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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 दिसंबर, 2017

पड़ताल: प्रभात की कविताएं

अंजनी कुमार

कविता लय की संरचना है। लेकिन जब लय टूटने लगती है तब कविता इस संरचना से बाहर जाकर इस टूटन को ही लय बनाने लगती है। यहां से कवि की भूमिका बढ़ जाती है। उसका व्यक्तित्व कविता पर छाने लगता है।

अंजनी कुमार
कविता को कवि का व्यक्तित्व भी साथ में लेकर चलना होता है। कवि आत्ममुग्ध होता है, ‘देखो, यह मेरी कविता। भावों का कैसा संयोजन है।’ यह आत्ममुग्धता कविता को एक भिन्न तरह की पहचान देती है। कविता यह सब कुछ लादे हुए अपने समाज की जटिलता और लयबद्धता को किसी न किसी तरह पहुंचाती ही है। गीतों, ऋचाओं, गेय प्रवचनों से आगे बढ़ जाने की ललक ने कुछ गीतों ‘मंत्र’ में ढ़ाल दिया गया। इन मंत्रों से देवता पूजे जाने लगे और फिर प्रेत का आह्वान किया जाने लगा। इन्हीं मंत्रों से बदहाल हो रही जिंदगी के भविष्य को ठीक कर लेने का आश्वासन दिया जाने लगा, दुश्मनों से निपटने का माध्यम बना लिया गया। कितना कुछ इन मंत्रों भर दिया गया। एक खास तरह की लय और शाब्दिक संरचना पारलौकिक, इहलौकिक, प्रकृति, समाज और व्यक्ति तक को प्रभावित करने की ताकत हासिल कर लिया। शब्द, संरचना और उसकी लयबद्धता पर इतना भरोसा कैसे बनता गया। क्या सचमुच कविता इतना शक्तिशाली होती है? क्या कविता आज भी इसीलिए लिखी जा रही है? बहुत से लोग आज की लिखी जा रही कविताओं से दुखी हैं। कुछ उम्मीद लगाए हुए हैं। कुछ इसी से ‘आज’ की व्याख्या कर रहे हैं और इन व्याख्याओं पर कवि ही नहीं अन्य समीक्षक भी नाराज होते रहते हैं। इसी हालात में सत्यनारायण पटेल की बिजूका ने कविताओं की उनके कवियां के साथ पेश करने की श्रृंखला ही चला दी है। कविताओं का विविध संसार कागजों पर नहीं इलेक्ट्रॉनिक लेड पेज पर है। उस पर कविता और कवि का व्यक्तित्व पूरी चमक के साथ उभरता है। यह पन्नों की तरह नहीं खुलता, यह पानी की तरह बहता हुआ ऊपर, नीचे जाता है और एकदम ठोस ठहर भी जाता है। कविता और हमारा लेखन इस इलेक्ट्रॉनिक दीप्ति से लबरेज है और इसकी फिसलन में कविता और अन्य विधा की जिम्मेवारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है। कविता निश्चय ही कवि से उम्मीद करेगी। इस उम्मीद को समझना जरूरी है। वैसे ही जैसे लिखना और उसके छप जाने में जिम्मेदारी का भार कविता कवि के साथ ले चलती है। हां, यहां याद दिलाना जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक दीप्ति में चमकती कविता को डीलीट करना असम्भव है। कविता के एक एक अक्षर हजारों बिंदुओं के साथ चुंबकीय सूईयों से दर्ज होते हैं और धरती के चुंबक होने तक यह चुंबकीय लिखावट बनी रहेगी। यह कविता की अमरता नहीं है। यह हमारे अपने समय की लयबद्धता को शब्दों में उतारने की अमर कला है। यह हमसे उसी स्तर की प्रतिबद्धता की मांग कर रही है।

