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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 दिसंबर, 2017

फ़िलिम

                  पंचलैट : कहानी से सलीमा तक
        
                                   ममता पाण्डेय

लगभग 50 साल बाद हिन्दी के मशहूर कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु की दूसरी कहानी पर फिल्म बनी है। सबसे पहला जोखिम तो साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाने का निर्णय ही होता है और उससे भी बड़ा जोखिम कि कहानी आंचलिक परिवेश पर आधारित है।
ममता पाण्डेय
प्रेम प्रकाश मोदी ने अपने इस साहसिक सफर में सिनेमा और बाज़ार के बीच साम्यता बनाने के लिए कहानी को थोड़ा सहज और साधारण रखने की कोशिश की। इससे तो असहमत नहीं हुआ जा सकता है सिनेमा बाज़ार की चीज है। बाज़ार लोकप्रियकरण के सिद्धांत पर विश्वास करता है। ज़ाहिर है कि ‘पंचलैट’ बनाते समय निर्माता-निर्देशक ने कथा की साहित्यिक अस्मिता बचाने के साथ-साथ बाजार की जिजीविषा को भी ध्यान में रखा होगा। ये और बात है कि बेस्टसेलर की होड़ में अब साहित्य भी बाजारोन्मुख है। अब ये कितना गलत है और कितना सही -विवेचना का ये अलग विषय है।
कथा का परिवेश आज़ादी के बाद के देहाती पृष्ठभूमि पर आधारित है। तमाम तरह की कुरीतियों से जकड़ा गाँव- वर्तमान समय में अपनी आस्था से कूच कर गया है और देहाती आस्था का भोलापन अब खत्म हो चुका है। पंचलैट आज भी यहाँ टोले में कुछेक घरों में ही मिलेगा।  निर्देशक का विजुअलाईजेशन कहानीकार के विज़न से अलग होता है। कहानी में सिर्फ रचनाकार का वर्तमान और भोगा हुआ यथार्थ होता है, फिल्मकार के लिए रचनाकार का यथार्थ के साथ उसका अपना अनुभव और वर्तमान परिवेश भी उसमें शामिल रहता है।  इसलिए भी कहा जाता है किसी भी साहित्यिक कृति पर फिल्म बनाना समानांतर रचना करना है। प्रेम मोदी ने कहानी के देहाती स्वरूप को थोड़ा ज्यादा रंगीन और संश्लिष्ट कर दिया है और यही बात शुद्धतावादियों के गले की हड्डी बन गई। जिस देश में कथाहीन फिल्में भी सुपरहिट हो जाती हैं, गीत-नृत्य प्रधान या मसाला फिल्में पैसा कमा लेती हैं, वहाँ इस ओल्ड फैशन्ड कहानी पर बनी फिल्म कौन देखेगा? प्रेम मोदी ने इन तमाम साहित्यिक और लोकप्रिय शैलियों के बीच से रास्ता निकालते हुए कुछ मॉर्डन नुआनसेंस के साथ फिल्म के परिवेश को चित्रित किया। स्वप्न और यथार्थ के बीच पटकथा हिचकोले खाते हुए दर्शकों तक पहुँचती है।


फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की कहानी फिल्म में ‘जीव’ की तरह है। मनुष्य के शरीर में सभी अंग हो और जीव ना हो तो उसके अंगों के होने न होने से कोई मतलब नहीं होता है। निर्देशक ने कथानक को सहज और संप्रेषणीय शैली में रखा । सिनेमा और साहित्य की कथा संरचना अलग अलग है, थोड़े से विशद रूप में कहे तो कथा संरचना साहित्यिक फॉर्म ही है। हो सकता है एक ही चीज़ के दो इंटरप्रिटेशन आपको देखने को मिल जाए। प्रेमचंद की कहानी सद्गति और सत्यजित रॉय की फिल्म में एक ही घटना को दो अलग-अलग तरह से सांकेतिक रूप से दिखाया गया है। कहानी में ‘कुल्हाड़ी के छूट कर गिरने’ और सत्यजित राय के फिल्म में‘कुल्हाड़ी के धंसे रहने में’ अलग-अलग अर्थ व्यंजित हो रहे हैं। एक तरफ सनातनी ब्राह्मणवादी उत्पीड़न और अत्याचार के खिलाफ पराजित हो जाना है, तो दूसरी तरफ उस व्यवस्था के खिलाफ भारी प्रहार के धंसे रहने का प्रतीकात्मक अर्थ। यह अर्थ विस्तार है। ‘पंचलैट’ फिल्म के अंत में पेट्रोमैक्स जलाने के लिए गोधन मुनरी से सुंगधित तेल लाने के लिए कहता है, जबकि कहानी में नारियल तेल से ही काम चल जाता है। यहाँ एक पैराडॉक्स जक्सटापॉजीशन (स्थिति) दिखती है। यह पैरॉडॉक्स या विषमता वर्तमान स्थिति को भी जाहिर करता है। आज भी कोसी या उस क्षेत्र में बिजली, यातायात आदि जन संसाधनों की कमी है। लेकिन बाज़ार वहाँ तक खूशबू वाले तेल और शैम्पू पाउच के साथ प्रवेश कर चुका है। करोड़ों रूपए की लागत के पुल निर्माण और सड़को के विकास की योजना के बावजूद इस क्षेत्र का विकास नहीं हो पा रहा है। ये तमाम टूल्स बाजार के विकास के लिए है। आज भी यहाँ के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में शादी, ब्याह और श्राद्ध जैसे मौंको पर पंचलैट (कुछ हिस्सों में जेनरेटर) जलाया जाता है।

