पड़ताल: वन्दना गुप्ता की कविताएं
अनिल कुमार पाण्डेय
कविता अनुभव के रास्ते पकी हुई अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जो कहीं गहरे में हृदय की अंतस गहराइयों में डूबकर भोगे यथार्थ का वर्तमान दस्तावेज तैयार करती है| वर्तमान से गुजरना भविष्य के सुखद मार्ग की काल्पनिक परिकल्पना को साकार रूप देना है| मनुष्य हृदय में कविता के रास्ते सुधार और परिष्कार की नीयति यहीं से जन्म लेती है| अपने व्यावहारिक रूप में कविता का उपस्थित होना, कई पूर्व स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर नवीन रीतियों के परिचालन को मान्यता देना है| इसलिए भी क्योंकि कविता हृदय में उठ रहे विशेष भावों की शब्दात्मक रूपाभियक्ति है| यदि यह सच है कि नवीन रीतियाँ ही भविष्य की समृद्ध परंपरा का बीजारोपण करती हैं, हृदय में उठ रहे विमुक्त संभावनाओं को खुल कर सामने आने देना चाहिए|
वंदना गुप्त की कविताएँ हमें उसी रास्ते पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्योंकि वह “अब सिर्फ/ लिखने के लिए/ नहीं लिखना चाहती” कि उसके हृदय में उठ रहे भाव रस, छंद, अलंकार की सजीवता में कागज़ के धरातल पर उतर कर शांत हो जाएँ| वह लिखना चाहती है क्योंकि उसके “अन्दर बैठी सत्ता ने बगावत कर दी है/ क्योंकि तख्ता पलट यूं ही नहीं हुआ करते” उसके लिए अपने वजूद और अस्तित्व का आभास होना आवश्यक होता है| जहाँ अस्तित्व और वजूद की बात होगी वहां टकराव की संभावनाएं भी मूर्तमान हो उठती है| कवयित्री उन्हीं संभावनाओं में से शब्दों का संस्कार परिवेश को देना चाहती है “जिसमें हो एक नया उद्घोस/ जिसमें हो एक नया सूर्योदय/ अपनी प्रभामंडल के साथ/ अपनी आभा विखेरता/ और अपने लिए खुद/ अपनी धरती चुनता हुआ/ जिस पर रख सकूं मैं अपने पैर/ नहीं जिसकी जमीन पर कोई फिसलन/ हो तो बस एक/ आकाश से भी विस्तृत/ मेरा अपना आकाश|” अपना आकाश और अपनी जमीन हो तो मनुष्य मुक्त भाव से विचरण करता है और अपने अनुसार समय-सौन्दर्य का आख्यान रचता है|
वंदना गुप्ता के रचनात्मक मनोभाव से गुजरते हुए भारतीय लोक की परिक्रमा करना आवश्यक हो जाता है| ऐसा लोक जहाँ स्त्रियों के लिए न तो उसकी जमीन रही और न ही उसका अपना आकाश| कोई भी मनुष्य समूह से अलग होकर ‘अपने’ मात्र की वर्तमानता का स्वप्न ऐसे ही नहीं संजोता| यहाँ “आकाश से भी विस्तृत/ मेरा अपना आकाश” का स्वप्न देखना इसलिए भी उसके लिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि “पुरुष वर्चस्व” की नीति ने स्त्रियों को हर समय बेदखल करने की धमकियां दी है| धमकियों के बरख्स जी रहे स्त्रियों के विषय में कवयित्री का कहना है कि “मैं नहीं जानती अपने अन्दर की उस लड़की को” जो पुरुष-दृष्टि के नीचे अपनी गर्दन झुकाए हुए तमाम दुश्वारियों, मुसीबतों, झंझावातों, फटकारों आदि को सहते हुए तिल-तिल, घुट-घुट कर जीती आई है| वह षड्यंत्रों की सीमाओं में बंधकर जीने के बजाय उससे मुक्ति के लिए “नए नए तरीके ईजाद करने की/ कवायद शुरू कर दी है|”
