रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ
मूल रूसी से अनुवाद: अनिल जनविजय
कविताएं
एक
माँ की मीठी आवाज़
घर लौट रहा था दफ़्तर से मैं बेहद थका हुआ
मन भरा हुआ था मेरा कुछ, ज्यों फल पका हुआ
देख रहा था शाम की दुनिया, ख़ूबसूरत हरी-भरी
लोगों के चेहरों पर भी सुन्दर संध्या थी उतरी
तभी लगा यह जैसे कहीं कोई बजा हो सुन्दर साज
याद आ गई मुझे अपनी माँ की मीठी आवाज़
घूम रहा था मैं अपनी नन्ही बिटिया के साथ
थामे हुए हाथ में अपने उसका छोटा-सा हाथ
तभी अचानक वह हँसी ज़ोर से, ज्यों गूँजा संगीत
लगे स्मृति से मेरी भी झरे है कोई जलगीत
वही धुन थी, वही स्वर था उसका, वही था अन्दाज़
कानों में बज रही थी मेरे माँ की मीठी आवाज़
कितने वर्षों से साथ लिए हूँ मन के भीतर अपने
दिन गुज़रे माँ के संग जो थोड़े, वे अब लगते सपने
थका हुआ माँ का चेहरा है, जारी है दूसरी लड़ाई
चिन्ता करती माँ कभी मेरी, कभी पिता, कभी भाई
तब जर्मन हमले की गिरी थी, हम पर भारी गाज
याद मुझे है आज भी, यारों, माँ की मीठी आवाज़
आज सुबह-सवेरे बैठा था मैं अपने घर के छज्जे
जोड़ रहा था धीरे-धीरे कविता के कुछ हिज्जे
चहक रही थीं चिड़िया चीं-चीं, मचा रही थीं शोर
उसी समय गिरजे के घंटों ने ली मद्धिम हिलोर
लगी तैरने मन के भीतर, भैया, फिर से आज
वही सुधीरा और सुरीली माँ की मीठी आवाज
००
दो
अशान्तिकाल का गीत
समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध
क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास?
००
तीन
जाता हुआ साल
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
देश पर चला दी आरी
लूट-खसोट मचा दी भारी
अराजकता फैली चहुँ ओर
महाप्रलय का आया दौर
इस गड़बड़ और तबाही ने जन को बहुत सताया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
अपने पास जो कुछ थोड़ा था
पुरखों ने भी जो जोड़ा था
लूट लिया सब इस साल ने
देश में फैले अकाल ने
ठंड, भूख और महाकाल की पड़ी देश पर छाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
भंग हो गई अमन-शान्ति
टूटी सुखी-जीवन की भ्रान्ति
अफ़रा-तफ़री-सी मची हुई है
क्या राह कहीं कोई बची हुई है
बस, जन का अब यही एक सवाल है
क्यों लाल झण्डे का हुआ बुरा हाल है
हँसिया और हथौड़े को भी, देखो, मार भगाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
००
चार
मौत के बारे में सोच
मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच
मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच
मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच
देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण
००
पांच
नववर्ष की पूर्व सन्ध्या पर
मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल
यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान
गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क
देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर
याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
००
छः
कैसे आए वर्ष
आज मन हुआ मेरा फिर से कुछ गाने का
फिर से मुस्कराने का
सिर पर मंडराती मौत को डरा कर भगाने का
फिर से हँसने औ' हँसाने का
चिन्ता नहीं की कुछ मैंने अपनी तब
जब सेवा की इस देश की
मैं झेल गया सब तकलीफ़ें, पीड़ा
इस जीवन की, परिवेश की
पर अब समय यह कैसा आया
कैसे आए वर्ष
छीन ले गए जीवन का सुख सब
छीन ले गए हर्ष
श्रम करता मैं अब भी बेहद
अब भी तोड़ूँ हाड़
देश बँट गया अब कई हिस्सों में
हो गया पन्द्रह फाड़
भूख, तबाही और कष्ट ही अब
जन की हैं पहचान
औ' सुख-विलास में मस्त दिखें सब
क्रेमलिन के शैतान
दिन वासन्ती फिर से आया है
कई वर्षों के बाद
जाग उठा है देश यह मेरा फिर
बीत रही है रात
मेहनत गुलाम-सी करता हूँ मैं
पर दास नहीं हूँ मैं
महाशक्ति बनेगा रूस यह फिर से
हताश नहीं हूँ मैं
००
सात
माया
नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान
मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान
किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?
