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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 दिसंबर, 2017

अनुज लुगुन की कविताएँ










गुरिल्ले का आत्मकथन


एक..... 

मैं एक कविता की

खोज में हूँ

जो दूंढ़ निकाले

युद्ध के मैदान में

लैंड-माईन्स,बारूदी सुरंग

और छुपे हुए हमलावारों को



एक बच्चे की तरह

जो अपने मृत माँ-पिता

और स्वजनों के साथ ही

उस कविता के लिए रो रहा है

जो उसे वहां से बाहर निकाले |



दो ..
क्या युद्ध

हवाई जहाज़ों,युद्ध-पोतों,टैंकों

और अंतत: दो राष्ट्राध्यक्षों के बीच

उनके हस्ताक्षर से लड़ा जाता है.?

मैं सोचता हूँ -

अगर ‘हाँ’ तो

हम कौन सी परिस्थितियों में जी रहे हैं..?



मैं अपनी बात मीडिया

और पत्रकार बंधुओं से कहता हूँ

वे हंसते हैं कि – ‘यह मेरी मूर्खता है’

उनके लिए इससे हास्यास्पद

और क्या हो सकता है कि

मेरे घर की मुर्गियाँ खो गयी

सूअर दड़बों सहित गायब हैं

हल जोतते बैल या तो

खेत में समा गए हैं

या,खेत दब गए होंगे गोबर से

नदी अपना रास्ता बदलकर

गाँव में घुस गई होगी

या,पूरा गाँव ही नदी में डूब गया है



लेकिन मैं अपने स्वजनों को

खोजते हुएभटकता हूँ और अखबार वालों को

पहले से कई गुना ज्यादा विज्ञापन मिलने लगते हैं



मैं किसी राष्ट्राध्यक्ष को पत्र नहीं लिखूंगा

वह मेरा दोस्त नहीं है और न ही

वह मेरी प्रेम कहानी के बारे में कुछ जानता है

यह उसके लिए भी एक चुटकुला ही होगा

कि मुझे अपनी मुर्गियों से प्रेम है

जंगली लतरों ,फलों और पहाड़ों से प्रेम है

मैं सूअरों,बैलों,भैसों और गिलहरियों के

अचानक खो जाने से सदमें में हूँ

वह इन सबको अलग-अलग कर देखेगा

वह गाय के जीवन को अलग बाँट देगा

और वह हिंसा का कारण बन जायेगी

वह ‘गंगा’ कहेगा और दूसरी नदियाँ सड़ जायेंगी

वह गिलहरी,जंगली भैंसे, हाथियों और हमें

बाँट कर बताएगा जीवन की परिभाषा

जबकि हम इनके साथ ही

बेहतर दुनिया बसाना चाहते हैं

मेरे ऐसे पत्र पर वह हंसेगा और कहेगा कि

हमारी दुनिया आदिमता की काली दुनिया है



मैं अपने स्वजनों, साथियों को

मिलने के लिए कहता हूँ जंगल में

राष्ट्राध्यक्षों के शिखर सम्मलेन वाले दिन

उनसे कहता हूँ कि अब

कोई जंगल,नदी,पहाड़ और जमीन नहीं

पीछे हटने के लिए

कि एक हिस्से में आग लगी हो

तो दूसरे हिस्से में दाना चुगने चले जाएँ

हमारे बच्चे, हमारी बहनें

हमारे बूढ़े और हमारी औरतें

उसी जलती आग में रोज तपती हैं

आधुनिकता की घोर आदिम पाशविक संधि-पत्रों के खिलाफ |



 तीन ...
रोज कोई हमें धकेलता है

युद्ध भूमि की तरफ

जो हमें धकेलता है

हम उसी से

लड़ने को तैयार हो जाते हैं



वह कहता है कि

हम युद्ध कर रहे हैं

हम जानते हैं कि

हम युद्ध में जाने से खुद को रोक रहे हैं |




बिरसा मुंडा 


चार ...
एक चिड़ी जंगल की

पगडंडियों से गुजरती है

और वहीँ कहीं

होता है तिलिस्म सुरंग

चिड़ीमार उसके पदचिन्हों का पीछा करते हुए

उसके गाँव तक पहुँचते हैं

और जब तक

उसके गाँव को नहीं जलाया जाता

तिलिस्म सुरंग बारूदी सुरंग नहीं होता है |



पांच ..
चिड़ीमार मेरी बूढ़ी माँ से पूछते हैं

मेरे जंगल का ठिकाना

मेरी माँ उनसे पूछती है कि

क्या उनके बंदूक से

कोई चिड़ा मर सकता है ?



