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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 दिसंबर, 2017

पड़ताल: अनुज लुगुन की कविताएं 

आशीष सिंह 







'गांव में सीआरपीएफ कैंप लग गया है '  यह सामान्य कथन नहीं है 
यह हमारे गणतंत्र का विशिष्ट कथन है  
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मेरे सामने अनुज लुगुन की एक लम्बी कविता "एक गुरिल्ले का आत्मकथन ' है । यह आत्मकथन अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे समुदाय का आत्मकथन है , बेवजह युद्ध में ढकेले जा रहे अवाम का कथन है ,  इसमें नदी की पीड़ा है , पेड़ों , बैलों व चिड़ियों का भी  दुख-दर्द  दर्ज है । जिस दुख के बारे में  अभ्रक , कम्बाइन , जैसी प्राकृतिक सम्पदा पर निगाह टिकाये राष्ट्रीय -बहुराष्ट्रीय निगमों ,उनके खैरख्वाह राष्ट्राध्यक्षों को नहीं पता है । इस दुख को अखबार का कालम रंगती पत्रकार जमात कितना जानती है ? पुलिस -फौज की गोलियों से छलनी आदिवासी युवकों -युवतियों की कई एंगिल से फोटो ले रहे फोटोबाजों  को इस  दुख की आवाज़  कितनी सुनाई नहीं पड़ती है ?शायद नहीं ही सुनाई पड़ती है , तभी तो अनुज लुगुन जैसे युवा कवि उन आवाज़ों  को शब्द देने की कोशिश कर रहे हैं । आप इसे कविता के तौर पर नहीं ,कला के उत्कृष्ट मापदण्डों पर परखने के तौर पर नहीं बल्कि देश की करोड़ों -करोड़ पददलित -वंचित और अपनी जगह -जमीन से उजाड़ी जा रही आदिवासी जमात की अनकही पीड़ा और आक्रोश के रूप में अहसास कर पायेंगे तभी  इन कविताओं में छिपे भावों को ठीक-ठाक अर्थ दे पायेंगे । महज पढ़ने के लिये नहीं  बल्कि ऐसे हालात को बदलने के लिए भी  ।यहाँ  कविता युद्ध में ठेल दिये गये बच्चे की संगाती बनकर आती है --

मैं एक कविता की
खोज में हूं
जो ढूंढ निकाले
युद्ध के मैदान में
लैंड-माइन्स ,बारुदी सुरंग
और छुपे हुए हमलावरों को

एक बच्चे की तरह
जो अपने मृत माँ -पिता
और स्वजनों के साथ ही
उस कविता के लिये रो रहा है
जो उसे वहाँ से बाहर निकाले ।

कोई भी  रचना अपने समय की गवाह तभी  बनती है ,जब वो  अपने लोगों की आवाज बन ,उनके सपनों -आकांक्षाओं को शब्द दे रही होती है । इसे कला के महीन गुंजलक में लपेटकर नहीं कहा जा सकता है न ही महीन बुनकारी से उसके ताजे तेवर को बचाये रखे जा सकता है । कला -कविता की सोद्देश्यता से तमाम कलानवीस जब नाक -भौं सिकोड़ते हैं ,उस रचनाकार की प्रतिबद्धता उन्हें कला को थोड़ा मटमैला करती लगती है ऐसे कला प्रेमियों को ये पंक्तियां असहज करती हैं ।
"पत्रकारों और पर्यटक लेखकों को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए
कि हमारी भाषाओं की अपनी अर्थ ध्वनियां हैं
जिसको वे आज तक अनुवाद के जरिये भी  समझ नही सके हैं
कि किसी चिड़ी को किस बकरी के दुख ने छापमार बना दिया है
कि समान दुख के लिए समान समाधान जरूरी है
कि तर्ज पर संयुक्त कार्यवाई हो सकती है
यह बात उन पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए
जो बार-बार एक लाश पर अपने कैमरे को टिकाये हुए
व्यवस्था की पोल खोलने का दावा कर रहे हैं
और कह रहे हैं कि
कविता में पक्षधरता और प्रतिरोध बेमानी और अनावश्यक चीज़ है
"