००
आठ
फ़र्क
नहीं, ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किस घास पर चलता हूँ मैं
किसे बुलाऊँ स्नेह से--- रानी
और अपने खत्ती-बखार में
कौन अनाज भरता हूँ मैं
नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किसे बनाता हूँ मैं मित्र
किसके साथ पीता हूँ जाम
किसके संग सुख-दुख बाँटूँ मैं
और किसके साथ खिचाऊँ चित्र
नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि लोग मुझे किस नाम से पुकारते हैं
मुझे गर्व है अपने नाम पर
मैं पुत्र हूँ रूसी धरती का
आप भी समझिए इसे, दोस्तों !
सब यह बात जानते हैं
००
नौ
काई
टुण्ड्रा प्रदेश में
जहाँ कठोर ठण्डी हवाएँ चलती हैं
अंगुल भर ज़मीन भी दिखाई नहीं देती
सिर्फ़ बर्फ़ ही बर्फ़ है जहाँ चारों ओर
अँधेरे का साम्राज्य है, होती नहीं है भोर
फूल, पत्तियाँ, पेड़ जैसी कोई चीज़ नहीं
मैंने धड़कते देखा वहाँ जीवन
काई के रूप में
और वहाँ
फटा था विशाल एक ज्वालामुखी जहाँ
धुआँ ही धुआँ था, लावा ही लावा चारों ओर
आसमान में बादल भी करते नहीं थे शोर
मैंने देखा वहाँ भी जीवन-फूल खिला
काई के रूप में
काई को प्रकाश नहीं चाहिए
कोई भोजन, सान्त्वना, कोई आस नहीं चाहिए
कहीं भी उग आती है वह
कैसी भी हालत हो, कैसा भी मौसम हो
जीवन हो कैसा भी, देती है सुख
जब से मैंने ख़ुद को काई जैसा ढाला
भूल गया मैं इस दुनिया के सारे दुख
००
दस
तेरा चेहरा
शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात
धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार
कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास
००
ग्यारह
दोस्ती
दोस्त ने धोखा दिया
मन में तकलीफ़ है
कष्ट है, दुख है बहुत
लेकिन इसमें ग़लती नहीं कोई
दोस्ती की
उसे मत कोस तू
सूर्योदय के पहले जब मन शान्त हो
पक्षियों का आनन्दमय कलरव सुन
और ग़लती तूने कहाँ की, यह गुन
००
बारह
बरखा का एक दिन
हवा चली जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम
गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज
भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया
००
तेरह
सौत सम्वाद
(एक लोकगीत को सुनकर)
ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी
सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी
वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी
वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी
न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी
००
अनुवादक : अनिल जनविजय
अनतोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को रूस के स्मालेंस्क ज़िले के तिनोफ़्का गाँव में हुआ था। आज 77 वर्षीय परपरा रूस के विश्वप्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं का अनुवाद हिन्दी, तमिल, तेलुगु सहित दुनिया की छियालीस भाषाओं में हो चुका है।
मूल रूसी से अनुवाद: अनिल जनविजय
कविताएं
एक
माँ की मीठी आवाज़
घर लौट रहा था दफ़्तर से मैं बेहद थका हुआ
मन भरा हुआ था मेरा कुछ, ज्यों फल पका हुआ
देख रहा था शाम की दुनिया, ख़ूबसूरत हरी-भरी
लोगों के चेहरों पर भी सुन्दर संध्या थी उतरी
तभी लगा यह जैसे कहीं कोई बजा हो सुन्दर साज
याद आ गई मुझे अपनी माँ की मीठी आवाज़
घूम रहा था मैं अपनी नन्ही बिटिया के साथ
थामे हुए हाथ में अपने उसका छोटा-सा हाथ
तभी अचानक वह हँसी ज़ोर से, ज्यों गूँजा संगीत
लगे स्मृति से मेरी भी झरे है कोई जलगीत