स्त्रियों ने अपने दायरों और स्वतंत्रता के पैमाने स्वयं निर्धारित करना शुरू कर दिया है| यह भी स्पष्ट है कि यह मध्यकालीन समय न होकर अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता लिए उत्तर-आधुनिक युग का प्रथम चरण है जहाँ पर सभी ने, स्त्री हो या पुरुष, एक-दूसरे के संसर्ग-सरक्षण में रहते हुए अपने-अपने हथियार और सुरक्षात्मक कवच तैयार किये हैं| शिकारी और शिकार के गुणा-गणित को पूरी दक्षता के साथ जिए बैठे हैं इसलिए अहेरी के रूप में मशहूर पुरुष-जाति को सचेत करते हुए वह कहती है-“दाँव पेंच की जद्दोजहद में उलझे तुम/ संभल जाना इस बार/ क्योंकि जरूरी नहीं होता/ हर बार शिकार शिकार शिकारी ही करे/ इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल संभावना है|” कवयित्री का यह कहना कि “बांधों में बंधे दरिया जब बाँध तोड़ते हैं/ तो सैलाब में न गाँव बचते हैं ना शहर” पुरुष की लोलुपता भरे दृष्टिकोण को परिवर्तित कर अस्तित्व के मुहाने से होने वाले विध्वंश के प्रति संकेत करते हुए उसे सचेत करना है|
धमकियों के बरख्स त्याग की यथार्थता का जो दंश स्रियों के हृदय में टीस बनकर कुरेंद रहीं हैं, यह पुरुष मानसिकता के केन्द्र में बलात पाल बैठे पाशविक प्रवृत्तियों की मानसिकता वाले प्राणियों को समझ लेना चाहिए कि, ये टीस सामान्य नहीं हैं| मौसम यहीं से रुख बदलना प्रारंभ करता है और इस स्वाभाविकता में “अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद/ जब भी दखल करते हैं/ हदों की खामोशियों में/ एक जंगल चिंघाड़ उठता है/ दरख़्त सहम जाते हैं/ पंछी उड़ जाते हैं पंख फड़फड़ाते/ घोसलों को छोड़ना कितना दुरूह होता है/ मगर चीखें कब जीने की मुहताज हुई हैं/ शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते/ शब्दों का अंधड़ हदों को नागवार गुजरता है/ तो तूफ़ान लाजमी है” तूफ़ान आने के बाद ही पुराने रस्मों-रवायतों से सजे समय-समाज का नवीन निर्माण होता है| निर्माण के इसी रास्ते से परिवेश की “सीमाएं नेस्तनाबूत” होकर व्यावहारिक संस्कृति के प्रवाह को गतिमान करती हैं|
स्त्री-पुरुष के संबंधों में नवीन राहों का अन्वेषण करते हुए वह पाती है कि कुछ भी कह देने की बजाय यह मान लेना श्रेयस्कर है कि “अभी अध्ययन का विषय है ये”| कवयित्री चाहती है कि व्यावहारिक संस्कृति की परिधि में आने के बाद हमें स्त्री-पुरुष के यथार्थ संबंधों की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए| ऐसी व्याख्या जहाँ प्रेम और देह का सम्मिश्रण हो क्योंकि देह यदि भावनाओं को संबल प्रदान करने वाला आकर्षण है तो प्रेम उस आकर्षण से परे जाने वाला माध्यम है| संबंधों की आरोह और अवरोह में भटकन और स्थायित्व की यथास्थिति यहीं अपना व्यवहार पाती है|
जहाँ प्रेम होता है वहाँ शरीर नहीं होते
आत्मिक रिश्ता अराधना, उपासना बन रूह मे उतर जाता है
जीवन में नव संचार भरता है
क्योंकि
चाहिये होता है एक साथ ऐसा
जहाँ प्रेम का उच्छवास हो
