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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 दिसंबर, 2018

लम्बी कविता :




समाज में नारी

 रीता दास राम 



रीता दास  राम 

"समाज में नारी"
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मानव प्रजाति की मादा
सामाजिक महत्वपूर्ण भूमिका की पहचान
औरत नारी स्त्री अबला
कई संबोधनों को जीती
समाज में सेवा के लिए जन्मती
अपने ही अस्तित्व पर प्रश्न उठाती
अपने जीने के मायने बदलने को है आतुर
कहने के लिए तो इसे इंसान भी कहा जाता है
जबकि उसे सिर्फ मादा बनाए रखने की साज़िश सरेआम रही
वजूद, व्यक्तित्व, अस्तित्व, बदलाव पर अंकित प्रश्न
उसकी भीतरी टीस के साथ उभरते हैं
समाज की स्थापना
मानव की प्रगति और विकास का परिणाम है
फिर भी जंगल-राज कायम है
समाज के कई वर्गों में
इंसानियत को तरसती औरत लड़ रही है
हर रिश्ते को ओढ़े व्यवस्था की ताकत से 
जीत-हार का फैसला
सदियों से उसने समय पर छोड़ दिया है
जिसे लोग किस्मत कहते हैं
प्रतिरोध करना उस पर होने वाली प्रताड़ना का
गुणात्मक बदलाव तय करता है
‘बना दी जाती है औरत’ 
कहती है सिमोन भी
जिसके इस्तेमाल का वाजिब हक
समाज में हर कोई समझता है
हालांकि ‘स्त्री’ ‘पुरुष’ समाज की दो इकाई
कहने के लिए सहचरी, अर्धांगिनी, पत्नी, आश्रिता
ये दिये हुए हैं कुछ नाम औरत के
जरूरत के अनुसार वापस ले लिए जाते हैं
रह जाती है औरत
सिर्फ और सिर्फ एक शरीर
इंसानियत खत्म कर दी जाती है उसके हिस्से की
जब जरूरत की बेदी पर चढ़ाई जाती है 
घर, परिवार, नौकरी या बाज़ार
इस्तेमाल की वस्तु बनाकर शहीद की गई
इस सामाजिक व्यथा का कोई अंत नहीं
समाज में औरत की बेहतर स्थिति के लिए
ना चाहते हुए कोई स्वार्थ
पहल पुरुषों ने भी की
स्त्रियाँ भी विकास करें
इक पहचान बनाएँ
चाहे हो बेटी या बहू
यह आदर्शात्मकता भी देखी गई है समाज में
सती प्रथा बंद की गई
विधवाओं का सिर मुंडवाना भी
उनकी पहचान ना रही सफ़ेद साड़ी
बालविवाह की बुराई समझी समाज ने
देवदासी प्रथा भी हो गई पुरानी
धीरे धीरे घूँघट प्रथा से आना है बाहर
समयानुसार यह एक जरूरत थी
आज सभी जानते हैं
घूँघट नहीं है बलात्कार का उपाय
पुरुषों की पाशविक मानसिकता है कारण
जो मानसिक नपुंसकता दर्शाती है
औरतों को भी है आजादी का हक
आखिर नर और मादा का अदना सा अंतर
मानव समाज में इतना बड़ा क्यों ?
स्त्री-पुरुष के रिश्ते में
सहजता जरूरी क्यों नहीं
पुरुषों की पाशविक प्रवृत्ति ने सुरक्षा के सशंकित प्रश्न बोए हैं
विषमताएं चुनौती बन खड़ी है
कितने ही उदाहरण है दबी कुचली ज़िंदगियों के
जलपाई गुड़ी में 16 साला लड़की के
पिता, चाचा, भाई दो साल तक
करते रहे बलात्कार
उस पर माँ की दलील......‘वो गैर नहीं’
क्या यही समाज है हमारा
ये है औरत ही स्थिती
कौन है ज़िम्मेदार .....!









