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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 दिसंबर, 2018

परख अठाइस

कोहरा सूरज धूप!

गणेश गनी


कवि जो सोचता है, वो लिखता है, जो लिखता है, वो कहाँ तक पहुंचेगा, यह कवि भी नहीं जानता। बृजेश नीरज की कविताओं को पढ़ते हुए कहीं कहीं पाठक खोने लगता है अपने अतीत में। कवि की कलम कई लोगों की कहानियों और किस्सों को भी मात्र चन्द अल्फ़ाज़ों में बयां करने की ताकत रखती है। पाठक को जब कोई कविता अपनी लगे या अपने आसपास के परिवेश की लगे तो समझना होगा कि कवि की पहुंच पाठक तक बन चुकी है।

बृजेश नीरज

मारुति के ईंजन को पुर्ज़ा पुर्ज़ा करने के बाद ओवरहॉलिंग से लेकर उसे बांधने तक के हुनर को जानने वाला जब दोस्ती के रिश्ते को बांधने में असफ़ल रहे तो हृदय पर क्या गुज़रती होगी। दोस्ती की गाड़ी जब रुक जाए तो फिर भरोसा टूट जाता है। भरोसा जब टूटता है तो फिर इंसान न यहां का रहता है, न वहां का। ऐसे समय कवि बृजेश नीरज कहते हैं कि पूरी दुनिया में इंसान फिर अकेला रह जाता है-

ऊपर आकाश 
नीचे धरती 
बीच में मैं 
अकेला।

अपने गैराज में उसे जब जब गाड़ियों की सर्विस करने से थोड़ी फुर्सत मिलती, तो ब्यास के उस पार खड़ी पहाड़ी को जरूर एक नज़र देखता। हालांकि अब पहाड़ी पर बर्फ नहीं गिरती। अब पहाड़ी पर घास और पेड़ हरियाली बिखेरे रहते हैं। ऐसे लगता है जैसे पहाड़ी के दुःख भी उसके दुःख और परेशानियों की तरह वक्त के साथ पिघलकर बह गए हैं। उसे वह दौर याद आता जब पहली बार वह समुद्र के किनारे वाला बड़ा शहर छोड़ कर पहाड़ों के बीच इस छोटे से कस्बे में आया था। उस दिन सामने वाली यही पहाड़ी बर्फ से लकदक थी। वह यह देख कर अचंभित हुआ। उसने अपने दोस्त के साथ इधर ही काम करने का फैसला तो पहले ही ले लिया था। उसका यह दोस्त इसी कस्बे का था और उसके साथ  बम्बई में काम करता था। इस शहर के दंगों से तंग आकर उसने कुल्लू में अपने इसी दोस्त के साथ अपना वर्कशॉप खोलने का सपना देखा। काम शुरू भी किया। शाम को वह अपने किराए के कमरे में जाकर भी आराम से नहीं बैठता, उसे उसके सपनें बेचैन किए रखते। वक्त के साथ दोस्ती और प्रेम मजबूत होने के बजाय कमज़ोर पड़ता गया। इस बीच दोस्ती टूटती गई और काम भी ठप्प हो गया। पराए शहर में वो सड़क पर आ गया। उसे दोस्ती में विश्वासघात का गहरा सदमा लगा। अवसाद में वो आत्महत्या करने की भी सोचने लगा। वो कमरे में बंद रहने लगा-

सूरज तो रोज उगता है 
लेकिन 
तंग गलियों में 
कमरे के भीतर 
चादर के नीचे 
रह जाते हैं अंधेरे के अंश।