वे कहते हैं – ‘हाँ’



तो फिर मेरी माँ कहती है

उसे कुछ भी नहीं पता है |



छः ..
एक दिन एक चिड़ी

मुझसे आकर पूछी –

‘तुम अपने कंधे पर बंदूक टाँगे

रात –दिन,भूखे-प्यासे

जंगली पगडंडियों में भटकते हो

क्या तुम्हें इस तरह ख़ुशी मिलती है

जैसे मैं खुश रहती हूँ गीत गाते हुए’



तब मैंने उसे हल्की मुस्कान दी

और कहा –

‘मैं तुम्हारा ही तो गीत गाता हूँ |’

.







सात 

कुछ यूँ ही बैठा हूँ

शाम के धुंधलके में

घर की चौखट पर अकेले

सभी अपने-अपने घरों को लौट रहे हैं

मुर्गी अपने चूजों के साथ

अभी तुरंत ही दड़बे के अन्दर घुसी है

बैल,बकरी भी पागुर करते हुए

अपना-अपना स्थान ले चुके हैं

सूअर ‘घों-घों’ कर सुस्त हो चुके हैं

मैं भी खेत से अभी - अभी लौटा हूँ



यहाँ सुदूर जंगल के बीच सब कुछ स्थिर होने को है

सिवाय रात के जो लगातार गतिमान है

कभी पुरखे डर कर दुबक जाते थे जिसे काला दैत्य जानकर

वह मालगाड़ी अभी-अभी ही

इस आदिवासी गाँव से होकर गुजरी है

लोहे का कचरा ढोई रात को हार्न देते हुए

और रातभर जारी रहेगा यह सिलसिला.....



उन दिनों की तरह अब पहर का होना

और रात का होना दो अलग-अलग बातें नहीं रहीं

जब रात के दूसरे पहर चांदनी में

हाथियों का झुण्ड और जंगली भैंसे चरती थी

चाँद उन दिनों रात का स्थगन प्रस्ताव लेकर नहीं आता था



आज हम जानते हैं चांदनी कुछ देर के लिए ही

अँधेरे को स्थगित कर सकती है

लेकिन रात को पहर भर करने के लिये सूरज ही अंतिम विकल्प है

और इस बात को जानते हुए उसके उगने की प्रतीक्षा करना

अपने ही पैरों में खुद बेड़ियाँ डालने जैसा है

बेड़ियों को तोड़ते हुए सोचता हूँ

क्या पागुर करती हुई बकरियों और बैलों को भी पता होता है हमारा दुःख

क्या वे जानते हैं कि हम इस वक्त समान दुःख और संकट के दौर से गुजर रहे हैं

कि इस गाँव से बेदखल हो जाने के बाद

न उनके लिए और न हमारे लिए रह जाएगा कोई चारागाह

और उन जंगली भैंसों का क्या होगा जो हमारे टोटेम हैं ..केरकेट्टा ..ढेचुवा ..और होरल .?

एक रात रुक कर या, एक डिजिटल फ्लैश चमकाकर

नहीं लिया जा सकता है नाभिनालबद्ध सहजीवियों के साथ हमारा फोटो

पत्रकारों और पर्यटक लेखकों को यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए

कि हमारी भाषाओँ की अपनी अर्थ ध्वनियाँ हैं

जिसको वे आज तक अनुवाद के जरिये भी समझ नहीं सके हैं

कि किस चिड़ी को किस बकरी के दुःख ने छापामार बना दिया है

कि समान दुःख के लिए समान समाधान जरुरी है

की तर्ज पर संयुक्त कारवाई की बात हो सकती है

यह बात उन पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए

जो बार-बार एक लाश पर अपने कैमरे को टिकाये हुए

व्यवस्था की पोल खोलने का दावा कर रहे हैं

और कह रहे हैं कि

कविता में पक्षधरता और प्रतिरोध बेमानी और अनावश्यक चीज है



हत्याओं से सबसे ज्यादा काँपता है मानव मन

लेकिन हत्याओं के खिलाफ उसके पास सबसे ज्यादा तर्क होते हैं

हम नहीं चाहते ऐसा कोई तर्क बावजूद इसके

कि उन्हीं तर्कों से की गयी है हमारे स्वजनों और सहजीवियों की हत्या

कविता में भी आलोचक भी यही तर्क लाते है

सजाने,चमकाने और परोसने का तर्क

कैसे मैं लाऊं कविता में शिल्प,सौष्ठव और सौन्दर्य....(?)

ओह..! कितना सुन्दर है हमारा गाँव ..हमारा देस....

हमारे साथी, हमारे जंगल, ईचा बाहा और सिम्बुआ बुरू........



