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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 जुलाई, 2025

चित्रा पंवार की कविताऍं


 1.

तुम्हारे साथ


तुम्हारे साथ 

शहर ज़्यादा चमकीले और खूबसूरत थे 

शांत गाँवों को देखकर महसूस हुआ 

जैसे ध्यानमुद्रा में बैठे बुद्ध मुस्कुरा रहे हों 

जंगल भयानक नहीं बल्कि 

गीत गाती किसी चंचल लड़की सरीखे लगे

नदी थिरक रही थी मेरे मन से थोड़ा कम 

और पहाड़ मेरी हथेलियों पर सर झुकाए खड़े थे 

रास्तों पर हरियाली का उजाला पसरा था 

खुशी एक नन्हे शिशु की तरह 

एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक 

उछल रही थी बेवजह

तुम्हारे साथ वाली यात्राओं 

में मैंने पाया कि 

जगहों की कोई सुंदरता नहीं होती 

साथ की होती है…. 












२.

ओ युद्धग्रस्त देश के लोगों

ओ जेरूशलम के लोगों

ओ तेहरान के लोगों 

कीव, गाज़ा के लोगों 

शायद तुम युद्ध नहीं चाहते !

शायद नहीं 

मैं भी तुम्हारी तरह एक आम इंसान हूं 

इसलिए दावे से कहती हूं 

 कि तुम युद्ध नहीं चाहते 

फिर सामना करो 

अपनी–अपनी सरकारों का 

सड़क पर उतर आओ 

जोर देकर कहो 

‘हम युद्ध नहीं चाहते’

तुम्हीं में से कुछ सिपाही हैं, कुछ वैज्ञानिक

कुछ नीतिकार, कुछ पत्रकार 

कुछ ड्राइवर , खानसामे, किसान

तुम सब लौट जाओ

अपने–अपने काम से वापस 

सरकारें बस युद्ध की घोषणा करती हैं 

और युद्ध जीतती हैं 

युद्ध तुम्हारे द्वारा तुम्हारी खुशियों

तुम्हारे जीवन को दाव पर लगा कर 

लड़े जाते हैं 

युद्ध 

तबाह टीले में बदल गई सभ्यता के शीर्ष पर 

तुम्हारी मर चुकी आत्मा

तुम्हारी स्त्रियों की छत –विक्षत योनि, स्तनों 

तुम्हारे बच्चों के बारूद से चीथड़े हुए बदन पर 

एक काले अमिट कलंक के रूप में लिखा जाएगा 

तुम्हारे हिस्से करुणा, निराशा, हताशा, लाचारी, हिंसा

के तमगों के सिवा कुछ नहीं आएगा

भले ही भविष्य में 

तुम कहलाए जाओगे

हारे हुए देश के नागरिक

या जीते हुए देश के नागरिक ..



३.

अथाह


अथाह प्रेम

अथाह दुःख 

अथाह श्रद्धा

अथाह घृणा 

में व्यक्ति मौन हो जाता है 

कुछ भाव इतने सघन होते हैं 

कि उनको ठीक–ठीक कहने के लिए

आज तक किसी भाषा

किसी लिपि में 

कोई शब्द नहीं बना...!



४.

एक बड़ी रेखा


उन चुप्पा स्त्रियों से डरो 

जो तुम्हारी गालियां भी दवा समझ 

अपमान के कड़वे घूंट के साथ 

चुपचाप निगल जाती हैं 

डरो उन स्त्रियों से 

जो मेहनती हैं 

तपते बदन भी घर, बाहर का बेहिसाब काम 

अपने कंधों पर थामे घूम रही हैं 

ऐसी औरतों को कमजोर मत समझना

जो अपना समय 

शिकवे–शिकायतों में व्यर्थ करने के बजाय 

खुद को तराशने में लगा रही हैं 


उनका लक्ष्य तुम्हें हराना नहीं 

बल्कि हर हाल में 

ख़ुद को सफलता की दिशा में बढ़ते हुए देखना हैं

और ये तो सुना ही होगा तुमने कि 

जब एक बड़ी रेखा के बगल में 

खींच दी जाती है उससे भी बड़ी रेखा 

तब पहली का आकार 

ख़ुद–ब–ख़ुद होने लगता है छोटा..!


५.

सूचना, जनहित में जारी!


इसमें 

नींद के उधड़े लिहाफ़ हैं 

कुछ कतरनें हैं खुशियों की

कुछ उत्सवों की काट–छांट हैं 

कुछ साज–श्रृंगार, इच्छाओं, अस्तित्व की 

 मृत्यु के शोक वाले दिन हैं 

कुछ एक काम से दूसरे के बीच 

ख़्वाब पुल से गुजरते हुए चुराया

 टुकड़ा–टुकड़ा वक़्त है

तानो, लांछनों, उपेक्षाओं के आईने से झांकते 

चंद सबकनुमा लम्हे हैं 

तो कुछ मजबूत पल खुद को साबित करने की 

पाई–पाई जिद को जोड़कर बनाए हैं 

स्त्रियों ने अपने खाते में जो समय इकट्ठा किया है 

जिसे खर्च किया है ख़ुद को तराशने में 

ये उनका अपना समय है 

कृपया

कोई देव, कोई पुरुष

इस पर दावा न करें !!












६.

साधारण से लड़के


कुछ साधारण से दिखने वाले 

लड़के

प्रेम कर बैठते हैं 

अपनी औकात से बाहर वाले सपनों से 


वे आम सी सूरत वाले लड़के 

कॉलेज की सबसे सुंदर, सबसे होनहार लड़की से

लगा बैठते हैं दिल 

पढ़ाई में औसत होने पर भी 

देते हैं यूपीएससी की परीक्षाएं 

बार–बार औंधे मुंह गिरते हैं

प्री, मेंस, इंटरव्यू की सीढ़ी से सीधे धरातल पर 

किंतु फिर भी हार नहीं मानते

साइकिल से चलते हुए मुड़–मुड़ कर देखते जाते हैं 

महंगी कारों को 

जो संघर्ष करते मां–बाप के दुःख पर 

मन ही मन बुदबुदाते हैं 

‘बस कुछ दिन ओर’

हां यही मामूली से दिखने वाले 

सामान्य घरों के लड़के

अपनी सामर्थ्य से कहीं बड़े

 सपनों का पीछा करते

 पहुंच जाते हैं सफलता के शीर्ष पर 

यही साधारण से मगर 

जिद्दी लड़के लिखते हैं 

एक दिन

संघर्ष और प्रेरणा की असाधारण सी कहानी...