बृजेश नीरज की ये पंक्तियां पूरी की पूरी कविता है। जब बहुतों के सपनें अधूरे रह जाते हैं, बराबर की भूख है लेकिन रोटी का हक बराबर नहीं मिलता, तो लगता है कि धूप सबको बराबर कहां मिल पाती है। कवि अपनी बात कहने में सफ़ल हुआ है और कविता ताकतवर भी है। बृजेश की भाषा कहीं कहीं, किसी किसी पंक्ति में गजब की ताकत लिए सधी हुई है।
आज पच्चीस साल बाद वह अपने घर की बाल्कनी से हर दिन इसी  पहाड़ी को देखता है। कभी अपने परिश्रम के बल पर खड़े किए गए अपने मकान को देखता है, तो कभी आसमान को निहारता है। कोहरा अब छंट चुका है, सूरज उग रहा है और धूप अब पहाड़ी से नीचे उतर कर उसकी बाल्कनी तक चढ़ आई है, धूप अब खिड़की और दरवाज़े से घर के अंदर पहुंच रही है।
कवि कहता है कि उसके पास दर्पण नहीं है, फिर भी वो हवा और ध्वनियों के सहारे टटोल लेता है, भीड़ में अपने चेहरे को पहचान लेता है-

बार बार भीड़ में 
ढूंढता हूं 
अपना चेहरा 

चेहरा
जिसे पहचानता नहीं 

दरअसल 
मेरे पास आईना नहीं 
पास है 
सिर्फ स्पर्श हवा का 
और कुछ ध्वनियां
इन्हीं के सहारे टटोलता  
बढ़ता जा रहा हूं।

बृजेश की कविताओं में एक कशिश है। कहीं कहीं चुनौती  स्वीकारने की ज़िद्द भी है। कलाई पर जो निशान है समय का, वो बार बार याद दिलाता है, तड़पाता है, पीड़ा देता है। हालांकि समय आगे निकल गया फिर भी हार कर बैठ जाना कवि की फ़ितरत में ही नहीं है-

समय से मेरा साथ 
कभी निभ नहीं पाया 

वह आगे भागता रहा 
और मैं उसे पकड़ने की कोशिश में 
बदहवास... 

अब कलाई पर सिर्फ एक निशान है 
एहसास कराता कि
समय बहुत आगे निकल चुका है।

जितने हम दुःखों से, तकलीफ़ों से, संघर्षों से लड़ते लड़ते खामोश हो जाएंगे, उतने ही हम अंदर से बेचैन रहेंगे। हम खामोशी का बोझ लिए भी चैन से नहीं रह पाते। हमारे दिलों दिमाग में एक हलचल, एक जद्दोजहद हमेशा चलती रहती है। यह जो चुप्पी में भी चिल्लाहट सुनाई देती है न, यह खतरनाक है। कवि ठीक कहता है-

तपते दिनों के बाद 
सर्द हवाओं का मौसम 

कब से बारिश नहीं हुई 
बहुत से सपनें सूख गए।

कुछ शोर है 
चिल्ला रहा हूं शायद 

सीने पर लिए मौन का बोझ 

आईना चुप 
कमरे की दीवारें, मेज, कुर्सियां, बर्तन 
सब खामोश हैं 

फिर मैं ही क्यों चिल्ला रहा हूं?

बृजेश नीरज सबके दुःख में शामिल हैं। उन्हें हर छोटी छोटी बात भी तकलीफ देती है, जिसका तालुक आम आदमी के संघर्ष से है-

लोकतंत्र के गुंबद के सामने 
खंभे पर मुंह लटकाए बल्ब

अकेला बरगद 
खामोशी से निहारता 
अर्जियां थामें लोगों की कतार।
०००

गणेश गनी


परख सत्ताईस नीचे लिंक पर पढ़िए


पहाड़ घड़ों में छुपी मनुष्य की प्यास है

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/blog-post_31.html?m=1

1 टिप्पणी:

  1. समीक्षा ऐसी है जिसके चंद लफ़्ज़ों में ही कवि के मन और कलम से घना परिचय हो गया ।
    खामिशी के शोर को लिखना सहज नही और उसको सुन पाना तो विरला गुण होता है ।गणेश गनी जी की कलम में यह हुनर है ,शुभकामनाएं

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