए रिफरेंस बुक्स पढ़नी चाहिए। सारे के सारे विद्यार्थी नोट्स के चक्कर में पड़े रहते हैं। झेरोक्स के चक्कर में पड़ते हैं। इवन मेडिकल साइंस के भी विद्यार्थी उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए नहीं आ रहे हैं बल्कि वे डिग्री लेने के लिए आ रहे हैं। किसी न किसी तरह से डिग्री मिल जाए एक अच्छा पर्सेंटेज मिल जाए। यह उनका उद्देश्य होता है। ज्ञान उनका उद्देश्य होता ही नहीं।

रीता : और प्रोफेसरों का ..... ??

डॉ हूबनाथ : प्रोफेसरों का भी। जब विद्यार्थी को ज्ञान लेना नहीं तो वह देगा कहाँ से। विद्यार्थियों को जो चाहिए वह चीज़ जब शिक्षक से मिल रही है तो वह विद्यार्थियों के लिए अच्छा शिक्षक है।

रीता : तो आज के जमाने में जो शिक्षक हैं उनमें गुरु के रूप में आदर्शवाद क्या देखने मिलता है ?

डॉ हूबनाथ : सभी नौकरी कर रहे हैं। सारे के सारे क्षेत्र में नौकरी की जा रही हैं। नौकरी में ऐसा है कि आपकी तनख्वाह तय होती है। जब आपके काम से आपके तनख्वाह पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है तो आप अपने काम पर कोई असर नहीं पड़ने देते।

रीता : ऐसे चुनौती और भ्रष्ट माहौल का आज के गुरु-शिष्य सम्बन्धों पर कैसा प्रभाव पड़ा है? इसमें आपकी क्या भूमिका है?

डॉ हूबनाथ : यह गुरु-शिष्य संबंध ही नहीं है। गुरु-शिष्य संबंध थोड़ा बहुत नृत्य में हैं। संगीत में हैं। जहाँ गुरु के बिना आपका काम नहीं चलेगा, वहाँ गुरु की इज्जत है। जहाँ गुरु के बगैर गाइड या नोट्स या कुंजियाँ मिल जाती है, वहाँ गुरु की कोई इज्जत नहीं। जिस-जिस क्षेत्र में सीधे आपको गुरु ज्ञान देते है जैसे नृत्य में, संगीत में, रागों की जानकारी गुरुओं के बगैर नहीं होती तो वहाँ आपको यह दृश्य दिखाई देगा कि विद्यार्थी गुरु के चरणों में गिरते हैं। या फिर छद्म रूप में आध्यात्म में गुरु अपनी जगह बनाएँ हुए हैं।

रीता : याने एक दिखावा चल रहा है .... !!

डॉ हूबनाथ : हाँ दिखावा। बाकी जगह पर गुरु-शिष्य संबंध नहीं है। विद्यार्थी और शिक्षक संबंध है। विद्यार्थी पैसा देता है शिक्षक पेमेंट पाता है। इन दोनों के बीच में जो आदर्श वाली बात थी, वह नहीं है।

रीता : आप भी प्रोफेसर है और आपके भी विद्यार्थी शोध कर रहे हैं आपके विद्यार्थियों के बीच आपकी भूमिका क्या है?

डॉ हूबनाथ : शोध में विद्यार्थी अपना विषय खुद चुनते हैं। उन्हें तकलीफ होती है तो मैं मदद करता हूँ। मैं सिर्फ़ मागदर्शन का काम करता हूँ बाकी सब विद्यार्थी करते हैं क्योंकि वो बड़े हो चुके हैं। इतने मैच्योर हो चुके हैं तो उनको सही और गलत की समझ होनी चाहिए। मैं ही सभी चीज़ें समझाता रहूँ तो वह सही रास्ते पर कभी चल नहीं पाएंगे। जहाँ वो डगमगाते हैं वहाँ मैं उनको सहारा देता हूँ। नहीं तो वो अपना रास्ता खुद तय कर लेते हैं।






रीता : मैंने सुना है। देखा है। आप विद्यार्थियों की मदद करते हैं, कर रहे हैं। ये आप कब से और क्यों कर रहे हैं?
डॉ हूबनाथ : इसकी वजह बस इतनी सी है कि मैं जब विद्यार्थी था तो मेरी मदद किसी ने नहीं की। मुझे ऐसा लगता रहा कोई होता जो सबकी मदद करता। मेरे साथ जो हुआ वो मेरे किसी विद्यार्थियों के साथ न हो इसलिए मैं विद्यार्थियों की मदद करता रहता हूँ।

रीता : क्या विद्यार्थियों में संभावनाएं है? बदलाव है तो कैसा ?

डॉ हूबनाथ : विद्यार्थियों में संभावनाएं है, पर वे अपनी संभावनाओं को पहचाने और विकसित करें। उसके लिए मेहनत करें। पर वह करने के लिए विद्यार्थी तैयार नहीं है।

रीता : और तब भी आप चाहते हैं कि विद्यार्थी खुद समझे और खुद करें ... !!

डॉ हूबनाथ : हाँ खुद समझे, क्योंकि विद्यार्थी इतने बड़े हो चुके हैं। हम अठारह साल में सरकार चुनने का अधिकार दे चुके हैं। ये अट्ठाईस साल में कम से कम अपनी जिंदगी तो खुद चुन सकें और तय कर सकें।

रीता : साहित्य को सिनेमा से जोड़ने की बात की जाती है।
आज कल सिनेमा से जुड़े अनेक विषय पर भी शोध हो रहे हैं। सिनेमा और साहित्य दो अलग प्रकार की विधाएँ है। दोनों के उत्कर्ष अलग है। एक बिन्दु पर दोनों मिलते भी हैं। सिनेमा में साहित्य की मौलिकता क्या बची रह पाती है। प्रेमचंद भी सिनेमा छोड़ कर वापस चले गए। बहुत दिनों तक शिक्षा जगत में सिनेमा को लेकर कोई बात नहीं हुई ... आज शोध हो रहे है इस पर आपके विचार .......।

डॉ हूबनाथ : प्रेमचंद यहाँ से गए उसके दो कारण थे। एक तो यहाँ का पानी उन्हें सूट नहीं हो रहा था। दूसरे वे पेट की बीमारी से ग्रसित ही यहाँ आए थे। यहाँ उनकी तबीयत लगभग खराब रहती थी। सिनेमा में उस समय एक तरह की अश्लीलता आ रही थी। प्रेमचंद ने बाकायदा उस पर टिप्पणी की है। जब पहली फिल्म उनकी फ्लॉप हुई। उसको फ्लॉप तो नहीं कह सकते। उसे चलने नहीं दिया गया। ‘मजदूर’ फिल्म जो ‘दामिल’ नाम से आई थी। उसमें मजदूरों और मालिकों के बीच में संघर्ष और मजदूरों की विजय दिखाई गई थी। यह वह समय था जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने वाला था। महँगाई बढ़ रही थी। मजदूरों में असंतोष बढ़ रहा था। अगर यह फिल्म रिलीज़ हो जाती तो मजदूरों को एक रास्ता मिल जाता। मजदूर उग्र हो जाते। उस समय मुंबई सेंसर बोर्ड के जो चेयर मेन थे वही मुंबई के सारे मिलों के भी चेयरमैन थे। उन्होंने मुंबई पर यह फिल्म रिलीज़ नहीं होने दी। हिंदुस्तान के जिस-जिस इलाके में मिलें थीं उस-उस स्थान पर यह फ़िल्म ‘दामिल’ रिलीज़ नहीं हुई। उन लोगों का भी नुकसान हुआ फिर भी उन्होंने प्रेमचंद को जाने नहीं दिया। उनकी दूसरी फ़िल्म भी उन्होंने शुरू की थी। प्रेमचंद ने बताया कि एक दिन शूटिंग देखने वे गए थे। वहाँ एक नायिका को भिगाकर उस पर एक गाना फिल्माया जा रहा था। और डाइरेक्टर उसके बदन को हाथ लगा-लगा कर उसे, किस तरह से अभिनय करना है यह बता रहा था। प्रेमचंद को यह बात पसंद नहीं आई। प्रेमचंद ने कहा यह तो गलत है। फिल्मों का जो भद्दापन था उसे देख कर प्रेमचंद यहाँ से चले गए। साहित्य और सिनेमा दो अलग चीज़े हैं। सिनेमा के लिए साहित्य की कोई जरूरत नहीं है। चार्ली चेपलियन की फिल्में अगर आप देखें तो उसमें कोई कंटेन्ट (कथावस्तु) ही नहीं होती है। सिर्फ ऐक्शन होता है। उसके आधार पर वे अपना संदेश देते है। साहित्य एक अलग चीज़ है और सिनेमा भी अलग चीज़ है। सिनेमा में साहित्य इसलिए आया कि .... जब 1931 में यहाँ बोलती फ़िल्म शुरू हुई तब पहली फ़िल्म ‘आलमआरा’ बनी। वह नाटक पर बनी थी। फिर वी शांताराम ने ‘राजा हरीशचंद्र’ को रिमेक कर ‘अयोध्याचा राजा’ बनाई। अतः कहानी कहाँ से लाएँ यह समस्या थी। सिनेमा क्या है यह हमें पता नहीं था। सिनेमा फ़ॉर्म को हमने समझने की कोशिश नहीं की। हमें ऐसा लगा कि किसी कहानी को हम पर्दे पर दिखा देंगे तो वह सिनेमा हो जाएगा। हमें कहानी की जरूरत पड़ने लगी। अजंता मूवी टोन ने पेपर में ‘एड’ दिया था। हमें ऐसे साहित्य कार की जरूरत है जिसके कहानी पर हम फ़िल्म बना सकें। वो ‘एड’ जैनेन्द्र ने प्रेमचंद को दिखाया और कहा यहाँ तुम्हें अपने कर्ज़ उतारने के लिए पैसे मिल सकते है। तुम कोशिश कर सकते हो। ‘एड’ देखकर लोग आए। आते थे। हमारे यहाँ जो सिनेमा में पैसा लगा रहे थे उनको एकदम अक्ल नहीं थी। आम तौर से जैसे जुए में पैसे लगाए जाते थे। मिल में लगाए जाते थे। उसी तरह वो सिनेमा में इन्वेस्ट करते थे। उनके पास सिनेमा की दृष्टि नहीं थी। कुछ डाइरेक्टर बाद में आए जिनके पास दृष्टि थी। शांताराम को बहुत दुख झेलना पड़ा। वे बहुत अमीर नहीं थे। दादा साहब फाल्के की हालत तो इतनी बुरी थी कि आखरी आखरी दिनों में शांता राम ने उनको खर्चे के लिए पाँच सौ रुपये भेजे थे। सच में जो सिनेमा वाले थे उनकी हालत बुरी थी। कुछ लोग सिनेमा का फायदा उठा रहे थे। इन लोगों को साहित्य (कहानी) चाहिए थी और इसी दौरान कुछ साहित्य कार भटक कर सिनेमा में आ गए ताकि चार पैसे मिल सके। मुक्तिबोध भी सिनेमा में लिखने के लिए आए थे पर कुछ बात जमी नहीं और उनको वापस जाना पड़ा।



