पड़ताल: सुषमा सिन्हा की कविताएँ
इन्कार के हौसले की कविताएं
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नवनीत शर्मा
सुषमा सिन्हा जी की कविताओं को पढना एक ऐसे रास्ते से गुजरना है जो सीधा प्रतीत होते हुए भी हमेशा कुछ नया लिए हुए होता है...रोकता है...चौंकाता और कहीं बड़ी शाइस्तगी के साथ टोकता भी है। कविता की भाषा में कहें तो बेहद उम्दा और विज्ञापन की भाषा में यह कि ये कविताएँ जोर का झटका बहुत धीरे से देती हैं। मैं उनकी सघन और शिद्दत के साथ लिखीं प्रेम विषयक कविताएं पढ़ कर यह सोच ही नहीं पाया कि उनके पास विषयों की कमी नहीं है और वह समचूी संवेदना का संसार अपनी कविताओं में लिए हुए हैं। उनकी कविताओं की कुछ विशेषताओं में अव्वल तो यह है कि वे लाउड नहीं हैं। दूसरी बात यह भी कि उनकी कविताएं साहित्यिक जुगाली से दूर हैं, भाषा के स्तर पर भी और शिल्प के स्तर पर भी।
उनकी एक विता है 'दांव'। इस कविता में काव्य तत्व भी है और कथारस भी। ...ऐसा लगता है एक पौराणिक आख्यान उठाया है तो देखें कविता कहां पहुंची.... लेकिन कविता ऐसी जगह पहुंची जहां एक आत्मविश्वास है...परपीड़क इतिहास के प्रति विकर्षण है और एक साहसिक क्रांति है। उसे कृष्ण का पता नहीं होना, बड़ी बात इसलिए है कि उसे अपनी कबा खुद ही लंबी कर अपने आप को बचाना है। कविता को अगर सर्वश्रेष्ठ शब्दों का सर्वश्रेष्ठ तरतीब में चयन कहा जाता है तो दांव को उल्टा डालने वाली यह कविता उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। जमीन के इतनी निकट कि सच्चाई की खुशबू आये। इस कविता का अंत बताता है कि रास्ता भीड़ से ही निकलता है।
'आज फिर
एक आदमी ने जुए में
अपनी पत्नी को दाँव पर लगाया
और हार गया
उसकी पत्नी को
महाभारत की कहानी से
कुछ लेना-देना नहीं था
न ही वह द्रौपदी जैसी थी
और न ही उसे किसी कृष्ण का पता था
खुद के दाँव पर लगने की खबर सुन
थोड़ी देर कुछ सोचा उसने
फिर अपने घर के बाहर
खड़ी हो गई गड़ासा ले कर !'
वास्तव में रास्ता भीड़ से डर कर नहीं, उसे चीर कर निकलता है।
एक कविता है दुनिया का सच....मुझे परवीन शाकिर का एक शे'र याद आया :
मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और फिर भी जीत जाएगा...............
आज स्त्री विमर्श के कई आयाम खोले जा रहे हैं। उन सबके बीच महिलाओं के सपनों और उनकी विवशताओं पर बहुत अच्छी कविता है यह :
सौ कारण बताकर
हमारी बेटियाँ
इस दुनिया को बुरी बताती हैं
और दुखी हो जाती हैं
अगले ही पल
सिर झटक कर कहती हैं
जैसे कमर कस रही हों
'आखिर रहना तो इसी दुनिया में है'
और अपने-आप में व्यस्त हो जाती हैं !
हजार कारण बताकर
हमारी माँएँ
इस दुनिया को खूबसूरत बताती हैं
जीवन के प्रति विश्वास दिलाती हैं
तसल्ली देती हैं हमें
और फिर देर तक
डरती, सहमती, सशंकित होतीं
स्वयं अंदर तक थरथराती हैं !!