वही धुन थी, वही स्वर था उसका, वही था अन्दाज़
कानों में बज रही थी मेरे माँ की मीठी आवाज़
कितने वर्षों से साथ लिए हूँ मन के भीतर अपने
दिन गुज़रे माँ के संग जो थोड़े, वे अब लगते सपने
थका हुआ माँ का चेहरा है, जारी है दूसरी लड़ाई
चिन्ता करती माँ कभी मेरी, कभी पिता, कभी भाई
तब जर्मन हमले की गिरी थी, हम पर भारी गाज
याद मुझे है आज भी, यारों, माँ की मीठी आवाज़
आज सुबह-सवेरे बैठा था मैं अपने घर के छज्जे
जोड़ रहा था धीरे-धीरे कविता के कुछ हिज्जे
चहक रही थीं चिड़िया चीं-चीं, मचा रही थीं शोर
उसी समय गिरजे के घंटों ने ली मद्धिम हिलोर
लगी तैरने मन के भीतर, भैया, फिर से आज
वही सुधीरा और सुरीली माँ की मीठी आवाज
००
दो
अशान्तिकाल का गीत
समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध
क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास?
००
तीन
जाता हुआ साल
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
देश पर चला दी आरी
लूट-खसोट मचा दी भारी
अराजकता फैली चहुँ ओर
महाप्रलय का आया दौर
इस गड़बड़ और तबाही ने जन को बहुत सताया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
अपने पास जो कुछ थोड़ा था
पुरखों ने भी जो जोड़ा था
लूट लिया सब इस साल ने
देश में फैले अकाल ने
ठंड, भूख और महाकाल की पड़ी देश पर छाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
भंग हो गई अमन-शान्ति
टूटी सुखी-जीवन की भ्रान्ति
अफ़रा-तफ़री-सी मची हुई है
क्या राह कहीं कोई बची हुई है
बस, जन का अब यही एक सवाल है
क्यों लाल झण्डे का हुआ बुरा हाल है
हँसिया और हथौड़े को भी, देखो, मार भगाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
००
गूगल से |
चार
मौत के बारे में सोच
मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच
मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच
मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच
देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण
००
पांच
नववर्ष की पूर्व सन्ध्या पर
मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल
यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान
गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क
देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर
याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
००
छः
कैसे आए वर्ष
आज मन हुआ मेरा फिर से कुछ गाने का
फिर से मुस्कराने का
सिर पर मंडराती मौत को डरा कर भगाने का
फिर से हँसने औ' हँसाने का
चिन्ता नहीं की कुछ मैंने अपनी तब
जब सेवा की इस देश की
मैं झेल गया सब तकलीफ़ें, पीड़ा
इस जीवन की, परिवेश की
पर अब समय यह कैसा आया
कैसे आए वर्ष
छीन ले गए जीवन का सुख सब
छीन ले गए हर्ष
श्रम करता मैं अब भी बेहद
अब भी तोड़ूँ हाड़
देश बँट गया अब कई हिस्सों में
हो गया पन्द्रह फाड़
भूख, तबाही और कष्ट ही अब
जन की हैं पहचान
औ' सुख-विलास में मस्त दिखें सब
क्रेमलिन के शैतान
दिन वासन्ती फिर से आया है
कई वर्षों के बाद
जाग उठा है देश यह मेरा फिर
बीत रही है रात
मेहनत गुलाम-सी करता हूँ मैं
पर दास नहीं हूँ मैं
महाशक्ति बनेगा रूस यह फिर से
हताश नहीं हूँ मैं
००
गूगल से |
सात
माया
नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान
मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान
किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?