रीता : कुछ और साहित्यकार जुड़े थे फिल्मों से ...... !! जैसे जगदंबा प्रसाद दीक्षित ..... !!

डॉ हूबनाथ : सभी पैसे के लिए। जगदंबा प्रसाद दीक्षित ज़ेवियर कॉलेज में पढ़ाते थे। शबाना आज़मी उनकी विद्यार्थी थीं। कई और भी विद्यार्थी थे। जब विद्यार्थियों में से कुछ ने फिल्म बनाना शुरू किया। तो अपने सर से कहा हम आपकी कहानी पर सिनेमा बनाएँगे। आप कहानी लिखिए। तब महेश भट्ट के लिए जगदंबा प्रसाद दीक्षित ने फिल्में लिखी। उन्होंने नौकरी छोड़ दी। फूल टाइम फिल्मों में आ गए। पर फिल्म उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं थी। उनके अभिव्यक्ति का माध्यम साहित्य ही था। ‘मुरदा-घर’, ‘कटा हुआ आसमान’, में ही वे खुद को अभिव्यक्त कर पाए। वह उनकी सफल अभिव्यक्ति थी।

रीता : तो सिनेमा में साहित्य की मौलिकता का प्रश्न खड़ा ही रहा ... बरकरार ही रहा ..... !!

डॉ हूबनाथ : सिनेमा एक सिस्टम है। सिनेमा एक आर्ट है। सिनेमा में साहित्य एक छोटी सी चीज़ जिसे थीम कहा जा सकता है। नाटक भी ऐसे ही है। यह जो लिखा हुआ नाटक होता है भरत इसको नाटक नहीं मानते थे। उसे वह ‘काव्य’ कहते थे। उस काव्य का जब अभिनय के रूप में प्रस्तुतिकरण होगा तो वह ‘नाटक’ होगा। तब उसमें बहुत सारे परिवर्तन होते ही है। नाटक का अपना अलग व्याकरण है। सिनेमा का अपना अलग व्याकरण है। सिनेमा साहित्य का इस्तेमाल करता है। वह साहित्य को फिल्माता नहीं है। वह साहित्य को एक थीम के रूप में लेकर सिनेमा बनाने की कोशिश करता है। इसे हम नाइंसाफी नहीं कहेंगे। सिस्टम के भीतर जो आएगा उसे वे सिनेमा में लेते हैं। आज यूनिवर्सिटी में सिनेमा पर भी शोध हो रहे हैं क्योंकि मास मीडिया पर यूनिवर्सिटी में एक नया पेपर आया है। यही कारण है कि सिनेमा पर शोध हो रहे हैं। विद्यार्थियों को सिनेमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जो है वह सीमित है। अतः शोध भी बहुत ज्यादा सार्थक नहीं हो पा रहे हैं।

रीता : ‘आपकी मर्जी’ कविता मजबूरी से भरी तीखी तीस पैदा करती है। यहाँ आप किस तरह के संबंध से पाठकों को आगाह कर रहे हैं? आप इस कविता द्वारा क्या प्रेषित करना चाहते हैं?

डॉ हूबनाथ : मेरी जानकारी में एक शख़्स थे जो बहुत ही भ्रष्ट थे। चूंकि वे बड़े पोस्ट पर थे तो हम उनका कुछ कर नहीं पाते थे। ऐसा कई बार होता है कि सिस्टम के अंदर गलत आदमी के साथ आपको रहना पड़ता है। काम करना पड़ता है। जिसका हम कुछ नहीं कर सकते। मैंने सोचा कम से कम उस पर कविता लिखी जा सकती है। तब मैंने उन पर यह कविता लिखी। फिर बहुत से ऐसे लोग मेरी जिंदगी में आए।

रीता : आपने तो कविता लिख दी। सारे लोग तो ऐसा नहीं कर पाते। तो ऐसे लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जा सकता है ..... !! कैसे डील किया जाना चाहिए ..... !!



डॉ हूबनाथ : जहाँ तक मेरा सवाल है मैं एक सरकारी नौकरी में था। मेरा एक इंसान ने बहुत नुकसान किया। मेरा प्रमोशन नहीं होने दिया और जितनी रुकावटे वे ला सकते थे या लाना चाहते थे वे लाए, लाते रहे। चूंकि वे मेरे बॉस थे तो हम उनका कुछ कर नहीं सकते थे। बात उन्हीं की सुनी जाती थी। एक स्थिति ऐसी आई कि या तो मैं काम छोड़ दूँ या वें छोड़ दे। उसी समय मुझे किसी अन्य जगह नौकरी का अच्छा मौका मिला। दुर्भाग्य कि ... जैसे मैं वहाँ से निकला उनका भी तबादला हो गया। तब तक मैं काम छोड़ चुका था। नहीं तो मैं वापस चला जाता। जब मुझे पता चला था कि उन्हें मधुमेह की तकलीफ है। मैं उनका इलाज कराने एक बड़े डॉक्टर के पास ले गया। वहाँ उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं तुम्हारे साथ इतना बुरा करता रहता हूँ। तुम मुझसे इतना नफ़रत करते हो फिर भी तुम मुझे डॉक्टर के पास क्यों लेकर आए। मैंने कहा दुश्मन अगर ताकतवर रहे तो लड़ने का मज़ा आता है इसलिए मैं आपको यहाँ लाया। आप स्वस्थ रहो तो हम लड़ते रहेंगे। मतलब लड़ाई भी हो तो खुलकर। सामने वाले को पता हो कि मैं नफ़रत करता हूँ। उसे यह गलतफ़हमी ना हो कि मैं प्यार कर रहा हूँ और इज्जत कर रहा हूँ। सारी चीज़े एकदम साफ साफ हो तो उसमें समस्या नहीं होती है। समस्या तो तब होती है जब मैं समझूँ कि वो इज्जत कर रहा हूँ और मैं नफ़रत कर रहा हूँ। तब वह रिलेशन दोनों को परेशान करते हैं।

रीता : आपके विचार जिस तरह के भी हैं आपकी कविताओं में व्यक्त होते हैं, विद्यार्थियों के सामने हैं, इसमें आपके परिवार का क्या कुछ योगदान है......?