कहाँ हैं सिपेहसालार
अब तक तो सुनी जाती थी खबरें
ससुर, देवर, ताऊ, जेठ, जीजा, साला द्वारा शारीरिक शोषण
क्या समाज की पारिवारिक व्यवस्था ही है शक के घेरे में ... !!
क्या माता-पिता और भाई के रिश्ते से भी होना है सतर्क
तब कैसी पारिवारिक संस्था ? कैसी सामाजिक व्यवस्था
ओ स्त्री ... सोचना है तुम्हें खुद
खुद आगे बढ़ाने हैं कदम
अगर रखना है अपना वजूद सुरक्षित कामयाबी भी संग
अन्याय सहन करना होगा बंद
हिम्मत जुटानी होगी
पहला कदम तुम्हें ही बढ़ाना होगा
रुकावटे तो आएंगी राह में ढेरों
रास्ते नहीं खुलेंगे अपने आप
आपके लिए सोचने कोई दूसरा नहीं आएगा
खोजने होंगे तरीके तय करनी होगी मंजिल
वरना स्थिति की कसूरवार भी आप होंगी
बहुत हैं हादसे
बलात्कार कर मार दी जाती है निर्भया
रोते रह जाते हैं माता-पिता
न्याय के लिए इतना लगता है वक्त
कि महसूस होता है जिंदगी हो गई समाप्त 
दीमापुर में बलात्कारी को मारा पीटा जाता है
और घसीट कर ले जाते हुए
हो जाती है उसकी मौत
सरेआम फांसी से लटका दिया जाता है
हादसे ... हादसे ... हादसे
तेजाब के हमले से पीड़ित लड़कियाँ भी
जिनके सपने हो चुके है लहूलुहान
वो भी है जीने को प्रस्तुत
मुसलमान बच्ची मंदिर में
तो नाबालिग से लेकर
आठ महीने की बच्ची भी नहीं सुरक्षित
अपनी जिंदगी गुजर गई चाहे जैसी
डरता है हर माँ का दिल फिर भी
वही पुराना ढर्रा
कि बिटिया यहाँ ना जाओ वहाँ ना जाओ
खराब है जमाना
कुछ शहरी आबादी हो गई है शिक्षित
औरतें, बेटियाँ, बहूएँ अब करने लगी हैं काम
पर हादसे भी हैं बरकरार
पहले सुनाई नहीं पड़ते थे
अब सरेआम दिखाई पड़ते हैं
समाज में परिवर्तन की मूक पुकार है
एक ओर समानता की करते है बात
और दूसरी ओर लड़के-लड़की की दोस्ती पर उठती हैं उँगलियाँ
लड़का चाहे दस लड़कियों के साथ घूमे
लड़की का एक प्रेम संबंध भी
नहीं होता है बर्दाश्त
बस एक ही दाग
अपवित्र हो जाती है लड़की
छीन ली जाती है उसकी स्वतंत्रता
अपमानों का पुलिंदा
रख दिया जाता है उसके सामने
शरीर से उठे प्रश्न को टांग दिया जाता है चौराहे
यह विचित्र दृश्य है
किसने बनाई यह परिपाटी
औरत का शरीर सिर्फ और सिर्फ उसका है
ये बात समाज को स्वीकारनी होगी
औरत के शरीर पर हक जाताना ज्यादती है
औरत को इल्म हो इस बात का यह इंसानियत होगी
वह इच्छानुसार जी पाए
जैसे पुरुष जीते रहे समाज में
स्त्री देह पर इतने प्रश्न क्यों आखिर ......!
छीना जाता रहा उससे उसका अपना हक
उसके हिस्से का हर फैसला
करना चाहता है समाज
नकार रही है औरत
समाज के बनाएँ नियम कानून
जो उसका गला हैं घोंटते
कब तक बनाई जाती रहेंगी वह
उसे खुद बनना है ... चाहे जो
लिव-इन-रिलेशनशिप में रह कर
समाज को उसने जताया है विरोध
काले मणि के दाने की व्यवस्था भी
जा रही है नकारी
जान गए है सभी
कि नहीं होता कोई बच्चा नाजायज
बच्चे सा पवित्र
कोई अंश नहीं दुनिया में
हिकारत की दृष्टि बदली है बदलनी होगी
तलाक़शुदा, विधवा और शादी के बाद
अकेली होती अधिकतर स्त्रियाँ
दोबारा इस झमेले में चाहती नहीं है पड़ना
सीता ने वनवास है भोगा
पाँच पतियों की नारी ने भी झेला अनाचार
पति का साथ भी नहीं सुरक्षित वही करता शोषण अत्याचार
क्या शादी वाकई बोझ है
जो बांधता है स्त्री को
पैर से सर तक देते हुए निशानियाँ
समाज की व्यवस्था है यह अगर
तो औरतों के लिए सहूलियत क्यों नहीं .... बोझिल क्यों !!
महसूस की जा रही है घुटन
घर घर में हो रहा है शोषण