७.

प्रेम युद्ध


कुछ प्रेम युद्ध

एक होने के

सुख की लालसा 

के लिए नहीं 

बल्कि बिछड़ने के

 मृत्यु से भी अधिक 

कष्टकारी 

दुःख से बचने के लिए 

लड़े जाते हैं...



सबसे कठिन प्रेम


सबसे कठिन प्रेम वो थे 

जो ईंट भट्ठों की अग्नि में तपकर निखर आए 

खेत में घसियारों की हंसिया से 

तराशे गए 

सबसे दुष्कर प्रेम संबंध 

सड़क पर पत्थर ढोती दो जोड़ी 

ठेक पड़ी हथेलियों के बीच पनप आए चुपचाप

सबसे समर्पित प्रेमी युद्ध में मारे गए गुमनाम 

सबसे समर्पित प्रेमिकाएं बंद कमरे में लगा कर 

पोंछती रहीं अपने प्रेमी के नाम का एक चुटकी सिंदूर

सबसे बदनसीब प्रेम वो रहे जिनके नामों को नसीब नहीं हो पाया 

 घर की नेम प्लेट पर एक साथ लिखा जाना 

सबसे मजबूत संबंध उस वक्त खड़े रह गए मौन 

जब पूछा गया ‘तुम इनके कौन लगते हो?’ का यक्ष प्रश्न 

उनके पपड़ाए होंठ

ताउम्र तरसते रहे मीठे चुंबनों को

मंच से पढ़ी गई एक अतिरिक्त 

मगर मजबूत कविता की तरह 

सुंदर किंतु समाज के विधान में दर्ज विषम प्रेम संबंध 

सिरे से ख़ारिज कर दिए गए 

जिन जोड़ों को प्रेम ने कुर्बानी के लिए चुना  

उन की पहुंच से बहुत दूर थीं किताबें 

वो न्याय के दूर–दराज के रिश्तेदार भी न थे 

न्याय महलों में विराजता था

और सताए हुए प्रेमी गुमनाम गलियों के निवासी थे 

नहीं तो कम से कम पड़ोसी धर्म के नाते ही सही 

 न्याय इनकी दलीलों को सुन तो सकता ही था 

सच्चे प्रेम को इतिहास ने  

हर–बार निजी लाभ–हानि की तराजू पर परख

 उदासीन हो किनारे रख दिया

सच्चे प्रेम की कहानी किसी अनब्याही मां की संतान सी

पड़ी सिसकती रही झाड़ी, गड्ढे में 

उसे उठा ले गई हवा

बहा ले गईं नदी 

उस प्रेम को बीज बना धरती ने धारण किया गर्भ में 

 पहाड़ ने कंधे पर बिठा 

आसमान की सैर कराई 

समंदर ने लहरों के आंचल पर झुलाया झूला 

सच्चे प्रेम से मिलना है तो 

तुम किताबों से नहीं बूढ़े जंगल से मिलना 

उसके गीत सुनना 

उल्लास और विलाप की कहानियों में 

खिलता जंगली फूल सा प्रेम 

सभ्यता की बस्तियों में नहीं 

दूर दराज के पहाड़ की तलहटी में खेलता मिल जाएगा तुम्हें।

००



संक्षिप्त परिचय 

जन्मस्थान– गांव– गोटका, मेरठ, उत्तर प्रदेश।

संप्रति– अध्यापन ।

साहित्यिक यात्रा –प्रेरणा अंशु, कथाक्रम, इंद्रप्रस्थ भारती,

सरस्वती, दैनिक जागरण, कथादेश, वागर्थ, सोच विचार, परिकथा, बाल भारती, हिंदवी, समकालीन जनमत, किस्सा कोताह, पाखी, गाथांतर, वर्तमान साहित्य, समकाल, कविताकोश, मधुमती, परिंदे, वनमाली, अनहद कोलकाता, सबद जलवायु,तज़किरा।

सहित अनेक पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।

“दो औरतें” तथा “बारहमासा” नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।

chitra.panwar20892@gmail.com

25 जुलाई, 2025

वंदना पाराशर की कविताऍं


1.

 नयापन से उकताहट

       

एक दिन नयापन से भी उकताहट होने लगेगी

रोशनी की चकाचौंध से तंग आकर

कहीं एकान्त को तलाशते हुए लोग

चांदनी रात को याद करते नज़र आएंगे 

लोग एक बार फिर से

लौटना चाहेंगे

पुराने दिनों में 

वे ढूंढते हुए नज़र आएंगे

गठरी में बांधकर रखी

अपने उन्हीं पुरानी चीजों को

जिसे नये के आकर्षण में

कबाड़ समझकर फेंक दिया था 

एक बार फिर से

 गठरी से ढूंढकर निकालेंगे

अपने पुराने कपड़े को

जो समय के साथ

थोड़े घिस गए

जिसका रंग थोड़ा फीका पड़ गया

लेकिन जिनमें गरमाहट

अब भी बची हुई थी 

ठीक वैसे ही जैसे

पुराने रिश्ते

वर्षों दूर रहकर भी

मोह बांधे रखते हैं।

०००

2.











परिस्थितियां 


परिस्थितियां

हर वो बात सिखा देती हैं 

जिसे उम्र नहीं सिखा पाती है

भूख

कभी उम्र नहीं देखती है

वह, बचपन में ही उम्रदराज बना देती है

वह सब सिखा देती है

जो हमें रोटी दे सके।


सबने कहा - 

अभी तुम्हारी उम्र

बहुत कम है

दुनिया को समझने के लिए

सुनकर वह मुस्कुराया

और कहा- 

दुनिया मेरे लिए 

सिर्फ एक रोटी है

जो मेरी ज़रूरत भी है 

और ज़िंदगी भी।

०००

3.