डॉ हूबनाथ : कोई योगदान नहीं है परिवार बिलकुल अलग और मैं बिलकुल अलग हूँ। परिवार से भी मेरी कभी बनी नहीं। 
रीता : आपका बेटा ..... !!!!

डॉ हूबनाथ : वो अपनी तरह से जीएं। मैं अपनी तरह से जीऊँ। मैं अपनी सोच उस पर नहीं लादता। वो लादने की कोशिश करता है। बच्चा है। धीरे धीरे ठीक हो जाएगा। हर एक को अपना जीवन अपनी तरह से जीने का अधिकार होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। सिर्फ़ यह देखना होता है कि उसके पास विवेक नहीं है और वह गलत रास्ते पर जा रहा है तो मुझे उसे सावधान करना है।

रीता : लोग कहते हैं मुझे गुरुजी अच्छे मिले आप कहते हो मुझे विद्यार्थी ..... !!

डॉ हूबनाथ : हाँ। मुझे विद्यार्थी बहुत अच्छे मिले और ज़्यादातर विद्यार्थियों से ही मैंने सीखा। मैंने कोई बी.एड. नहीं की। कोई ट्रेनिंग नहीं ली। मुझे विद्यार्थी ही संवारते रहे, सुधारते रहे और मैं सुधरता रहा या बिगड़ता रहा जो भी कहें .... ।

रीता : बहुत बहुत धन्यवाद सर, आपके बारे में कई नई बातों की जानकारी मिली। मैं समझती हूँ आपके इस साक्षात्कार को पढ़कर भी कई शिक्षित होंगे और कईयों का मार्गदर्शन होगा। कई बातें सीखने-समझने मिलेगी।




आप कहते हैं जिंदगी में आप भागते रहे जबकि चीज़े आपको संतुष्ट नहीं कर पाई और आप विमुख हो अन्य रास्ते निकल पड़ते रहे। चोरों से भी आपकी संगत हुई और गुरुजनों से भी। आज जिंदगी ने जिस स्थान पर आपकी भूमिका होना स्वीकारा है आप सहर्ष जूझ रहे हैं। हालात का मुक़ाबला कर रहे हैं। समाज के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं। दूसरों के लिए जीने की आपकी कोशिश हमें भी कुछ अलग करने का अवसर सुझाती है। आप एक बहुत सहृदय व्यक्तित्व के धनी, मानवता के विचारों से ओत-प्रोत, विद्वान, उसूलों के लिए लड़ते, समाज में हो रहे गलत का विरोध करते, जन-कल्याण की भावना समेटे, समाज शास्त्री कहना गलत नहीं होगा, जिसका क्षेत्र विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को शिक्षित करना ही नहीं बल्कि जागरूक करना भी रहा है। साथ ही साथ आपने समाज में गरीबों की सेवा, मज़लूमों की सहायता और सहयोग करना भी अपना उद्देश्य बना रखा है। मैं रीता आपके इस इंसानियत और मानवता के लिए कुछ कर गुजरने के जज़्बे को नमन करती हूँ।
०००
समाप्त

साक्षात्कार की पहली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/12/blog-post_28.html?m=1






रीता दास राम की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

समाज में नारी


https://bizooka2009.blogspot.com/2018/12/16.html?m=0

23 दिसंबर, 2018


साक्षात्कार: डॉ हूबनाथ पाण्डेय







कई महीनों की कोशिश के बाद आज मुंबई विश्वविद्यालय के असोसिएट प्रोफेसर डॉ हूबनाथ पाण्डेय जो एक कवि, लेखक और आलोचक भी हैं, से साक्षात्कार के लिए मुलाक़ात करना संभव हुआ। उनकी व्यस्तता, उनके आसपास विद्यार्थियों की जमघट, लेक्चर के लिए आते ही उन्हें अपने रूम से निकलते देखना। अक्सर उनकी व्यस्तता मुझे साक्षात्कार के लिए मिलने का वादा लेने से भी पीछे खींचती रही। इतनी व्यस्तता के बावजूद विद्यार्थी उनके पास अपनी समस्या लेकर आते और हूबनाथ सर उनका समाधान पूरे मनोयोग से कराते भी रहें। इस साक्षात्कार के लिए उनकी सहमति जानने पर, पहले .... इसकी कोई जरूरत नहीं है, .... फिर क्या होगा साक्षात्कार से, .... तुम खुद ही प्रश्न का उत्तर दे दो, ..... फिर ठीक है किसी दिन मिलते हैं ..... के बाद आखिरकार दिन तय होने की तारीख .... रद्द होना ..... और आज वह दिन कि मैं उनका साक्षात्कार ले पाई .... वाकई एक अत्यंत सुखद अनुभूति है। 
     खुद के लिए नहीं, पर किसी की व्यथा सुन कर मदद के लिए दौड़ जाने वाले, फोन पर भी बीमारी का इलाज बताने वाले, सहायता की ख़ातिर हर संभव कोशिश करने वाले हूबनाथ सर जिनसे विद्यार्थी पारिवारिक परेशानी का हल पूछने से भी नहीं कतराते। अक्सर सुबह-सुबह विश्वविद्यालय में पौधों में पानी डालते, कौओं या अन्य पक्षियों की तस्वीर लेते उन्हें देखा जा सकता हैं। किसी कार्यक्रम में उपस्थिती न देते हुए किसी जरूरतमंद की मदद करते उन्हें देखना मामूली बात है। डॉ हूबनाथ पाण्डेय जिन्हें मैं सर कहती हूँ मेरे गुरु भाई भी हैं। आइए उनके उदगार, शब्दों और पंक्तियों पर गौर करें, अलग कुछ सुने, कुछ गुने .. !!  
०००

रीता दास राम


साहित्यकार को यह गलत फ़हमी है कि वह कोई बहुत बड़ा काम कर रहा है: डॉ हूबनाथ पाण्डेय

रीता दास राम





डॉ हूबनाथ पाण्डेय



पहली कड़ी


रीता : आप कवि हैं और प्रोफेसर भी है। जानना चाहूंगी शिक्षा और साहित्य का रिश्ता क्या है ? क्या दोनों एक दूसरे पर आश्रित है? साहित्य कब शिक्षा के योग्य समझा जाता है? या किस प्रकार के साहित्य को शिक्षा में जगह दी जाती है ?

डॉ हूबनाथ : शिक्षा की शुरुआत वैदिक काल से हुई। बहुत प्राचीन काल में जाए तो वैदिक काल में, ऋग्वेद में, शिक्षित करने की बजाय सूचित करना उनका उद्देश्य होता था। क्योंकि शिक्षा का आधुनिक टर्म (तरीका/पद्धति) तब तक नहीं आ पाया था। वैदिक साहित्य हमारा सबसे पुराना साहित्य है। वह शिक्षित करने के लिए ही था। शिक्षा शब्द जो है वो वैदिक काल में संस्कृत में फोनेटिक्स को बोला जाता था। जो ध्वनि विज्ञान है। पहले इस रूप में शिक्षा शास्त्र हमारे यहाँ हुआ करता था। हम उसकी बात नहीं करेंगे। मेरे ख़्याल से आप एजुकेशन (शिक्षा) के बारे में पूछ रही है। एजुकेशन में तीन चीजें होती है। एक तो इन्फोर्म (सूचित) करना। दूसरे एवेयर (जानकारी देना/ परिचय कराना) करना। तीसरे रिस्पोंसिबल (जिम्मेदार) बनाना। ये तीनों कार्य साहित्य करता है। हमने साहित्य को शिक्षा का माध्यम ही माना था। साहित्य इसलिए माना था क्योंकि साहित्य को हमारे यहाँ पर जैसे प्रेमिका का उपदेश होता है वह बुरा नहीं लगता है। जैसे वह कांतासम्मित उपदेश जो मम्मट ने कहा। उसके माध्यम से आप शिक्षित करे तो लोग चीजों को समझते हैं। हमारे यहाँ साहित्य शिक्षा के ही काम आया करता था। अभी भी हमारा पुराना साहित्य जो है वह कहीं न कहीं शिक्षा के तीन मानदंडों पर आधारित है कि एक तो वह सूचित करता है। दूसरे यह सब आपके ग्रोथ (बढ़ोत्तरी) के लिए ही होता है। साहित्य भी आपके अंदर कुछ विकास और आपको जागरूक करता है और शिक्षा भी करती है। शिक्षा असल में उद्देश्य है और साहित्य माध्यम है।

रीता दास राम और हूबनाथ पाण्डेय


रीता : आज कल जो साहित्य लिखा जा रहा है और पहले जो साहित्य लिखा जाता रहा .... दोनों को देखते हुए आप क्या कहना चाहेंगे?


