ओम नागर की कविताएं
कविताएं
एक
जमीन और जमनालाल
१
आजकल आठों पहर यूँ
खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल
क्या तुम नहीं जानते जमनालाल
कि तुम्हारें इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए
निकलने को बेताब खडा है राजमार्ग
क्या तुम बिसर गये हो जमनालाल
‘‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है
और राज को भा गये है तुम्हारे खेत
इसलिए एक बार फिर सोच लो जमनालाल
राज के काज में टांग अड़ाओंगे तो
छलनी कर दिए जाओगें गोलियों से
शेष बचे रह गये जंगलों की ओर
भागना पड़ेगा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को
सुनो! जमनालाल बहुत उगा ली तुमने
गन्ने की मिठास
बहुत कात लिया अपने हिस्से का कपास
बहुत नखरे दिखा लिये तुम्हारे खेत के कांदों ने
अब राज खड़ा करना चाहता है
तुम्हारे खेत के आस-पास कंकरीट के जंगल
जो दे रहें है उसे बख्शीस समझकर रख लो
जमनालाल
वरना तुम्हारी कौम आत्महत्याओं के अलावा
कर भी क्या रही है आजकल/
लो जमनालाल गिन लो रूपये
खेत की मेड़ पर ही
लक्ष्मी के ठोकर मारना ठीक नहीं है जमनालाल।
२
उठो! जमनालाल
अब यूँ उदास खेत की मेड़ पर
बैठे रहने से
कोई फायदा नहीं होने वाला।
तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढियों को
एक न एक दिन तो समझना ही था
जमीन की व्याकरण में
अपने और राज के मुहावरों का अंतर।
तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल
सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने
डाल दिया है डेरा गांव की हथाई पर
बुलंद हो रहे है नारे-
‘‘हाथी घोड़ा पालकी, जमीन जमनालाल की’’।
जरा कान तो लगाओं जमनालाल
गांव की दिशा में
जितने बल्ब नहीं टंगे अब तक घरों में
दीवार के सहारे
उससे कई गुना लाल-नीली बत्तियों की
जगमगाहट पसर गई है
गली-मौहल्लों के मुहानों पर।
और गांव की औरते घूंघट की ओट में
तलाश रही है,
उम्मीद का नया चेहरा।
३
तमाम कोशिशों के बावजूद
जमनालाल
खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस
सिक्कों की खनक से नहीं खुले
उसके जूने जहन के दरीचे।
दूर से आ रही
बंदूकों की आवाजों में खो गई
उसकी आखिरी चीख
पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए
रह गया दुहरा का दुहरा।
एक दिन लाल-नीली बत्तियों का
हुजूम भी लौट गया एक के बाद एक
राजधानी की ओर
दीवारों के सहारे टंगे बल्ब हो गये फ्यूज।
इधर राजमार्ग पर दौड़ते
वाहनों की चिल्ल-पो
चकाचैंध में गुम हो जाने को तैयार खडे थे
भट्टा-पारसौल, टप्पन, नंदी ग्राम, सींगूर।
और न जाने कितने गांवों के जमनालालों को
रह जाना है अभी
खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।
००
दो
स्मृतियों के अकाल के दिन
अभी -अभी एक जलती हुई चिता की
तपन सही है इस निरीह देह ने
अभी-अभी जीवन के असल बोध से मुक्त हुई हैं
मसानी ज्ञान की अंतिम स्मृति
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन है
अभी-अभी तो किसान के सीने को चीरते हुए
निकली है राजकीय गोली
अभी-अभी अस्पताल में साठ बच्चों ने ली है
सामूहिक अंतिम साँस
अभी-अभी टीवी की हॉट सीट से उठा है एंकर
भारत-चीन युद्ध में विजय की मुद्रा लिए
अभी-अभी काबीना मंत्रीजी की स्मृति में हुआ इज़ाफा
ज़िन्दा बच्चों के आँकड़ों में दे रहे हैं
मरे हुए बच्चों की संख्या का भाग
और ख़ुशी-ख़ुशी लौट गए अपनी खोज पर इतराते हुए
कि-" अगस्त माह में अधिक मर जाते हैं बच्चे"
और इसी अगस्त माह में ही मरे हुए बच्चे गा रहें है
स्वतंत्रता का अंतिम गान
" साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल,
दे दी हमे आज़ादी बिना खड़क,बिना ढाल"
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन है
अभी-अभी तेज़ अंधड़ में खिरें है
पीले कनीर के फूल
अभी-अभी सदाफूली के कपोल पर दिखी है
हमारे समय की ताज़ा खरोंच
अभी-अभी आकाश की आँख में धँसा जा रहा बाँस
तलाशता मिला जंगल में आग की गुंजाइश
हमारी स्मृतियों का कनीर कब का झर गया
हमारी स्मृतियों की सदाफूली खिलती है कभी-कभी
हमारी स्मृतियों का बाँस बेमौसम नहीं बढ़ता
हमारी स्मृतियों की अँगीठी बुझ चुकी कब की
अभी-अभी सूखा है स्मृतियों की आँख का अंतिम जल
क्या कहा जाएँ ऐसे दिनों के बारे में
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन।।
००
तीन
हमशक़्ल समय के बारे में
चरखा वही हैं