जहाँ प्रेम की स्वरलहरियाँ मनोहारी नृत्य करती होँ
और कुम्हलायी शाखाओं को
प्रेमरस का अमृत भिगोता हो
तो कैसे ना अनुभूति का आकाश विस्तृत होगा
कैसे ना मन आँगन प्रफ़ुल्लित होगा
क्योंकि
जीवन कोरा कागज़ भी नहीं
जिसका हर सफ़ा सफ़ेद ही रह जाये
भरना होता है उसमें भी प्रेम का गुलाबी रंग
और ये तभी संभव है जब
आत्मिक राग गाते पंछी की उडान स्वतंत्र हो
और जहाँ शरीर होते हैं वहाँ प्रेम नहीं होता
दैहिक रिश्ता नित्य कर्म सा बन जाता है
क्योंकि
कोरे भावों के सहारे भी जीवन यापन संभव नहीं
जरूरी होता है ज़िन्दगी में यथार्थ के धरातल पर चलना
भावना से ऊँचा कर्तव्य होता है
इसलिये जरूरी है
दैहिक रिश्ते को आत्मिक प्रेम के लबरेज़ रिश्ते से विलग रखना
क्योंकि
गर दोनों इसी चाह मे जुट जायेंगे तो
सृष्टि कैसे निरन्तरता पायेगी
इसलिये प्रवाह जरूरी है
देहात्मक रिश्ते का अपनी दशा”
देह और प्रेम के माध्यम से सामाजिक संबंधों की इस प्रवाह को बनाए रखना हमारे समय की और अन्य सभी समयों की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है| यह कम विडंबना की बात नहीं है कि हमारे बीच में ‘देह’ आकर्षण के केंद्र में जितना महत्त्वपूर्ण रहा है प्रेम उतनी ही तीव्रता के साथ अनुपस्थित होता रहा है|
इस रास्ते यह भी आभास होता है कि जब “ये पंछियों के उड़ने और दाना चुगने का वक्त है” हमारा समय अपने सामने पड़ने वाले सबसे सीधे प्रश्न से मुंह छुपाता है| यह प्रश्न सुरक्षा और अस्मिता को केन्द्र रखकर चलने वाला प्रश्न है| आदर्षता के मुहाने से यथार्थ की मांग करने वाला प्रश्न है| यह मांग इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि “जिन्दा जमीर महज खोखला आदर्शवाद है आज/ फिर स्त्री और देश की दशा-दुर्दशा पर चिंतन कौन करे/ एक प्रश्न ये भी उठाया तो जा सकता है/ मगर हल के कोटर हमेशा खाली ही मिलेंगे|” उत्तर के नाम आदर्श की जमीन खोजती वही घिसी-पिटी मानसिकता की निर्मित में बनी एक नीरस प्रतिक्रिया दे दी जाती है जिसमें जितना अभ्यस्त भुक्तभोगी है उससे कहीं अधिक अभ्यस्त हमारे समय का उपदेशक है|
इन सभी स्थितियों के साथ एक परिधि स्वाभाविक मनःस्थिति की भी होती है| यहाँ ठीक है कि, भोगा हुआ यथार्थ ही मनुष्य की मानसिक चेतना का संस्कार करती है, लेकिन हो सकता है यह व्यक्तिगत यथार्थ हो और यदि सामूहिक और सामाजिक भी हो तो भी, सभी पुरुष उस मनःस्थिति के दायरे में नहीं आते जैसा कि कवयित्री के काव्य-संसार में उनके दिग्दर्शन होते हैं| कवयित्री की रचनाधर्मिता और भी प्रभावी बन पड़ेगी जब वह स्त्रियों के उस यथार्थ को भी आवाज देना प्रारंभ कर देगी जिसमें पुरुष का अस्तित्व भी छला जाता है| जब कवयित्री यह कहती है कि “यूं अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को/ खरोचना आसान नहीं होता” तो कहीं गहरे में स्त्री समुदाय के उस खरोंच को कुरेंदने से बचाती है स्वयं को, जो उसने महज दिखावे के लिए अपने शरीर पर बढ़ने दिए हैं| अपने व्यावहारिक रूप में स्त्री की यथार्थता को पुरुष के