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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 दिसंबर, 2017


रीता दास राम  की कविताएँ




कविताएँ

एक  

नाम लिखकर अपना 
लिख दी कविता 
पंक्ति पंक्ति बड़ी होती कविता ने 
नाम बदल दिया 
पहचान बदल दी 
कविता ने कहा वह सब 
जो कह ना पाया कवि खुद से 
कविता शब्दों का अर्थ थी 
अर्थ आसमानी थे 
शब्दों के रंग सत्य थे 
परिभाषित घोषित सत्य से लड़कर जुझारू बन रहे थे 
सत्य को बदलने की साज़िश 
वर्तमान प्रक्रिया है  
जो धूप में पक रही है   
छांव देख रही है  
सदियाँ बदली और उतर गई 
सरसराती नदी से क्षितिज तक 
जहाँ सत्य की सोई मादाएं रंभाती है 
जनती है जब जब पुकार 
बनती है जब जब पुकार 
इस देश में आवाज़ों से 
गाय बनने की इल्तिजा जारी है 
बहुत गहरी सामाजिक आस पर धता बताती 
सदाओं की गणिकाएँ 
शब्दों के देह रचती है 
रचती है सत्य की 
अघोषित आस्थाएं 
कविता में उतरती है जब जब। 

दो ..

पेड़ की तरह मत बढ़ो तुम 
जड़ों के नीचे छोड़ कर गहराई 
बढ़ो साज़िश की तरह अचानक 
उगो जैसे सभ्यता पर गर्व 
नए पन की रोशनी और सत्य की आभायुक्त 
चाँद की शीतलता हो दंभ मात्र पहलू में 
हो स्वीकारोक्ति अभिव्यक्ति का सिंचित बिंब 
हो वक्रिय अनुपातीय तंग बिन्दु की खनक 
हो रेखाओं के मध्य का संचालन 
तुम बढ़ो कि बढ़त को आने लगे लाज़ 
बढ़ते रहो कि नाप का टूटे अभिमान 
शेष न कोई बिन्दु जो रिक्त का मानदेय हो 
देखो कि दीप की ज्योति का सच सिर्फ़ जलना न हो 
फैलो कि प्रकाश का फैल कर अंधेरे से मिलना न हो 
प्रकाश और अंधेरे के बीच की दीवार न हों विस्तारित 
कि दोनों की व्याखाएं गूंजने का सबब ढूँढती रह जाय 
देखो कि क्या यह देखना है जरूरी कि सत्य की गूँज लौट कर आए उसी रूप में 
उसी रूप में हो प्रकाश की प्रखरता 
उसी रूप में हो जीना भ्रम नहीं  
हो बनी वैसे ही जीने की चाह 
आदमी आदमी को पहचानता तो हो 
बच्चों जीने से पहले सोचो एक बार ..... । 









तीन ...

बच्चा है समाज़ 
नहीं छीनी किसी बच्चे से 
हमने उसकी साँसे 
समाज़ की साँसे 
उस बच्चे में बंद है 
जो अभी अभी जन्मा है 
बच्चा सांस ले रहा है 
रो रहा है 
चुप हो रहा है बच्चा 
पूरा समाज़ देख रहा है 
देख रहा है 
पूरा समाज़ उस बच्चे में 
अपना बिंब-प्रतिबिंब 
किसी ने भी नहीं छीनी किसी बच्चे से उसकी साँसे 
जैसे हवा छीन लेती है वह गंध 
ठीक आने से पहले 
भर रहा होता है जो उमस 
ताज़गी विश्वास की बारीकियाँ जानती है  
समय कर देता है कई भेद 
मौसम को हटाता और मिटाता भी है   
बुन देता है रोशनी का तेज़ 
दिन-रात की थाप पर 
थकावट के संग 
सिल लेने के बाद व्यथा 
संवेग की छवि के जश्न में 
उल्टी सीधी रेखाएँ खींचकर  
दौड़ते-हाँफते हफ़्ते और साल की कवायद 
एक दिन तार-तार हो 
छिछली नदी के धार पर 
औंधे पड़े मिलते हैं  
समाज़ पूरे सम्मान के साथ तितर-बितर 
रेशे-रेशे करते चरितार्थ 
बिखराव और संवेगों के शांत कोलाहल में 
चलने रुकने के लिए आतुर 
एक रीता मन सिर्फ़ हमारा है  
और है कुछ सहेजने-जुडने की संधियाँ। 


चार ...

