एक
अदृश्य को दृश्य
सारी उपस्थितियां,
अपनी पसंद के फ़ूलों में
सारी कामनाएं,
अपनी अभिरुचि की धुनों में
तब्दील हो गईं
बाकी जो कुछ भी बचा
वह अदृश्य सा
मन में ठहरा रहा
मन का घड़ा यूं भरता ही रहा
उन अदृश्यों से
जो दृश्यों की पकड़ में नहीं आ सके
दृश्य,
निराशा की गिरफ़्त में रहे अक्सर
और अदृश्यों ने कभी परेशान नहीं किया
सिलसिला यही चला उम्र भर
इसी के चलते वह पुल हाथ नहीं लगा
जिसपर चलकर
किसी अदृश्य को दृश्य में तब्दील कर
उसके भीतर के यथार्थ की चिंगारी को
हवा दी जा सके
उन कुछ दृश्यों को भी कहाँ अनदेखा किया जा सका
जो मेरे करीब ही ठहर गए थे
स्मृतियों की शक्ल में
००
दो
ये दिन, ये दरवाज़ें
एक दिन का दरवाज़ा
दूसरे दिन में खुलता है
जहाँ सोई हुई हैं कुछ मीठी स्मृतियाँ
उन्हें झकझोर कर उठाने से हिचकती हूँ
कि उन्हें गहरी नींद में सोते देखने का सुख
एक बहुत बड़ा सुख बन गया है
मेरे नज़दीक
दूसरे दरवाज़े से निकलकर
तीसरे दरवाज़ें में प्रवेश करती हूँ
जहाँ कुछ मधुर सुर सुनायी दे रहे हैं
मालूम पड़ता है जैसे इतने मधुर सुरों पर
आज से पहले कभी अपने कान नहीं धरे
उन एक-एक सुरों को अपने भीतर उतारते हुए
उन्हें भी वहीं छोड़ आती हूँ कि
मुझे अधिक किसी और का हक़ उस मधुरता पर है
तभी एक घंटी बजती है
सारे खुले दरवाजों को होले से भेड़ते हुए
लौट आती हूँ अपने भीतर
खोजती हूँ ऐसी जगह जहाँ इन यादों को समेट कर रखा जा सके
इन पलों की यादों को थोडा-थोड़ा इस्तेमाल कर
जिए जा सके आने वाले दिन
अभिभूत हुआ जा सके उस वर्तमान से
जो अभी से जीने की तैयारी में लग गया है
बीतेंगे जो इन सहेजे गए पलों के बूते
आखिर स्मृतियाँ का भी हिस्सा है इस जीवन पर
और उम्मीदों का भी स्मृतियों के साथ होते होते उनसे आगे निकल जाती हैं
००
तीन
अचेतन
बहुत गहरा अंधेरा है यहाँ
इसी घटाटोप में
दो हृदय मानो एक दूसरे को
गलबहियाँ डाले
इस तरह से रुदन कर रहे हैं
मानों उसके निकट आ गई हो
खोई हुई कोई अज़ीज़ स्मृति
अचेतन ऐसे ही बुनता है अक्सर कई किस्से
दौड़ते-भागतों को
वहीं पर जड़ करने के लिए
००
चार
इस संसार में होने का दुख
कहां है वह जीवन,
जो बिना पुकारे ही बेहद करीब चला आया था
वह उम्मीद,
जो बिना खाद-पानी ही
फैलने-फूलने लगी थी
सपनों का वह अद्भुत संसार,
जो रोज़ आंख खुलते ही ऊंची मुंडेर पर जा बैठता था
और आंख बंद होते ही सीधा
नींद के गिलाफ़ में प्रवेश कर जाता था
वह उर्जा,
जो दिन रात की चहल-कदमी के लिए
रोज़ एक लम्बा पुल तैयार कर दिया करती थी
इधर जो गहरी खामोशी परोसने वाला
आत्मा तक को उलीच देने वाली पीड़ा अंतस में भर देने वाला
एक सुन्दर मन को देख-सुन न पाने की घोर
निराशा वाला कुकुरमुत्ता सा संसार उग आया है
उसे किसने रचा है ?