जिस पर गाँधीजी ने काता था कभी
आज़ादी के हिस्से का कपास
कहा था-" खादी वस्त्र नहीं,विचार हैं "
लेकिन 2017 की तस्वीर में
चरखे की बगल में बैठा आदमी
जिसे अपने हिस्से का कपास कातना भी नहीं आता
कौन है भला -सा आदमी
देश के प्रधान सेवक से मिलती है जिसकी शक़्ल
शॉल वही हैं
2017 की 12 जनवरी भी हैं वही
स्वामी विवेकानन्द की तरह तन पर लपेटे शॉल
अपनी भोली-सी सूरत वाली तस्वीर खिंचाएँ
कौन है भला-सा आदमी
किसी पार्टी के प्रवक्ता से मिलती है जिसकी शक़्ल
मस्तक वही हैं
2017 में भी दमक रही जिस पर पसीनें की बूँदें
भाल पर केसरिया दुप्पटा
कलाई पर बाँध हरे रँग की पट्टियाँ
घर से निकलते समय
शीशे में देखना बिसर गये जो अपने ही चेहरे
कौन है भले-से आदमजात
किसी सच्चे मनुष्य नहीं मिलती है जिनकी शक़्ल
देश वही हैं
2017 में अभी तक तो नहीं आया
दिल्ली के दौलताबाद होने का नया फ़रमान
कठ की स्याह रात में फुटपाथ पर टाट लपेटें खड़ा
कौन है भला-सा आदमी
किसी ठिठुरे हुए गणतंत्र से मिलती है जिसकी शक़्ल
दिन वही हैं
2017 में भी नहीं बदली आँच जस की तस
बैंकों के खालीपन ने उजाड़ दिए सपनों के गुलिस्तां
कौन है भला-सा आदमी
जो नहीं जानता हमशक़्ल समय के बारे में जरा भी
लाइन में मरे हुए आदमी से मिलती है जिसकी शक़्ल।
००
चार
अंतिम इच्छा
राजा-रानियों की होती हैं अंतिम इच्छाएँ
प्रजा की इच्छाओं की कब किस को पड़ी हैं
राजा-रानियों की अंतिम इच्छाओं से भरा हैं इतिहास
अंतिम इच्छा की तरह ही बनाया गया ताज़महल
अंतिम इच्छा की बदौलत गढ़े गए इतिहास
एक राजा की अंतिम इच्छा को भाँपकर ही
हर बार बनवास को चले जाते रहें पुरुषोत्तम राम
राजा ने किसी युग में नहीं पूछी प्रजा की अंतिम इच्छा
एक राजा की अदद अंतिम इच्छा देती रहीं सदा
रामराज्य वाले सपनों को देश-निकाला
अंतिम इच्छा तो एक कैदी की भी पूछी जाती हैं
सूली पर टाँगे जाने से पूर्व
लेक़िन ज़िंदगी के सिवा,एक आज़ादी के सिवा
कितनी इच्छाएँ बची रहीं होगी उसकी
ज़ल्लाद की ज़द में चले जाने के बाद भी
ऐसी अंतिम इच्छाओं को सिर्फ़ पूछा गया इतिहास में
कभी पूरा किया नहीं गया
मरणासन्न दादाजी की अंतिम इच्छा पूछते-पूछते
जब थक गए हम घर-भर के लोग
तब कई दादाजी ने बच्चों के सिरों पर फेरते हुए हाथ
माँगे दो मुट्ठी नमकीन
बरफ़ी के लिए तो अभी सेंका ही जा रहा था बेसन
कि आ गया अंतिम बुलावा
एक अंतिम इच्छा भी चली गई दादाजी के साथ
इसी तरह राजा की भी बची होगी कोई अंतिम इच्छा
जो उसके चले जाने के साथ हुई होगी स्वर्गीय
जिसमें दुनिया पर साम्राज्य की भूख शामिल रही सदा
प्रजा तो दो वक़्त के निवाले के लिए कटाती रहीं सिर
ताकि जीवत रह सकें युद्ध-प्रेमी राजा की अंतिम इच्छा
रानियों की इच्छाओं की बदौलत खड़ी हैं सारी इमारतें
राजाओं की इच्छाओं ने ढ़हायी सदा किलों की प्राचीरें
प्रजा ने तो नींव की ईंट बन सँभाले रखा हमेश
राजा-रानियों की अंतिम इच्छाओं का इतिहास।।
००
पांच
गांव की चिट्ठी
१
जो कभी बाँची ही नहीं गई
न ही डाली गई कस्बाई पोस्ट ऑफिस के लैटरबॉक्स में
एक गाँव की चिट्ठी शहर के नाम
क्या लिखा होगा एक गांव ने
लिखा होगा स्कूल तो हैं पर अध्यापक नहीं
सुना हैं शहरी स्कूल में बच्चें कम
होते हैं अध्यापक अधिक
शहर से कुछ अध्यापक माँगे होंगे शायद
यह भी लिखा होगा
गाँव में एक राशन कार्ड पर मिलता हैं तीन लीटर घासलेट
कभी -कभार
थोड़ी बिज़ली माँग ली होगी
ताकि आधी रात को बेमन न बुझानी पड़े चिमनियाँ
उज़ाले को न मारनी पड़े फूँक।
सुना हैं -शहर में उजास के लिए नहीं
जलने -जलाने के लिए ढूँढा जाता हैं घासलेट
अस्पताल के पुलसियाँ रोजनामचे में लिखाया जाता अक़्सर
देर रात चिमनी गिरने से झुलस गई बहू।
एक गाँव की चिट्ठी में क्या लिखा हो सकता हैं भला
पातळ में समाता जल
हवा फैंकता ट्यूबवैल
ओंधे मुँह गिरते अनाज़ के भाव
तासीर खो रहीं मिट्टी की चिंताएँ
जितनी माथे पर
उतनी चिट्ठी में भी
चिट्ठी वाला शहर कोटा भी हो सकता हैं
जयपुर भी
होने को तो शहर यह दिल्ली भी हो सकता हैं
इज़ाज़त माँग ली हो
कि मुझे जंतर -मंतर पर बाँधने है सौलह जोड़ी बैल
तुम राजप्रासाद से बाहर आएँ तो ठीक
वरना चिट्ठी में क्या लिखना
राजपथ पर हल चलाने का मन है हमारा
ऐसी ही
उटपटांग क्रांतिकारी ख़्वाहिशें लिखी होगी
एक गाँव ने अपनी चिट्ठी में।
२
लिखा होगा -
"बेरोजगार युवाओं की फ़ौज चटकाती है चप्पलें "
शादी -ब्याह !