लड़की पर कविताएं लिखनी बंद कर दी है  
बंद कर दिया रोना 
धीरे-धीरे टूटना भीतर-भीतर 
नफरत थी उमस से 
जो बदलाव न आने से थी 
मुझे सब बदलना है 
अपनी सूरत के साथ 
जमी हुई ज़िद और धूप के रेशे भी बदलने हैं 
बदली और कोहरे की 
धीमी सी मठमैली रंगत भी 
बदलनी है साँसे 
जो थके चेहरे से ली जाती है 
विचलित धूप से 
आती वह नज़रे बदलनी हैं  
बदलना है बदला हुआ शब्द 
शब्द के उच्चारण बदलने है 
जो भाषा के 
बदलने पर बदल जाते है 
समाज़ में रखनी है 
मिट्टी जो मिट्टी सी हो 
अलग पहचान जो धरातल को 
पूरे रौंद देने के बावजूद 
अपनी हवा पर 
रखते हुए अपनी जमीन पर पैर 
चलना सीखना नहीं बल्कि 
अलग सी चाल का सौंधापन 
खुशबू सा फैलाने के बाद 
बनना है जीत 
और उससे जुड़ी सारी हारें 
करनी है जब्त 
शीर्षक देते हुए 
उस किताब का  
‘सदी की गुजरी औरतें’। 




पांच ... 

प्रेम जाने अंजाने 
भाव, संदर्भ, संज्ञान और ख्यालात संग  
एक पूर्ण योजना के तहत 
ख़ारिज कर देने की सुविधा के साथ 
सोचा समझा संधि वक्त है 
दो टुकड़े दिल 
पूरी निर्दयता से लगभग बेचे जज़्बात 
न करते हुए प्यार 
जीते है प्यार को 
पूरी आत्मीयता के साथ 
प्यार प्यार ही रहा व्यापार के बिना 
मेरा उसके साथ 
उसका उसके साथ 
मैंने देना उसने लेना सीखा 
लेते देते रहे हम 
पूरी ईमानदारी के साथ 
जब तक बोझिल नहीं हुए 
थक जाने के बाद 
प्यार प्यार नहीं व्यापार नहीं 
एक आवेग था जो थम गया 
लेन बंद देना धर्म 
सन्नाटा और गुम दिशाएँ 
लेने का मतलब मैंने नहीं जाना 
उसे देने का मतलब समझाना मेरे बस की बात न थी 
कोई इंतजार न था 
न बेबसी 
समाज़ की व्यवस्था थी 
घर सड़क था 
सड़क पर खड़ी  
खुद को जिंदा पाती थी 
मरा हुआ अपना चेहरा  
देखा था पिछली सदी में 
इस सदी की थी या अगली की होना चाहती थी 
जिंदा होने का मतलब 
जानने के लिए बेताब थी 
प्रेम में जिंदा होना मरने की तैयारी सा लगता था 
अपने घर में मर जाने के बावजूद 
खुद को जिंदा देखना चाहती थी 
ज़िंदगियों की ख़ातिर मरना स्वीकारा था  
फिर किया जीवित खुद को शब्दों में खामोश 
वाक्यों में खामोश 
और किताबों में गुम गई 
गुम हो गई प्रकृति लिखते हुए 
लिखते हुए खामोश 
साँसों की क़ीमत पर खामोश 
सड़क पर खड़ी खामोश 
देखती आती जाती गाडियाँ खामोश 
सीखती रही तन्मयता से 
प्रेम के दर्पण में बाल होने का अर्थ खामोश। 

छः ....