माध्यम से यह कहलवाना “और तुम मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो” ठीक है कि पुरुष-प्रकृति को शब्द देकर उसके यथार्थ को लोगों के सामने लाना है, लेकिन यथार्थ इतना भी भयावह परिवेश का नहीं है कि वह अपनी प्रियतमा को अपनी यादों में लेकर नहीं चल रहा हो| जब लोक में प्रचलित इस कहावत की तरफ देखा जाता है “बिन घरनी घर भूत का डेरा” तो गहरे में उस घरनी का निहितार्थ मात्र घर को सजाने वाली औरत से नहीं होता अपितु जीवन-संगिनी के रूप में साथ-साथ चलने वाली प्रियतमा का भी होता है|
यदि कवयित्री यह कहती है कि “आँच जलती भी रही/ रोटी पकती भी रही/ भूख मिटती भी रही/ मैनें उस चूल्हे की तपन में खुद को सेंका है|” तो रोटी-तवा-चूल्हे के बीच की यात्रा में तपे स्त्री भी हैं और पुरुष भी हैं| यहाँ तक पहुँचने और उसका उपभोग करने के अनुभव अलग भले ही हो सकते हैं लेकिन यथार्थ दोनों के एक होते हैं| यह सच है कि कवयित्री ने कहन के अंदाज को अपने अभिव्यक्ति-कौशल के माध्यम से धार दिया है लेकिन विषय को विस्तार देने में शब्दों के अपव्यय को भी आमंत्रित किया है| अपव्यय में सरसता और प्रवाह है जो कहीं भी बोर नहीं करती इसलिए ये कविताएँ सीधे मस्तिष्क से गुजरते हुए हृदय में स्थान बनाने के लिए सक्षम हो पाती हैं|
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अनिल कुमार पाण्डेय
कविता अनुभव के रास्ते पकी हुई अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जो कहीं गहरे में हृदय की अंतस गहराइयों में डूबकर भोगे यथार्थ का वर्तमान दस्तावेज तैयार करती है| वर्तमान से गुजरना भविष्य के सुखद मार्ग की काल्पनिक परिकल्पना को साकार रूप देना है| मनुष्य हृदय में कविता के रास्ते सुधार और परिष्कार की नीयति यहीं से जन्म लेती है| अपने व्यावहारिक रूप में कविता का उपस्थित होना, कई पूर्व स्थापित मान्यताओं को ध्वस्त कर नवीन रीतियों के परिचालन को मान्यता देना है| इसलिए भी क्योंकि कविता हृदय में उठ रहे विशेष भावों की शब्दात्मक रूपाभियक्ति है| यदि यह सच है कि नवीन रीतियाँ ही भविष्य की समृद्ध परंपरा का बीजारोपण करती हैं, हृदय में उठ रहे विमुक्त संभावनाओं को खुल कर सामने आने देना चाहिए|
अनिल कुमार पाण्डेय |
वंदना गुप्त की कविताएँ हमें उसी रास्ते पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं क्योंकि वह “अब सिर्फ/ लिखने के लिए/ नहीं लिखना चाहती” कि उसके हृदय में उठ रहे भाव रस, छंद, अलंकार की सजीवता में कागज़ के धरातल पर उतर कर शांत हो जाएँ| वह लिखना चाहती है क्योंकि उसके “अन्दर बैठी सत्ता ने बगावत कर दी है/ क्योंकि तख्ता पलट यूं ही नहीं हुआ करते” उसके लिए अपने वजूद और अस्तित्व का आभास होना आवश्यक होता है| जहाँ अस्तित्व और वजूद की बात होगी वहां टकराव की संभावनाएं भी मूर्तमान हो उठती है| कवयित्री उन्हीं संभावनाओं में से शब्दों का संस्कार परिवेश को देना चाहती है “जिसमें हो एक नया उद्घोस/ जिसमें हो एक नया सूर्योदय/ अपनी प्रभामंडल के साथ/ अपनी आभा विखेरता/ और अपने लिए खुद/ अपनी धरती चुनता हुआ/ जिस पर रख सकूं मैं अपने पैर/ नहीं जिसकी जमीन पर कोई फिसलन/ हो तो बस एक/ आकाश से भी विस्तृत/ मेरा अपना आकाश|” अपना आकाश और अपनी जमीन हो तो मनुष्य मुक्त भाव से विचरण करता है और अपने अनुसार समय-सौन्दर्य का आख्यान रचता है|