गाँव को शहर कब ब्याहता है अपनी बेटियाँ
शहर में ब्याही बेटियाँ ही वर्षों तक नहीं लौटती पीहर
जितने दिन रहती
गाँवडेल जुबान में पढ़ती रहती शहर के कशीदे।
इस धर्मसंकट को कितनी साफ़गोई से लिखा होगा
एक गाँव ने अपनी चिट्ठी में।
आरम्भ में थोड़ा -सा परिचय
इस तरह से तो दिया ही होगा ज़रूर
"एक टूटी -फूटी -सी सड़क
जो जुड़ती ही है किसी न किसी राजधानी से
गाँव के मुहाने पर एक तालाब
बैशाख के दिनों बगुलों के घुटनों तक पानी
मरी हुई मछलियों की सड़ांध।"
सब कुछ बुरा ही बुरा न लिखा हो
भला -भला कुछ तो बचा ही होगा लिखने के लिए
तालाब की पाल पर बचा होगा बड़ -पीपल का जोड़ा
सरकारी स्कूल के समीप
मोवणी घड़त वाला एक मीठा कुँआ
मन थोड़ा तो कसैला हुआ होगा जब
लिखा होगा कि गाँव में भी अब कम ही लोगों के
अंतस में बची होगी मिठास।
३
निपट अकेलेपन
आधी रात के घनघोर सन्नाटे को बिखेरते
झींगुरों की कर्कश के बीच
एक गाँव ने लिखी होगी शहर के नाम कोई चिट्ठी।
रो रहा होगा आसमाँ
ओस के आँसू
सभी दरवाजों पर लगी होगी भीतरी सांकल
घड़ी -घड़ी खाँस रही होगी बूँढी काकी
अलसुबह तक लिखता रहा होगा
स्याह अँधेरे कागज़ पर
आले में रखी चिमनियों से बची -खुची
रोशनी उधार ले।
सूखे बबूल के काँटों ने बाँध लिये होंगे
आलपिन की तरह
चिट्ठी के अनेकों पृष्ठ।
गाँव में कमजोर आदमी का दुःख
मज़बूत आदमियों के ज़हन में उपजाता है दया
पुण्यों की लालसा की बदौलत
उतरे लिबास पहनता है आधा गाँव।
अपनी चिट्ठी के हाशिये पर लिख छोड़ा होगा
इसी तरह एक गाँव ने अपने सपनों का अतिरिक्त।
गाँव ने जब लिखी होगी शहर के नाम कोई चिट्ठी
कालूलाल खाती से मिला होगा आक्रोश
लिखवाया होगा -
"कई जंगी पेड़ों को ढाला है मैंने सुन्दर फर्नीचर में
बैलगाड़ी में
हल में
कभी जीवनचर्या का अहम हिस्सा हुआ करता था
अब हाथ नहीं रहा वह बल
बरस हुए नहीं चलाई किसी पर कुल्हाड़ी
बेधार पड़े है रंदा बसैला
लिखने से पहले चिट्ठी के शब्दों पर धार ज़रूर लगवाने गया होगा
कालूलाल खाती की खतौड़ तक।
लिखवाने को तो कुंजबिहारी कुम्हार ने भी लिखवायी होगी
अपने दिल की बात
कि मिट्टी में नहीं रहा पहले जैसा लोच
चाक से सूखी मिट्टी उड़ाने का नहीं होता मन
घर -घर पसरी स्टील ने
कई बार झुंझलाहट से भर दिया होगा उसे।
कभी झाड़ ली होगी कुंजबिहारी ने चाक से सूखी मिट्टी
गीली मिट्टी को देना चाहा होगा स्टील की शक़्ल
लेकिन अपना चेहरा नहीं देख सकने की क्षुब्धता में
तोड़ दिया होगा कच्चा बर्तन
टूटकर बिखरने की इसी आवाज़ को रखा होगा बचाकर
शब्दों के बीच
प्रधानमंत्री की मेज़ पर पुनर्जीवित हो जाने का भरोसा
रहा ही होगा एक गाँव को अपनी चिट्ठी में।
चतरा मौची भी गिड़गिड़ाया होगा एक बारगी
हलक से बाहर आ खड़ी हुई होगी सिसकियाँ
लिखवाया होगा -
"अब गाँव में नहीं बचे है इतने जिनावर
बरस हुए अपने हाथों खाल उधेड़े
कोई जूती नहीं गाँठी पटेलजी के लिए
ढोल भी कहाँ बजवाता है कोई अब इतना।
महीनों खूँटी पर टंगा रहता
सीलन और धूल खा गई है खनक
चतरा की बात पूरी गंभीरता से सुनी होगी
जब गाँव लिख रहा होगा शहर के नाम कोई चिट्ठी।
खाल उधेड़ने की बात पर मुस्कराया होगा मन ही मन
चलों अच्छा हुआ
मुक्त हुए
लेकिन ढोल की डम्म तो धर ही ली होगी
पंक्तियों के आरम्भ में
बहरे लोकतंत्र को सुनाने के लिए।
लिखने से पहले
गली -गली नहीं करवायी होगी मुनादी
न ही पंच परमेश्वरों से ली होगी कोई सलाह
नहीं चाहता होगा
झूठ को भी सच की तरह लिखना।
४
चिट्ठी के लिए
चिड़ियाएँ तिनकों की तरह दबा लाई होगी कुछ शब्द
दूर से चोंच में दबाकर लाएँ शब्दों में अटक आई होगी
दूसरे गाँव की पीड़ाएँ।
बैठी होगी जब गाँव के मुहाने पर