पुस्तकें अब नहीं बिकती 
इक्के-दुक्के खरीदार ही रह गए हैं  
पुस्तकों की भीड़ में 
पुस्तकों का होता है लोकार्पण 
पता नहीं चलता कौनसी पुस्तक पुस्तक है  
कौनसी है सिर्फ़ भीड़ 
पुस्तकों के अंबार में 
पुस्तकें पहचानना मुश्किल हो गया है 
पुस्तकें अब नहीं पढ़ता कोई  
नहीं जानना चाहते लोग 
भ्रमित सच्चाईयाँ  
नहीं समझना चाहते लोग 
इबारत में छिपी व्याख्याएँ 
न ही जिल्दों को 
संभाल कर रखने का 
रह गया है शौक 
न ही रह गई है 
समाज़ का आईना .... किताबें 
अब शब्द हो गए है व्यभिचारी 
अर्थ द्वि अर्थी ही है 
वक्त शब्दों से खेलता बहुत है अब भी 
लिखना हो गया है व्यापार 
गुटबाजी है लेखन  
मशहूर होना है कला 
‘साहित्य’ किसे कहते है 
बद हो रहा नाम है 
तंग है गली 
पता गुम है।




सात ...

पद्मावती खबरों में है 
पद्मावती तब भी थी 
पद्मावती आज भी है 
तब रजवाड़े थे 
अब एकल परिवार की बारी है 
घर घर में है पद्मावती 
घर घर में है रत्नसेन 
जिंदगी की दौड़ में 
पति के हारने के बाद 
जाने कितने अलाउद्दीन खिलजियों को 
याद दिला छठी का दूध 
संवारती है परिवार पत्नियाँ  
पत्नियाँ उतरती है रणभूमि में  
वक्त की आग पर 
आज की औरतें भी 
करती है जौहर 
जलने, तपने और निखरने को 
होती है तैयार 
वह एक वक्ती दौर था 
यह भी एक वक्ती दौर है 
भूतकाल के किस्से 
इतिहास की झलक 
परंपरा के नाम पर 
वर्तमान को सुलगाने की कोशिश जारी है 
जबकि शहर गाँव में 
लोग जुड़े हैं  
कसाई बनाने की कवायद तारी है।  

आठ ....

संगोष्ठियों का जमाना है 
हुजूम निमंत्रित हैं 
बड़े चाव से लोग आते हैं 
मिलते हैं 
बतियाते हैं 
कुछ गंभीर वार्तालाप भी तर्ज़ पर है 
कुछ सोते हैं 
कुछ खाते हैं 
कुछ सुनते हैं 
कुछ सुनाते हैं 
देश और विदेशों की मेजबानी हैं 
नज़रों का धोखा भी है 
विमर्श विमर्श की जगह है 
बातचीत का दौरा जारी है 
आवाज़ तन्हा है 
पुकार खाली है 
उद्घोष का इंतजार है  
कसौटी की सनक है 
पारखी को ढूँढा जाना है 
जो समय पर भारी हो  
विषय की समझ बाकी है 
समाचार तो समाचार है 
आज भी जारी है। 

नौ ...

कहने से पहले क्या सोचना जरूरी है 
सोचने की जरूरत ख़ारिज होने का उपाय है 
हम सोचते हैं उस पर 
जो हमें फ़ायदा पहुँचाता है 
उस बात पर भी जो हमें नुकसान पहुँचाता है 
क्या हम सोचे नुकसान और फ़ायदे से परे भी 
हाँ ये एक अलहदा सोच हो 
जो हमें नई सोच से जोड़े  
क्या यह एक अदृश्य शक्ति है 
जो हमें मानवता की ओर ले जाएगी  
मानवता युद्ध से परे की इंसानियत है 
जो हर बार संभव है 
जीवन की धूरी पर एक महीन सत्य 
जो हमें हम तक वापस लाती है 
मनुष्य केंद्रीय बिन्दु है 
सोचा कई प्रकार से जा सकता है 
सोचते हुए सोचते जाना भी एक कला है 
न सोचते हुए बोलते जाना भी 
सतही सोच की प्रक्रिया गहराई का बोध नहीं कराती 
गहराई गहराई हमें डूबने का संदेश देती है 
डूबना यानी मरना या मर जाना नहीं होता 
हो आकंठ धीरज़ में समा जाना 
ध्येय में जिसकी सीमा नहीं 
अनंत हो 
समष्टि हो 
आकाश हो। 





दस ....