वंदना गुप्ता के रचनात्मक मनोभाव से गुजरते हुए भारतीय लोक की परिक्रमा करना आवश्यक हो जाता है| ऐसा लोक जहाँ स्त्रियों के लिए न तो उसकी जमीन रही और न ही उसका अपना आकाश| कोई भी मनुष्य समूह से अलग होकर ‘अपने’ मात्र की वर्तमानता का स्वप्न ऐसे ही नहीं संजोता| यहाँ “आकाश से भी विस्तृत/ मेरा अपना आकाश” का स्वप्न देखना इसलिए भी उसके लिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि “पुरुष वर्चस्व” की नीति ने स्त्रियों को हर समय बेदखल करने की धमकियां दी है| धमकियों के बरख्स जी रहे स्त्रियों के विषय में कवयित्री का कहना है कि “मैं नहीं जानती अपने अन्दर की उस लड़की को” जो पुरुष-दृष्टि के नीचे अपनी गर्दन झुकाए हुए तमाम दुश्वारियों, मुसीबतों, झंझावातों, फटकारों आदि को सहते हुए तिल-तिल, घुट-घुट कर जीती आई है| वह षड्यंत्रों की सीमाओं में बंधकर जीने के बजाय उससे मुक्ति के लिए “नए नए तरीके ईजाद करने की/ कवायद शुरू कर दी है|”
स्त्रियों ने अपने दायरों और स्वतंत्रता के पैमाने स्वयं निर्धारित करना शुरू कर दिया है| यह भी स्पष्ट है कि यह मध्यकालीन समय न होकर अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता लिए उत्तर-आधुनिक युग का प्रथम चरण है जहाँ पर सभी ने, स्त्री हो या पुरुष, एक-दूसरे के संसर्ग-सरक्षण में रहते हुए अपने-अपने हथियार और सुरक्षात्मक कवच तैयार किये हैं| शिकारी और शिकार के गुणा-गणित को पूरी दक्षता के साथ जिए बैठे हैं इसलिए अहेरी के रूप में मशहूर पुरुष-जाति को सचेत करते हुए वह कहती है-“दाँव पेंच की जद्दोजहद में उलझे तुम/ संभल जाना इस बार/ क्योंकि जरूरी नहीं होता/ हर बार शिकार शिकार शिकारी ही करे/ इस बार शिकारी के शिकार होने की प्रबल संभावना है|” कवयित्री का यह कहना कि “बांधों में बंधे दरिया जब बाँध तोड़ते हैं/ तो सैलाब में न गाँव बचते हैं ना शहर” पुरुष की लोलुपता भरे दृष्टिकोण को परिवर्तित कर अस्तित्व के मुहाने से होने वाले विध्वंश के प्रति संकेत करते हुए उसे सचेत करना है|
प्रवेश सोनी |
धमकियों के बरख्स त्याग की यथार्थता का जो दंश स्रियों के हृदय में टीस बनकर कुरेंद रहीं हैं, यह पुरुष मानसिकता के केन्द्र में बलात पाल बैठे पाशविक प्रवृत्तियों की मानसिकता वाले प्राणियों को समझ लेना चाहिए कि, ये टीस सामान्य नहीं हैं| मौसम यहीं से रुख बदलना प्रारंभ करता है और इस स्वाभाविकता में “अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद/ जब भी दखल करते हैं/ हदों की खामोशियों में/ एक जंगल चिंघाड़ उठता है/ दरख़्त सहम जाते हैं/ पंछी उड़ जाते हैं पंख फड़फड़ाते/ घोसलों को छोड़ना कितना दुरूह होता है/ मगर चीखें कब जीने की मुहताज हुई हैं/ शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते/ शब्दों का अंधड़ हदों को नागवार गुजरता है/ तो तूफ़ान लाजमी है” तूफ़ान आने के बाद ही पुराने रस्मों-रवायतों से सजे समय-समाज का नवीन निर्माण होता है| निर्माण के इसी रास्ते से परिवेश की “सीमाएं नेस्तनाबूत” होकर व्यावहारिक संस्कृति के प्रवाह को गतिमान करती हैं|