डॉ हूबनाथ : पहले के और अभी लिखे जाने वाले सारे के सारे साहित्य साहित्य ही है। आज लिखा जा रहा हो या हज़ार साल पहले लिखा गया हो, अगर साहित्य है तो शिक्षा के लिए ही है। साहित्य लिखा जा रहा है तो उसका एक पाठक होगा। साहित्य में एक बात होती है जो लेखक के अपने अनुभव पर आधारित होती है। लेखक की अपनी सीमा है। उस सीमा के भीतर जो वह महसूस करता है, देखता है, निरीक्षण करता है, उसके आधार पर लिखता है। लिखते समय कवि या लेखक यह नहीं सोचता कि मैं यह लिख कर लोगों को बिगाड़ दूँ या बर्बाद कर दूँ। लोगों को गलत रास्ते पर ले जाऊँ, ऐसे विचार से तो साहित्य लिखा नहीं जाता है न ! लेखक के मन में कोई बात है वो लोगों तक पहुँचे। वह अच्छी बात ही होती है जो वह लोगों तक पहुंचाने की कोशिश वह करता है। साहित्य यह बुनियादी रूप से शिक्षा ही है।

रीता : तो क्या कारण है कि सारे साहित्य का चुनाव शिक्षा के लिए नहीं किया जाता ?


डॉ हूबनाथ : उसके दो कारण है। एक तो कारण है राजनीति। एक निश्चित राजनीति के तहत हम तय करते हैं कि हम किसको पढ़ाएँ और किसको न पढ़ाए। जैसे हमारी शिक्षा पद्धति एक विशिष्ट विचार धारा को लोगों तक पहुँचाना चाहती है। उस विशिष्ट विचार के तहत जो फिट बैठता है वह पढ़ाया जाता है। जो नहीं बैठता है वह नहीं पढ़ाया जाता है। हमारे यहाँ बेचन शर्मा ‘उग्र’ नहीं पढ़ाए जाते। ‘राजकमल चौधरी’ भी नहीं पढ़ाए जाते। यह एक राजनैतिक व्यवस्था होती है जो यह तय करती है। दूसरे यह है कि साहित्य बहुत ज्यादा लिखा जा रहा है। हम जो सिलेबस बनाते हैं वो तीन साल के लिए बनाते है। उसमें लिमिटेड (सीमित) ही चीजे पढ़ानी पड़ती है। हम उसमें से सिलेक्ट (चयन) करते है। अब उस सिलेक्शन (चयनित) में भी एक तरह की राजनीति होती है कि मैं किस पब्लिशर (प्रकाशक) को खुश करूँ। किस लेखक को खुश करूँ। ये भी चीज़ होती है कि किससे फ़ायदा होगा। जो चुनने वाले होते हैं उनकी भी अपनी पसंद होती। जैसे मुझे निराला पसंद है तो मैं निराला को लगाऊँगा। मुझे मुक्तिबोध पसंद है तो मैं मुक्तिबोध को लगाऊँगा। एक और बात होती है वह है फैशन। अन्य यूनिवर्सिटी में क्या चल रहा है। अभी तो मूल रूप से यह देखा जाता है कि ‘यूजीसी’ का सिलेबस क्या है? वह सिलेब्स हमारे सिलेब्स में कवर हो जाए तो वह विषय पढ़ाते है। सिलेब्स हम मुक्त रूप से तय नहीं करते हैं कोई न कोई दबाव हमारे ऊपर रहते हैं।



रीता : याने यह तय है कि कुछ साहित्यकार अच्छे होते हुए भी छूटते होंगे?

डॉ हूबनाथ : साहित्यकार सारे अच्छे ही होते हैं। साहित्य असल में अगर शिक्षा की बात कर रहा है तो बुनियादी रूप से अच्छा है। जैसे पानी है तो उसका उद्देश्य ही प्यास बुझाना है न ! तो इसलिए साहित्य अच्छा या बुरा नहीं होता। साहित्य की कोई केटेगिरी नहीं होती है। बस हम चुनाव कुछ का कर पाते हैं।

रीता : आपके पसंदीदा साहित्यकार कौनसे है ? और क्यों ? किसने आपको प्रेरित किया?

डॉ हूबनाथ : पसंदीदा बहुत सारे हैं। एक खलील जिब्रान है। उनके अंदर पूरे सिस्टम के लिए एक तरह का विद्रोह है। विद्रोह के साथ इक्वालिटी (स्तरीयता) की बात वह स्थापित (स्टेबलिस्ट) करना चाहते है। सबसे बड़ी बात खलील जिब्रान में ‘न्याय’ है। जिसे सोशल जस्टिस (सामाजिक न्याय) कहते हैं, हम जिसे यूनिवर्सल जस्टिस (विश्वस्तरीय न्याय) कहते हैं। वह खलील जिब्रान में दिखाई पड़ता है। इसलिए वह मुझे पसंद है। दोस्तोव्यस्की मेरे प्रिय लेखक है। टोल्स्तोय मेरे प्रिय है। गोर्की मेरे प्रिय लेखक है। हिंदुस्तान में प्रेमचंद है। निराला है। मुक्तिबोध, धूमिल है जो मुझे पसंद है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं कह नहीं सकता कि अमुक मेरा प्रिय लेखक है। पंद्रह सोलह साल की उम्र में मैंने खलील जिब्रान को पढ़ा। उनका एक संग्रह ‘विरोधी आत्माएँ’ मुझे फुटपाथ पर कहीं मिल गया था। उस उपन्यास ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया। मुझे बदलने वाली किताबें सिर्फ़ ‘दो’ है। दूसरी किताब सिनेमा के डाइरेक्टर रामानंद सागर की है। रामानन्द सागर शरणार्थी के रूप में पाकिस्तान से आए थे। उन्होंने जो मार-काट, हत्याएँ और दंगे देखे थे। उस पर उन्होंने एक उपन्यास लिखी थी ‘और इंसान मर गया’। वह किताब मुझे बी.ई.एस.टी. की लाइब्रेरी में मिली। जब मैं वहाँ काम करता था। उसे पढ़कर मैं भीतर से हिल गया। वह उपन्यास कोई बहुत लोकप्रिय नहीं है। उसका बहुत बड़ा कोई साहित्यिक मूल्य भी नहीं है। किन्तु उसके अंदर मानवीय मूल्य बहुत जबर्दस्त है। उन्होंने उर्दू में लिखा था। मैंने उसका हिन्दी में रूपांतर पढ़ा। मैंने उस किताब के ज़ेरॉक्स कराकर सैकड़ों लोगों को दिए। अभी भी मेरे पास बीस-पच्चीस ज़ेरॉक्स पड़े होंगे। मैं आपको भी दूँगा। ‘और इंसान मर गया’ यह किताब झकझोर कर हमें बताती है कि आप बुनियादी रूप से इंसान हो। ये हिन्दू-मुस्लिम सिर्फ़ एक राजनीति है। उस किताब में एक दृश्य है। ‘आनंद नायक है। वह एक मोहल्ले से गुजर रहा है। वहाँ एक तलवार पड़ी है। एक फ़कीर उस तलवार को उठाकर आग में फ़ेक देता है। नायक जो बहुत सारी हत्याएँ देखा हुआ है। कहता है, तुम्हारी एक तलवार फेंक देने से क्या होगा। तब फ़कीर कहता है कि बुराई के रास्ते से एक भी चीज़ मैं हटा पाऊँ तो वह बहुत बड़ी बात है।’ यह बहुत सुंदर उपन्यास है। पर उपन्यास को उतनी लोकप्रियता नहीं मिली।

रीता : ये बहुत अच्छी बात है कि उस उपन्यास ने आपको प्रभावित किया और आप में बदलाव आए। इसके अलावा और कौनसे उपन्यास है जिनसे आपको प्रेरणा मिली? क्या अपनी जिंदगी के बदलाव के बारे में कुछ बताएँगे ?


डॉ हूबनाथ : इन दो किताबों के अलावा और किसी किताब से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ। मेरी जिंदगी ही बहुत ज्यादा कोंपलीकेटेड (अव्यवस्थित) रही। मुझे जिंदगी ने ज्यादा सिखाया किताबों ने कम। मैं पहली बार तेरह बरस की उम्र में घर छोड़कर भागा। फिर चौदह बरस की उम्र में घर छोडकर भागा। फिर पंद्रह बरस की उम्र में। महीनों ऐसे भटकता रहा।

रीता : आप घर से भागे क्यों सर?

डॉ हूबनाथ : पता नहीं क्यों .... मुझे अपना एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) गलत लग रहा था। पढ़ाई ठीक नहीं लग रही थी।

रीता : या घर से भी कोई परेशानी थी ?