 बेघर हुए लोग 


बस्तियां उजड़ गई

शहर को शहर बनाने में


बेघर हुए लोग

मज़बूर हुए

शहर - दर- शहर भटकने को 

जाने कितनी ही सांसें टूटी

जाने कितनी ही आसे छूटी। 


शहर इतराता

अपने होने पर

उसे मालूम नहीं

वह किसकी कब्र पर

ठाठ से बैठा है


शहर की यह शान- ओ - शौकत

किसी ग़रीब की कर्ज़दार है।

०००

4.

 भागते हुए लोग


भागते हुए लोग

जल्दी-जल्दी में

भर-भरकर रख रहे हैं

धूप को

हवा को

मिट्टी को

कल शायद कम न पड़ जाएँ

कल अकाल पड़ेगा

धूप

हवा और

मिट्टी का।

०००


5. 

तुम बिन 


  जब कुछ नहीं था

   तो सबकुछ था

    तुम थीं

   तुम्हारा प्रेम था

  जिसने उन सभी रिक्त स्थानों को भर दिया था

  जो ख़ाली थे 

  आज सबकुछ हैं 

  तो तुम नहीं हो 

  तुम्हारे प्रेम के बिना तो

  सबकुछ अधूरा है।

०००


6


 शायद वह लौट आया हो


देर तक 

 सांकल बजता रहा 

 गए जो देखने 

 वहां कोई न था 

  बाहर सूखी हुई पत्तियां 

टूट कर बिखरी हुई थी 

जैसे कोई अभी - अभी

 वहां से चलकर गया हो

सांकल के बजने की आवाज़ 

देर तक गूंजती रही कानों में 

जैसे कोई  मिले बिना ही दूर जा रहे हो

आंखें हर आहट पर अब भी चौंक उठती हैं 

 शायद वह लौट आया हो ...

०००

7


 गृहणी की कविता 


हाथ में कलम लेकर

 कविता लिखने बैठी ही थी

 कि तभी 

याद आ जाती है कि

चूल्हा पर अदहन चढ़ाकर भूल आई हूं। 

चावल धोकर डाल आई और एक बार फिर से

कलम पकड़ लेती हूं कि तभी

तेज़ आवाज़ आई 

भात के खदबदाने की

उठकर मांड़ पसा आई 

सोचा,अब लिख लूंगी कि तभी

मांड़ की खुशबू को सूंघते हुए

बढ गई थी भूख, बच्चों की

बच्चे खाते हुए मुस्कुरा रहे थे

उधर कविता रुठकर मुझसे

दूर जा खड़ी हुई

मैंने झांककर देखा

बच्चों की आंखों में

 कविता वहीं थीं 

बच्चों की पुतलियों संग

आंख-मिचौली खेल रही थी ।



8

गुम होते रिश्तों के नाम 


एक दिन 

 रिश्तों के नाम

 गिने - चुने ही बचें रह जाएंगे

  नई सोच 

  थोड़ा देकर

  कितना कुछ छिनती जा रही है

  संवेदनाएं छीजती जा रही है 

  हम खुश हैं या भरमायें हुए हैं इस चकाचौंध से ?

   अंधेरा तेजी से अपना पांव पसारता जा रहा है

   बच्चे उदास हैं 

  चुप -चुप से रहते हैं

  शायद अकेलेपन के शिकार हैं

  उसके साथ नहीं रहती है नानी या फिर दादी

  जो उसको दुलारती , किस्से सुनाती 

  उसके साथ नहीं रहते हैं चाचा ,बुआ या फिर मामा, मौसी 

जो उन्हें रिश्तों की गहराई का अहसास कराते

बाहर धूप फैली है मरियल सी 

बच्चे पार्क के आखिरी बेंच पर बैठकर

इंतज़ार करते हैं

मम्मी - डैडी के घर लौटने का। 

०००


9


वो तुम थीं 


जीवन के मुश्किल दौर से गुजरते हुए

जब सबके सवालों से 

घिरा हुआ मैं 

ख़ुद को बेबस और 

लाचार समझ रहा था 

उस समय 

वो तुम थीं 

जिसने

सिर्फ मेरी आंखों को पढा़।

०००


10


नेमप्लेट 


बड़े ही शौक से हम

जिस घर को सजाते रहे

किसीने आकर

 बड़े ही रोब से कह दिया

इस घर की ईंटें तुम्हारी नहीं,

इस घर की मिट्टी तुम्हारी नहीं 

घर के बाहर नेमप्लेट में लिखा 

नाम भी तुम्हारा नहीं

यह घर तुम्हारा नहीं है 

मैंने समेटना चाहा 

वहां से अपना सामान

मेरी झोली में उस घर का 

मिट्टी की खुशबू थीं 

 और कुछ यादें 

ता -उम्र जिन्हें मैं संभालें रहा।

०००

11

टूटना 



सबने कहा कि 

टूटने पर

आवाज़ तो होगी ही 

मैंने उसकी ओर देखा जो

कई बार टूटी थीं

बे- आवाज़।

किसीको उसकी आवाज़ 

सुनाई नहीं दी ।

०००


परिचय

जन्म - 10 मार्च, सहरसा, बिहार

शिक्षा - एम.ए ,नेट 

पी.एच.डी( अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी)

कुछ प्रकाशित रचनाएं -

कादंबनी, मधुमती ,अभिनव- प्रत्यक्षा, ककसाड़ , आलोक पर्व

अरण्य - वाणी, रचना - उत्सव, सदीनामा, जनसंदेश टाइम्स, परिवेश- मेल, सांदीपनी आदि कई पत्र - पत्रिकाओं में,  हिन्दवी आदि वेबसाइट पर तथा कई साझा काव्य - संग्रह में कविताएं प्रकाशित।

पंद्रह कोड़े

 

अनवर इकबाल  

1977 की सैनिक क्रान्ति के बाद जब ज़िया उल हक़ पाकिस्तान में सत्ता में आए तो मैं एक अख़बार में ट्रेनी पत्राकार था। तब से अब तक बीस साल से ज़्यादा अरसा गुज़र गया, पर उनके शासन काल के कई ऐसे दृश्य हैं जो आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा हैं।