स्त्री-पुरुष के संबंधों में नवीन राहों का अन्वेषण करते हुए वह पाती है कि कुछ भी कह देने की बजाय यह मान लेना श्रेयस्कर है कि “अभी अध्ययन का विषय है ये”| कवयित्री चाहती है कि व्यावहारिक संस्कृति की परिधि में आने के बाद हमें स्त्री-पुरुष के यथार्थ संबंधों की पुनर्व्याख्या करनी चाहिए| ऐसी व्याख्या जहाँ प्रेम और देह का सम्मिश्रण हो क्योंकि देह यदि भावनाओं को संबल प्रदान करने वाला आकर्षण है तो प्रेम उस आकर्षण से परे जाने वाला माध्यम है| संबंधों की आरोह और अवरोह में भटकन और स्थायित्व की यथास्थिति यहीं अपना व्यवहार पाती है|
जहाँ प्रेम होता है वहाँ शरीर नहीं होते
आत्मिक रिश्ता अराधना, उपासना बन रूह मे उतर जाता है
जीवन में नव संचार भरता है
क्योंकि
चाहिये होता है एक साथ ऐसा
जहाँ प्रेम का उच्छवास हो
जहाँ प्रेम की स्वरलहरियाँ मनोहारी नृत्य करती होँ
और कुम्हलायी शाखाओं को
प्रेमरस का अमृत भिगोता हो
तो कैसे ना अनुभूति का आकाश विस्तृत होगा
कैसे ना मन आँगन प्रफ़ुल्लित होगा
क्योंकि
जीवन कोरा कागज़ भी नहीं
जिसका हर सफ़ा सफ़ेद ही रह जाये
भरना होता है उसमें भी प्रेम का गुलाबी रंग
और ये तभी संभव है जब
आत्मिक राग गाते पंछी की उडान स्वतंत्र हो
और जहाँ शरीर होते हैं वहाँ प्रेम नहीं होता
दैहिक रिश्ता नित्य कर्म सा बन जाता है
क्योंकि
कोरे भावों के सहारे भी जीवन यापन संभव नहीं
जरूरी होता है ज़िन्दगी में यथार्थ के धरातल पर चलना
भावना से ऊँचा कर्तव्य होता है
इसलिये जरूरी है
दैहिक रिश्ते को आत्मिक प्रेम के लबरेज़ रिश्ते से विलग रखना
क्योंकि
गर दोनों इसी चाह मे जुट जायेंगे तो
सृष्टि कैसे निरन्तरता पायेगी
इसलिये प्रवाह जरूरी है
देहात्मक रिश्ते का अपनी दशा”
देह और प्रेम के माध्यम से सामाजिक संबंधों की इस प्रवाह को बनाए रखना हमारे समय की और अन्य सभी समयों की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है| यह कम विडंबना की बात नहीं है कि हमारे बीच में ‘देह’ आकर्षण के केंद्र में जितना महत्त्वपूर्ण रहा है प्रेम उतनी ही तीव्रता के साथ अनुपस्थित होता रहा है|
प्रवेश सोनी |
इस रास्ते यह भी आभास होता है कि जब “ये पंछियों के उड़ने और दाना चुगने का वक्त है” हमारा समय अपने सामने पड़ने वाले सबसे सीधे प्रश्न से मुंह छुपाता है| यह प्रश्न सुरक्षा और अस्मिता को केन्द्र रखकर चलने वाला प्रश्न है| आदर्षता के मुहाने से यथार्थ की मांग करने वाला प्रश्न है| यह मांग इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि “जिन्दा जमीर महज खोखला आदर्शवाद है आज/ फिर स्त्री और देश की दशा-दुर्दशा पर चिंतन कौन करे/ एक प्रश्न ये भी उठाया तो जा सकता है/ मगर हल के कोटर हमेशा खाली ही मिलेंगे|” उत्तर के नाम आदर्श की जमीन खोजती वही घिसी-पिटी मानसिकता की निर्मित में बनी एक नीरस प्रतिक्रिया दे दी जाती है जिसमें जितना अभ्यस्त भुक्तभोगी है उससे कहीं अधिक अभ्यस्त हमारे समय का उपदेशक है|