डॉ हूबनाथ : घर से भी प्रोब्लेम (कष्ट) रहती थी और बाहर से भी प्रोब्लेम (कष्ट) रहती थी।

रीता : तो आपने घर और शिक्षा दोनों का विरोध किया !!

डॉ हूबनाथ : विरोध नहीं किया। पलायन किया। भागा और भागने के दौरान जो कुछ मुझ पर बीता उससे मैंने जाना कि दुनिया में कोई आदमी बुरा नहीं होता है क्योंकि 13-14 साल की उम्र में भागने पर भी कोई बुरा आदमी मुझे नहीं मिला।

रीता : जब आप घर छोडकर भागे तो उन दिनों आप कहाँ रहे ?
डॉ हूबनाथ : मैं अलग अलग जगहों पर रहा। कुछ दिनों मैं कल्याण में रहा। कुछ दिन इगतपुरी में। झाँसी में रहा।

रीता : नहीं नहीं ... मैं जगह की बात नहीं कर रही हूँ। आपको किसने सहारा दिया?

डॉ हूबनाथ : वह तो अलग-अलग है। कुछ चोरों की मंडली ने सहारा दिया। एक पुलिस वाला मुझे अपने घर ले गया। एक टीसी अपने घर ले गया। एक रेल्वे वाला अपने घर ले गया।

रीता : घर ले जाकर उनका व्यवहार कैसा रहता था आपके साथ?

डॉ हूबनाथ : अच्छा रहता था। वो अपने काम के लिए मुझे अपने घर ले जाते थे। जैसे किसी को अपने बेटे को पढ़वाना था। किसी को बाजार से अपने लिए सौदे मँगवाने थे। किसी को अपना कुछ काम कराना होता था।

रीता : तो वह सारा काम सब कुछ आपने किया? और आपने अपने बारे में कुछ नहीं बताया?

डॉ हूबनाथ : मैं उनसे अपने बारे में कुछ न कुछ झूठ बोलता रहा। उन्हें अपने बारे में कहानियाँ सुनाता रहा। अगर मैं सच बताता तो वो मुझे मेरे घर पहुँचा देते।



हूबनाथ पाण्डेय


रीता : आप जब घर छोडकर भागे और अन्यथा रहते रहे, उस दौरान कोई ऐसी घटना जो आपको अब तक याद है।


डॉ हूबनाथ : हाँ एक घटना है। मुझे गाँव जाने की जल्दी थी। झाँसी में मैंने एक ट्रेन पकड़ी जो पूरी वातानुकूलित ट्रेन थी। मुझे पता नहीं था। मैं उसमें बैठ गया। टीसी आया। उसने पूछा ... “कहाँ जा रहे हो?” (मैं अक्सर यात्रा के दौरान जो भी रेलवे स्टेशन आते थे उसे याद कर लिया करता था सो मुझे स्टेशनों के बारे में थोड़ी मालूमात थी।) मैंने टीसी से कहा “बबीना के पास बरेठ एक स्टेशन है। वहीं जाना है। पिताजी रेल्वे में काम करते हैं। मैं झाँसी से घर जा रहा हूँ।” टीसी ने कहा, “पिताजी रेल्वे में हैं और तुम्हें पता नहीं है कि यह ट्रेन बरेठ में नहीं रुकती है। यह फास्ट ट्रेन है।” मैंने कहा “ठीक है। ट्रेन जहां रुकेगी, मैं वहीं उतर जाऊँगा।” अचानक ट्रेन बीच जंगल में रुक गई। उस वक्त शाम के कुछ पाँच बज रहे थे। शायद जुलाई का महिना था। टी.सी. ने हमें वहीं उतार दिया। मैं और एक घर से भागा हुआ लड़का था। दोनों वहीं उतर गए। आगे और पीछे दूर तक जाती रेल्वे लाईन के अलावा कुछ भी नहीं था। शाम होने लगी थी। आस-पास जानवरों की आवाज़ें आ रही थी। हमने जेब में पत्थर भर लिए कि अगर कोई जानवर आया तो मुक़ाबला करेंगे। लेकिन हमारी कोई औकात नहीं थी। मेरी उम्र चौदह साल के आसपास थी। वह लड़का पंद्रह-सोलह बरस का रहा होगा। फिर हम चलते रहे। रात के ग्यारह बजे तक चलते रहे। तब एक स्टेशन पहुँचे। स्टेशन भी एक भुतहा स्टेशन था। एक छोटी सी कुटिया थी। एक स्टेशन मास्टर का रूम था। वहाँ एक पत्थर की बेंच पर मैं सो गया। जब मैं जंगल के बीचोबीच रेल्वे लाईन पर चल रहा था तो उस समय विचार आ रहे थे कि अगर कोई जानवर मुझे आकर खा जाए तो घर वालों को खबर कैसे होगी। हमारा क्या होगा? ऐसी बहुत सारी चीज़ें दिमाग में आ रही थी। वह अनुभव मौत से जैसे रूबरू होते मेरा पहला अनुभव था।

रीता : तो उसकी दहशत आज भी है?

डॉ हूबनाथ : नहीं उसके बाद ऐसे कई वकयात आए।     
रीता : लेखन की शुरुआत कैसे हुई? यह शौकिया है या जुनून?


डॉ हूबनाथ : मैं 1981 में बी.ई.एस.टी. की जॉब में लगा था। उस समय मैंने पहली कविता लिखी थी। मेरे दसवीं में मार्क्स कम आए थे। घर वालों को लगा था कि ये पढ़ेगा-लिखेगा नहीं, अतः नौकरी में लगा दिया गया। जून का महिना था। सात या आठ जून को स्कूल खुले थे। मैं सुबह सुबह काम पर जा रहा था। उम्र मेरी 16 साल रही होगी। मैंने उस वक्त स्कूल जाते बच्चों को देखा। उनको देखकर अचानक मेरे अंदर एक कविता आई। एक बच्चा जो पढ़ना चाहता है, पर पढ़ नहीं पा रहा है। कुछ बच्चे स्कूल जा रहे हैं। तो जो बच्चा नहीं जा पा रहा है उस बच्चे के दर्द को मैंने कविता में बयान किया है। मैं ट्रेनिंग सेंटर में था। एक शेख साहब ट्रेनर थे। वे शायर भी थे। मुशायरे में जाने वाले और गज़ल लिखने वाले वे पक्के उस्ताद थे। मैंने उनको अपना लिखा हुआ दिखाया। उन्होंने कहा आइडिया अच्छा है तुम लिखा करो। मैंने लिखना शुरू किया। तब जबकि मुझे साहित्य में आना नहीं था। पढ़ाई करनी नहीं थी। तब मैंने लिखना शुरू किया था।

रीता : तो आप उन्हें गुरु मानते हैं ?

डॉ हूबनाथ : नहीं। मैं उन्हें गुरु नहीं मानता। वक्त को गुरु मानता हूँ। वक्त मुझे सिखाता है। उन्हें तो बस दिखाया था कि मैंने क्या लिखा है। उन्होंने कहा गज़ल लिखो। मैंने ढाई-तीन सौ गज़लें लिखी। वह मुझे बकवास लगी। उसे मैंने फाड़ कर फेंक दिया। मुझे लगा गज़ल मेरी विधा नहीं है। जिसे मेहनत से लिखा जाए, सोच कर लिखा जाए उसे मैं रचना नहीं मानता। मेरी कविता अपने आप आती है। पंद्रह सेकेंड से दो मिनिट में मेरी कविता ख़त्म हो जाती है। 

रीता : शिक्षा और साहित्य एक बिन्दु पर आकर आपस में मिलते हैं दोनों एक दूसरे पर आधारित है। प्रोफेसरों और साहित्यकारों बीच भी कोई सामांजस्य ... कोई संबंध बनता है तो कैसा?