जो  कवि /रचनाकार कविता में सत्ता के दमनात्मक चरित्र के विरुद्ध अपनी प्रतिरोधी आवाज दर्ज कर रहे होते हैं , उनकी आवाज अपनों के बीच  ताकत बनकर आती है , वहीं मुख्यधारा की मीडिया ऐसी आवाजों की या तो अनसुनी कर देता है या उन्हें देशविरोधी बताकर विकृत रूप में आमजनमानस के बीच परोसता है । हमारे मुल्क में जहाँ झारखण्ड , उड़ीसा से लेकर अबूझमाड़ के जंगलों में अपनी परम्परागत जीवन स्थितियों को बचाने के लिए जूझ रही आबादी ,  जल ,जंगल-- जमीन का सौदा करने पर उतारू बहुराष्ट्रीय निगमों की काली करतूतों के खिलाफ़ लड़ने वाली आदिवासी जमात की आवाज़ अक्सर अपने मूल अर्थ से बदलकर हम तक पहुंच पाती है । ऐसे आवाजों को ,ध्वनियों को महसूसने वाले तमाम जनपक्षधर पत्रकारों, कथाकारों के साथ कुछ एक  युवा स्वर  उन आवाज़ों को शब्द देने की कोशिश में लगे  हैं  , उन युवाओं में आज एक  युवाकवि अनुज लुगुन का भी  है । अनुज लुगुन की कवितायें प्रतिरोध की कवितायें हैं जंगल के लोगों के दुख की कवितायें हैं । इनकी कविता  आज के अंधेरे समय में थोड़ी मोड़ी राहत की "चाँदनी " बांटते जनों के बरक्स इस अंधेरी रात को हराने वाले सूरज की महज    प्रतीक्षा  ही विकल्प नहीं है । ,बल्कि ऐसे अंधेरे के खिलाफ लड़ना है  । "गुरिल्ले का आत्मकथन " नामक कविता में वे कहते हैं कि --

' आज हम जानते हैं चाँदनी कुछ देर के लिए ही
अंधेरे को स्थगित कर सकती है
लेकिन रात को पहर भर करने के लिए सूरज ही अंतिम विकल्प है
और इस बात को जानते हुए उसके उगने की प्रतीक्षा करना
अपने ही पैरों पर खुद बेड़ियाँ डालने जैसा है
बेड़ियों को तोड़ते हुए सोचता हूं
क्या पागुर करती हुई बकरियों और बैलों को पता होता है हमारा दुख
क्या वे जानते हैं कि हम इस वक्त समान दुख और संकट के दौर से गुजर रहे हैं
कि इस गांव से बेदखल हो जाने के बाद
न उनके लिए और न हमारे लिए रह जाएगा कोई चारागाह
और उन जंगली भैंसों का क्या होगा जो हमारे टोटम हैं ,,,  केरकेट्टा ,,, ढेचुआ ,,,,, और होरल ,,,?  "


विनीता कामले


तमाम प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये हमारी सरकारें जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय निगमों के हितार्थ गांव -गांव को उजाड़ने में लगे हैं । उजाड़े जा रहे लोगों के साथ किस प्रकार एक जीवन उजड़ रहा है , उस दुख को -तकलीफ को महज "विकास "  के अधूरे चश्मे से देखने वाले बुद्धिजीवी शायद ही अहसास कर पायें । क्योंकि यहाँ आदिवासी जनसमुदाय प्रकृति के साथ ,  'नाभिनालबद्ध ' सहजीवी हैं । अन्तहीन दमन -उत्पीड़न ने जाने किस 'चिड़ी ' को जाने किस 'बकरी' के दुख ने छापामार बना दिया है ।   आये दिन अपनों की मौत  देखकर दुखी जनों के आर्तनाद को न शासक समझ सकते हैं न ही उनकी निगाह से सोचने समझने वाले बुद्धिजीवी ही । इनकी 'भाषाओं की अपनी अर्थ ध्वनियां हैं' ।  कविता -कहानी में प्रतिरोध और पक्षधरता पर सवालिया निशान लगाने वालों को न तो ऐसी कविता सहज लगेगी न ही वह जीवन जहाँ लोग अपने अस्तित्व के लिये जान जोखिम में डालकर लड़ रहे हैं
यह तकलीफ़ उन  लेखकों -पत्रकारों को समझ
में शायद ही आये ,जिनकी हर सांस और हर  अल्फाज में 'देश ' तो दिखता है लेकिन देश में मरने -खपने वाली अवाम नहीं दिखती । इस देश के अंतिम आदमी तक न्याय पहुंचाने का वायदा कर सत्ता में आयी "राष्ट्राध्यक्षों' तक "अंतिम आदमी '"  की हूक नहीं पहुंच पाती , उनके लिये एक पेड़ ,एक  नदी , एक जानवर से प्रेम करने वाले तब तक काम के नहीं हैं जब तक वे उनकी राजनीतिक बटखरे पर सेट नहीं होते  ---