००
आठ
फ़र्क
नहीं, ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किस घास पर चलता हूँ मैं
किसे बुलाऊँ स्नेह से--- रानी
और अपने खत्ती-बखार में
कौन अनाज भरता हूँ मैं
नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किसे बनाता हूँ मैं मित्र
किसके साथ पीता हूँ जाम
किसके संग सुख-दुख बाँटूँ मैं
और किसके साथ खिचाऊँ चित्र
नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि लोग मुझे किस नाम से पुकारते हैं
मुझे गर्व है अपने नाम पर
मैं पुत्र हूँ रूसी धरती का
आप भी समझिए इसे, दोस्तों !
सब यह बात जानते हैं
००
नौ
काई
टुण्ड्रा प्रदेश में
जहाँ कठोर ठण्डी हवाएँ चलती हैं
अंगुल भर ज़मीन भी दिखाई नहीं देती
सिर्फ़ बर्फ़ ही बर्फ़ है जहाँ चारों ओर
अँधेरे का साम्राज्य है, होती नहीं है भोर
फूल, पत्तियाँ, पेड़ जैसी कोई चीज़ नहीं
मैंने धड़कते देखा वहाँ जीवन
काई के रूप में
और वहाँ
फटा था विशाल एक ज्वालामुखी जहाँ
धुआँ ही धुआँ था, लावा ही लावा चारों ओर
आसमान में बादल भी करते नहीं थे शोर
मैंने देखा वहाँ भी जीवन-फूल खिला
काई के रूप में
काई को प्रकाश नहीं चाहिए
कोई भोजन, सान्त्वना, कोई आस नहीं चाहिए
कहीं भी उग आती है वह
कैसी भी हालत हो, कैसा भी मौसम हो
जीवन हो कैसा भी, देती है सुख
जब से मैंने ख़ुद को काई जैसा ढाला
भूल गया मैं इस दुनिया के सारे दुख
००
अवधेश वाजपेई |
दस
तेरा चेहरा
शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात
धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार
कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास
००
ग्यारह
दोस्ती
दोस्त ने धोखा दिया
मन में तकलीफ़ है
कष्ट है, दुख है बहुत
लेकिन इसमें ग़लती नहीं कोई
दोस्ती की
उसे मत कोस तू
सूर्योदय के पहले जब मन शान्त हो
पक्षियों का आनन्दमय कलरव सुन
और ग़लती तूने कहाँ की, यह गुन
००
बारह
बरखा का एक दिन
हवा चली जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम
गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज
भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया
००
अवधेश वाजपेई |
तेरह
सौत सम्वाद
(एक लोकगीत को सुनकर)
ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी
सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी
वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी
वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी
न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी
००
अनुवादक : अनिल जनविजय
अनतोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को रूस के स्मालेंस्क ज़िले के तिनोफ़्का गाँव में हुआ था। आज 77 वर्षीय परपरा रूस के विश्वप्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं का अनुवाद हिन्दी, तमिल, तेलुगु सहित दुनिया की छियालीस भाषाओं में हो चुका है।
एकदम घटिया अनुवाद। मन खराब हो गया सुबह सुबह। जिसको देखो अब वही अनुवादक हो जाता है।
जवाब देंहटाएंकितनी ख़ुशी होती यदि यही बात आप अपने नाम के साथ कहते ! हमें बुरी से बुरी और कड़वी से कड़वी बात अपने नाम व तर्क के साथ रखनी चाहिए।
जवाब देंहटाएंबेनामी जी, अगर आपकी मंशा केवल अनरगल टिप्पणी की न होकर एक स्वस्थ आलोचना की है, तो अपने नाम से टिप्पणी करें. आपकी आलोचकीय दृष्टि के क़ायल होंगे पाठकगण...
जवाब देंहटाएंसाथ ही आपसे कुछ बेहतरीन अनुवाद भेजने का भी अनुरोध है ..
जवाब देंहटाएंबेनामी साहब की प्रतिक्रिया सिर-माथे पर। भाई साहब, अभी सीख रहा हूँ। अभी बहुत आगे बढ़ना है।
जवाब देंहटाएं