डॉ हूबनाथ : प्रोफेसरशिप एक नौकरी है। जैसे बाकी लोगों की नौकरी होती है। कोई आदमी मेकेनिक की नौकरी करता है। कोई पहरेदार की नौकरी करता है। कोई झाड़ू लगाने की नौकरी करता है। वैसे ही कोई प्रोफेसर है। पहले वह एक मिशन हुआ करती थी। शिक्षा के पीछे एक सेवा का भाव हुआ करता था। अभी, एक रुतबा है। एक तनख्वाह मिलनी चाहिए। उसका फ़ायदा होना चाहिए। आज प्रोफेसर भी उतना ही अपनी नौकरी के प्रति समर्पित होता है जैसे बाकी के पेशेवर लोग होते हैं। अब यह एक प्रोफेशन हो गया है। साहित्य में भी पेशेवर साहित्यकार होने लगे हैं। मूलभूत साहित्यकार भी होते हैं। पेशेवर साहित्यकार तय करता है कि मुझे अमुक विषय पर एक ‘गज़ल’ लिखनी है या एक ‘कविता’ लिखनी है या एक ‘उपन्यास’ लिखना है। उसको छपवाना है या प्रसिद्धि पानी है या पुरस्कार पाना है। जो मूलभूत साहित्यकार होता है। वह संवेदनशील होता है। मेरा एक दोस्त कवि है। वह अब भी मैकेनिक का काम करता है। एक मैकेनिक होते हुए भी वह कवि है, कविता करने के लिए उसे प्रोफेसर होने की जरूरत नहीं। प्रोफेसर होना कवि होने को कोई मदद नहीं करता न ही कवि होना प्रोफेसर होने को मदद करता है। वो दोनों अलग दुनिया ही है।

रीता : दुनिया तो दोनों की अलग ही है लेकिन शिक्षा की वजह से दोनों एक दूसरे से मिलते हैं। यूनिवर्सिटी में रहते हुए मैंने महसूस किया है कि प्रोफेसर और साहित्यकार के बीच एक दूरी है। उस पर आप कुछ कहना चाहेंगे। 

डॉ हूबनाथ : दूरी नहीं है। प्रोफेसरों को गलत फ़हमी है कि वह विद्वान है। साहित्यकार को यह गलत फ़हमी है कि वह कोई बहुत बड़ा काम कर रहा है। दोनों अगर अपने बुनियादी पेशे पर रहे तो अच्छा होगा। प्रोफेसर जो होता है वह बुनियादी रूप से विद्यार्थी होता है किन्तु वह अपने आप को विद्यार्थी नहीं मानता। ठीक उसी तरह साहित्यकार भी एक विद्यार्थी होता है। जिस साहित्यकार को लगे कि मुझे अब सब आ गया है, वह उसी दिन मर जाता है। जिस प्रोफेसर को लगे कि मुझे सब कुछ आता है वह उस दिन ही ख़त्म हो जाता है। अगर प्रोफ़ेसर सचमुच में प्रोफेसर है और साहित्यकार सचमुच में साहित्यकार है, तो कोई दूरी नहीं है। दोनों भूमिका निभा रहे हैं। प्रोफेसर को लगता है कि मैं साहित्यकार को उपकृत करूंगा। बहुत से ओछे किस्म के साहित्यकार प्रोफेसरों के पास आते हैं मेरी किताब सिलेबस में लगवा दो। रामचन्द्र शुक्ल ने आगरा विश्वविद्यालय के हेड को एक लेटर लिखा था, कि मेरी किताब आई है ‘त्रिवेणी’। उसे आप पाठ्यक्रम में लगवा दो। सभी के अंदर इस तरह का भाव होता है कि पाठ्यक्रम में लग जाय लोगों तक पहुँच जाए। दिनकर भी चाहते थे कि उनकी ‘उर्वशी’ पाठ्यक्रम में लग जाय। जिनका बहुत विरोध हुआ था कि यह किताब पाठ्यक्रम में नहीं लगनी चाहिए। लेकिन लोग किसी न किसी तरह से लगवा लेते हैं। इस तरह साहित्यकार शिक्षा के अंदर दखलंदाज़ी करते हैं।







रीता : आपके अनुसार इस दखलंदाज़ी की वजह से प्रोफ़ेसर और साहित्यकार के बीच क्या दूरियाँ बढ़ी है या इनके भीतरी संबंध में दरार है। 


डॉ हूबनाथ : दरार भी आती है और उनके भीतर कोंट्रेक्ट भी पैदा होते है। अब हमारे मुंबई के कुछ घटिया साहित्यकार है जो प्रोफेसर से कह कर अपने ऊपर पीएचडी करवा लेते हैं। ऐसा भी होता है।

रीता : जिंदगी के अनुभव आपके लेखन में आते रहे हैं। कविताओं से पता चलता है मुंबई से आप गहरे जुड़े रहे है। वसई, कोले गाँव का जिक्र भी आपकी कविताओं में मिलता है। यहाँ के बंद होती मिले और कारखानों का जिक्र भी आपकी कविता में हैं। आपकी अपनी जिंदगी के बारे में आपसे सुनना मेरी जिज्ञासा रही है। आपका बचपन ... कैसे ... ।

डॉ हूबनाथ : बचपन मेरा .... जिसको वेगा बॉन्ड कहते हैं न ... कोई बंधन नहीं। मैं म्युंसिपल स्कूल में पढ़ता था। बचपन मेरा जंगली पेड़ पौधों की तरह अव्यवस्थित था। सिस्टम मुझे पसंद नहीं था। सिनेमा मुझे बहुत अच्छा लगता था। स्कूल से भाग कर मैं सिनेमा देखा करता था। सिनेमा मुझे बहुत आकृष्ट करता रहा।

रीता : आपका जन्म कहाँ हुआ सर?

डॉ हूबनाथ : जन्म मेरा बनारस में हुआ है। परिवार भी बनारस में था। माँ बनारस में रहती थी। पिताजी मुंबई में रहते थे। दादाजी 1930 में मुंबई आए थे। ट्राम में नौकरी करते थे। फिर यहाँ से वापस चले गए। मेरे पिताजी घर से भाग कर 15-16 साल की उम्र में यहाँ कमाने आए थे। वे बी.ई.एस.टी. में काम पर लग गए। मेरे बड़े भाई वकालत करते हैं। उनके पास बहुत सी डिगरियाँ हैं इंजीनियरिंग की, बी कॉम की, लॉ की, मेनेजमेंट की। तीन बहनें हैं तीनों की शादी हो चुकी है।
रीता : आपकी प्रारंभिक शिक्षा बनारस में हुई ... या मुंबई में आपने शिक्षण की शुरुआत की?

डॉ हूबनाथ : सांताक्रूज में सातवीं तक की पढ़ाई हुई। फिर रूईया स्कूल में दसवीं तक पढ़ा। उसमें भी पता नहीं कैसे मैं पास होता चला गया। दसवीं में बहुत कम नंबरों से पास हुआ। 11 वीं में अड्मिशन (दाखिले) के समय दिक्कत हुई। तब एम.डी. कॉलेज में 11 वीं साइंस (विज्ञान) में मेरा अडमिशन (दाखिला) हुआ। वहाँ भी पढ़ाई पर मेरा खास ज़ोर नहीं रहा। घर वालों ने बी.ई.एस.टी. में अप्रेंटिसशिप में लगवा दिया। वहाँ तीन साल मेकेनिक की ट्रेनिंग लेता रहा। पहले साल में ही मैंने महसूस किया कि यह दुनिया तो मुझे नहीं चाहिए। सोचा इससे बाहर कैसे निकलूँ। घर वालों ने कहा तुम्हें जैसे निकलना है वैसे निकलो। मैंने अंधेरी में जूनियर नाइट कॉलेज जॉइन किया। वहाँ से मैंने बारहवीं कॉमर्स किया। जब रिजल्ट आया उस समय मैं दिल्ली में था। प्रतिशत कम मिलने की वजह से मेरे भाई ने इस्माइल युसुफ कॉलेज में ‘बीए’ में मेरा अडमिशन करा दिया। वहाँ बी.ए. किया। सोचा, परीक्षा देकर बी.ई.एस.टी. में ऑफिसर हो जाऊँगा। लेकिन मेरे मित्रों सुझाव दिया कि तुम एम.ए. कर लो। मैं उनके सुझाव पर यूनिवर्सिटी में एम.ए. करने आ गया। यह सब करते-करते मैं बी.ई.एस.टी की नौकरी करता रहा। मेरी सारी पढ़ाई नौकरी करते हुए होती रही।

रीता : आप यूनिवर्सिटी कब आए? बी.ई.एस.टी की नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई कैसे संभव हुई ?