आशंकित कौंवे मंडराने लगे होंगे भंवरों की तरह
बमुश्किल कोयल भी तलाशी गई होगी
चिट्ठी में चिमटी भर मिठास के लिए।
सभ्यता का हवाला दे
खेजड़े से उतर आया होगा गिरगिट
बोला होगा -" दिल्ली गिरगिटों की बस्ती है "
अपने समुदाय में शामिल होने की जल्दबाज़ी
कुछ शब्दों को करना चाहता होगा अपदस्थ
गिद्द भी आ ही गए होंगे बचे -खुचे।
इस जन्मजात अय्यारी को
कितना समझ रहा होगा कोई गाँव
जब लिख रहा होगा शहर के नाम कोई चिट्ठी।
कोई परछाई नहीं रही होगी देह की
कोहरे के आग़ोश में लिपटें होंगे आठों पहर
उतरते माघ की मावठ से दम तोड़ता धनिया
रहा होगा शामिल
सरसों से उधार लिया होगा कोई रंग।
कई दिनों तक एक-टक निहारा होगा आकाश
किसी खेत में नहीं बची होगी जब नमी
मवेशियों के मुँह से निकल रहे होंगे सफ़ेद झाँग
तब दिल्ली बना रही होगी बड़े बाँध की योजना
आरा मशीन पहले ही खा गई हमारे जंगल
गाँव के बाहर खड़ा होगा राजमार्गी अज़गर।
निरंतर बेसुध गाँव को
कितना होश रहा होगा आख़िर
जब लिखी होगी उसने शहर के नाम
प्रधानमंत्री के नाम कोई चिट्ठी।
००
ओम नागर: जन्म: 20 नवम्बर, 1980, अन्ताना, तह. अटरु, जि. बाँरा (राज.)
शिक्षा: एम. ए. (हिन्दी एवं राजस्थानी) पीएच-डी, बी.जे.एम.सी.
प्रकाशन: 1. ‘‘छियांपताई’’, 2. ‘‘प्रीत’’, 3. ‘‘जद बी मांडबा बैठूं छूँ कविता’’ (राजस्थानी काव्य संग्रह), 4. ‘‘देखना एक दिन’’ (हिन्दी कविता संग्रह) 5 . "विज्ञप्ति भर बारिश "(हिंदी कविता संग्रह ) 6."निब के चीरे से"
( कथेत्तर गद्य-डायरी)
राजस्थानी अनुवाद - ‘‘जनता बावळी हो’गी’’ (रंगकर्मी व लेखक शिवराम के जननाटक), ‘‘कोई ऐक जीवतो छै’’ कवि श्री लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह ‘‘अनुभव के आकाश में चांद’’ और ‘‘दो ओळ्यां बीचै’’ श्री राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘‘दो पंक्तियों के बीच’’ साहित्य अकादमी द्वारा अनुवाद योजना के अन्तर्गत प्रकाशित।
प्रकाशन व प्रसारण: देश की प्रमुख हिन्दी व राजस्थानी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएॅ प्रकाशित। आकाशवाणी कोटा, जयपुर और जयपुर दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारण।
रचना अनुदित: पंजाबी, गुजराती, नेपाली, संस्कृत और कोंकणी। वागर्थ, परिकथा, संवदिया के युवा कविता विशेषांक व राजस्थानी युवा कविता संग्रह ‘मंडाण’ में कविताओं का अनुवाद।
संपादन: राजस्थानी-गंगा (हाड़ौती अंचल विशेषांक)
पुरस्कार व सम्मान:
01 . कथेतर गद्य की पांडुलिपी "निब के चीरे से " के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार -2015
02 . केन्द्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी कविता संग्रह ‘‘जद बी मांडबा बैठू छूँ कविता’’ पर ‘‘युवा पुरस्कार-2012’’
03 . राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा हिन्दी कविता संग्रह ‘देखना, एक दिन’ पर सुमनेश जोशी पुरस्कार, 2010-11
04 . राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवराम के जननाटक ‘‘जनता पागल हो गई है’’ के राजस्थानी अनुवाद ‘‘जनता बावळी होगी’’ पर ‘‘बावजी चतरसिंह’’ अनुवाद पुरस्कार- 2011-12
05 . प्रतिष्ठित साहित्य पत्रिका "पाखी " द्वारा "गांव में दंगा " कविता के लिए "शब्द साधक युवा सम्मान
06 . राजस्थान सरकार जिला प्रशासन बारां व कोटा, काव्य मधुबन, साहित्य परिषद, आर्यवर्त साहित्य समिति, शिक्षक रचनाकार मंच, धाकड़ समाज पंचायत सहित कई साहित्यिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संप्रति: लेखन एवं पत्रकारिता
पता: 3-ए-26, महावीर नगर तृतीय, कोटा - 324005(राज.)