क्या ईश्वर ऐसी दुनिया बनाना भी सीख गया है
जहां वह सुख की तह के ठीक पीछे
दुख को इस कारीगरी से चिपका देता है
कि कोई जान ही पाता की
सुख कभी का घिस चुका है
और कोई बहुत देर से
दुख की ज़मीन पर खड़ा होकर
अपने तलवों पर सुख का छ्द्म अनुभव कर रहा है
ऐसा शैतान, ऐसा पीड़क
ईश्वर
पहले तो कभी ना था
००
पॉंच
नेपथ्य में प्रेम
प्रेम ने देख लिए थे कई समुन्द्र
लांघ लिए थे कई दरिया
बोल चुका था कई शब्द
जमा कर लिए थे कई अहसास
वह स्वर्ग तक की सैर
भी कर आया था
अब भी मगर उसे
बहुत कुछ देखना बाकि था
इस घड़ी वह आसमान के उन तारों की
गिनती कर रहा है
जो कभी थे
उसकी झोली में सिमट आये थे
उस खामोशी को गुन रहा है
जो प्रेम की वाचालता के बीच
कहीं खो गयी थी
प्रेम का यह नया संसार है
पछाड़ खाती लहरों के बीच
डूबते-उतरते हुए जब भी
घड़ी-घड़ी सांस लेने के लिए
निकालाती है
जल से बाहर अपना सिर
दिखता है उसका वह सलोना
रूप
प्रेम ने पहले जिसे
अपने आंचल से पूरी तरह से
उघाड़ा भी नहीं था
तब तक वह प्रेम के इस नए पक्ष से
परिचित भी कहां थी
००
छः
इस मौसम को आने दो
सब मौसम गहरी टीस
गहरी उदासी देकर लौट जाते हैं
जैसे वे सब पीड़ा देने के लिए ही
प्रकृति का अटूट हिस्सा बने हों
जैसे मनुष्य आते-जाते मौसमों की इसी उदासी को अपने सिर-माथे लगाने के लिए अभिशप्त हों
एक बडा सा संसार
प्रकृति प्रदत्त इन्ही उदासियों को अपने सीने पर उठाए ही दुनिया से कूच कर गया
जिसके बाशिंदे सभी प्रकार, सभी आकार के रंगों की उदासियों से रिश्तें निभाना पसंद करते थे
उदासियों की कतरनों को इकट्ठा करते थे
ऐसे लोग मुझे हमेशा से अपनी ही बिरादरी के लोग-बाग लगते रहे हैं
उनकी पीड़ा अपनी ही पीड़ा लगती रही है
जैसे मेरे ही दुख की आंच में रंधा हो उनका भी दुख
जैसे दुख में मेरा विलाप
उनके ही दुख का आईना हो
यह सब जानते समझते बुझते हुए भी दुख के मौसम को आवाज देती हूं
इस मौसम से बेइंतिहा प्रेम करने लगी हूं अब
पुकार रही हूं इस मौसम को
कि आओ और गुज़र जाओ ठीक मेरे बीच से
सौंप दो मेरे पुरखों की तरह मुझे अकूत उदासी की दौलत
आने दो इस मौसम को पहलू में मेरे
मैं उसका चेहरा ठीक अपने चेहरे के करीब चाहती हूं
कि दूर ठहरा वह मौसम बेहद करीब का मौसम जान पड़ता है अब
जान पड़ता है मेरा सबसे खोया हुआ कोई प्यारा सा सगा
००
संक्षिप्त परिचय
विपिन चौधरी: महत्वपूर्ण कवयित्री। कहानीकार।अनेक किताब प्रकाशित। दिल्ली में रहती है।