डॉ हूबनाथ : 1988 में मैं यूनिवर्सिटी आया। 88-90 पूरे दो साल तक नौकरी से हफ़्ते में एक दिन छुट्टी मिलती थी। उस दिन लेक्चर अटेण्ड करता था। बी.ई.एस.टी. में दोस्तों के साथ मिलकर हमने लाइब्रेरी भी बनाई थी। वहाँ मैं पढ़ता रहता था। एम.ए. कर लेने के बाद किसी ने कहा की नेट की परीक्षा पास कर लो तो पैसे मिलेंगे। मैंने दूसरे साल नेट की परीक्षा पास कर ली। फिर पता चला नौकरी कहीं करते हो तो पैसे नहीं मिलेंगे। नौकरी तो छोड़नी नहीं थी तो नौकरी करता रहा। पता चला इस्माईल यूसुफ़ कॉलेज जहां से मैंने बीए किया था वहाँ के एक टीचर ट्रांसव्फर हो रहे हैं। उन्हें नागपूर जाना था। प्रिंसिपल ने टीचर से कहा आपको नहीं जाने देंगे। अगर जाना ही है तो किसी को रखकर जाइए जो क्वालिफाइड हो। तब वे टीचर मेरे घर आए और कहा आप चार महीने पढ़ा दो। उन्हें ट्रांसव्हर मिल जाएगा तो वे वापस आ जाएंगे। तब उनके लिए दिन में मैं कॉलेज पढ़ाता रहा और रात में नाइट ड्यूटी की। चार महीने के बाद वो नौकरी खत्म हो गई और मैं कॉलेज से निकल गया। जून में इस्माइल युसुफ कॉलेज नए साल में फिर खुला तो प्रिंसिपल ने कहा तुम वापस आ जाओ। मैंने कहा मुझे नहीं आना है मेरी नौकरी यहाँ परमानेंट है। उन्होंने कहा दोनों करो। उनकी बात मानकर मैंने फिर से दिन में पढ़ाना और रात में नाइट नौकरी करने लगा। नींद पूरी न हो पाने की वजह से मेरा वजन घटता गया। वजन 42-43 किलो हो गया। प्रिंसिपल ने कहा बी.ई.एस.टी. की नौकरी छोड़ दो। उनके सुझाव से मैंने बी.ई.एस.टी. की 11 साल की नौकरी छोड़ दी। टेम्प्रेरी इस्माईल यूसुफ़ कॉलेज में पढ़ाने लगा। उसके बाद मैंने डॉ रतन कुमार पांडेय सर के मार्गदर्शन में पीएच.डी. की। पीएच.डी. के लिए पहले चार साल मैंने पढ़ाई की। फिर मुझे लगा कि मुझे इस विषय पर काम करना चाहिए तब मैंने 1994 में शोध कार्य की शुरुआत की और 1998 में मेरी पीएचडी पूरी हुई। उस समय तक मैं ईस्माइल यूसुफ कॉलेज में पढ़ाता रहा।

रीता : लेखन की प्रक्रिया का विस्तार कैसे हुआ?

डॉ हूबनाथ : लेखन की शुरुआत बी.ई.एस.टी. से ही हो गई थी। मैं अपनी रचनाएँ लिखता रहता था। लिखकर कभी रखता नहीं था। अपने दोस्तों को दे देता था। मेरे कुछ दोस्तों ने उसे अपने नाम से छपवाया। जब रात्रि कक्षा में पढ़ाई करता हुआ मैं जूनियर कॉलेज में पहुँचा तब मैं हाथ से लिखी हुई मैगज़ीन बनाई। सारे आर्टिकल मेरे ही लिखे हुए थे, पर सबके अलग अलग नाम से। मैंने वहाँ दो साल में दो मैगज़ीन बनाई। अब कहाँ है पता नहीं। कविताएँ मुझे रखनी चाहिए। लेख मुझे रखने चाहिए। यह कभी मैंने सोचा नहीं। बस लिखा और दे दिया।

रीता : आप लिखते चले गए और बाँटते रहे। आप को क्या लगता है आपका ये लेखन शौक़िया है या जुनून है?

डॉ हूबनाथ : पता नहीं ! मुझे लगता था कि मुझे लिखना चाहिए बस मैं लिख देता। सुनाता नहीं था। किसी को बताता नहीं था। दोस्तों को पढ़ने के लिए दे देता था। बहुत बाद में मेरे एक विद्यार्थी शकील अहमद को लगा कि मेरी कविताएं लोगों तक पहुंचनी चाहिए। अतः उसने मेरी कविताएं जुटानी शुरू कर दी। विजय से मुलाक़ात हुई उसने भी कविताएं जुटानी शुरू कर दी। इन दोनों ने मेरी कविताओं का पहला संग्रह निकाला।

रीता : याने आपके लेखन को पाठकों तक प्रेषित करने में आपके विद्यार्थियों का हाथ है।

डॉ हूबनाथ : हाँ। अब भी उन्हीं का हाथ है। उन्होंने ही किया।
रीता : आपकी पहली किताब ‘लोअर परेल’, दूसरी ‘कौए’, तीसरी ‘मिट्टी’ और अब चौथी कविता संग्रह ‘अकाल’ आ रही है। इस सफर के बारे में आपके विचार जानना चाहूंगी?

डॉ हूबनाथ : कोई सफर नहीं है ये तो बस ऐसे ही है। जब ‘कौए’ आई थी उसके पहले कम से कम हज़ार कविताएँ मैंने ऐसे ही लिख कर बर्बाद कर दी। अब मुझे लगता है कि वह मुझे रखनी चाहिए थी।

रीता : आपकी पहली कविता संग्रह कौनसी है ‘कौए’ या ‘लोअर परेल’।

डॉ हूबनाथ : दोनों साथ में ही आई थी। पहले मैंने ‘लोअर परेल’ ही सोचा था लेकिन कविताएं ज्यादा हो रही थी तो ‘लोअर परेल’ और ‘कौए’ दो संग्रह बनाई गई।

रीता : ‘कौए’ में अंधविश्वास के प्रति आपका विरोध दिखता है। क्या कुछ कहना चाहेंगे समाज के लिए?

डॉ हूबनाथ : समाज में कुछ भी गलत होता देखता हूँ तो वो मुझे कचोटता है। मैं उसके लिए कुछ करना चाहता हूँ। जब कर नहीं पाता हूँ तो कविता लिखने लगता हूँ। कविता मेरे लिए एक तरह से पलायन ही है। जिंदगी से भागने जैसा ही।
रीता : याने आप मानते है कि करना चाहते हुए भी आप कर नहीं पा रहे हैं ?

डॉ हूबनाथ : जी। नहीं कर पाता हूँ तो लिख देता हूँ। कविता अपने आप आती है और लिख जाती है। मैंने कभी कोशिश नहीं की कविता लिखने की।

रीता : पहली किताब में आप ‘मुंबई’ से जुडते हैं। दूसरी में आप ‘कौए’ पर अपनी लेखनी चलाते हैं। तीसरी में आप ‘मिट्टी’ के लिए समर्पित हैं। जान सकती हूँ आप ‘अकाल’ में काल के किस दृश्य से पाठक को रूबरू करा रहे हैं?

डॉ हूबनाथ : ‘अकाल’ यह शब्द ‘सूखे’ से जुड़ा नहीं है। जिसे अँग्रेजी में ‘फेमिन’ कहते है, यह शब्द इससे भी जुड़ा नहीं है। ‘अकाल’ यह ‘असमय’ है। मतलब यह समय कविता का नहीं है। यह समय बोलने का नहीं है। यह समय विरोध करने का नहीं है। समय के ऊपर जो दबाव है उसको व्यक्त करने के लिए मैंने यह शब्द चुना है। कोई न कोई तो संज्ञा देनी पड़ती है तो मैंने यह संज्ञा दी है। यह बहुत संकट का समय है मुझे ऐसा लग रहा है।

रीता : यह समय आपको संकट का समय क्यों लग रहा है? इस समय में किस प्रकार के अंदेशे की आप अनुभूति कर रहे हैं? इस बारे में आपके विचार क्या कुछ है... साझा करेंगे ?

डॉ हूबनाथ : ‘अकाल’ में 2016 जनवरी से ‘अकाल’ के प्रकाशित होने के पहले तक की कविताएं है। राजनैतिक फैसलों की वजह से सामाजिक उद्वेलन पैदा होता है। सामाजिक विसंगतियाँ पैदा होती है। तब हालात बहुत बुरे हो जाते हैं। जैसे नोट बंदी है। नोट बंदी चाहे जो हो उसका आम आदमी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। नोट बंदी पर दो या तीन कविताएं मैंने लिखी है। हम यह सोचते हैं कि सिस्टम को बदले। बदलने वाले ने जो भी सोचा हो, उस बदलाव से असर किस पर पड़ता है यह भी देखना जरूरी है। ‘अकाल’ में कुछ कविताएं है। कुपोषण से बच्चे मरते हैं। जबकि 2018 में हम विकास कर रहे हैं। अच्छे दिन आ रहे हैं। देश इतना विकसित हो रहा है। हमारी आमदनी इतनी बढ़ रही है। फिर भी हम बच्चों को नहीं बचा पा रहे हैं। तकरीबन 40 हज़ार बच्चे हर साल मरते हैं। मैं सिर्फ नॉर्थ की बात कर रहा हूँ। पूरे देश में तो लाखों बच्चे मरते हैं। और ये बच्चे 0 से लेकर चार साल की उम्र के होते हैं। हमारी राजनैतिक व्यवस्था जिसको हम लोकतंत्र बोलते हैं। लोकतंत्र का मतलब होता है कि हर आदमी के लिए व्यवस्था होनी चाहिए। हमने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ पोलिटिकल सिस्टम अख़्तियार किया है। जिसमें समाज के सबसे छोटे तबके का भी विकास होना चाहिए। समाज का सबसे छोटा तबका तो बच्चा होता है। हिंदुस्तान का कोई राज्य नहीं होगा जहाँ बच्चे नहीं मरते हैं। सब दवाई के अभाव में मरते हैं या कुपोषण से मरते हैं। बच्चे भूख से मरते हैं भूख को भी हम कुपोषण कहते है। ये सारी चीजें मुझे बहुत परेशान करती है।