मोबाइल-9460677638,8003945548
ओम नागर |
कविताएं
एक
जमीन और जमनालाल
१
आजकल आठों पहर यूँ
खेत की मेड़ पर उदास क्यों बैठे रहते हो जमनालाल
क्या तुम नहीं जानते जमनालाल
कि तुम्हारें इसी खेत की मेड़ को चीरते हुए
निकलने को बेताब खडा है राजमार्ग
क्या तुम बिसर गये हो जमनालाल
‘‘बेटी बाप की और धरती राज की होती है
और राज को भा गये है तुम्हारे खेत
इसलिए एक बार फिर सोच लो जमनालाल
राज के काज में टांग अड़ाओंगे तो
छलनी कर दिए जाओगें गोलियों से
शेष बचे रह गये जंगलों की ओर
भागना पड़ेगा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को
सुनो! जमनालाल बहुत उगा ली तुमने
गन्ने की मिठास
बहुत कात लिया अपने हिस्से का कपास
बहुत नखरे दिखा लिये तुम्हारे खेत के कांदों ने
अब राज खड़ा करना चाहता है
तुम्हारे खेत के आस-पास कंकरीट के जंगल
जो दे रहें है उसे बख्शीस समझकर रख लो
जमनालाल
वरना तुम्हारी कौम आत्महत्याओं के अलावा
कर भी क्या रही है आजकल/
लो जमनालाल गिन लो रूपये
खेत की मेड़ पर ही
लक्ष्मी के ठोकर मारना ठीक नहीं है जमनालाल।
के रवीन्द्र |
२
उठो! जमनालाल
अब यूँ उदास खेत की मेड़ पर
बैठे रहने से
कोई फायदा नहीं होने वाला।
तुम्हें और तुम्हारी आने वाली पीढियों को
एक न एक दिन तो समझना ही था
जमीन की व्याकरण में
अपने और राज के मुहावरों का अंतर।
तुम्हारी जमीन क्या छिनी जमनालाल
सारे जनता के हिमायती सफेदपोशों ने
डाल दिया है डेरा गांव की हथाई पर
बुलंद हो रहे है नारे-
‘‘हाथी घोड़ा पालकी, जमीन जमनालाल की’’।
जरा कान तो लगाओं जमनालाल
गांव की दिशा में
जितने बल्ब नहीं टंगे अब तक घरों में
दीवार के सहारे
उससे कई गुना लाल-नीली बत्तियों की
जगमगाहट पसर गई है
गली-मौहल्लों के मुहानों पर।
और गांव की औरते घूंघट की ओट में
तलाश रही है,
उम्मीद का नया चेहरा।
३
तमाम कोशिशों के बावजूद
जमनालाल
खेत की मेड़ से नहीं हुआ टस से मस
सिक्कों की खनक से नहीं खुले
उसके जूने जहन के दरीचे।
दूर से आ रही
बंदूकों की आवाजों में खो गई
उसकी आखिरी चीख
पैरों को दोनों हाथों से बांधे हुए
रह गया दुहरा का दुहरा।
एक दिन लाल-नीली बत्तियों का
हुजूम भी लौट गया एक के बाद एक
राजधानी की ओर
दीवारों के सहारे टंगे बल्ब हो गये फ्यूज।
इधर राजमार्ग पर दौड़ते
वाहनों की चिल्ल-पो
चकाचैंध में गुम हो जाने को तैयार खडे थे
भट्टा-पारसौल, टप्पन, नंदी ग्राम, सींगूर।
और न जाने कितने गांवों के जमनालालों को
रह जाना है अभी
खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।
००
दो
स्मृतियों के अकाल के दिन
अभी -अभी एक जलती हुई चिता की
तपन सही है इस निरीह देह ने
अभी-अभी जीवन के असल बोध से मुक्त हुई हैं
मसानी ज्ञान की अंतिम स्मृति
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन है
अभी-अभी तो किसान के सीने को चीरते हुए
निकली है राजकीय गोली
अभी-अभी अस्पताल में साठ बच्चों ने ली है
सामूहिक अंतिम साँस
अभी-अभी टीवी की हॉट सीट से उठा है एंकर
भारत-चीन युद्ध में विजय की मुद्रा लिए
अभी-अभी काबीना मंत्रीजी की स्मृति में हुआ इज़ाफा
ज़िन्दा बच्चों के आँकड़ों में दे रहे हैं
मरे हुए बच्चों की संख्या का भाग
और ख़ुशी-ख़ुशी लौट गए अपनी खोज पर इतराते हुए
कि-" अगस्त माह में अधिक मर जाते हैं बच्चे"
और इसी अगस्त माह में ही मरे हुए बच्चे गा रहें है
स्वतंत्रता का अंतिम गान
" साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल,
दे दी हमे आज़ादी बिना खड़क,बिना ढाल"
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन है
अभी-अभी तेज़ अंधड़ में खिरें है
पीले कनीर के फूल
अभी-अभी सदाफूली के कपोल पर दिखी है
हमारे समय की ताज़ा खरोंच
अभी-अभी आकाश की आँख में धँसा जा रहा बाँस
तलाशता मिला जंगल में आग की गुंजाइश
हमारी स्मृतियों का कनीर कब का झर गया
हमारी स्मृतियों की सदाफूली खिलती है कभी-कभी
हमारी स्मृतियों का बाँस बेमौसम नहीं बढ़ता
हमारी स्मृतियों की अँगीठी बुझ चुकी कब की
अभी-अभी सूखा है स्मृतियों की आँख का अंतिम जल
क्या कहा जाएँ ऐसे दिनों के बारे में
यह सचमुच
स्मृतियों के अकाल के दिन।।
००
प्रवेश सोनी |
तीन
हमशक़्ल समय के बारे में
चरखा वही हैं
जिस पर गाँधीजी ने काता था कभी
आज़ादी के हिस्से का कपास
कहा था-" खादी वस्त्र नहीं,विचार हैं "
