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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 मार्च, 2025

रमा त्यागी ' एकाकी ' की कविताऍं

 

एक

पहली कविता 


पहली कविता 

जिसने भी लिखी होगी 

दर्द में लिखी होगी 

या शायद प्रेम में !

प्रेम कविताएँ 

सिर्फ़ उन्हें ही पसंद आती हैं 

जो प्रेम में होते हैं ।

दर्द में लिखी कविताएँ 

 सबका हृदय छूती हैं ।

क्योंकि 

दर्द शायद 

सबके साझा होते हैं ।

तुम महादेवी कहते हो मुझे 

शायद 

इसीलिए दर्द देते हो ।

०००

 











दो

कैसे मान लूँ ।


तुमने कहा 

तुम मुझे छोड़ गई थी 

मैंने मान लिया।

तुमने कहा 

परिणय हो गया था 

मैंने मान लिया 

तुमने दुल्हन कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने गृह प्रवेश कराया 

मैंने उस घर को 

मंदिर मान लिया .

तुमने स्पर्श किया 

मैंने स्वीकार लिया ।

तुमने बायाँ स्थान दिया 

मैंने स्वीकार लिया ।

तुमने आत्मसात किया 

मैंने मान लिया 

तुमने शक्तिपात कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने उर्वशी कहा 

मैंने मान लिया ।

तुमने प्रेम किया 

मैंने जी लिया ।

अब तुम कहते हो 

तुम खुश रह भी सकती हो 

मेरे बिना 

कैसे मान लूँ ?

क्या 

तुम ख़ुश रह सकते हो 

मेरे बिना ?

०००

तीन

ये तो ना कहो ।


कह दो 

दम घुटता है मेरा 

तुम्हारे साथ। 

थोड़ी दूरी रखो 

साँस लेने दो मुझे ।

कुछ भी कह दो 

लेकिन 

आक्षेप तो ना लगाओ।

ये तो ना कहो 

कि तुममें 

वह पहली सी चाह नहीं ।

हम दोनों की अब 

एक राह नहीं।

०००

चार

मैं अभिशप्त थी ।


तुमने मुझे कहा 

उर्वशी!

कल्याणी!

संजीवनी !

नत नयनी! 

विद्योत्तमा! 

पार्वत्य सुषमा। 

और 

फिर 

अपने शीश पर धर लिया 

शिव की तरह।

और मैं 

शक्तिरूपा हो गई ।

तुम जटाओं में समाकर 

धरा पर ले आए 

बिल्कुल 

शिव की तरह ।

मैं कल कल बहती 

गंगा की तरह 

यौवना सी ख़ुश हो गई।

लेकिन 

मैं  तो

अभिशप्त थी 

सती की तरह 

टुकड़ों में 

बिखरने के लिए ।

और 

अब तुम 

बिलख रहे हो 

मुझे कंधे पर लादकर 

शिव की ही तरह।

०००

पाँच


तुमने देखा है कभी।


तुमने देखा है कभी 

दीवारों के कपोल पर 

अश्रु रेखाओं को।

दीवारों की भी होती हैं 

आँखे।

उन आँखों में होता है 

सूनापन।

वे भी सिसकती हैं 

एकाकी होकर।

कभी छूकर देखना 

सर्द रातों में उनको 

तपती हैं वे ।

जेठ की दुपहरी में 

सुन्न हो जाती है।

प्रतीक्षा करती हैं 

ना जाने किसकी।

शायद उसकी 

जो लौट कर आने का 

वादा कर गया था 

लेकिन आया नहीं।

शायद प्रतीक्षा करती हैं 

डाकिये की 

उसके एक ख़त की।

कान लगाकर सुनती है 

दरवाज़े की 

हर दस्तक को।

लेकिन भ्रम था उसका 

ये तो बासंती हवा थी 

जो खड़का गई द्वार को।

बोलता है कागा 

मुंडेर पर 

तो चहक जाती है

शायद 

अब आयेगा वह ।

चाहती है

कोई तो लगा जाए 

उसके गालों पर गुलाल ।

भिगो दे उसकी चूनर 

टेसू के रंगों से।

चाहती हैं 

कोई तो जला जाये 

उसकी देहरी पर 

एक दिया।

पगली! 

जानती ही नहीं 

जो जाते हैं लगाकर 

हल्दी के थापे 

दीवार पर 

अपनी हथेलियों से 

वे लौट कर नहीं आते !

वे लौटकर नहीं आते ।

०००


छह


कब 


कब 

उसके मन की चली है ?

बार बार राह में 

नियति ने छली है।

छलनी हुआ मन 

पाथर हुआ तन ।

पथराई  सीप आँखों में 

मोती समेटती रही।

टूटे वजूद को 

बार बार सहेजती रही ।

आओ! चलो!

तोड़ दे सब तटबंध।

बहने दे 

सूखी नदी को 

कल-कल।

शायद 

कभी तो 

वो भी छलके

 छल-छल।

कभी तो किनारों से टकराएगी 

चीख चीख कर शोर मचाएगी ।

कहाँ हो तुम प्रियतम!

कहाँ हो तुम प्रियतम!

०००


 सात


एक नदी की यात्रा !


वो बरसी बूँद बूँद 

हिमखंडों पर ।

शुभ्र स्वच्छ 

ज्योत्सना सी 

पुलक कर।

अबोध बालक सी,

कभी उछलती , 

कभी ठहरती ,

कभी मचलती , 

कभी सिहरती।

पत्थरों को आगोश में लेती,

लताओं को चूमती ,

शाख़ सी झूमती,

कभी  छुपती , 

कभी झाँकती

अबाध गति सी बह चली ।

टूट कर वो चली 

टूट कर वो बही 

टूट कर वो मिली 

टूट कर प्रेम किया 

राह में 

पत्थरों ने रोका उसे 

रेत कण ने टोका उसे 

फिर भी टकराती रही 

टूटती रही 

बड़े - छोटे और बहुत छोटे 

महीन कण ,

अपने गर्भ में समेटती रही ।

जानती थी!