जनरल पर इस्लामिक क़ानून और पारंपरिक इस्लामिक सज़ा का जूनून सवार था। भरे बाज़ार बीच मुजरिमों को पत्थर से मारने या उनके हाथ काट देने जैसी सज़ाओं पर अक्सर ग़ौर किया जाता, पर जनरल ने सबसे ज़्यादा तरजीह मुजरिम को जनता के बीच कोड़े मारकर सज़ा देने पर दी। यह सज़ा इस्लाम की क़ानूनी आचार संहिता के अनुसार तो थी ही, साथ ही पकिस्तान में इसके व्यापक प्रचलन में ब्रिटिश उपनिवेशवादी सरकार की परंपरा का भी हाथ था। कोड़े मारने की सज़ा देना पाकिस्तान के जेलों के लिए तो आम बात थी, पर जनरल ने उसमें एक मौलिक परिवर्तन कर उसे सार्वजनिक बना दिया था।


जनरल ज़िया उल हक़ ने सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेते ही कोड़ेबाज़ी का एक विशाल सार्वजानिक आयोजन किया, जिसे देखने के लिए मुझे बतौर रिपोर्टर जाना पड़ा। मुजरिम सफ़ेद पायजामे, ढीली सफ़ेद कमीजें और सफ़ेद टोपियाँ पहने एक लाइन में खड़े थे। अपने रिंग मास्टर के चाबुक की फटकार के इंतज़ार में खड़े वे बिल्कुल सर्कस के जानवरों की तरह लग रहे थे। सभी मर्द थे और ज़्यादातर अधेड़ थे। उनके चेहरे ज़र्द थे और वे डर से काँप रहे थे। जब कोड़े लगने शुरू हुए तो कुछ के पायजामे गीले हो गए, पर कोड़े बरसाने वालों और उन डॉक्टरों पर उसका बहुत कम असर हुआ, जिनका मुख्य काम हर मुजरिम की जाँच कर उसे कोड़े झेलने के लिए फ़िट क़रार देना था।


रावलपिंडी के पुराने इलाके और नयी राजधानी इस्लामाबाद के बीच एक बड़ा मैदान था, जिसके बीचों बीच खुली जगह पर जहाँ अमूमन बच्चे फुटबॉल, क्रिकेट और हॉकी खेलते थे, एक बड़ा-सा स्टेज बनाया गया था। लगभग पंद्रह फीट ऊँचा एक प्लेटफार्म था, जिसे मैदान के हर कोने से देखा जा सकता था। प्लेटफार्म के बीचोंबीच मुजरिमों को बाँधने के लिए लकड़ी का एक फ्रेम बनाया गया था। उन सबका चेहरा स्टेज के उस तरफ़ होता था, जहाँ पुलिस के ऊँचे अफसर, मजिस्ट्रेट और दूसरे वी आई पी बैठते थे। प्रेस रिपोर्टरों के लिए एक ख़ास जगह बनायी गई थी, ताकि वे कोड़ेबाज़ी को नज़दीक से और बारीकी से देखकर विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर सकें। बाकी आम दर्शकों को मुजरिम के शरीर का पीछे का हिस्सा दिखाई देता था, जहाँ कोड़े की मार लगती थी। लकड़ी के उस चौकोर ढाँचे पर मुजरिम के मुँह के नज़दीक एक माइक्रोफ़ोन फ़िट किया गया था, ताकि अपराधी के चीख़ने- चिल्लाने की आवाज़ें हर एक को सुनाई दे सकें। स्टेज के बीचोंबीच एक लंबा-चौड़ा पहलवान क़िस्म का आदमी अपनी कमर पर एक तहमद लपेटे खड़ा था, जो अपने पूरे नंगे बदन पर तेल चुपड़ रहा था। उसके बाद उसने अपनी छाती और हाथ की पुष्ट मांसपेशियाँ दिखाने के लिए कुछ कसरत की। फिर उसने कोने में राखी हुई आधा दर्ज़न छड़ियों में से एक बड़ी-सी छड़ी उठाकर तेल में डुबोयी और उसे ज़ोर से हवा में घुमाया। जितनी बार छड़ी हवा को तेज़ी से काटती हुई घूमती, एक भयानक सरसराहट भरा शोर हवा में उभरता। कोड़े बरसाने वाला ख़ुद भी एक  मुजरिम था जिसे इस काम के लिए ख़ास तौर पर जेल से बुलाया गया था। उसे बेहतरीन सेहतमंद खाना खिलाया जाता था और वह अपना अधिकांश समय कसरत करने में बिताता था। पकिस्तान में उसकी मांग अचानक बढ़ गई थी क्योंकि एक शहर से दूसरे शहर, जहाँ भी सरकार लोगों को डराने-धमकाने की ज़रूरत महसूस करती, उसे आमंत्रित किया जाता। उसका डील-डौल भयावह था। अपनी मांसपेशियों को कसते हुए अब वह कोड़े बरसाने के लिए तैयार था।


अब तक हज़ारों लोग मैदान के हर ओने-कोने में इकट्ठा हो गए थे। मैदान से जाने वाली सड़कें और गलियाँ तक भर गई थीं। मकानों की छतों पर लोगों के जत्थे के जत्थे जमा थे। पेड़ों के ऊपर और बिजली के खम्भों तक पर लोग चढ़े हुए थे। कुछ ग़रीब लोग इस पूरे नज़ारे से एक सावधान तटस्थता बनाए चुपचाप खड़े थे, क्योंकि आकाओं की ज़रूरत पड़ने पर उन्हीं के तबके को मुजरिमों की सप्लाई के लिए इस्तेमाल किया जाता था। रईस तबके का बर्ताव अलग था। वे तमाशा देखने अपनी गाड़ियों से या मोटर साइकिल पर आते थे और तमाशा शुरू होने तक इधर-उधर चक्कर काटते रहते थे। चुस्त जीन्स और रंगीन भड़कीली पोशाकों वाले बहुत से रईस नौजवान अपनी प्रेमिकाओं को भी साथ ले आते थे। संभवतः उनमें से कुछ वे सारे जुर्म भी करते होंगे जिनके लिए पंद्रह कोड़ों की सज़ा दी जाती थी। जैसे शराब पीना और अपनी बीवियों के अलावा दूसरी औरतों से संबंध रखना। लेकिन यह सब करते हुए भी वे सुरक्षित थे क्योंकि उनका रिश्ता उस तथाकथित ‘वी आई पी क्लास’ से था जहाँ कोई क़ानून या धर्म लागू नहीं होता। शराब पीने और औरतों का उपभोग करने के लिए उनके पास बेहतर और सुरक्षित जगहें उपलब्ध थीं। इसके लिए उन्हें उन सस्ते होटलों में जाने की ज़रूरत नहीं थी, जहाँ कभी भी पुलिस की ‘रेड’ पड़ सकती थी। अधिकांश मुजरिमों को पुराने शहर के निम्न मध्यवर्गीय इलाके के होटलों से ही उठाया जाता था। सुनने में आया था कि इस बार पचास से ऊपर मुजरिम शराब पीते हुए या औरतों से संबंध रखते हुए पकड़े गए थे। तीन दिन तक सब पर मुक़दमा चलाया गया था। जिनकी उम्र पचास से ऊपर थी, उन्हें कोड़े झेलने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था। कोड़े झेलने के लिए उपयुक्त मुजरिमों को ही वहाँ लाया गया था।