    '  मैं  सुअरों ,बैलों , भैंसों और गिलहरियों के
अचानक खो जाने से सदमे में हूं
वह इन सबको अलग-अलग डर देखेगा
वह गाय के जीवन को अलग बांट देगा
और वह हिंसा का कारण बन जायेगी
वह 'गंगा' कहेगा और दूसरी नदियां सड़ जायेंगी
वह गिलहरी , जंगली भैंसे ,हाथियों और हमें
बाँट कर बताएगा जीवन की परिभाषा
जबकि हम इनके साथ ही
बेहतर दुनिया बसाना चाहते हैं "

आज देश मे जगह -जगह 'विशेष आर्थिक क्षेत्र'  बनाने के नाम पर सदियों के वासिंदे किसानों  को उनके खेतों से वंचित किया जा रहा है ।आदिवासियों को जंगलों से उजाड़ा जा रहा है ।  महज मुट्ठीभर धनपशुओं के हित में किये जा रहे ऐसे "विकास  "तमाम लोगों को रोजगार , जीवन की गारंटी और बेहतर जिंदगी के सपने दिखाकर किये जाते हैं , जबकि वास्तविकता यह है कि आज पहाड़ से लेकर जंगल तक इस "इकतरफा विकास " से लहुलुहान हैं । ऐसे में  एक आबादी चाहे -अनचाहे एक ऐसे युद्ध में धकेली जा रही है जिसका कोई समाधान साफ-साफ नजर नहीं आता ,क्योंकि यहाँ  लड़ाई इस तंत्र के आमूलचूल बदलाव को लेकर नहीं  बल्कि इस तंत्र से उपजी अव्यवस्थाओं के खिलाफ़ ज्यादा है वह भी  बिखरी हुई लड़ाई । लेकिन यह लड़ाई लड़ रहे लोगों के जीवन की शर्त है कि वे लड़े ,चाहे -अनचाहे ---

"वह कहता है कि
हम युद्ध कर रहे हैं
हम जानते हैं कि
हम युद्ध में जाने से खुद को रोक रहे हैं "

इस देश में मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे 'गुरिल्ले ' अपने आत्मकथन में कहता है कि जिंदगी की लड़ाई वही लड़ सकते हैं जो जिंदगी को बेइन्तिहा प्यार कर सकते हैं । जिंदगी के गीत गाते लोगों को देखकर आततायी हमेशा भौंचक नजर आता है , उसे जिंदगी के गीत गा रहे लोग डराते भी  हैं --

"मैं हर वक्त
घिरा होता हूं मृत्यु से
तब भी  गीत गाता हूं
मुझे गीत गाता देख
उलझन में पड़ जाती है मृत्यु
वह सोचने लगती है कि
मुझे निशाना बनाये या गीत को "

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए हमें अनायास कात्यायनी और गोरख पाण्डेय की कविताओं की मुखर आवाज़ हमारे आसपास गूंजती नजर आने लगती है ।   अनुज लुगुन अपनी कविता का विकास कलावादी कसीदाकारी की परम्परा से जोड़ कर नहीं बल्कि जनपक्षधर परम्परा से जोड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश करते मिलते हैं । इसी के साथ वे अपने जगह-जमीन और परिवेश से जीवन की जद्दोजहद दर्ज करते हैं । उनकी कविता का स्वर वाह्यजगत से अन्तर्जगत की ओर प्रस्थान करने का नहीं बल्कि उनका अन्तर्जगत अपने वाह्यजगत से सतत एका बनाता मिलता है । अपनी गौरवशाली संघर्ष मयी इतिहास का स्मरण भी  वे इसी रूप में करते हैं । वे कहते  हैं कि ---

"  हम जानते हैं कि हमारी कविता शब्दों की मरुभूमि से नहीं उगती
और न ही हम रेत के टीले पर घर बनाने के हिमायती हैं
यहाँ हमारे पुरखों के साथ खड़े 'ससन दिरी ' जानते हैं
"जीवित होने ' का एहसास
साल के वृक्षों को पता है जन्म का उत्सव
हरवैये बैल समझते हैं खेती के दिनों की बोली "