अवधेश वाजपेई
‘बिजूका’ पर प्रभात की कविताएं पढ़ी। उनका परिचय बताता है कि लेखन में काफी सक्रिय हैं। उनकी इन कुछ कविताओं से गुजरते हुए राजस्थान और गांव की गंध से होकर गुजरना है : ‘दूर दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत/पकी ज्वार के पेड़ों में/भुट्टों के दानेदार दुधिया फल लगे हैं सफेद-सफेद।(दूर दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत)।’ लेकिन इस खेत के होनहारों की दुनिया इतनी ही खुशनुमा नहीं है : ‘कृषक पिता और पुत्र/आए हैं गांव के अपने सूने घर में/खेतों से थके हारे आए हैं वे/रोटी तलाश रहे हैं/पत्थर के बर्तन के नीचे/चार रोटियां हैं।(नीरव)’। इस नीरव दुनिया में घर परित्यक्त हो चुका है : ‘धूल आती है यहां और यहीं की होकर रह जाती है/दिन-ब-दिन और विशाल होते जाले हैं/हर दिन कुछ और ज्यादा ढहते खिड़की के पल्ले/यहां जो सब कुछ सूखा हुआ है/ और ज्यादा सूख रहा है/छप्पर को थामे थी जो लकड़ियां/गलकर सूख गई हैं/अब वे टूटेंगी नहीं/झरेंगी बेआवाज।(सूना घर)।’ यह उजड़ते घरों का दृश्य है जिस पर युद्ध के दौरान बम नहीं गिरा है। यह विकास का वह बम है जो बेआवाज घर की शहतीरों पर गिरा है, जो रंदा रंदा झर रहा है हमारे ऊपर। यह नफरतों और उजाड़ों की जो दुनिया हमें दे रही है वहां हमारा बचे रहने की जुगत ही ‘बहुत’ जैसा लगता है : ‘मेरी चचेरी बहन/उसके कपड़े जिनमें से झांकते हैं उसके धूल के बने हाथ पैर/उसके फूस के केश झांकते हैं/गोली खायी हिरनी के करूण कजल आंखें झांकती हैं/मैं पूछता हूं कभी कभी उससे/जीजी तुम्हें इस ब्रम्हाण्ड की किस हाट पर मिलते हैं इतने फीके/इतना अधिक रंग उड़े कपड़े/क्या तुम आकाश गंगा से लाती हो इन्हें/    /पागल है तू/कहकर हंस देती है/जीवन की धनी मेरी चचेरी बहन।(गुम बच्चे की याद)।’ यह कविता टूटन, जीवन की बदहालियों और बेबसी के उस अंतिम छोर पर खड़ी दिखती है जो आगे कभी भी टूटकर बिखर सकती है, एक गुम हुए बच्चे की तकलीफ और उसे भुला देने की त्रासदी के साथ। उनकी ‘विदा’ कविता इसका पूर्वाभास जैसा है : ‘यादों को भी विदा करने का वक्त आएगा/इच्छा और उदासी जैसे पक्के रंग भी छूट जाएगें/पानी से खाली घासों की तरह सूख जाएंगी जब याद/करुणा के जल को भी विदा कहने का वक्त आएगा।’ प्रभात का लिखना कि ‘चार बरस पहले/एक सुख था जीवन में’ सपाटता में कही गयी बातों को कवित्व देने सिर्फ प्रयास भर नहीं है। यह एक कथन हो तब भी एक कविता है और इसे पिछले कई दशकां के साल या महीने या दिन के किसी भी छोर पर खड़े होकर कहा जा सकता है।

प्रवेश सोनी
जंगल, खेत, इंसान और इन्हीं के आसपास रहने वाले पशु-पक्षी के निकट रहकर कविता की दुनिया का अतीत की पुकार से मुक्त होकर लिखना बेहद कठिन काम है। आज भी ‘अहा ग्राम देवता’ से अभिभूत होकर लिखने वालों की कमी नहीं है। प्रभात की कविताएं प्रकृति, जीवन और संसाधन के बीच टूट रहे संबंधों, उसे बांधने वाली शहतीरों के झरण को कहती हैं। सिर्फ कहन की लयबद्धता के साथ ही नहीं उसकी त्रासदी के साथ भी।
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अंजनी कुमार
10 दिसम्बर 2017
दिल्ली

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