मांएं जानती है कि इस वातावरण में जीवन के प्रति विश्वास बनाए रखना ही एकमात्र हल है भले ही वह सच को जान कर कांपती और थर्राती हैं। कई तरह के मामले उदाहरण हैं लेकिन जीने के प्रति उत्साह कम न हो, यह बड़ा सरोकार निभाती हैं ये कविताएं।
एक और कविता है सफेद झूठ। यह कविता स्त्री को बेचारगी या उस भावुक स्थिति की तरफ नहीं ले जाती जहां उसका जाना अमूमन तय होता है। परवीन शाकिर की तरह यह कवयित्री चुपचाप किसी के झूठ को सच नहीं मानेगी। यह सुषमा सिन्हा के कवि का आत्मविश्वास और उसकी अना है कि वह उसके खेमे में नहीं गईं बल्कि अपने सच पर अड़ी रहीं।
'तस्वीर के इस तरफ खड़ी मैं
बताती रही उसे
कि यह बिल्कुल साफ और सफेद है
तस्वीर के उस तरफ खड़ा वह
मानने से करता रहा इंकार
कहता रहा
कि यह तो है खूबसूरत रंगों से सराबोर
मूक तस्वीर अपने हालात से जड़
खामोशी से तकती रही हमें
उसे मेरी नजरों से कभी न देख पाया वह
ना मैं उसकी आँखों पर
कर पाई भरोसा कभी
खड़े रहे हम
अपनी अपनी जगह
अपने अपने सच के साथ मजबूती से
यह जानते हुए भी
कि झक-साफ़-सफेद झूठ जैसा
नहीं होता है कहीं, कोई भी सच !!'
कृष्ण बिहारी नूर जैसे उस्ताद शायर ने शायद इसी मौके के लिए लिखा था कि
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतेहा ही नहीं
ये कविताएं कैसे बेहतरीन सपनों की कविताएं हैं, यह बताती है उनकी कविता 'बेहतरीन सपने'। इस कविता के दो हिस्से हैं। पहला वह जहां एक संदेश चल रहा है...मां मैं आपकी तरह नहीं बनूंगी। यानी कुछ विपरीत नहीं सहूंगी, अपनी पहचान बनाऊंगी....देखिए :
'बेटी अपनी आँखों से
देखती है इंद्रधनुष के रंग
और तौलती है अपने हौसलों के पंख
फिर एक विश्वास से भरकर
अपनी माँ से कहती है-
'मैं आपकी तरह नहीं जीऊँगी !'
मुस्कुराती हैं माँ
और करती हैं याद
कि वह भी कहा करती थीं अपनी माँ से
कि 'नहीं जी सकती मैं आपकी तरह !'
माँ यह भी करती हैं याद
कि उनकी माँ ने भी बताया था उन्हें
कि वह भी कहती थीं अपनी माँ से
कि 'वह उनकी तरह नहीं जी सकतीं !'
शायद इसी तरह
माँ की माँ ने भी कहा होगा अपनी माँ से
और उनकी माँ ने भी अपनी माँ से......
कि 'वह उनकी तरह नहीं जीना चाहतीं !'
..... लेकिन अंत में यह सार है दूसरे हिस्से का कि जो माएं न कर सकीं वह बेटी ही कर दे:
तभी तो
युगों-युगों से हमारी माँएँ
हमारे इंकार के हौसले पर मुस्कुराती हैं
और अपने जीवन के बेहतरीन सपने
अपनी बेटियों की आँखों से देखती हैं !!'
लेकिन यह कविता बिना बोले काफी कुछ कह जाती है। क्या बेटी मां बनने के बाद अपनी मां से कही बात पूरी नहीं कर पाती? कर पाती है। एक बदलाव जो समाज में कुछ दशकों से आआया है, वह दिख ही तो रहा है, लेकिन माँ होना कहीं न कहीं आशंकित होते रहना है। खास बात यह कि कविता के ऊपर जो चलता है उतना ही सब कुछ कविता के अंदर चलता है। यहीं हमें इन कविताओं की विलक्षणता और सफलता का पता चलता है।
एक और कविता है घबराहट। इसे पढ़ कर कवि की संवेदना के स्तर का पता चलता है। इतनी घनीभूत और इतनी द्रवित होने वाली कि अमीर मिनाई याद आ जाएं :
खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है
घबराहट का एक रूप देखिए...................
'बढ़ती जा रही है भीड़ रास्तों पर
घबराए हुए लोग भाग रहे हैं इधर-उधर
भाग रही हूँ मैं भी उनके साथ
रास्ता कभी घर की ओर का लगता है
कभी लगता कि जा रही हूँ काम पर
भागते-भागते पड़ी नज़र
एक बूढ़े व्यक्ति पर
जो झोला टाँगे, डंडा पकड़े
चला जा रहा था धीरे-धीरे
धक से हुआ मन
जा रहे हैं पिता कहाँ इस तरह ?