अनुज लुगुन  की कविता  "धरती "को धरती बनाये रखने ,मनुष्य को मनुष्यता  वापस सौंपने और 'आगामी पीढ़ियों को  हवा ,पानी और जंगल  '  और ' मादल को गीत लौटाना चाहती है । लेकिन उस आने कल के लिये आज जूझ रहे ,शहीद हो रहे युवाओं की याद हमारी लड़ाई  को ताकत दे जाती है । हर बार हम अपने कठिन समय पर सोचते हैं ,और सोचते हैं अपने कठिन संघर्ष के बारे में भी  । शहीद विलियम लुगुन को याद करते हुए 'उनके कब्र पर जाते हुए " कविता में सदियों का संचित गुस्सा लिए पहुंचते हैं लोग । पैरों में छाले लिये आंखों में अपने लोगों के लिये आंसू छुपाये जब अपने साथी की कब्र पर पहुंचते हैं तब वहाँ कोई आवाज़ नहीं  ,न ही कोई पुकार है --

कब्र पर सिसकियों का सन्नाटा है
वहाँ खड़ी आकृतियाँ ही भाषा हैं
वे बात करती हैं कब्र के लोगों से "

कब्र के लोगों से बात करने को अभिशप्त लोगों की तकलीफ हार मान लेने के लिये नही बल्कि  जिस बदलाव की लड़ाई वे लड़ रहे हैं उस लड़ाई को और धारदार तरीके से लड़ने की बाबत सोच रहे हैं । यह शहीदी अंदाज़ कविता अपनी भावनात्मक तेवर लिये हमसे मुखातिब है ।  अनुज लुगुन की कविता का तेवर हमें बार -बार  बतौर  कविता एक छापामार की भावनाओं को , लड़ रही आबादी के अगुआ दस्ते के मकसद को व्यक्त करती मिलती है । यह इनकी कविता की ताकत भी  है और पहुंच भी  । वे अपने आस -पास और देश -दुनिया में किसी भी  किसिम की मानव विरोधी हरकत को दर्ज करने से चूकते नहीं है । लेकिन हर घटना वह चाहे जितनी संगीन या दिल दहला देने वाली ही क्यों न हो रचना में  ढलते समय लेती है या यूँ कहें कि जरूरी नही जिन खामियों से एक व्यवस्था को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है उन खामियों को त्वरित रचनात्मक विषय बना पाना आसान नहीं है । अनुज लुगुन की "आक्सीजन ' नामक कविता इसी साल  गोरखपुर के बी आ डी अस्पताल से लेकर देश के कई एक अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से होने वाले बच्चों की मौतों के सवाल को उठाती है । यह कविता रिपोर्टिंग ज्यादा लगती है ।शासन -सत्ता की घनघोल लापरवाही और आपसी लूट के चलते मारे गये सैकड़ों बच्चों की मौत क्या शासन द्वारा नृशंस हत्याकांड के रूप दर्ज किया जाएगा--
'
  खबरें छपती हैं बच्चों के मरने की
सड़कों पर
गड्डों में
स्कूलों में
नृशंस हत्या नहीं कहलाती
न ही उस देश के  प्रधान सेवक को
इस बात का अफसोस होता है कि
बच्चे मर रहे हैं
इसका मतलब है कि
कहीं न कहीं
उसके समय में जीवन की सम्भावनायें घट रही हैं "

    जिन युवाओं ने सन् सत्तर के जमाने में अपने सामने आ खड़े हुए चुनौतियों का सामना करने के लिये  किसान संघर्ष के सिपाही बने थे । जिसे बाद के इतिहास में 'नक्सलवाड़ी किसान विद्रोह ' के रूप में याद किया जाता है । कवि अनुज लुगुन अपने को उस पीढ़ी से जोड़ते हुए आज के समय में उन विचारों की जरुरत शिद्दत ज्यादा से ज्यादा महसूस करता है । क्योंकि आज हुकूमत उस समय से ज्यादा दमनकारी और हिंसक स्वरूप अख्तियार करने पर उतारू है । आज किसान के बेटे जिनके सीने पर खाकी वर्दी चढ़ी है क्या अपने हक-हकूक की खातिर लड़ रहे किसानों के बेटों पर अपनी गोलियां चलाने से थोड़ा भी   झिझकते हैं ? आज हमारी सरकार हर असंतुष्टी को खतरनाक मंशा से जोड़ देने में मुब्तिला है , ऐसे में क्या गणतंत्र सचमुच बच पारहा है । ऐसे ही सवालों को उठाते हुये वे अपनी कविता " मेरे गांव में सीआरपीएफ कैंप लग गया है  "  में कहते हैं कि --
"
     'गांव में सीआरपीएफ कैंप लग गया है ' यह सामान्य कथन नहीं है
यह हमारे गणतंत्र का विशिष्ट कथन है
अक्सर यह समाधान वाचक की तरह इस्तेमाल होता है
जब भी  शासकों को डर लगता है
वे गणतंत्र  के ऊपर मंडरा रहे खतरों की बात करते हैं
और किसी भी  गांव में सीआरपीएफ कैंप लगवा देते हैं   "