अब कोड़े लगाने का काम शुरू होना था। छड़ी वाले पहलवान ने संकेत दिया कि वह तैयार है। एक अफसर स्टेज पर आया। उसने लकड़ी के फ्रेम से माइक्रोफ़ोन को अलग किया और पहले आदमी का नाम सुनाया जिसे कोड़े लगाए जाने थे। उसके बाद उस आदमी पर लगाए जुर्म पढ़कर बताए गए और सुरक्षा गार्ड को उसे स्टेज पर लाने का आदेश दिया गया। दो संतरी उसे पकड़कर स्टेज पर लाए। वह पूरी तरह असहाय लग रहा था। वह काँप नहीं रहा था। वह उस जानवर की तरह लग रहा था जिसे ज़िबह होने के लिए लाया जा रहा है, और जो यह समझ पाने में असमर्थ है कि उसके साथ क्या होने जा रहा है। उसे शब्दों में दिए गए आदेश समझ में नहीं आ रहे थे। आगे चलने का आदेश मिलने के बाद भी वह जहाँ का तहाँ खड़ा था, इसलिए उसे हरकत में लाने के लिए एक संतरी ने उसे आगे धक्का दिया। वह हिला और आगे बढ़ता चला गया। अगर दूसरे संतरी ने थाम न लिया होता तो वह स्टेज के दूसरे सिरे पर जाकर गिर पड़ता। ऐसा लगा जैसे उसके दिमाग़ ने काम करना बंद कर दिया है। उसके हाथ और पैर अलग दिशाओं में जा रहे थे। संतरी ने उसे लकड़ी के फ्रेम के बीच में खड़ा कर दिया। अब डॉक्टर ने आकर उसका परीक्षण किया, स्टेथेस्कोप लगाकर उसकी धड़कन की जांच की और उसे कोड़े खाने के लिए ‘फ़िट’ घोषित किया। आदमी ने तटस्थता से घोषणा को सुना जैसे उसका इससे कोई सरोकार न हो, फिर जैसे डॉक्टर की घोषणा पर स्वीकृति देते हुए दो बार सिर हिला दिया। तब तक भीड़ में सन्नाटा छा गया था। आइसक्रीम और फल बेचने वाले भी चुप हो गए थे। संतरियों ने आदमी को उठाकर लकड़ी के फ्रेम तक पहुँचाया और उसके हाथ-पैर चारों ओर फ्रेम से बाँध दिए। उन्होंने कोड़े लगाने का निशाना साधने के लिए एक कपड़े का टुकड़ा उसके कूल्हों पर बांधा। फिर सब एक तरफ़ हट गए। अब सारी आँखें उस पहलवान पर स्थिर हो गईं, जो हवा में अपने कोड़े को बार-बार फटकार रहा था। भीड़ इस कदर शांत थी कि माइक्रोफ़ोन हवा में की गई कोड़े की फटकार को दूर-दूर तक पहुँचा रहा था। तख्ते से बंधा हुआ आदमी अब तक शांत था, पर माइक्रोफ़ोन पर कोड़े की फटकार के स्वर ने उसे एकाएक बदल दिया। वह काँपने लगा और फिर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। लाउडस्पीकर ने उसकी आवाज़ भीड़ तक और भीड़ से पार भी पहुँचाई, पर वह एक शब्द भी नहीं बोला। अब मजिस्ट्रेट ने कोड़े लगाने का आदेश दिया। पहलवान ने आख़िरी बार हवा में कोड़ा आज़माया। फिर वह दौड़ता हुआ आया और मुजरिम से एकाध फुट की दूरी पर खड़े होकर उसने कोड़े का ज़ोरदार वार किया। कोड़ा मुजरिम की त्वचा को भेदता हुआ उसके मांस में धंसा और बाहर आ गया। आदमी दर्द से बेतहाशा चीख़ा। स्टेज पर बैठे हुए लोगों ने उस जगह से ख़ून रिसता हुआ देखा। ‘एक!’ कोड़ों की गिनती करने वाला अफसर बोला। आदमी अब सिसक रहा था और दूर-दूर तक लाउडस्पीकरों पर इसे सुना जा रहा था। पहलवान फिर अपनी जगह पर लौटा और मजिस्ट्रेट के संकेत के साथ ही फिर दौड़ता हुआ आया और दूसरे कोड़े का निशाना फिर उसी जगह पर पड़ा। कोड़ा फिर मांस में धंसा, आदमी असहाय भाव से चिल्लाया, पहलवान पीछे लौटा। यह सिलसिला तब टूटा, जब डॉक्टर ने फिर आकर मुजरिम की जांच की। जांच के बाद उसने कोड़े वाले जल्लाद को काम जारी रखने की अनुमति दी। पंद्रह कोड़ों के बाद जैसे ही संतरी ने आदमी के हाथ-पैर खोले, वह स्टेज पर गिर पड़ा। एक स्ट्रेचर लाकर उसे हटाया गया। अब दूसरे आदमी की बारी थी।