अब तो उनसे चला भी नहीं जाता
मुड़-मुड़ कर टिक रही उनपर नज़र
भागती हुई झट पहुँची उन तक
ओह !! नहीं... ये मेरे पिता नहीं....
पर किसी के तो पिता हैं !'
इसी तरह किसी की मजबूर मां को देखने पर वह कह उठती हैं :
'नहीं- नहीं....यह मेरी माँ नहीं....
पर किसी की तो माँ हैं !'
या
' नहीं.. इनमें मेरे बच्चे नहीं.....
पर किन्हीं के तो बच्चे हैं !'
'बेचैन हो कर रो पड़ी हूँ बेसाख्ता
और फिर भागने लगी हूँ बेतहाशा... '
और अंत में यह कि :
'क्या हुआ मम्मा ? ....आप डर गईं क्या ?'
झिंझोड़ कर उठा रही मुझे मेरी बिटिया !!'
किसी भी मज़लूम को देख कर अगर यह भाव मन में आए...कि यह मेरा नहीं पर किसी का तो है....यही संवेदना का विस्तार है। उसकी पराकाष्ठा है। यही कवित्व है।
और याद रखिए कि कविता की शुरूआत यहां से हुई है : 'बढ़ती जा रही है भीड़ रास्तों पर'
आदमी बहुत हैं लेकिन इन्सान नहीं। गालिब याद आए :
बहुत दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।
और बशीर बद्र भी :
घरों में नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला ।
ये कविताएं इन्सानियत की पैरवी करने वाली कविताएं हैं। सुषमा जी को हार्दिक बधाई।
-नवनीत शर्मा
सुषमा सिन्हा की कविताएँ नीचे दिए गए लिंक पर पढ़ सकते है
https://bizooka2009.blogspot.in/search/label/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82
इन्कार के हौसले की कविताएं
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नवनीत शर्मा
नवनीत शर्मा |
सुषमा सिन्हा जी की कविताओं को पढना एक ऐसे रास्ते से गुजरना है जो सीधा प्रतीत होते हुए भी हमेशा कुछ नया लिए हुए होता है...रोकता है...चौंकाता और कहीं बड़ी शाइस्तगी के साथ टोकता भी है। कविता की भाषा में कहें तो बेहद उम्दा और विज्ञापन की भाषा में यह कि ये कविताएँ जोर का झटका बहुत धीरे से देती हैं। मैं उनकी सघन और शिद्दत के साथ लिखीं प्रेम विषयक कविताएं पढ़ कर यह सोच ही नहीं पाया कि उनके पास विषयों की कमी नहीं है और वह समचूी संवेदना का संसार अपनी कविताओं में लिए हुए हैं। उनकी कविताओं की कुछ विशेषताओं में अव्वल तो यह है कि वे लाउड नहीं हैं। दूसरी बात यह भी कि उनकी कविताएं साहित्यिक जुगाली से दूर हैं, भाषा के स्तर पर भी और शिल्प के स्तर पर भी।
उनकी एक विता है 'दांव'। इस कविता में काव्य तत्व भी है और कथारस भी। ...ऐसा लगता है एक पौराणिक आख्यान उठाया है तो देखें कविता कहां पहुंची.... लेकिन कविता ऐसी जगह पहुंची जहां एक आत्मविश्वास है...परपीड़क इतिहास के प्रति विकर्षण है और एक साहसिक क्रांति है। उसे कृष्ण का पता नहीं होना, बड़ी बात इसलिए है कि उसे अपनी कबा खुद ही लंबी कर अपने आप को बचाना है। कविता को अगर सर्वश्रेष्ठ शब्दों का सर्वश्रेष्ठ तरतीब में चयन कहा जाता है तो दांव को उल्टा डालने वाली यह कविता उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। जमीन के इतनी निकट कि सच्चाई की खुशबू आये। इस कविता का अंत बताता है कि रास्ता भीड़ से ही निकलता है।
'आज फिर
एक आदमी ने जुए में
अपनी पत्नी को दाँव पर लगाया
और हार गया
उसकी पत्नी को
महाभारत की कहानी से
कुछ लेना-देना नहीं था
न ही वह द्रौपदी जैसी थी
और न ही उसे किसी कृष्ण का पता था
खुद के दाँव पर लगने की खबर सुन
थोड़ी देर कुछ सोचा उसने
फिर अपने घर के बाहर
खड़ी हो गई गड़ासा ले कर !'
