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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

17 दिसंबर, 2017

 कमलेश माली की कविताएँ





कविताएं

एक 

ओढ़कर बैठा हूँ

ओढ़कर बैठा हूँ मैं एक ख़ामोशी की चादर को

इस बार ख्यालो में आओ तो चुप्पी तोड़ चले जाना

कडवी लगती है वो फ्रीज़ में रक्खी मीठी लस्सी भी

बेस्वाद हो गया है नाश्ता और मेरा फेवरेट खाना

नहीं जंचती मुझे कोई भी धुन आजकल के गानों की

इस बार यादो में आओ तो कोई नयी सी धुन सुना जाना |

ओढ़कर बैठा हूँ ........

 

सूरज से दुश्मनी कर बैठा हूँ एक बात के पीछे मैं

के इस बार चाँद की चांदनी से इश्क़ लड़ाना है मुझे

पशोपेश में है मेरी सारी ख्वाहिशें अबतलक ऐसे

की पूर्णमासी की रात तुझे छत पर बुलाऊंगा कैसे

घुमने लगा हूँ हर रास्ते पर अजनबियों के तरहा

हर कोई मुझको सनकी कहने लग गया है

रातों को जागते हुए और चाँद को देखते देखते

थक गया हूँ ख्वाहिशों की आग में जलते हुए मैं

इस बार मिलने आओ तो सारी थकान मिटा जाना |

ओढ़कर बैठा हूँ .........

 

ग़ज़लें कविता लिखना भी अब कभी कभार होता है

तुमसे बात किये बगैर शायद मैं कुछ लिख नहीं पाता

अजीब कशमकश में डूबी है ये सारी दास्तानें इस तरह

खामोश तुम रहने लगी हो और मैं कुछ बोल नहीं पाता

अब तो मिलने वाले दोस्त भी ताने मरने लग गए है

के क्या काव्य सृजन का पतझड़ शुरू हो गया है ?

बरबस मेरी आँखों से बरसने लगता है बूंद बूंद

जिसको मैं अब छुपाने की कोशिश करने लगा हूँ

इस बार सामने आओ तो सारे मोती समेट कर जाना |

ओढ़कर बैठा हूँ ........