देख रही हूँ तुम आए  
तेज़ बहुत तेज़ 
ठीक मेरी हथेली पर रखकर पाँव 
तुम आगे निकल गए 
तेज़ बहुत तेज़ 
महसूस करती रही तुम्हारा भार 
हथेली पर 
फिर नहीं लौटे तुम 
कभी देखने के लिए भी नहीं 
कि तुम्हारा कितना भार 
रखा था मेरी हथेली पर 
या कांधे पर 
या पीठ पर 
या विचार के तालु में 
तुम गुजर गए बन वक्त  
जैसे पैर के नीचे से जमीन 
सर से आसमां 
हवा को लपेटे  
खुशबू सा फैल गए आसपास 
आसपास रहते रहे माहौल में कहीं 
पर रिक्त है तुमसे मेरा वजूद 
आत्मा 
चैतन्य 
जुड़ाव खुल जाता है अंतः 
लगाव की भीनी भीनी दूरी 
आसमां को क्षितिज से दूर रखती है 
वह नहीं सूखा गीला या महीन 
गुड़ की चाशनी भी नहीं 
खट्टी इमली सा नहीं या 
थके देह में मिले सुकून सा 
नश्तर भी नहीं  
दिमाग में चुभता हुआ 
तुम्हारा होना होना कल में 
आज़ में न होना 
या बीते कल में होने से होना होने के अंत तक 
न होने के बराबर है। 

- रीदारा  




परिचय 

नाम :-  रीता दास राम 

जन्म:- 20 फरवरी 1968 नागपूर.
                                                 
शिक्षा: बी.ए.(1988),एम॰ए॰(2000),

एम॰फिल (हिन्दी) मुंबई विश्वविद्यालय (2005)
,
पी.एच.डी. शोधछात्रा (मुंबई विश्वविद्यालय)।

कविता संग्रह:-
   
1. “तृष्णा प्रथम कविता संग्रह 2012 

2.गीली मिट्टी के रूपाकार” दूसरा काव्यसंग्रह 2016 में प्रकाशित।

कहानी :- लखनऊ से प्रकाशित लमही” अक्टूबर-दिसंबर 2015 में पहली कहानी  प्रकाशित।

सम्मान :-

1. तृष्णा को शब्द प्रवाह साहित्य सम्मान 2013 में तृतीय स्थान, उज्जैन।

2अभिव्यक्ति गौरव सम्मान’ 2015-16 ‘अभिव्यक्ति विचार मंच नागदा की

ओर से नागदा में।

3. ‘हेमंत स्मृति सम्मान2016 का गीली मिट्टी के रूपाकार को गुजरात

विश्वविद्यालय अहमदाबाद में। 

विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित:-

वागर्थ जुलाई 2016,‘पांखी मार्च 2016 (दिल्ली),‘दुनिया इन दिनों (दिल्ली), ‘शुक्र

वार (लखनऊ),‘निकट (आबूधाबी),‘लमही (लखनऊ),‘सृजनलोक (बिहार),‘उत्तर प्रदेश

(लखनऊ),‘कथा’ (दिल्ली),‘अनभै’ (मुंबई),‘शब्द प्रवाह’ (उज्जैन),‘आगमन

 (हापुड़),‘कथाबिंब’ (मुंबई),‘दूसरी परंपरा’ (लखनऊ),‘अनवरत’ (झारखंड),‘विश्वगाथा


 (गुजरात),‘समीचीन’ (मुंबई),‘शब्द सरिता’ (अलीगढ़),‘उत्कर्ष’ (लखनऊ) आदि 


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