एक जमाने में एनएफडीसी की सहायता से कई साहित्यिक फिल्मों का निर्माण हुआ था। मणि कौल की अधिकतर फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित है। ऐसी फिल्में को कितने लोगों ने देखा है, हर बात पर साहित्य का रट्टा मारने वाले संरक्षकों को भी खंगाल कर देखिए। वे फिल्में अपने क्राफ्ट के हिसाब से अद्भुत है। लेकिन अपने ही लोगों के लिए एलियन साबित हुई। ‘उसकी रोटी’ मोहन राकेश की कहानी पर आधारित फिल्म थी। फिल्म में रितादान्दों म्युजिकल क्राफ्ट की तरह दृश्य धीरे धीरे ठहर जाता है, एक दृश्य के घटित होने के बीच में ठहराव और ठहराव के साथ अन्य दृश्यों का गुजर जाना। ऐसा टेम्पो सिर्फ निर्मल वर्मा की कहानियों में मिलता है। गौरतलब है कि इस फिल्म को साहित्यिक मर्मज्ञों ने इसी ठहराव और स्लो टेम्पो के लिए खारिज कर दिया। फिल्म पंचलैट में मूल घटना से इतर कई परिघटनाएं घटती है, और ये घटनाएं समान्य फिल्मी फार्मूला के आधार पर ही घटित होती हैं। यहाँ दृश्य डायनेमिक होते साहित्य के अपने तत्व होते हैं, उन तत्वों को जब सिनेमा के अनुसार ढ़ाला जाता है तो आरंभ, विकास, चरम सीमा और अंत को चुना जाता है। सिनेमा के फार्म को ध्यान में रखकर इन्हीं तत्वों के आधार पर दृश्य की संरचना की जाती है। फिर निर्देशक प्लॉट सेट करता है। पंचलैट फिल्म का प्लॉट भी इन्ही तत्वों पर आधारित है। राजकपूर को बार – बार दृश्यों में याद करना भी प्लॉट का हिस्सा है। आरेखीय कथा संरचना इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष रहा है और इसके बिना इस कहानी पर मेनस्ट्रीम सिनेमा बनाना असंभव ही होता। पटकथा में फ्लैशबैक, अखंडित और खंडित-जुड़ी सभी तत्वों को क्रम में लेकर काल्पनिक दृश्य भी शामिल होते हैं जिसे फिल्म की मुख्य घटना साथ संबंद्ध किया जाता है। निर्देशक मोदी ने रासलीला के दृश्य के साथ फिल्म को जोड़ा है, इस दृश्य को जोड़ने के पीछे समकालीन कहानियों का आधार जरूर रहा होगा। आप ‘महतो’ जाति की सामाजिक संरचना का अवलोकरन करेंगे तो पाएंगे, ये ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ में सबसे संपन्न जाति है। प्रेमचंद की कहानियों में भी इसका प्रसंग मिलता है। भागवत, यज्ञ और रासलीला को लेकर ये काफी आसक्त जाति है, ‘सवा सेर गेहूँ’ तथा अन्य कहानियों में इस तरह की प्रवृत्ति के बारे में लिखा गया है। फिल्म में रासलीला का दृश्य कथा का ही विस्तार है, अतिरेक नही।


‘पंचलैट’ बहुत बड़ी क्लासिक फिल्म नहीं है, इसे सामान्य फिल्मी फार्मूले के आधार पर बनाया गया है। सबसे बड़ी बात है ये आम दर्शकों के लिए बनाया गया है। ‘पंचलैट’ सलीमा देखने के बजाय अगर आप स्क्रीन पर कहानी पढ़ने जा रहे हैं तो आपका निराश होना तय है। सिनेमा साहित्य से संबंद्ध होते हुए भी अलग विधा है। प्रेमचंद का सिनेमा से मोहभंग होने के बावजूद भी वो इसे साहित्य का कार्यक्षेत्र मानते  है।   सही अर्थों में कोई उपन्यास या कहानी जब सेल्युलाइड पर उतारी जाती है तो वह ‘कथा का फिल्मांकन होते हुए भी स्वायत्त और स्वतंत्र’ होती है। बिल्कुल समानान्तर रचना जिसका हर दृश्य कहानी या उपन्यास का पुनर्पाठ होता है।
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ममता पांडेय
कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर
पेशे से शिक्षिका एवं संस्कृतिकर्मी
नीलाम्बर संस्था के कुछ नाटकों का निर्देशन एवं नाटकों में अभिनय
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ईमेल- mamtatrans@gmail.com

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