एक रचनाकार अपनी जगह -जमीन से कितने गहरे जुड़ा है ,यह उसके सरोकारों से पता चलता है  ,उसके घोषित उद्देश्यों के बरक्स उसके और उसके अपनों के जीवन में आरहे बदलावों को वह कितनी शिद्दत से दर्ज करता है । अक्सर शहर  की चकाचौंध में गुम हो चुके हमारे हितुओं को हमारे जीवन की छटपटहट , हमारी आवाजें बहुत देर में और रूक-रूककर सुन पड़ती हैं । जब जंगलों में ,गांवों में जहाँ अभ्रक -बाक्साइट के लिये , अकूत प्राकृतिक सम्पदा के लिये जो बाज़ार सजाये जाते हैं  ऊसके तार दूर देशों तक फैले होते हैं । लेकिन इन बाजारों में जीवन की बेहद जरूरी चीज़ें नही मिलती बल्कि  हमारी जरुरतों को पूरा करने वाले संसाधनों को बेचने -रखाने के लिये सैनिक अड्डे जरुर मिलते हैं । नदियों पर बांध , अभ्रक -कम्बाइन -बाक्साइट और पहाड़ों को काटते उखाड़ते लोहे के दैत्य ,इन्हें कवि 'फूल की तरह खिलते देखता है ' जिन फूलों को बचाने और बेचने के लिये ' सैनिकों के स्कूल खुले हैं ' । ध्यान रहे ये स्कूल बच्चों को बारहखड़ी नहीं सिखाते बल्कि उन्हें 'गुरिल्ला ' युद्ध सीखने -सिखाने की ओर ठेल रहे होते हैं । अपने लोगों की ये बेबसी और साम्राज्यवादी ताक़तों की इन करतूतों को भला कोई कैसे भूल सकता है और कब तक ? 'शहर के दोस्त के नाम पत्र' नामक कविता में अनुज लुगुन विश्व बाजार की दुनिया से जोड़े रहे अपने गांव  को उजाड़े जाते देख रहा है । इतना बड़ा बाज़ार लेकिन कोई सगा नहीं है ,हमारी एक -एक चीज़े जा रही हैं  बाज़ार में ---

'कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबर फैल रही है कि
मेरा गांव भी  यहाँ से जाने वाला है "

अपने दोस्त को लिखे जा रहे खत में अपने गांव -जवार की गाथा ,त्रासदी लिखकर कवि चुप नहीं  रह जाता । आदिवासी समाज आदिम उत्पादन सम्बन्धों से उठाकर सबसे आधुनिकतम उत्पादन सम्बन्धों की दुनिया में फेंक दिया जाता है ।  इन असमान सम्बन्धों के बीच कितने जीवन अकाल मौत मरते हैं , कितने जीवन बेदर्दी से कुचल दिये जाते हैं इसका आकलन किसके पास है । और इन मौतों को किस युद्ध में मारे जारहे लोगों की मौत क्यों न माना जाये । इस लूटखोर तंत्र  के  चलते उजाड़े गये जन जिन्हें उत्पादन के उन्नत साधनों पर काम करना नहीं आता , जो पेट की आग बुझाने के लिये शहरों में मरने -खपने को अभिशप्त हैं उनका ख्याल रखने की चिंता करते हुए कवि अपने दोस्त से कहता है कि --

"शहर में मेरे लोग  तुमसे मिले
तो उनका ख्याल जरुर रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ !
उन्हें शहर का रीति-रिवाज़ भी  तो नहीं आता

मेरे दोस्त
उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूं ।"

रात में नींद और नींद में फौजी आहटों की दस्तकों के बारे में , तमाम किचकिच और हाड़तोड़ काम के बाद आरही नींद के बारे में , सोते-सोते अचानक कल के बारे में सोचकर उचटती नींद के बारे में हम बात नहीं करना चाहते । क्योंकि ये बातें हमारी रातों में खलल डालती हैं । प्रेम में डूबी कविता में आरही नींद जो अपने सबसे खूबसूरत क्षणों में अचानक हमसे छिटक जाती है । इन यंत्रणाओं को हम कविता में व्यक्त करने के बावजूद ये हमसे अलग हटकर सवाल करती हैं कि आखिर ये देश किसका है और यह देश कितना मुझमें है और मैं इस देश में कितना हूं । जिन्हें जाँच -पड़ताल के नाम पर सरे रात उनके घरों से उठा लिया जाता हो ,जिन्हें विरोध करने की कीमत अपने जननांगों में पत्थर और चेहरों पर तेजाब उडेले जाने से चुकानी पड़ती हो उन उजड़ी आँखों की नींद की कीमत कौन अदा करेगा ? '"प्रेम कविता की रात में " कवि कहता है ---