लेकिन 2017 की तस्वीर में
चरखे की बगल में बैठा आदमी
जिसे अपने हिस्से का कपास कातना भी नहीं आता
कौन है भला -सा आदमी
देश के प्रधान सेवक से मिलती है जिसकी शक़्ल
शॉल वही हैं
2017 की 12 जनवरी भी हैं वही
स्वामी विवेकानन्द की तरह तन पर लपेटे शॉल
अपनी भोली-सी सूरत वाली तस्वीर खिंचाएँ
कौन है भला-सा आदमी
किसी पार्टी के प्रवक्ता से मिलती है जिसकी शक़्ल
मस्तक वही हैं
2017 में भी दमक रही जिस पर पसीनें की बूँदें
भाल पर केसरिया दुप्पटा
कलाई पर बाँध हरे रँग की पट्टियाँ
घर से निकलते समय
शीशे में देखना बिसर गये जो अपने ही चेहरे
कौन है भले-से आदमजात
किसी सच्चे मनुष्य नहीं मिलती है जिनकी शक़्ल
देश वही हैं
2017 में अभी तक तो नहीं आया
दिल्ली के दौलताबाद होने का नया फ़रमान
कठ की स्याह रात में फुटपाथ पर टाट लपेटें खड़ा
कौन है भला-सा आदमी
किसी ठिठुरे हुए गणतंत्र से मिलती है जिसकी शक़्ल
दिन वही हैं
2017 में भी नहीं बदली आँच जस की तस
बैंकों के खालीपन ने उजाड़ दिए सपनों के गुलिस्तां
कौन है भला-सा आदमी
जो नहीं जानता हमशक़्ल समय के बारे में जरा भी
लाइन में मरे हुए आदमी से मिलती है जिसकी शक़्ल।
००
चार
अंतिम इच्छा
राजा-रानियों की होती हैं अंतिम इच्छाएँ
प्रजा की इच्छाओं की कब किस को पड़ी हैं
राजा-रानियों की अंतिम इच्छाओं से भरा हैं इतिहास
अंतिम इच्छा की तरह ही बनाया गया ताज़महल
अंतिम इच्छा की बदौलत गढ़े गए इतिहास
एक राजा की अंतिम इच्छा को भाँपकर ही
हर बार बनवास को चले जाते रहें पुरुषोत्तम राम
राजा ने किसी युग में नहीं पूछी प्रजा की अंतिम इच्छा
एक राजा की अदद अंतिम इच्छा देती रहीं सदा
रामराज्य वाले सपनों को देश-निकाला
अंतिम इच्छा तो एक कैदी की भी पूछी जाती हैं
सूली पर टाँगे जाने से पूर्व
लेक़िन ज़िंदगी के सिवा,एक आज़ादी के सिवा
कितनी इच्छाएँ बची रहीं होगी उसकी
ज़ल्लाद की ज़द में चले जाने के बाद भी
ऐसी अंतिम इच्छाओं को सिर्फ़ पूछा गया इतिहास में
कभी पूरा किया नहीं गया
मरणासन्न दादाजी की अंतिम इच्छा पूछते-पूछते
जब थक गए हम घर-भर के लोग
तब कई दादाजी ने बच्चों के सिरों पर फेरते हुए हाथ
माँगे दो मुट्ठी नमकीन
बरफ़ी के लिए तो अभी सेंका ही जा रहा था बेसन
कि आ गया अंतिम बुलावा
एक अंतिम इच्छा भी चली गई दादाजी के साथ
इसी तरह राजा की भी बची होगी कोई अंतिम इच्छा
जो उसके चले जाने के साथ हुई होगी स्वर्गीय
जिसमें दुनिया पर साम्राज्य की भूख शामिल रही सदा
प्रजा तो दो वक़्त के निवाले के लिए कटाती रहीं सिर
ताकि जीवत रह सकें युद्ध-प्रेमी राजा की अंतिम इच्छा
रानियों की इच्छाओं की बदौलत खड़ी हैं सारी इमारतें
राजाओं की इच्छाओं ने ढ़हायी सदा किलों की प्राचीरें
प्रजा ने तो नींव की ईंट बन सँभाले रखा हमेश
राजा-रानियों की अंतिम इच्छाओं का इतिहास।।
००
प्रवेश सोनी |
पांच
गांव की चिट्ठी
१
जो कभी बाँची ही नहीं गई
न ही डाली गई कस्बाई पोस्ट ऑफिस के लैटरबॉक्स में
एक गाँव की चिट्ठी शहर के नाम
क्या लिखा होगा एक गांव ने
लिखा होगा स्कूल तो हैं पर अध्यापक नहीं
सुना हैं शहरी स्कूल में बच्चें कम
होते हैं अध्यापक अधिक
शहर से कुछ अध्यापक माँगे होंगे शायद
यह भी लिखा होगा
गाँव में एक राशन कार्ड पर मिलता हैं तीन लीटर घासलेट
कभी -कभार
थोड़ी बिज़ली माँग ली होगी
ताकि आधी रात को बेमन न बुझानी पड़े चिमनियाँ
उज़ाले को न मारनी पड़े फूँक।
सुना हैं -शहर में उजास के लिए नहीं
जलने -जलाने के लिए ढूँढा जाता हैं घासलेट
अस्पताल के पुलसियाँ रोजनामचे में लिखाया जाता अक़्सर
देर रात चिमनी गिरने से झुलस गई बहू।
एक गाँव की चिट्ठी में क्या लिखा हो सकता हैं भला
पातळ में समाता जल
हवा फैंकता ट्यूबवैल
ओंधे मुँह गिरते अनाज़ के भाव
तासीर खो रहीं मिट्टी की चिंताएँ
जितनी माथे पर
उतनी चिट्ठी में भी
चिट्ठी वाला शहर कोटा भी हो सकता हैं
जयपुर भी
होने को तो शहर यह दिल्ली भी हो सकता हैं
इज़ाज़त माँग ली हो
कि मुझे जंतर -मंतर पर बाँधने है सौलह जोड़ी बैल
तुम राजप्रासाद से बाहर आएँ तो ठीक
वरना चिट्ठी में क्या लिखना
राजपथ पर हल चलाने का मन है हमारा
ऐसी ही
उटपटांग क्रांतिकारी ख़्वाहिशें लिखी होगी
एक गाँव ने अपनी चिट्ठी में।
२
लिखा होगा -
"बेरोजगार युवाओं की फ़ौज चटकाती है चप्पलें "
शादी -ब्याह !