रात जारी है,फ़ैल रहा है अँधेरा

चाँद बहुत देर तक स्थगित नहीं कर सकता है रात को

हमारे बैल,बकरियों और मुर्गियों को पता है हमारा दुःख समान है

हम दुखी हैं कि हमारी पत्नी और बच्चे फर्जी मुठभेड़ में मारे गए हैं

और दुःख इससे भी ज्यादा यह है कि

यह बात पड़ोस के गाँव तक सही-सही पहुँचने नहीं दी जा रही

हमारी पहचान द्वीप में भटके-अटके नाविक की तरह हो रही है

बातें तो फ़ैल रही हैं लेकिन कानून के उन अनुच्छेदों की तरह

जिसकी पुष्टि के लिए बार-बार न्यायाधीशों की जरुरत होती है

न्यायाधीशों के रास्ते थकाऊ, घुमावदार और अंतहीन ...

कई पीढ़ियों से जारी है उनके यहाँ चक्कर काटने का हमारा सिलसिला ...

और मैं बैठ जाता हूँ सदियों की लम्बी थकान के बाद घर की चौखट पर ही



कुछ देर में साथी जुगनू आनेवाले हैं और मैं उनके साथ हो जाऊंगा

ओ मेरे पुरखों ! ये जुगनू तुम्हारी ही आत्मा के जीवित रूप हैं

मुझे देखो मैं जुगनुओं के साथ अपनी हथेली में भर रहा हूँ सहजीविता के गीत |



आठ 

 मैं हर वक्त
घिरा होता हूँ मृत्यु से
तब भी गीत गाता हूँ
मुझे गीत गाता देख
उलझन में पड़ जाती है मृत्यु
वह सोचने लगती है कि
मुझे निशाना बनाए या मेरे गीत को


वहाँ उस घाट पर
जब मृत्यु ने हमला किया था हम पर
तो वह हतप्रभ होकर देखने लगी थी कि
हम क्यों लड़ते हैं इतने साहस से
और क्यों नहीं उसे
अपनी इस करनी पर शर्मिन्दा होना चाहिए
वह लौट गई थी यह सोचते हुए कि
अगर इस धरती पर बो दी जाय
पके धान की खुशबू वाली गेंद
तो सभी बच्चे गोल मारते हुए जश्न मानायेंगे
और वह युद्ध में मोर्चेबंदी करने से मुक्त हो जायेगी
बच्चे अपनी गठरी में बटोरेंगे गेंद
और यह धरती गेंद खेलते
बच्चों के हरे मैदान में तब्दील हो जायेगी
उस दिन मृत्यु ने हमसे यही गीत सुना था
और वह लौट गई थी हमारे सवालों के साथ

हम जानते हैं हमारी कविता शब्दों की मरुभूमि से नहीं उगती
और न ही हम रेत के टीले पर घर बनाने के हिमायती हैं
यहाँ हमारे पुरखों के साथ खड़े ‘ससन दिरी’ जानते हैं
‘जीवित होने’ का एहसास
साल के वृक्षों को पता है जन्म का उत्सव
हरवैये बैल समझते हैं खेती के दिनों की बोली
हम यहाँ इस चट्टानी टीले के पास
या, वहाँउस घाट के पास
बैठे हुए अपनी धरती के बारे में सोचते हैं
हमें अपने बच्चों की नादानी पसंद हैं
और उनकी तोतली बोली हमें चाहती है
हम उन्हें अपनी आखों से आश्वासन देते हैं
उनके गीतों, जुगनूओं,तितलियों और सपनों के बारे में

कितनी शांति होती है यहाँ इस टीले पर

पहाड़ की तराई पर, नदी के तट पर
गीत साझा करते हुए हम सहजीवी होते हैं
कि एक पेड़ से टिकी लतर अपनी देह पर
गिलहरी को उठा कर उसे खिलाती है कोई पका फल
और नदी उकेरती है यह चित्र अपने सीने में
और पहाड़....क्या झुकते नहीं नदी की आँखों में यह सब झाँकने......!!


ओ ! फूलों पर लोटती हुई तितली
ओ ! जुगनूओं की दादी
देखो ,छोटी चिड़ी ने
अभी-अभी एक बच्ची को जन्म दिया है
क्या हमें उसके लिए गीत नहीं गाना चाहिए ..?

जुगनू, तितली,फूल, पेड़,नदी,जंगल
सभी सहजीवी जानते हैं हमारी उम्र इसी तरह बढ़ती है |



(नोट: ससन दिरि – आदिवासियों का एक सांस्कृतिक पत्थर जो हरेक मृत सदस्यों के नाम पर गाड़ाजाता है.)






अनुज लुगुन की अन्य कविताएँ बिजूका के इस लिंक पर पढ़िए 
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/11/00-00-00.html?m=1

1 टिप्पणी:

  1. व्यवस्था पर करारा प्रहार करती नज़र आती हैं अनुज लुगुन की कवितायें
    सार्थक प्रस्तुति

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