" हम घुल जाना चाहते हैं ब्रह्माण्ड में
हमारे होंठ एक दूसरे के होंठों को ढूंढते हैं
दाँत कहीं गड़ा देना चाहते हैं खुद को मासूमियत से
उंगलियाँ उलझ जाना चाहती हैं रम्य घाटियों और जंगलों में
लेकिन तभी  अचानक दस्तक होता है दरवाजे पर उस आदेश का
फौजी बूटों और राइफलों से हमारे दरवाजों को पीटा जाता है
और हमारे काम का आठ घंटा आठ सदी की यंत्रणा में बदल जाता है "


अनुज लुगुन

अनुज लुगुन की कविताओं में आदिवासी जीवन की संघर्षशील छवि है तो देश -दुनिया के तमाम दुखी और सताये लोगों से एका बनाने की ,साझे दुखों और साझे दुशमनों को समझने  पहचान भी  कराती हैं । यहाँ प्रेम करती  स्त्री किसी चाँद की मांग पर अपने वजूद और रंग को नहीं भूलती और न ही अपने गांव से बाहर आकर काम करती स्त्री अपने लोगों और अपनी मूल पहचान को भूलती है । यहाँ चूल्हों में खौलते सपने हैं , तो अपनी आभा से अपनी श्रम सौंदर्य से जीवन को सुंदर बनाने में मुब्तिला है । "औरत की प्रतीक्षा में चाँद ", 'गरीब मंच की औरतें '  ,    चुल्हों की दुनिया '  की स्त्रियों  का तेवर  अपने परिवेश की चुनौतियों से जूझते आदिवासी स्त्रियाँ  हैं जो ---
'वह एक औरत है ' जानती है वह
'वह एक आदिवासी है' जानती है वह
वह जानती है उन जगहों के बारे में
जहाँ कैंप लगते हैं
जहाँ मुठभेड़ होती है
वह जानती है बारिश के बारे में
रुगडा -खुखडी झूमते हैं
पीतल की हो या
पैलेट की हो बारिश तो
( पुतलियों की बारिश हो तो )
जिन्दा आँखें गरजती हैं

इस प्रकार हम पाते हैं कि युवा कवि अनुज लुगुन की कविता  आत्मकेंद्रित मनोवेगों की कविता नही है , न ही मुख्यधारा के नाम पर तमाम कला-कोविदों की अनुगामी बनाने को उतारू कवि की कविता है बल्कि इस कवि की कविता व्यापक सरोकारों से लैस मुक्ति का आह्वान करते कवि की कविता है । जिनमें उसका समय और उसकी समय की जरूरी आवाजें दर्ज मिलती हैं । अनुज लुगुन की कुछ एक कविताओं पर दर्ज हो रही टिप्पणी का समापन करते हुए हम जरुर दर्ज करना चाहेंगे कि गुरिल्लों के आत्मकथन में महज मनुष्यों को बचा लेने की चाहत नहीं बल्कि हमारी सहजीवि जीवन को उनकी पूरी खुशबु के साथ बचा लेने और जी लेनी की चाहत से भरी हुई है । उसका उद्बोधन यूँही नहीं है कि --

"  ओ !  फूलों पर लोटती हुई तितली
ओ! जुगनूओं की दादी
देखो ,छोटी चिड़ी ने
अभी -अभी  एक बच्ची को जन्म दिया है
क्या हमें उसके लिए गीत नहीं गाना चाहिए ,,,,?

जुगनू ,तितली,फूल ,पेड़ ,नदी ,जंगल
सभी  जानते हैं हमारी उम्र इसी तरह बढ़ती है । "
            (   गुरिल्ले का आत्मकथन )

               ---
आशीष  सिंह 
  लखनऊ


अनुज लुगुन की कविताएँ नीचे दिए गए लिंक पर पढ़े 
http://bizooka2009.blogspot.in/search/label/%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%9C%20%E0%A4%B2%E0%A5%81%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81

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