गाँव को शहर कब ब्याहता है अपनी बेटियाँ
शहर में ब्याही बेटियाँ ही वर्षों तक नहीं लौटती पीहर
जितने दिन रहती
गाँवडेल जुबान में पढ़ती रहती शहर के कशीदे।
इस धर्मसंकट को कितनी साफ़गोई से लिखा होगा
एक गाँव ने अपनी चिट्ठी में।
आरम्भ में थोड़ा -सा परिचय
इस तरह से तो दिया ही होगा ज़रूर
"एक टूटी -फूटी -सी सड़क
जो जुड़ती ही है किसी न किसी राजधानी से
गाँव के मुहाने पर एक तालाब
बैशाख के दिनों बगुलों के घुटनों तक पानी
मरी हुई मछलियों की सड़ांध।"
सब कुछ बुरा ही बुरा न लिखा हो
भला -भला कुछ तो बचा ही होगा लिखने के लिए
तालाब की पाल पर बचा होगा बड़ -पीपल का जोड़ा
सरकारी स्कूल के समीप
मोवणी घड़त वाला एक मीठा कुँआ
मन थोड़ा तो कसैला हुआ होगा जब
लिखा होगा कि गाँव में भी अब कम ही लोगों के
अंतस में बची होगी मिठास।
३
निपट अकेलेपन
आधी रात के घनघोर सन्नाटे को बिखेरते
झींगुरों की कर्कश के बीच
एक गाँव ने लिखी होगी शहर के नाम कोई चिट्ठी।
रो रहा होगा आसमाँ
ओस के आँसू
सभी दरवाजों पर लगी होगी भीतरी सांकल
घड़ी -घड़ी खाँस रही होगी बूँढी काकी
अलसुबह तक लिखता रहा होगा
स्याह अँधेरे कागज़ पर
आले में रखी चिमनियों से बची -खुची
रोशनी उधार ले।
सूखे बबूल के काँटों ने बाँध लिये होंगे
आलपिन की तरह
चिट्ठी के अनेकों पृष्ठ।
गाँव में कमजोर आदमी का दुःख
मज़बूत आदमियों के ज़हन में उपजाता है दया
पुण्यों की लालसा की बदौलत
उतरे लिबास पहनता है आधा गाँव।
अपनी चिट्ठी के हाशिये पर लिख छोड़ा होगा
इसी तरह एक गाँव ने अपने सपनों का अतिरिक्त।
गाँव ने जब लिखी होगी शहर के नाम कोई चिट्ठी
कालूलाल खाती से मिला होगा आक्रोश
लिखवाया होगा -
"कई जंगी पेड़ों को ढाला है मैंने सुन्दर फर्नीचर में
बैलगाड़ी में
हल में
कभी जीवनचर्या का अहम हिस्सा हुआ करता था
अब हाथ नहीं रहा वह बल
बरस हुए नहीं चलाई किसी पर कुल्हाड़ी
बेधार पड़े है रंदा बसैला
लिखने से पहले चिट्ठी के शब्दों पर धार ज़रूर लगवाने गया होगा
कालूलाल खाती की खतौड़ तक।
लिखवाने को तो कुंजबिहारी कुम्हार ने भी लिखवायी होगी
अपने दिल की बात
कि मिट्टी में नहीं रहा पहले जैसा लोच
चाक से सूखी मिट्टी उड़ाने का नहीं होता मन
घर -घर पसरी स्टील ने
कई बार झुंझलाहट से भर दिया होगा उसे।
कभी झाड़ ली होगी कुंजबिहारी ने चाक से सूखी मिट्टी
गीली मिट्टी को देना चाहा होगा स्टील की शक़्ल
लेकिन अपना चेहरा नहीं देख सकने की क्षुब्धता में
तोड़ दिया होगा कच्चा बर्तन
टूटकर बिखरने की इसी आवाज़ को रखा होगा बचाकर
शब्दों के बीच
प्रधानमंत्री की मेज़ पर पुनर्जीवित हो जाने का भरोसा
रहा ही होगा एक गाँव को अपनी चिट्ठी में।
चतरा मौची भी गिड़गिड़ाया होगा एक बारगी
हलक से बाहर आ खड़ी हुई होगी सिसकियाँ
लिखवाया होगा -
"अब गाँव में नहीं बचे है इतने जिनावर
बरस हुए अपने हाथों खाल उधेड़े
कोई जूती नहीं गाँठी पटेलजी के लिए
ढोल भी कहाँ बजवाता है कोई अब इतना।
महीनों खूँटी पर टंगा रहता
सीलन और धूल खा गई है खनक
चतरा की बात पूरी गंभीरता से सुनी होगी
जब गाँव लिख रहा होगा शहर के नाम कोई चिट्ठी।
खाल उधेड़ने की बात पर मुस्कराया होगा मन ही मन
चलों अच्छा हुआ
मुक्त हुए
लेकिन ढोल की डम्म तो धर ही ली होगी
पंक्तियों के आरम्भ में
बहरे लोकतंत्र को सुनाने के लिए।
लिखने से पहले
गली -गली नहीं करवायी होगी मुनादी
न ही पंच परमेश्वरों से ली होगी कोई सलाह
नहीं चाहता होगा
झूठ को भी सच की तरह लिखना।
महावीर वर्मा |
४
चिट्ठी के लिए
चिड़ियाएँ तिनकों की तरह दबा लाई होगी कुछ शब्द
दूर से चोंच में दबाकर लाएँ शब्दों में अटक आई होगी
दूसरे गाँव की पीड़ाएँ।
बैठी होगी जब गाँव के मुहाने पर
आशंकित कौंवे मंडराने लगे होंगे भंवरों की तरह
बमुश्किल कोयल भी तलाशी गई होगी
चिट्ठी में चिमटी भर मिठास के लिए।