वास्तव में रास्ता भीड़ से डर कर नहीं, उसे चीर कर निकलता है।
एक कविता है दुनिया का सच....मुझे परवीन शाकिर का एक शे'र याद आया :
मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी
वो झूठ बोलेगा और फिर भी जीत जाएगा...............
आज स्त्री विमर्श के कई आयाम खोले जा रहे हैं। उन सबके बीच महिलाओं के सपनों और उनकी विवशताओं पर बहुत अच्छी कविता है यह :
सौ कारण बताकर
हमारी बेटियाँ
इस दुनिया को बुरी बताती हैं
और दुखी हो जाती हैं
अगले ही पल
सिर झटक कर कहती हैं
जैसे कमर कस रही हों
'आखिर रहना तो इसी दुनिया में है'
और अपने-आप में व्यस्त हो जाती हैं !
हजार कारण बताकर
हमारी माँएँ
इस दुनिया को खूबसूरत बताती हैं
जीवन के प्रति विश्वास दिलाती हैं
तसल्ली देती हैं हमें
और फिर देर तक
डरती, सहमती, सशंकित होतीं
स्वयं अंदर तक थरथराती हैं !!
मांएं जानती है कि इस वातावरण में जीवन के प्रति विश्वास बनाए रखना ही एकमात्र हल है भले ही वह सच को जान कर कांपती और थर्राती हैं। कई तरह के मामले उदाहरण हैं लेकिन जीने के प्रति उत्साह कम न हो, यह बड़ा सरोकार निभाती हैं ये कविताएं।
एक और कविता है सफेद झूठ। यह कविता स्त्री को बेचारगी या उस भावुक स्थिति की तरफ नहीं ले जाती जहां उसका जाना अमूमन तय होता है। परवीन शाकिर की तरह यह कवयित्री चुपचाप किसी के झूठ को सच नहीं मानेगी। यह सुषमा सिन्हा के कवि का आत्मविश्वास और उसकी अना है कि वह उसके खेमे में नहीं गईं बल्कि अपने सच पर अड़ी रहीं।
'तस्वीर के इस तरफ खड़ी मैं
बताती रही उसे
कि यह बिल्कुल साफ और सफेद है
तस्वीर के उस तरफ खड़ा वह
मानने से करता रहा इंकार
कहता रहा
कि यह तो है खूबसूरत रंगों से सराबोर
मूक तस्वीर अपने हालात से जड़
खामोशी से तकती रही हमें
उसे मेरी नजरों से कभी न देख पाया वह
ना मैं उसकी आँखों पर
कर पाई भरोसा कभी
खड़े रहे हम
अपनी अपनी जगह
अपने अपने सच के साथ मजबूती से
यह जानते हुए भी
कि झक-साफ़-सफेद झूठ जैसा
नहीं होता है कहीं, कोई भी सच !!'
कृष्ण बिहारी नूर जैसे उस्ताद शायर ने शायद इसी मौके के लिए लिखा था कि
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतेहा ही नहीं
ये कविताएं कैसे बेहतरीन सपनों की कविताएं हैं, यह बताती है उनकी कविता 'बेहतरीन सपने'। इस कविता के दो हिस्से हैं। पहला वह जहां एक संदेश चल रहा है...मां मैं आपकी तरह नहीं बनूंगी। यानी कुछ विपरीत नहीं सहूंगी, अपनी पहचान बनाऊंगी....देखिए :
'बेटी अपनी आँखों से
देखती है इंद्रधनुष के रंग
और तौलती है अपने हौसलों के पंख
फिर एक विश्वास से भरकर
अपनी माँ से कहती है-
'मैं आपकी तरह नहीं जीऊँगी !'
मुस्कुराती हैं माँ
और करती हैं याद
कि वह भी कहा करती थीं अपनी माँ से
कि 'नहीं जी सकती मैं आपकी तरह !'
माँ यह भी करती हैं याद
कि उनकी माँ ने भी बताया था उन्हें
कि वह भी कहती थीं अपनी माँ से
कि 'वह उनकी तरह नहीं जी सकतीं !'
शायद इसी तरह
माँ की माँ ने भी कहा होगा अपनी माँ से
और उनकी माँ ने भी अपनी माँ से......
कि 'वह उनकी तरह नहीं जीना चाहतीं !'