यह मेरे लिए सार्वजानिक कोड़ेबाज़ी का पहला दृश्य था। कई महीनों बाद रावलपिंडी के एक बड़े मैदान में मुझे जाना पड़ा, जहाँ एक अंधी लड़की को यौन दुर्व्यवहार के लिए कोड़ों की सज़ा भुगतनी थी। सैकड़ों लोग उस स्टेज के इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े थे, जहाँ उस पर कोड़े बरसाए जाने वाले थे। उस भीड़ में लोगों के चेहरों पर कोई दुःख या संवेदना नहीं थी। कोड़ेबाज़ी का इंतज़ार करते हुए वे राजनीति या स्पोर्ट्स की बातें कर रहे थे। तभी एक पुलिस अफसर आया और उसने घोषणा की कि उच्च अदालत ने उस औरत पर कोड़ों की सज़ा को मुल्तवी कर दिया है। जब उसने लोगों से घर लौट जाने को कहा, तो भीड़ में निराशा और प्रतिरोध के स्वर फैलने लगे। लोग वहाँ मजमा और तमाशा देखने आए थे। उन्हें एक औरत की बेबसी देखनी थी और उसका मज़ा लेना था। सच तो यह है कि मैं भी उनकी निराशा में भागीदार था। हालांकि मैं शुरू से ही सार्वजनिक कोड़ेबाज़ी के ख़िलाफ़ लिखता रहा था, पर मैं भी उस तमाशे को देखने वहाँ गया था। वापस जाकर मैं शायद अपने टाइपराइटर पर बैठकर इसकी भर्त्सना ही करता, पर मैं तमाशा छोड़ना नहीं चाहता था।


अपने बारे में इस दुखद हक़ीक़त को जानकर मुझे काफ़ी तकलीफ़ हुई। साथ ही अपने तथा अपने इस मुल्क के प्रति एक तीख़ी घृणा, गुस्से और अवसाद का भी अहसास हुआ, जो आज भी लगातार मेरे साथ बना हुआ है।      

                                                                                          

‘ग्रांटा’ से साभार

(रचनाकाल 1998)


मूल  अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुधा अरोड़ा

16 जुलाई, 2025

कहानी - पहाड़ सिंह

 


लिअनीद अन्द्रयेइफ़

21 अगस्त 1871 को ज़ारशाही रूस में एक भूमिनापक के परिवार में जन्म। रूसी साहित्य के रजत युग के प्रतिनिधि लेखक। कहानी, नाटक व उपन्यास लेखन के अलावा चित्रकारी 
और फ़ोटोग्राफ़ी। रूस में सबसे पहले रंगीन फ़ोटोग्राफ़ी का चलन लिअनीद अन्द्रयेइफ़ ने ही शुरू किया। 1897 में वकालत पास करने के बाद पत्रकार बन गए। पत्रकारिता के दौरान ही कहानियाँ लिखने लगे। मकसीम गोरिकी ने और चार्ल्स डिकेन्स ने इनकी कहानियों की प्रशंसा की और युवा लेखक के रूप में इनकी प्रतिभा को पहचाना। मकसीम गोरिकी ने तो अपने ’ज्ञानबोध प्रकाशन’ में इन्हें सहायक सम्पादक बना लिया। जीवन में दो बार आत्महत्या की कोशिश की। प्रेम में असफल होने के बाद दूसरी बार छाती में गोली मार कर मरने की कोशिश की। इन्हें बचा लिया गया, लेकिन उनके दिल में छेद हो गया, जिसकी वजह से सारी ज़िन्दगी बीमार रहे। और इसी दिल की बीमारी की वजह से 12 दिसम्बर 1919 को इनका देहान्त हो गया। इन्हीं के एक पुत्र दनील अन्द्रयेइफ़ रूस के बड़े दार्शनिकों में गिने जाते हैं।
सन 1871 में रूस के अर्योल प्रान्त में पैदा हुए लिअनीद अन्द्रयेइफ़ रूस के विश्व प्रसिद्ध लेखक हैं। इन्हें रूस का फ़्रान्ज काफ़्का माना जाता है। इनका लेखनकाल भी क़रीब-क़रीब वही है, जो काफ़्का का है। यह हम हिन्दी के पाठकों का दुर्भाग्य ही है कि सोवियत सत्ता काल में रादुगा प्रकाशन और प्रगति प्रकाशन ने इनकी कहानियों और लघु उपन्यासों का कोई संग्रह प्रकाशित नहीं किया। अब जब अँग्रेज़ी से अनुवाद करने वाले पंजाबी भाषी अनुवादकों की जगह सीधे रूसी से अनुवाद करने वाले कुछ हिन्दी-भाषी अनुवादक सामने आ गए हैं, तो लिअनीद अन्द्रयेइफ़ की कहानियों का अनुवाद भी प्रकाशित करने की योजना बनी है। हिन्दी में इनकी कोई कहानी सबसे पहले वेब-पत्रिका ’पहली बार’ में सामने आई थी । जल्दी ही इनकी कहानियों का एक संग्रह हिन्दी में सामने आएगा।" तो आइए आज हम पढ़ते हैं लिअनीद अन्द्रयेइफ़ की एक और कहानी ’पहाड़ सिंह'। इस कहानी का अनुवाद किया है अनिल जनविजय ने।
०००