दो 

पथिक



राह चलते उस पथिक को

आँखे मेरी जब देखती है,

अमीट आस मेरे नयन से

उसकी आँखे जब देखती है ।



नही होती जिसके स्वप्न में

कोई विराट अट्टालिका,

है दृश्य उसके स्वप्न का

सुख की छोटी चादर का ,

आश्रय में जिसके उसकी जिव्हा

ग्रास कुछ सूखी रोटी करती है,

कर प्रफुल्लित मन के उसको

जो जीवन में ज्योति भरती है ।



सृष्टि को यह खबर नही है,

मीनारें उसकी डोलती है,

जब निगाह उठती पथिक की

माया की नगरी रोती है,

दीवारें अपने वैभव पर

करुण क्रंदन फिर करती है,

जिनके झूठे कायाकल्प से

आँख उसकी पर्दा करती है ।









तीन 

 मुझे पसंद नहीं



मैं तुझे चाँद नही कहना चाहता

ना ही तेरी सूरत को चांदनी

क्यूँ की चाँद को दुनिया देखती है,

लेकिन तुझे मेरी निगाहों के सिवा

कोई और इस तरहा देखे

मुझे पसंद नही ।


मैं नहीं चाहता की हम दोनों

खुली वादियों की सैर करें,

हवाएं किसी को नही बख्शती

वो किसी को भी कभी भी छू लेती है,

लेकिन तुझे मेरे सिवा कोई छुए

मुझे पसंद नही ।


मैं नहीं चाहता की तू कभी

सोलह श्रंगार करके सामने आये,

क्यूँकी तुझ पर फ़िदा होकर

हर कोई तुझे चाहने लगेगा,

लेकिन मेरे सिवा कोई तुझे चाहे

मुझे पसंद नही ।


मैं नहीं चाहता के हम भीगें

सावन की पहली बारिश में,

भीग जाने से पानी तेरी जुल्फों में

अपना अक्स खोकर उतर जायेगा,

लेकिन मेरे सिवा तुझमें कोई खो जाये

मुझे पसंद नही ।



चार 

नदी और समंदर



सालों-साल के अपने

बर्फीले आँगन को छोड़कर,

वो चल पड़ती है

हरियाली साड़ी ओढ़े,

चाँदनी का आलेप लगाए,

चट्टानों का

सुनहरा गहना पहने,

मछलियों का काजल आँजे,

फूलों की लाली

अपने अधरों पर सजाकर,

कल कल करती

पाजेब पहनकर,

हर पड़ाव पर

प्रेम बिखेरती हुई,

अपने प्रियतम के आँगन

पहुंच जाती है,

अपने पिता

पर्वत को विस्मृत कर,

तब सूर्योदय की लालिमा से

अपनी प्रेयसी की

मांग भरकर,

वह उसे

अपने आगोश में समेट लेता है,

और

इस तरह

नदी समंदर में मिल जाती है ।



पांच 

ग़ुलामियत का कक्ष



हम सब जड़ हो चुके हैं और देख रहे हैं

अपलक उस श्वेतपत की ओर,

जंहा आजाद है

कुछ काले वर्ण,

जो हमें अपना ग़ुलाम बनाए हुए हैं

हमारी सोच भी सिमट चुकी है

अब उन्हीं के इर्द-गिर्द ही |



कमरे में खिड़की तो है लेकिन

दृश्य के लिए

ना कि दर्शन को,

विचारों को तो

बंदी बना चूका है वो उपाधिधारक,

जिसके समक्ष

हमारी सोच कठपुतली बनी हुई है |

और

हम सब जुझ रहें हैं,

एक अदृश्य युद्ध से

जो छिड़ा है

हमारी आवाज़ और

सोच के बीच |

मजबूर हैं वे लोग

जिन्हें किताबों ने कैद कर लिया है,

कुछ नज़र नहीं आ रहा है उन्हें

ऐसे ही वे अंधे

ठोकर खाकर मार दिए जायेंगे |



सहसा मुझे दिखाई पड़ता है

वह मजबूर वृक्ष,

जो हाथ जोड़े खड़ा था

मानव के समक्ष, फिर भी

उसकी सांसें थामकर

इस कक्ष को

आकार दिया गया है |



मैं अब चाहता हूँ

कि किताब के पीछे की

मासूमियत को पहचाना जाये,

ढूंढ लिया जाये वो दर्द

जो अब तक

अनदेखा किया गया

विचारों की पराधीनता के चलते,

उतार दिया जाये

वो असहनीय बोझ,

जिसको हम सब 

अकारण ही ढोते चले आ रहे हैं |





                       


छ: 

गुज़रना  



मेट्रो स्टेशन पर बस का
इंतज़ार करते हुए,
मेट्रो के गुज़र जाने का गुमान नहीं होता ।



गुज़रना इंतज़ार का
और तुम्हारा
बिलकुल ही
अलग-अलग होगा मेरे लिए,
लेकिन सपनों के गुज़रने
और जिंदगी के गुज़र जाने में
अनगिनत समानताएं होंगी ।



तुम चाहो कभी मुझसे कुछ भी
तो मैं केवल
इतना ही चाहूँगा कि
गुज़रो कभी तो ऐसे गुज़रना
जैसे चुनावी वादा गुज़रता है ।



सात 

रंग और प्रतिबिम्ब



तुम्हारे दूर चले जाने के बाद
रात नहीं ढलती है
ना ही सुबह होती है,
दिन तो होता है
लेकिन वह केवल,
रात का बदला हुआ रंग है ।

बदलती रात और बदलता रंग
कोई उम्मीद नहीं, सिर्फ मौन
और एक दर्पण ;
जिसमें भी
अपनी ही आँखो का एक,
अपरिचित प्रतिबिंब दिखता है ।



तुम्हारे लौट आने से,
रात के बदलते रंग के साथ
रंग बदल जाए शायद,
दर्पण में दिखने वाले प्रतिबिंब का भी ।



आठ 

प्रतिक्रिया



तुम सब
चाय को और अच्छा
बनाने के लिए,
नमक का प्रयोग करते हो,
मैं नहीं करता ।

किसी के घाव पर
नमक छिड़कना,
अच्छी बात नहीं है ।

चाय का ऊबलना
एक दर्द भरी प्रकिया है,
और तुम
नमक डालकर कर,
व्यक्त कर रहे हो,
प्रतिक्रिया
उस प्रकिया पर ।



प्रतिक्रिया व्यक्त करना,
किसी चाय के
ऊबलने की प्रक्रिया में,
खलल डालने के समान है ।





नौ 

काश कुछ समझ पाते



मेरा सीना चीर कर प्यास बुझाते हो,

मेरी बांहे काट कर घरोंदे बनाते हो,

क्या होता है वो दर्द

काश तुम कुछ समझ पाते |



खोखला बना दिया है मेरी रूह को,

दिनोंदिन तुम्हारी इन लालसाओं ने,

क्या होता है वो खालीपन

काश तुम कुछ समझ पाते |

मेरे चेहरे को धुंए से ढक दिया,

जिस्म को रसायनों से जला दिया,

क्या होती है वो पीड़ा

काश तुम कुछ समझ पाते |



रंग ही फैला था मुझ पर प्रेम का,

नफरत से तुमने उसे लहू किया है,

क्या होती है ये मोहब्बत

काश तुम कुछ समझ पाते |

मेरा आसमां भी काला पड़ गया है,

जो कभी मेरा आईना हुआ करता था,

क्या होता है वो अपनापन

काश तुम कुछ समझ पाते |



तुम्हारी ज़रूरतों को पूरा करते हुए,

एक दिन मैं भी समाप्त हो जाउंगी,

क्या होती है ये मौत

काश तुम कुछ समझ पाते |









दस 

रंगीन परिंदा



लम्हों को लेकर आगोश में
इन सर्द हवाओं से टकराया
एक बैरंग परिंदा स्याह रात में
मंडराता हुआ उस पेड़ के पास |
 
आँखे थी उसकी चमकती हुयी
शायद ख्वाब बिछे थे वहाँ
काले विशाल से उसके पर
होसले सिमटे थे उसके जहां
देखा था शायद उसने
मंजिल का कोई निशान
साँसे थी उसकी थमी हुयी
नजरें भी थी गड़ी हुयी
एक अचूक निशाना उसका यूँ
जाकर के लगा शिकार पर
ताक़त उसकी लगी थी पूरी
अपनी मंजिल की राह पर
फिर किया उसने अंतिम प्रहार
चित करके सारी अड़चन को
कस कर जब वापस वो उडा
अपने शिकार को पंजों में
ख़ुशी थी उस आवाज़ में
बैरंग से रंगीन हो गया
उस काली स्याह रात में
अपना उजाला भर गया ।



-       कमलेश



परिचय –

  कमलेश माली
 मूलतः ग्राम झुटावद के निवासी है
 और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर रहें हैं |

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