इन सभी स्थितियों के साथ एक परिधि स्वाभाविक मनःस्थिति की भी होती है| यहाँ ठीक है कि, भोगा हुआ यथार्थ ही मनुष्य की मानसिक चेतना का संस्कार करती है, लेकिन हो सकता है यह व्यक्तिगत यथार्थ हो और यदि सामूहिक और सामाजिक भी हो तो भी, सभी पुरुष उस मनःस्थिति के दायरे में नहीं आते जैसा कि कवयित्री के काव्य-संसार में उनके दिग्दर्शन होते हैं| कवयित्री की रचनाधर्मिता और भी प्रभावी बन पड़ेगी जब वह स्त्रियों के उस यथार्थ को भी आवाज देना प्रारंभ कर देगी जिसमें पुरुष का अस्तित्व भी छला जाता है| जब कवयित्री यह कहती है कि “यूं अपने ही नाखूनों से अपनी ही खरोंचों को/ खरोचना आसान नहीं होता” तो कहीं गहरे में स्त्री समुदाय के उस खरोंच को कुरेंदने से बचाती है स्वयं को, जो उसने महज दिखावे के लिए अपने शरीर पर बढ़ने दिए हैं| अपने व्यावहारिक रूप में स्त्री की यथार्थता को पुरुष के माध्यम से यह कहलवाना “और तुम मेरी प्रकृति का लिखित हस्ताक्षर हो” ठीक है कि पुरुष-प्रकृति को शब्द देकर उसके यथार्थ को लोगों के सामने लाना है, लेकिन यथार्थ इतना भी भयावह परिवेश का नहीं है कि वह अपनी प्रियतमा को अपनी यादों में लेकर नहीं चल रहा हो| जब लोक में प्रचलित इस कहावत की तरफ देखा जाता है “बिन घरनी घर भूत का डेरा” तो गहरे में उस घरनी का निहितार्थ मात्र घर को सजाने वाली औरत से नहीं होता अपितु जीवन-संगिनी के रूप में साथ-साथ चलने वाली प्रियतमा का भी होता है|
वन्दना गुप्ता |
यदि कवयित्री यह कहती है कि “आँच जलती भी रही/ रोटी पकती भी रही/ भूख मिटती भी रही/ मैनें उस चूल्हे की तपन में खुद को सेंका है|” तो रोटी-तवा-चूल्हे के बीच की यात्रा में तपे स्त्री भी हैं और पुरुष भी हैं| यहाँ तक पहुँचने और उसका उपभोग करने के अनुभव अलग भले ही हो सकते हैं लेकिन यथार्थ दोनों के एक होते हैं| यह सच है कि कवयित्री ने कहन के अंदाज को अपने अभिव्यक्ति-कौशल के माध्यम से धार दिया है लेकिन विषय को विस्तार देने में शब्दों के अपव्यय को भी आमंत्रित किया है| अपव्यय में सरसता और प्रवाह है जो कहीं भी बोर नहीं करती इसलिए ये कविताएँ सीधे मस्तिष्क से गुजरते हुए हृदय में स्थान बनाने के लिए सक्षम हो पाती हैं|
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अनिल कुमार पाण्डेय जी आपकी तहेदिल से आभारी हूँ जो आपने इतना गहन अध्ययन कर विवेचना की. लिखना तभी सार्थक है जब वो खुद के साथ पढने वाले के दिल तक भी पहुँचे. आज मेरी कविताओं को ये मंच और पड़ताल देकर आपने कृतार्थ किया. @satya patel जी आपकी हार्दिक आभारी हूँ.
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