सभ्यता का हवाला दे
खेजड़े से उतर आया होगा गिरगिट
बोला होगा -" दिल्ली गिरगिटों की बस्ती है "
अपने समुदाय में शामिल होने की जल्दबाज़ी
कुछ शब्दों को करना चाहता होगा अपदस्थ
गिद्द भी आ ही गए होंगे बचे -खुचे।
इस जन्मजात अय्यारी को
कितना समझ रहा होगा कोई गाँव
जब लिख रहा होगा शहर के नाम कोई चिट्ठी।
कोई परछाई नहीं रही होगी देह की
कोहरे के आग़ोश में लिपटें होंगे आठों पहर
उतरते माघ की मावठ से दम तोड़ता धनिया
रहा होगा शामिल
सरसों से उधार लिया होगा कोई रंग।
कई दिनों तक एक-टक निहारा होगा आकाश
किसी खेत में नहीं बची होगी जब नमी
मवेशियों के मुँह से निकल रहे होंगे सफ़ेद झाँग
तब दिल्ली बना रही होगी बड़े बाँध की योजना
आरा मशीन पहले ही खा गई हमारे जंगल
गाँव के बाहर खड़ा होगा राजमार्गी अज़गर।
निरंतर बेसुध गाँव को
कितना होश रहा होगा आख़िर
जब लिखी होगी उसने शहर के नाम
प्रधानमंत्री के नाम कोई चिट्ठी।
००
ओम नागर: जन्म: 20 नवम्बर, 1980, अन्ताना, तह. अटरु, जि. बाँरा (राज.)
शिक्षा: एम. ए. (हिन्दी एवं राजस्थानी) पीएच-डी, बी.जे.एम.सी.
प्रकाशन: 1. ‘‘छियांपताई’’, 2. ‘‘प्रीत’’, 3. ‘‘जद बी मांडबा बैठूं छूँ कविता’’ (राजस्थानी काव्य संग्रह), 4. ‘‘देखना एक दिन’’ (हिन्दी कविता संग्रह) 5 . "विज्ञप्ति भर बारिश "(हिंदी कविता संग्रह ) 6."निब के चीरे से"
( कथेत्तर गद्य-डायरी)
राजस्थानी अनुवाद - ‘‘जनता बावळी हो’गी’’ (रंगकर्मी व लेखक शिवराम के जननाटक), ‘‘कोई ऐक जीवतो छै’’ कवि श्री लीलाधर जगूड़ी के कविता संग्रह ‘‘अनुभव के आकाश में चांद’’ और ‘‘दो ओळ्यां बीचै’’ श्री राजेश जोशी के कविता संग्रह ‘‘दो पंक्तियों के बीच’’ साहित्य अकादमी द्वारा अनुवाद योजना के अन्तर्गत प्रकाशित।
प्रकाशन व प्रसारण: देश की प्रमुख हिन्दी व राजस्थानी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएॅ प्रकाशित। आकाशवाणी कोटा, जयपुर और जयपुर दूरदर्शन से समय-समय पर प्रसारण।
रचना अनुदित: पंजाबी, गुजराती, नेपाली, संस्कृत और कोंकणी। वागर्थ, परिकथा, संवदिया के युवा कविता विशेषांक व राजस्थानी युवा कविता संग्रह ‘मंडाण’ में कविताओं का अनुवाद।
संपादन: राजस्थानी-गंगा (हाड़ौती अंचल विशेषांक)
पुरस्कार व सम्मान:
01 . कथेतर गद्य की पांडुलिपी "निब के चीरे से " के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार -2015
02 . केन्द्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी कविता संग्रह ‘‘जद बी मांडबा बैठू छूँ कविता’’ पर ‘‘युवा पुरस्कार-2012’’
03 . राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा हिन्दी कविता संग्रह ‘देखना, एक दिन’ पर सुमनेश जोशी पुरस्कार, 2010-11
04 . राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर द्वारा शिवराम के जननाटक ‘‘जनता पागल हो गई है’’ के राजस्थानी अनुवाद ‘‘जनता बावळी होगी’’ पर ‘‘बावजी चतरसिंह’’ अनुवाद पुरस्कार- 2011-12
05 . प्रतिष्ठित साहित्य पत्रिका "पाखी " द्वारा "गांव में दंगा " कविता के लिए "शब्द साधक युवा सम्मान
06 . राजस्थान सरकार जिला प्रशासन बारां व कोटा, काव्य मधुबन, साहित्य परिषद, आर्यवर्त साहित्य समिति, शिक्षक रचनाकार मंच, धाकड़ समाज पंचायत सहित कई साहित्यिक एवं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
संप्रति: लेखन एवं पत्रकारिता
पता: 3-ए-26, महावीर नगर तृतीय, कोटा - 324005(राज.)
मोबाइल-9460677638,8003945548
सभी कविताएँ अपने कहन / विषयवस्तु और चिंतन में अपने समय की सूरत सामने रखते गंभीर चिंतन का मजबूत आग्रह करती हैं .. कविताओं में विस्मृत होते गांव जो कस्बों से अब शहरों में तक तब्दील .. आधुनिकरण किस दिम पर ? क्या ये सोचा जाएगा अब भी। ? अद्भुत रचनाएँ
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