..... लेकिन अंत में यह सार है दूसरे हिस्से का कि जो माएं न कर सकीं वह बेटी ही कर दे:
तभी तो
युगों-युगों से हमारी माँएँ
हमारे इंकार के हौसले पर मुस्कुराती हैं
और अपने जीवन के बेहतरीन सपने
अपनी बेटियों की आँखों से देखती हैं !!'
लेकिन यह कविता बिना बोले काफी कुछ कह जाती है। क्या बेटी मां बनने के बाद अपनी मां से कही बात पूरी नहीं कर पाती? कर पाती है। एक बदलाव जो समाज में कुछ दशकों से आआया है, वह दिख ही तो रहा है, लेकिन माँ होना कहीं न कहीं आशंकित होते रहना है। खास बात यह कि कविता के ऊपर जो चलता है उतना ही सब कुछ कविता के अंदर चलता है। यहीं हमें इन कविताओं की विलक्षणता और सफलता का पता चलता है।
एक और कविता है घबराहट। इसे पढ़ कर कवि की संवेदना के स्तर का पता चलता है। इतनी घनीभूत और इतनी द्रवित होने वाली कि अमीर मिनाई याद आ जाएं :
खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है
घबराहट का एक रूप देखिए...................
'बढ़ती जा रही है भीड़ रास्तों पर
घबराए हुए लोग भाग रहे हैं इधर-उधर
भाग रही हूँ मैं भी उनके साथ
रास्ता कभी घर की ओर का लगता है
कभी लगता कि जा रही हूँ काम पर
भागते-भागते पड़ी नज़र
एक बूढ़े व्यक्ति पर
जो झोला टाँगे, डंडा पकड़े
चला जा रहा था धीरे-धीरे
धक से हुआ मन
जा रहे हैं पिता कहाँ इस तरह ?
अब तो उनसे चला भी नहीं जाता
मुड़-मुड़ कर टिक रही उनपर नज़र
भागती हुई झट पहुँची उन तक
ओह !! नहीं... ये मेरे पिता नहीं....
पर किसी के तो पिता हैं !'
इसी तरह किसी की मजबूर मां को देखने पर वह कह उठती हैं :
'नहीं- नहीं....यह मेरी माँ नहीं....
पर किसी की तो माँ हैं !'
या
' नहीं.. इनमें मेरे बच्चे नहीं.....
पर किन्हीं के तो बच्चे हैं !'
'बेचैन हो कर रो पड़ी हूँ बेसाख्ता
और फिर भागने लगी हूँ बेतहाशा... '
और अंत में यह कि :
'क्या हुआ मम्मा ? ....आप डर गईं क्या ?'
झिंझोड़ कर उठा रही मुझे मेरी बिटिया !!'
किसी भी मज़लूम को देख कर अगर यह भाव मन में आए...कि यह मेरा नहीं पर किसी का तो है....यही संवेदना का विस्तार है। उसकी पराकाष्ठा है। यही कवित्व है।
और याद रखिए कि कविता की शुरूआत यहां से हुई है : 'बढ़ती जा रही है भीड़ रास्तों पर'
आदमी बहुत हैं लेकिन इन्सान नहीं। गालिब याद आए :
बहुत दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।
और बशीर बद्र भी :
घरों में नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला ।
ये कविताएं इन्सानियत की पैरवी करने वाली कविताएं हैं। सुषमा जी को हार्दिक बधाई।
-नवनीत शर्मा
सुषमा सिन्हा |
https://bizooka2009.blogspot.in/search/label/%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%AE%E0%A4%BE%20%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%B9%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82
नवनीत जी, मेरी कविताओं पर आपकी यह टिप्पणी मेरे लिए बेहद अनमोल है। क्या कहूँ ?? निःशब्द हूँ। यह मेरी संवेदना का मान है। आभार या शुक्रिया शब्द बहुत छोटे पड़ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसत्यनारायण जी, आपने मेरी कविताओं को अपने ब्लॉग में स्थान दिया और कुछ कविताओं को अपनी आवाज़ भी दी है। जो यादगार और सहेजे जाने योग्य है। आप दोनों का स्नेह पा कर अभिभूत हूँ।
स्तब्ध कर दिया इन कविताओं ने। बिल्कुल हमारे आसपास की घटनाओं,चीज़ों को विषय बना कर बहुत बड़ा कैन्वस पेश करती हैं ये कविताएं। सुषमा सिन्हा जी को उन की धारदार लेखनी के लिए बधाई।
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