पड़ताल:
तिब्बत के दिल के गड्ढे
प्रमोद पाठक
ये कविताएँ कविताओं की शक्ल में प्रार्थनाएँ हैं। ऐसी प्रार्थनाएँ जो तिब्बत के दु:ख में शामिल होने पर उपजी हैं। इनमें तिब्बती समुदाय के दिलों में छिपे दर्द पर मरहम लगाने और उसे साझा करने का मन्तव्य मौजूद है।
पहली ही मुलाकात में ये कविताएं तिब्बती समुदाय के दिल के गड्ढों को महसूस कर लेती हैं और अपने पाठक तक पहुंचा देती हैं। ये कविताएं तिब्बत के दिल की तह तक पहुंचती हैं और एक समुदाय के तौर पर उसके दिल की हालत बयां करती हैं। गालों के गड्ढों को सुन्दरता से जोड़ कर देखे जाने की रिवाज है कविता उसी सौन्दर्य के मानक को सिर के बल खड़ा कर देती हैं और उसमें दिल के गड्ढे महसूस लेती हैं।
कविता की संवदेना उसे समर्थ बनाती है कि वह पेड़-पौधों, पत्थरों, जीव-जन्तुओं सभी से संवाद कर सके। तभी वह पत्थर व मिट्टी के मर्म को समझ पाती है। एक मायने में इस तरह वह इस समूची सृष्टि से संवाद कर रही होती है। वह महीन से महीन हलचल को और सामान्य नजरों से दिखाई न देने वाले व आम तौर पर महसूस न होने वाले भाव को भ्ाी पकड़ लेेेेती है, महसूस कर लेती है यही उसकी ताकत है। फिर चाहे मिट्टी के दिल की ही बात क्यों न हो या फिर पत्थरों का सहमापन। यही वह संवेदना है जो इनमें काव्यत्व से पैदा करती है।
ल्हासा से ले जा रही हूँ
सहमे सिकुड़े कुछ पत्थर
जिनपर कभी उगी थी घास
कुछ सूखी मिट्टी
बुझे दिल से जो
बाजरा पैदा करने का
फ़र्ज़ अब भी निबाह रही है
आजादी ऐसी आकांंक्षा है जिसे लेकर अक्सर कविता के आह्वाहनात्मक व बहुत लाउड हो जाने के खतरे हो सकते हैं लेकिन यहाॅँ उसे भी कविता अपनी उसी संवेदना के साथ हम तक पहुॅँचा पाने में समर्थ रहती है। इसीलिए इन्हें कविता की शक्ल में प्रार्थनाएॅं कहा है। और कहें तो मौन प्रार्थनाएॅँ। अपने कहन के साधारणपन में भी अपनी इस संवेदना के चलते यह सघनता की नई देहरी लांघती चली जाती हैं-
मन किया
पहुँचा दूँ थोड़ी.सी मिट्टी
धर्मशाला और बीजिंग भी
या अपने बच्चों को सुँघा दूँ
जिससे समझ पाए वे क़ीमत
आज़ाद धरती पर जनमने की ।
दुख के साझापन के बावजूद हर दुख की तड़प और वेदना में एक निज होता है उस दुुुु:ख की तीव्रता को वह इस तरह महसूस करवाती है कि आप उस घायल मन से एकदम साक्षात कर लेते हैैं -
तुमने भी तो भोगा है यही दर्द
फिर भी
छुबा पहनकर भी
नहीं पहुँच सकती तुम
‘छुबा’ में छुपी
हमारी घायल आत्मा तक।
इन कविताओं में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा न होकर अस्तित्व के संकट की ओर इशारा किया गया है। यह कविताएॅँ मनुष्य और प्रकृति के दु:ख को एक-दूसरे के दु:ख के विस्तार के रूप में देखती हैं। और इस मायने में मनुष्य की संवेदना का विस्तार करती हैं कि वह मनुष्य के दु:ख को व्यापक संदर्भों में समझ सके। धरती ही न बची तो कहाॅँ बचेेेेगा मनुष्य और कहाॅँ बचेगी मनुष्यता और उससे जुड़ी विकास जैसी तमाम धारणाएॅँँ। आज बहुत जरूरी है कि मनुष्यता पर संकट को हम धरती पर संकट के व्यापक सदर्भों में समझें।हमारी संवेदना के भौंतरे होते चले जाने का एक कारण शायद खुद को धरती का उपभोक्ता मान लेने में छुपा है। आज मनुष्य अपने ही गढ़े संकट के ऐसे विशाल बबूले पर सवार है जो कभी भी फट सकता है। इन कविताओं में एक सधाव है। वे इतना मन्द बोलती हैं कि आपको उनकी चीत्कार बड़े ध्यान से सुननी पड़ती है। वे अपने पाठक से भी उतना ही संवेदनश्ाील होने की माॅँग करती हैं।
विकास पखेरू की पाँखों पर
सुखाते नहीं नदियाँ
कलकल ए छलछल की
राह नहीं काटते
ठिकाने अपने बदल लेते हैं
तुम गटक गए हमारी नदियाँ
सटक गए पेड़.पौधें
निगल गए हमारी संतानें
फट पड़े हमारी तिब्बत की धरती
उससे पहले हमें छोड़ दो
हवा, मिट्टी और धूप के साथ
यूँ हीं
कविता गुप्ता की कविताएं इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है:
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/kgkavigmail.html?m=1
यह कविताएं संंवेदना पैदा करने के लिए 'संस्कृति के शव', 'मनुष्यता और संस्कृति की ममियाॅँ', 'मज़लूमों के भगवान', 'निचुड़ी उधड़ी अॅँतड़ियाॅँँ', 'गगनचुंबी मुस्कुराहटें', 'महाकाल की शवयात्रा' जैसे पद रचती हैं तो कभी 'कलकल छलछल' से ही पानी या नदी का होना पैदा कर देती है
कविता में सच कहने की ताकत ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। और सच कहने के लिए आवाज बुलंद की ही जाए जरूरी नहीं। सच को लगभग फुसफुसाते हुए इस तरह भी कहा जा सकता है कि सुनने वाले को बड़े गौर से सुनना पड़े। इन कविताओं में यह ताकत है कि वे अपने सच को सुनने के लिए हमें गौर से सुनने को बाध्य कर देती हैं -
परिक्रमा करते लोगों को देख
शामिल हो गयी हूँ मैं भी
यह सोचते हुए
कि महाकाल की शवयात्रा में शामिल हूँ
००
प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था 'रूम टू रीड' द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ कविताएँ व कहानियाँ बच्चों की प्रत्रिका चकमक व प्लूटो में. उनकी कविताएँ अहा जिन्दगी, डेली न्यूज, माटी के कविता विशेषांक, पूर्वग्रह आदि पत्र-पत्रिकाओं में तथा वैब पत्रिका प्रतिलिपी वसमालेचन में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागॉजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं और दिगन्तर, जयपुर से निकलने वाली शिक्षा की महत्वपूर्ण पत्रिका 'शिक्षा विमर्श ' के संपादक हैं.
००
सम्पर्क :
pathak.pramod@gmail.com
27 ए, एकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, 302018, /राजस्थान
मो. : 9460986289
तिब्बत के दिल के गड्ढे
प्रमोद पाठक
ये कविताएँ कविताओं की शक्ल में प्रार्थनाएँ हैं। ऐसी प्रार्थनाएँ जो तिब्बत के दु:ख में शामिल होने पर उपजी हैं। इनमें तिब्बती समुदाय के दिलों में छिपे दर्द पर मरहम लगाने और उसे साझा करने का मन्तव्य मौजूद है।
प्रमोद पाठक |
पहली ही मुलाकात में ये कविताएं तिब्बती समुदाय के दिल के गड्ढों को महसूस कर लेती हैं और अपने पाठक तक पहुंचा देती हैं। ये कविताएं तिब्बत के दिल की तह तक पहुंचती हैं और एक समुदाय के तौर पर उसके दिल की हालत बयां करती हैं। गालों के गड्ढों को सुन्दरता से जोड़ कर देखे जाने की रिवाज है कविता उसी सौन्दर्य के मानक को सिर के बल खड़ा कर देती हैं और उसमें दिल के गड्ढे महसूस लेती हैं।
कविता की संवदेना उसे समर्थ बनाती है कि वह पेड़-पौधों, पत्थरों, जीव-जन्तुओं सभी से संवाद कर सके। तभी वह पत्थर व मिट्टी के मर्म को समझ पाती है। एक मायने में इस तरह वह इस समूची सृष्टि से संवाद कर रही होती है। वह महीन से महीन हलचल को और सामान्य नजरों से दिखाई न देने वाले व आम तौर पर महसूस न होने वाले भाव को भ्ाी पकड़ लेेेेती है, महसूस कर लेती है यही उसकी ताकत है। फिर चाहे मिट्टी के दिल की ही बात क्यों न हो या फिर पत्थरों का सहमापन। यही वह संवेदना है जो इनमें काव्यत्व से पैदा करती है।
ल्हासा से ले जा रही हूँ
सहमे सिकुड़े कुछ पत्थर
जिनपर कभी उगी थी घास
कुछ सूखी मिट्टी
बुझे दिल से जो
बाजरा पैदा करने का
फ़र्ज़ अब भी निबाह रही है
आजादी ऐसी आकांंक्षा है जिसे लेकर अक्सर कविता के आह्वाहनात्मक व बहुत लाउड हो जाने के खतरे हो सकते हैं लेकिन यहाॅँ उसे भी कविता अपनी उसी संवेदना के साथ हम तक पहुॅँचा पाने में समर्थ रहती है। इसीलिए इन्हें कविता की शक्ल में प्रार्थनाएॅं कहा है। और कहें तो मौन प्रार्थनाएॅँ। अपने कहन के साधारणपन में भी अपनी इस संवेदना के चलते यह सघनता की नई देहरी लांघती चली जाती हैं-
मन किया
पहुँचा दूँ थोड़ी.सी मिट्टी
धर्मशाला और बीजिंग भी
या अपने बच्चों को सुँघा दूँ
जिससे समझ पाए वे क़ीमत