यौन हमले से लेकर स्त्रियों के विरुद्ध होने वाली घरेलू हिंसा तक
तो घर के बाहर की क्या बिसात,
सामाजिक, राजनैतिक हो या साहित्यिक संदर्भ
अधिकारों और संघर्षो के बाद
अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य की भी है जरूरत
माना जा रहा है औरतों के लिए
आर्थिक स्वतंत्रता भी है जरूरी
उठाती है औरतें घर और नौकरी की दोहरी ज़िम्मेदारी भी
फिर भी घरेलू मदद से रहती वंचित
बहुतेक घरेलू हिंसा का होती शिकार
नहीं पसीजता समाज क्योंकि
औरत है घर घर की सहूलियत ... नहीं चाहता कोई उसकी मुक्ति
औरत को बदलने होंगे अपने पैंतरे
जागरूकता ही दिला पाएँगी असली आजादी और पाबंदियों से मुक्ति भी
जीएगी औरत अपने लिए भी
पाकर अपना स्वाभिमान
वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी
जिसके बगैर अधूरा है उसका संसार
उसकी पनपती बुद्धि के तार
अज्ञानता की खोह को चाहते है भेदना
सहेजे संयम से बंधी
सुरक्षा और अधिकार की खातिर
लड़ रही है सड़कों पर भी
उसने पहनावा बदला है
मानसिकता बदली है
बदल लेगी वो आसमान
देखेंगे उसे बनते हुए भी
उसके अपने आकाश में
काट कर उसके हिस्से की जमीन
उसे पसंद आने वाले उसके परों को
जला डाला है बिना उससे पूछे
गर्भ की दीवारों से
कितनी शक्ति व आत्मबल से
वह करती है शिशु को आज़ाद
और उसके ही सामने उसकी रचना का
कर दिया जाता है सर्वनाश
कभी दूध में डुबो कर
कहीं गरदन मरोड़ कर
या रख कर भूखा
करवाई जाती है भ्रूण हत्या
क्यों नहीं होता नारी के गर्भ पर उसका पूर्ण अधिकार
क्या छीन लेगी औरत इक दिन शिशु के जीवन का फैसला भी
शरीर उसका बच्चा उसका अपना अस्तित्व
आखिर कितने रिश्ते बनाएँगे बाँदी उसे
कंप्यूटर-इंटरनेट के इस युग में 
कंडोम खरीदना उसकी खुशी
वीर्य का चुनाव निजता का प्रश्न
माहवारी के नाम अपवित्रता का रोग
घरों की दीवार में लगाना न पड़े सेंध
तोड़ने होंगे रीति-रिवाजों के मठ और परम्पराओं के गढ़
करनी होगी आज़ाद मनःस्थिति
ढ़ोल, गँवार, क्षुब्द (शूद्र), पशु, रारी (नारी)
बदलते समय में नए सिरे से इनको समझने की है जरूरत
अहिल्या सी पत्थर बनी अब बोल उठी है नारियाँ
मीटू में शोषित महिलाएँ बयान कर रही है पीड़ा
खुलकर कर हो रही है चर्चा
आज नारी अपने महत्वाकांक्षाओं की
कीमत चुकाने के लिए है तैयार
बदला रहा है युग तो संस्कृति बदले 
जीने के पैमाने बदले
औरत बदले पुरुष बदले
बदले समाज़ जीवन बदले
समाज की नारी व्यवस्था बदले
उस सुरंग की हवा तो बदले
बेटी बहू के लिए मानसिकता बदले
भीतर आएं रोशनी भी
जीने की हो चाहत भी
घर, परिवार, शादी, रिवाज़ व्यवस्था हो बोझ न लागे
फुदके चहके मायके चिरिया
साज संभाल ससुराल निभाए
जीवन जीए ना लागे मजूरी भाग
जीवन पराया जिया ना जाए

करती है प्रश्न
हर औरत समाज से
चौखट के बाहर
रखते ही कदम
समाज की दृष्टि आखिर
वक्र क्यों हो जाती है
जब जब कोई चूड़ी
दहलीज पर खनक जाती है।
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रीता दास राम की कुछ कविताएं और नीचे लिंक पर पढ़िए



2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन कविता रीता जी। मानो पूरे स्त्री समाज के दर्द को अपने भीतर उतार कर रोम - रोम से कविता की पंक्तियों को रचा हो

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  2. हार्दिक धन्यवाद श्रुतिसुधा जी सादर आभार।

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