पहाड़ सिंह

मूल कहानी- लिअनीद अन्द्रयेइफ़
अनुवाद - अनिल जनविजय 

… आयो रे आयो, पहाड़सिंह आयो
अरे ! ये तो बहुत बड़ा है। सच में ये तो विशाल है। पहाड़ की तरह खड़ा है। आ ही गया आख़िर ये पहाड़सिंह। कितना बेढंगा है ये, पहाड़ की तरह एकदम ऊबड़-खाबड़। इसके हाथ तो देखो ज़रा ! कितने मोटे और लम्बे हैं। और हाथों की उँगलियाँ, केंचुओं की तरह अजीब-सी फैली हुई हैं। और पाँव जैसे हाथीपाँव। पेड़ के तने की तरह मोटे और लम्बे। हऊआ है हऊआ…अरे ! अरे ! यह तो गिर पड़ा ! आते-आते ही गिर पड़ा ! मेरे प्यारे मुन्ने तुम क्या समझे ! क्या हुआ इसको ! इसका सारा दमखम किधर गया ? ऐ पहाड़सिंह, क्या हुआ रे ? तू मुन्ने को देखकर डर गया क्या ? जीने में चढ़ने से पहले ही ठोकर खाकर धड़ाम से गिर गया। धड़ाम-धड़ाम ! और अब देखो, नीचे सीढ़ियों के पास फ़र्श पर खड़ा है, टेढ़ा-मेढ़ा पड़ा है। और इसका तो मुँह खुला हुआ है…।
अरे देखो, देखो। है न मज़ेदार बात ! शाबाश, मुन्ना शाबाश ! वोह मारा बदमाश। ढूह का ढू्ह। ये बदमाश है बेवकूफ़। देखो है कितना कुरूप। ऐ पहाड़सिंह, तू यहाँ आया ही क्यों ? आदमी का रूप धर लिया ज्यों। ऐ बहुरूपिया, जा… भाग यहाँ से। मेरा राजा बेटा है दोदिक। बहुत प्यारा और बहुत अच्छा है दोदिक। बैठा है यहाँ मेरी गोदिक। अब सीने से चिपका है मेरे। देख रे लुटेरे। यह मेरा फ़रिश्ता है नन्हा। मैं इसे कहती हूँ कान्हा। कितना सुन्दर है बेटा मेरा…।
दोदिक की आँखें हैं निर्मल और मासूम। और नाक है इसकी पिद्दी। बेहद चंचल और होशियार, लेकिन है बहुत ज़िद्दी। अपने घोड़े पर होकर सवार, जब निकले ये बाँध तलवार। जाँबाज़ का पहन के बाना। घर भर में करता है हँगामा। इधर-उधर भागता रहता है। घर भर में नाचता रहता है। अब ये शरारत नहीं करता। घर में महाभारत नहीं करता। नहीं तो, ऐ पहाड़सिंह, तू भला क्या चीज़ है ! तू तो नाचीज़ है। देखेगा मुन्ने का दमखम। उठाएगा क्या यह जोख़म। लाड़ला मेरा बहादुर है। उसके सामने तू महिषासुर है। सब इसे प्यार करते हैं। सब पहाड़सिंह इससे डरते हैं…।
दोदिक के पास एक घोड़ा है। जो दोदिक का ही जोड़ा है। जब दोदिक घूमने जाता है। उस पर सवार हो जाता है। नदी किनारे जाकर दोदिक। घोड़े पर धूम मचाता है। कभी नदी से पकड़ मछलियाँ। उन्हें भूनकर खाता है। मछली क्या होती है, रे दानव। तू क्या जाने, रे अतिमानव। अरे तू तो अक़्ल का दुश्मन है। पर बेटा मेरा प्रदुमन है। मछलियाँ उसको भाती हैं। वो जल-जीवन की थाती हैं। वो पानी में तैरने वाली। फुर्तीली चंचल रंगबाती हैं। जब धूप पानी में आती है। वो जल-इंद्रधनुष बनाती है…।
ऐ पहाड़सिंह, तू फूहड़ है। माथे तेरे पड़ गया गूमड़ है। सीढ़ी पर चढ़ने से पहले गिरा। ठोकर खाकर हुआ अधमरा । ये तो सच में है बेवकूफ़। देखो है कितना कुरूप ! मूरख, मूढ़, ओ गर्दभ जान। आया यहाँ तू क्यों हैवान। बेटा मेरा है सुलतान। वो तेरी तरफ़ न देगा ध्यान। जा भाग यहाँ से ओ हाथी-कान…।
दोदिक मेरा बड़ा पाजी है। अच्छा और प्यारा हाजी है। अपनी माँ का वो प्यारा है। दोदिक माँ का दुलारा है। वो उससे मोहब्बत करती है। माँ दोदिक पर ही मरती है। वही उसका चन्दा सूरज है। उसका बहादुर सौरज है। दोदिक तो आँखों का तारा है। पूरी दुनिया में न्यारा है। दोदिक में माँ की जान बसे। माँ की चलती हैं तब साँसे ,जब दोदिक रहता है उसके पास। दोदिक है उसका बेटा ख़ास। अभी छोटा है दोदिक नन्हा-मुन्ना। दोदिक है माँ का रतन-पन्ना। जब दोदिक बड़ा हो जाएगा। माँ पर जान लुटाएगा। दोदिक बनेगा नेक इनसान। ज्ञानवान और दुनिया की शान। अम्मा की होगा आन-बान औ’ शत्रु से करेगा घमासान। होगा शरीफ और दरियादिल। बुद्धिमानों का बुद्धिमान। प्यार करेंगे उसको सब जन। जनता का बनेगा वो दिनमान…।
हर रोज़ सुनेगा पक्षी कलरव। सबके लिए मन में होगा सद्भव। उसे देख कोयल करेंगी कुह-रव। सब जन तब बेहद ख़ुश होंगें। होगा कोलाहल और जन-रव। जीवन खुशियों से होगा भरपूर। सब दुख हो जाएँगे चूर-चूर। चमकेगा मेरा कोहिनूर। महक उसकी होगी रस-कपूर। जब नदी किनारे जाएगा। जल-गीत वह सुन पाएगा। पिएगा पानी ओक भर-भर। हो जाएगा आत्मनिर्भर। फिर वो ब्याह रचाएगा। वधू एक सुन्दर लाएगा। जीवन का संगीत सुनेगा वर। पौत्रों से भर जाएगा घर। मैं दादी-अम्मा बन जाऊँगी। पौत्रों को लोरी सुनाऊँगी कि दुनिया कितनी नेक है। सूरमाओं का करती अभिषेक है। ख़ुशियाँ इसमें अनेक हैं...।
— अरे… अरे… अरे… मेरी नन्ही जान ! मेरे लाड़ले बेटे ! मेरी पहचान। यह रोग तेरा दूर हो जाएगा। तू फिर से खेलेगा-खाएगा। दौड़ेगा-भागेगा तू हरदम। कभी मुझसे अलग न हो पाएगा। चिपका रखूँगी तुझे सीने से। तू जल्दी ही चंगा हो जाएगा। दोदिक, बेटा रात हुई। देख शुरू बरसात हुई। कमरे में बहुत अँधेरा है। बाहर बारिश का डेरा है। सुन बेटा, सुन यह कल-कल। छोड़ न जाना मुझे एकल। मन मेरा है बहुत बेकल। तड़ित-सा तू चंचल है। मेरे जीवन की हलचल है। तू ही मेरा आँचल है। जीवन का नीलांचल है। इस दामिनी-सा तू चमकेगा। सौदामिनी बनके झमकेगा। तू मेरे जीवन की चपला है। ये ईश्वर भी करता घपला है। बन जा तू अग्निशाला। तू वज्र उठा ले सूर्यबाला। अब ईश्वर से तेरी लड़ाई है। बस, यही एक कठिनाई है। ये कठिनाई तू पार करेगा। तू मेरा कन्हाई है। जीत के जब तू आएगा। पहनाऊँगी तुझे सूर्यमाला…।
हाँ ! हाँ ! हाँ ! अरे पहाड़सिंह, तू यहीं खड़ा है दहाड़सिंह ! तेरी तो हड्डी-हड्डी चमके। लगता है तू हाड़सिंह। लम्बा है कितना, एकदम विशाल। गिरजे से ऊँचा है। ये है कमाल। मज़ेदार है कितना पहाड़सिंह। आते ही गिर पड़ा उजाड़सिंह। अरे अक़्ल के दुश्मन पहाड़सिंह। तू तो है सबकुछ बिगाड़सिंह। मैं तुझसे ये पूँछूँ कि तू गिरा कैसे ? बोला जवाब में उखाड़सिंह — मैंने दोदिक की आवाज़ सुनी। ऊपर देखा, गिर पड़ा अचानक। बन गया मैं तो पछाड़सिंह…।
देखो ! देखो ! पहाड़सिंह आया और धम से गिर पड़ा। कितना मज़ेदार है यह पहाड़सिंह !
ये सारी बातें, एक  माँ अपने मरते हुए बच्चे को अपने हाथों में पकड़े, उसे अपने सीने से लगाए, उसे बहलाते हुए कमरे में घूम-घूमकर कह रही है। बग़ल वाले कमरे में बच्चे का पिता माँ की ये लोरी सुनकर रो रहा है।
दोदिक ही उनकी एकमात्र ख़ुशी है।
मूल रूसी भाषा से रूपान्तरण : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’विलिकान’
(Леонид Андреев — Великан)