रीता : इस मुद्दे पर मेरा आखरी प्रश्न था किन्तु उसे अभी पूछ रही हूँ कि व्यवस्था के कारण समाज में जो उतार चढ़ाव है। अमीर बहुत अमीर होते चले जा रहे हैं और निम्नस्तरीय के लिए जीवन मुश्किल होता जा रहा है। किसान आत्महत्या कर रहे है। माल्या जैसे लोग देश छोड़ कर भाग रहे हैं। कारण चाहे जो हो एक शिक्षित जिम्मेदार नागरिक होने की वजह से आप कुछ कहना चाहेंगे सर ?

डॉ हूबनाथ : असमानता तो पहले भी थी अब भी है। असमानता तो होती ही है। अमेरिका में भी है। असमानता ब्रिटेन में भी है। ये इनइक्वालिटी ऑफ इन्कम है। उसके बीच में जो खाई थी वो खाई इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि लाखों करोड़ों लोगों की रोजाना की आमदनी बीस से तीस रुपये होती है। बीस से तीस रुपये में वो कैसे दिन गुजार सकते हैं। उनको तो हम ‘बिलो पावर्टी’ लाइन भी नहीं कह सकते। ऐसे ढेर सारे लोग इस तरह का जीवन जीने को अभिशप्त है। मेरी एक कविता है ‘साठे नगर’। यह कविता एक डम्पिंग ग्राउंड के ऊपर बसी हुई बस्ती पर लिखी गई कविता है। उस डम्पिंग ग्राउंड में गंदगी और सड़न है। उस सड़ांध में ही लोग जीते हैं। वहीं रहते हुए पलते हैं। वहाँ बच्चे और बूढ़े भी हैं। यह मुंबई महानगर से पचास-साठ किलोमीटर दूर कल्याण के आसपास स्थित जगह है। हम जब इंसान को इंसान की तरह जीने की सहूलियत मुहैया नहीं करा पाते तो ऐसे सिस्टम का रहना जरूरी नहीं है। यह सिस्टम बदलना चाहिए।

रीता : एक आम आदमी के लिए आपकी क्या राय है या उनके लिए कोई सलाह या संदेश....।

डॉ हूबनाथ : मेरा यह मानना है कि जो बुरे आदमी होते हैं वे मुट्ठी भर होते है। बुराई कभी भी बहुत ज्यादा नहीं होती। पर वह इतनी संगठित होती है कि अच्छाई उसका मुक़ाबला नहीं कर पाती। हमारी मुख्य समस्या बुराई के संगठित होने की नहीं है। बल्कि अच्छाई के असंगठित होने की है। आम आदमी आपस में जुड़ नहीं पा रहे हैं। जुड़ नहीं पाने के दो-तीन कारण हैं। पहली तो राजनीति है। राजनीति कभी नहीं चाहेगी कि आवाम एक हो। संगठित हो। वह धर्म के आधार पर बाटेंगी। वह जाति के आधार पर बाटेंगी। वर्ण के आधार पर बाटेंगी। जितना लोग बटे रहेंगे राजनीति का उतना फ़ायदा होगा। पर यह बात आम आदमी समझ नहीं पा रहा है।

रीता : तो ऐसा क्या कुछ करना चाहिए कि कोई राह निकले। जो शिक्षित वर्ग है जिसे इसकी समझ है .... क्या वह कुछ ....?

डॉ हूबनाथ : जो शिक्षित वर्ग है वह अपनी रोजी-रोटी में ही डूबा होता है। उसे आम आदमी से कुछ लेना-देना भी नहीं होता है। यह बात तो हमारे संस्कार में ही है कि हम किसी सरकारी कार्यालय में जाय तो क्लर्क से भी हम अदब से बात करते हैं। लेकिन कोई सब्ज़ी वाला है तो उससे हम अदब से बात नहीं करते हैं। कोई मोची है तो उससे हम अदब से बात नहीं करते हैं। हमारे अंदर भी वो चीजें हैं। हम पूरी तरह डेमोक्रेटिक नहीं हो पा रहे हैं। एक तो हमें देश को अपना समझना चाहिए। देश के लोगों को अपना समझना चाहिए। इनको समझाने की कोशिश करनी चाहिए। प्रोब्लेम यह है कि हम पढे-लिखे लोग आपस में ही बातें करते रहते हैं। जिन तक वह बात पहुंचनी चाहिए उन तक वह बात नहीं पहुँच पाती। जैसे धूमिल की ‘मोचीराम’ कोई मोची नहीं पढ़ता। पढे- लिखे लोग पढ़ते हैं और खुश हो जाते हैं। जहाँ तक चीजें पहुंचनी चाहिए वह नहीं पहुँच पा रही है। यह मेन प्रोब्लेम (मुख्य समस्या) है।

रीता : जैसे आपने इस समस्या को समझा है तो क्या कोई रणनीति है कि इसे कैसे प्रेषित किया जाय या आगे बढ़ाया जाय ताकि लोगों तक यह पहुँचे ...... !

डॉ हूबनाथ : यह तो हर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह अपना समय समाज को भी दे।  मैं अपने परिवार के लिए समय निकालता हूँ। अपने रोजगार के लिए समय निकालता हूँ। मुझे समाज के लिए भी समय निकालना चाहिए। समाज का मतलब मेरा अपना वर्गीय समाज नहीं बल्कि समस्त भारतीय समाज से है। जैसे हम कहते हैं कि यह बस्ती है बहुत गंदी है। सरकार को उसके लिए कुछ करना चाहिए। किन्तु क्या हम इसके लिए कुछ करते हैं ? हमें भी तो कुछ करना चाहिए। जिस संस्था में मैं हूँ हमारी बालवाडियाँ चलती है। मैं काम करता हूँ उस बालवाड़ियों में बच्चों के पिता नहीं आते। वे काम पर जाते हैं। हम बच्चों की माँओं से बात करते हैं। उन तक हम अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हैं। उसके अलावा अलग-अलग जगहों पर जाकर भी हम इस तरह से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर सकते हैं।
रीता : क्या जिस तरह से लोग एनजीओ से जुडते हैं ? आप शायद यही कह रहे हैं .....

डॉ हूबनाथ : एनजीओ का अपना एक आर्थिक पैटर्न हो जाता है। वो भी जिस चीज़ को लेकर चलते हैं उसी पर बात करते हैं। अभी कल ही एक मीटिंग थी चेंबूर में मैंने उसमें कहा कि आप सभी लोग अच्छे हो, लेकिन आप अलग अलग जगहों पर अच्छे हो। अगर आप एक हो जाओ तो कितनी अच्छाई एक साथ आ जाएगी। आप अपना एन.जी.ओ. का काम करते रहो। महीने में कम से कम एक बार मिलकर तो समाज के लिए काम करो। अब वहाँ काम शुरू हो चुका है। उसे हमने नाम दिया है ‘अपना अड्डा’। हमने तय किया है हर महीने मिलेंगे और क्या-क्या काम कर सकते हैं, कैसे एक दूसरे की मदद कर सकते हैं, इस पर बात करेंगे, बहस करेंगे और काम भी करेंगे।

रीता : यह बहुत अच्छा कार्य है। आप समाज के प्रति समर्पित भाव से बहुत बढ़िया कर रहे हैं। आपको इस काम के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं देती हूँ। 

डॉ हूबनाथ : हम्म ...

रीता दास राम और हूबनाथ पाण्डेय



 रीता : आपकी कविता संग्रह ‘मिट्टी’ में 11 वीं कविता है “आओ ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम सिकंदर कहते है, ढूँढे उस मिट्टी को जिसे कभी हम नेपोलियन, अशोक, या अकबर कहते थे, राम-कृष्ण, गौतम, यीशु, पैगंबर कहते है” इन सभी को मिट्टी से जोड़ कर, धरती से जोड़ कर, आप क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं?

शेष साक्षात्कार क्रमश:


साक्षात्कार की दूसरी कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

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हूबनाथ की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

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