आज़ाद धरती पर जनमने की ।
गूगल से |
दुख के साझापन के बावजूद हर दुख की तड़प और वेदना में एक निज होता है उस दुुुु:ख की तीव्रता को वह इस तरह महसूस करवाती है कि आप उस घायल मन से एकदम साक्षात कर लेते हैैं -
तुमने भी तो भोगा है यही दर्द
फिर भी
छुबा पहनकर भी
नहीं पहुँच सकती तुम
‘छुबा’ में छुपी
हमारी घायल आत्मा तक।
इन कविताओं में आरोप-प्रत्यारोप की भाषा न होकर अस्तित्व के संकट की ओर इशारा किया गया है। यह कविताएॅँ मनुष्य और प्रकृति के दु:ख को एक-दूसरे के दु:ख के विस्तार के रूप में देखती हैं। और इस मायने में मनुष्य की संवेदना का विस्तार करती हैं कि वह मनुष्य के दु:ख को व्यापक संदर्भों में समझ सके। धरती ही न बची तो कहाॅँ बचेेेेगा मनुष्य और कहाॅँ बचेगी मनुष्यता और उससे जुड़ी विकास जैसी तमाम धारणाएॅँँ। आज बहुत जरूरी है कि मनुष्यता पर संकट को हम धरती पर संकट के व्यापक सदर्भों में समझें।हमारी संवेदना के भौंतरे होते चले जाने का एक कारण शायद खुद को धरती का उपभोक्ता मान लेने में छुपा है। आज मनुष्य अपने ही गढ़े संकट के ऐसे विशाल बबूले पर सवार है जो कभी भी फट सकता है। इन कविताओं में एक सधाव है। वे इतना मन्द बोलती हैं कि आपको उनकी चीत्कार बड़े ध्यान से सुननी पड़ती है। वे अपने पाठक से भी उतना ही संवेदनश्ाील होने की माॅँग करती हैं।
विकास पखेरू की पाँखों पर
सुखाते नहीं नदियाँ
कलकल ए छलछल की
राह नहीं काटते
ठिकाने अपने बदल लेते हैं
तुम गटक गए हमारी नदियाँ
सटक गए पेड़.पौधें
निगल गए हमारी संतानें
फट पड़े हमारी तिब्बत की धरती
उससे पहले हमें छोड़ दो
हवा, मिट्टी और धूप के साथ
यूँ हीं
कविता गुप्ता |
कविता गुप्ता की कविताएं इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है:
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/kgkavigmail.html?m=1
यह कविताएं संंवेदना पैदा करने के लिए 'संस्कृति के शव', 'मनुष्यता और संस्कृति की ममियाॅँ', 'मज़लूमों के भगवान', 'निचुड़ी उधड़ी अॅँतड़ियाॅँँ', 'गगनचुंबी मुस्कुराहटें', 'महाकाल की शवयात्रा' जैसे पद रचती हैं तो कभी 'कलकल छलछल' से ही पानी या नदी का होना पैदा कर देती है
कविता में सच कहने की ताकत ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है। और सच कहने के लिए आवाज बुलंद की ही जाए जरूरी नहीं। सच को लगभग फुसफुसाते हुए इस तरह भी कहा जा सकता है कि सुनने वाले को बड़े गौर से सुनना पड़े। इन कविताओं में यह ताकत है कि वे अपने सच को सुनने के लिए हमें गौर से सुनने को बाध्य कर देती हैं -
परिक्रमा करते लोगों को देख
शामिल हो गयी हूँ मैं भी
यह सोचते हुए
कि महाकाल की शवयात्रा में शामिल हूँ
००
प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था 'रूम टू रीड' द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं और कुछ कविताएँ व कहानियाँ बच्चों की प्रत्रिका चकमक व प्लूटो में. उनकी कविताएँ अहा जिन्दगी, डेली न्यूज, माटी के कविता विशेषांक, पूर्वग्रह आदि पत्र-पत्रिकाओं में तथा वैब पत्रिका प्रतिलिपी वसमालेचन में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागॉजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं और दिगन्तर, जयपुर से निकलने वाली शिक्षा की महत्वपूर्ण पत्रिका 'शिक्षा विमर्श ' के संपादक हैं.
००
सम्पर्क :
pathak.pramod@gmail.com
27 ए, एकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, 302018, /राजस्थान
मो. : 9460986289
प्रमोद को इस आलेख के लिए धन्यवाद। बहुत संजीदा तरीके से लिखा है जिससे कविताएँ पढ़ने को मन करता है। कविता गुप्ता को इन कविताओं के लिए सलाम।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएं और पठनीय आलेख। साधुवाद।
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