विक्रम सिंह की कविताऍं

              

 

महीने की तनख्वाह

                  

महीने की तनख्वाह में, 

आखिर मेरा हिस्सा कितना ?

कुछ दिये दूध वाले को,

कुछ हिस्सा गया परचून वाले को,

कुछ सब्जी वाले को,

कुछ पैसा ले जाती हैं बर्तन, कपड़ा धोने वाली मासी। 

कुछ हिस्सा मकान मालिक का,

कुछ बच्चों के स्कूल, ट्यूशन फीस

और दवा दारु में।

तो मेरा हिस्सा कहां ? 












अंत में मेरी जमा पूंजी से बने घर में 

क्या केवल मैं रहा ? 

नहीं अपितु 

इसमें रहती है चिड़ियां,

रहती है छिपकलियां,

रहती है बिल्लियां,

किसी कोने में चूहें भी,

तिलचट्टे भी,

रहती है चीटियां भी,

रहते है मेरे बच्चे,

मेरी पत्नी,

बच्चो का अपना कमरा। 

अंत में हिसाब करने बैठा, 

पता चला अब मेरे हिस्से क्या ?

नहीं है, 

मेरी कोई हिस्सेदारी, 

सब बांट देना है हिस्सों में, 

क्योंकि, 

मैं हूं, 

महज़ महीने की तनख्वाह। 

०००


सस्ता क्या है


अब लगने लगा है 

किताब पढ़ना कठिन है

उसे लिखना आसान!


अब लगने लगा है

किताब बेचना कठिन है

प्रकाशन गृह खोलना आसान


अब पाठक बनना कठिन है

लेखक बनना आसान


अब लगने लगा है कि 

झूठ बोलना कठिन है

सच बोलना आसान!


शहर में रहना कठिन है

जंगल में रहना आसान


अब लगने लगा है 

पेट्रोल, सब्जी, मकान, गाड़ी

लेना महंगा है, 

किसी की जान लेना सस्ता!


फल लेते वक़्त 

फल वाले से पूछा,

यार, सस्ता फल कोई नहीं है 

तुम्हारे पास? 

पहले तो वह मुसकराया 

फिर बोला -  सस्ती है गर कुछ

तो है वह इनसान की जान!

०००


परिचय 

जन्म : १ जनवरी १९८१ को जमशेदपुर (झारखण्ड)  में

शिक्षा: ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा


0 देश भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  कहानियाँ  प्रकाशित

0 प्रकाशित कहानी  संग्रह : 

" और कितने टुकड़े"(२०१५) 

प्रकाशित उपन्यास -"अपना खून","लक्खा सिंह",मऊ जंक्शन

फ़िल्म-निर्माण - "पसंद-नापसंद" (शॉर्ट फिल्म) "वजह''(शॉर्ट फिल्म)

अभिनय:- "त्वमेव सर्वम्" (शॉर्ट फिल्म)

पी से प्यार फ से फरार (हिंदी फीचर फिल्म)

"मेरे साँई नाथ," (हिंदी फिल्म)

पसंद-नापसंद (शॉर्ट फिल्म)

 लेखन और अभिनय

वजह(शॉर्ट फिल्म)- लेखन और अभिनय

एक अजनबी शाम - मुख्य भूमिका

पुरस्कार:-

* बेस्ट स्टोरी (मधुबनी फिल्म फेस्टिवल)

* अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस (हमीरपुर, हिमाचल फिल्म फेस्टिवल)&

*आउट स्टैंडिंग अचीवमेंट अवॉर्ड (टैगोर इंटरनेशनल शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल)

*बेस्ट शॉर्ट फिल्म  ऑन सोशल अवॉर्नेस (पिंक सिटी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल)

*अवॉर्ड फेस्टिवल स्पेशल मेंशन (चंबल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल)

*बोरोलीं द्वारा कोलकाता कोलकाताइंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर, "त्वमेव सर्वम" शॉर्ट फिल्म फिल्म के लिए।

*हैदराबाद फिल्म एसोसिएशन द्वारा 

बेस्ट एक्टर, "त्वमेव सर्वम" शॉर्ट फिल्म फिल्म के लिए।

संपर्क : बी-११, टिहरी विस्थापित कॉलोनी, हरिद्वार, उत्तराखंड-२४९४०७

ईमेल: bikram007.2008@rediffmail.com