सब छूट जाएँगे राह में,

कोई भी ना चलेगा उसके साथ में ।

टूटने के दुःख से अधिक बड़ा था 

शायद उस लंबी यात्रा का सुख।

मासूम बालिका सी चली थी पर्वतों से ,

फिर अल्हड़ नव यौवना सी 

उल्लसित हुई ,

ठोकरें खाई 

लहूलुहान होती रही ।

फिर प्रौढ़ा सी ठहर गई 

शांत हो सिहर गई।

सागर तक पहुँचते पहुँचते 

थक गई ,

वृद्ध हो गई।

सागर तो खड़ा था 

बाँहे फैलाए,

धीरे धीरे , 

उसके आगोश में सिमट गई ।

अपने अस्तित्व को 

सागर में समाहित कर

अब वो शुद्ध हो गई ।

सच है!

अब वो बुद्ध हो गई!

अब वो बुद्ध हो गई!

०००

आठ


एक तारा


एक तारा देखा उसने 

और मोहित हो गया ।

लेकिन 

वो उसकी पहुँच से 

दूर बहुत दूर  था।

शायद वह भ्रम में था ।

फिर एक दिन 

देखते देखते वह 

आँखों से 

ओझल हो गया ।

वो उसे अमावस की रातों में 

तलाशता रहा।

ना जाने वो कहाँ खो गया।

आकाश गंगाओ की भीड़ में 

तलाशना आसान ना था ।

पूरी धरती,आकाश ,अंतरिक्ष 

सब छान डाला।

वो भटकता रहा  

रुक्षता, शुष्कता संग हो ली 

लेकिन तलाश 

कभी ख़त्म ना हुई।

हर गली हर चप्पे पर 

ढूँढते ढूँढते 

वह थक गया।

कितनी 

अमावस और पूर्णिमा सरक गईं।

 कितने 

शुक्ल और कृष्ण पक्ष फिसल गये।

हताशा में 

विरोध के स्वर उभरने लगे।

समाज ,परिस्थितियाँ ,आक्रोश 

सब कुछ बदलने का अनथक प्रयास।

जीने की जिजीविषा को 

बचाने का संघर्ष ।

स्नेह से रीता 

उसका मन और तन 

धीरे धीरे थक गया । 

क्यों जियूँ ? 

किसके लिये जियूँ ? 

सब प्रश्नों के उत्तर निरुत्तर । 

लेकिन 

उस तारे की ललक 

उसे पाने की छटपटाहट 

ना थकी 

ना बदली।

अब तो सिर्फ़ 

निराशा ही थी

हताशा थी 

जीवन के प्रति भी 

और जिजीविषा के प्रति भी ।

भटकन के प्रबल तूफ़ान से 

कैसे ,

कितना बच पाता । 

कभी सोचता 

समय के प्रलाप ,आलाप 

क्या सब उसी के लिए है ?

काश ! 

दिख जाता वो तारा 

एक बार 

ज़िंदगी चलती गई 

टूट कर बिखरता गया 

और

एक दिन  चमत्कार हुआ।

प्रेम उसका साकार हुआ 

तारा टूटा 

और उसकी गोद में आ गिरा 

चमकता आभामंडल 

और वह उसके नूर में खो गया।

ना जाने कौन किसके लिये तरसा? 

कौन? कब ?कैसे ? क्यों ?

निरुत्तर हर प्रश्न 

बस एक आलोकित शक्ति 

जिसने उनको है मिलाया ।

सुकून से उनको सहलाया 

फिर जो सावन बरसा 

उसको कोई रोक ना पाया 

सब तटबंध टूट गये   

ना किनारों का पता रहा 

ना नदी का।

धरती आकाश 

सब गड्ड मडड हो गये।

अंतरिक्ष से आवाज़ गूंजी 

आह ! मेरा तारा

आक्रोशित गगन 

शांत हो गया।

धरा की उँगलियाँ 

उसके बालों में 

मचलने लगी ।

उठो प्रिय ! 

निशा ख़त्म हुई।

उषा की प्रभा 

प्रतीक्षा कर रही है।

देखो ! 

प्राची में आशा की लालिमा है। 

अब कैसा संताप प्रिय !

अनंत आकाश है तुम्हारे पास ।

आओ उड़ चलें!

आओ उड़ चलें!

०००


परिचय

जन्म स्थान : बिजनौर (यू.पी.)

जन्म तिथि : 21 मार्च 1961 

शिक्षा : M.A., B. Ed 

सेवानिवृत्त शिक्षिका , कवयित्री एवं लेखिका।

प्रकाशित एकल काव्य संग्रह:

1. अभिव्यक्ति के पंख 

2. अभिव्यक्ति की उड़ान 

3. ⁠हे सखि !

तीनों काव्य संग्रह Amazon पर उपलब्ध हैं।

बहुत सी पत्रिकाओं और साझा संकलनों में सहभागिता।

online और offline कवि सम्मेलन में प्रतिभागिता।

सप्तऋषिकुलम के साहित्य प्रकोष्ठ की संचालिका।

facebook, U ट्यूब, Instagram और spotify पर काव्य पाठ की audio and video।

निवास स्थान : इन्दिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद, (यू .पी.)