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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 नवंबर, 2017

 महेश चन्द्र पुनेठा  की  कविताएं




कविताएं


एक

जो दवाएं भी डॉक्टर की लिखी नहीं,
अपने बटुवे के अनुसार खरीदती थी


असह्य दर्द होने पर ही
बच्चा कोख में दबा
वह अस्पताल जाती है
और हमेशा
गोलियों का एक हरा पत्ता लेकर
घर लौट आती है
***


उसकी परेशानियों को
सुनने के बाद
डॉक्टर आधे दर्जन से अधिक
जांचों के लिए लिख देता है
वह गिड़गिडाती है
कुछ जांचें तो कम करवा दो साहब

डॉक्टर पर्ची वापस लेकर
कुछ पेनकिलर लिख
उसे घर जाने को कहता है
वह राहत की एक लम्बी सांस लेती है.
***

गोठ में गाय-बच्छों
और
भीतर छोटे-छोटे बच्चों
को पड़ोसियों के भरोसे छोड़
दर्द से कराहती हुयी वह
अस्पताल पहुंची
डॉक्टर ने बताया
बच्चेदानी में बहुत अधिक इन्फेक्शन है
जल्द से जल्द आपरेशन कराना ही होगा.
वह सोच ही रही थी-
क्या करे ?
घर से सन्देश आ गया
कि गाय ब्या गयी है उसकी
लेकिन
उठ नहीं पायी है अभी तक

कुछ दर्दनाशक मांग
वह लौट चली अपने घर को.
**

खेती-बाड़ी का काम
उरूज पर होता है जब
उसका कमर और घुटनों का दर्द
पता नहीं कहाँ बिला जाता है
**

वह भूली नहीं थी
कि पिछली बार भी कुछ लाभ नहीं हुआ उसे
गंतुआ के बभूत और झाड-फूंक से
पर डॉक्टर की फीस
और दवाईयों के खर्चे के बारे में सोच
हर बार की तरह
आज भी उसके कदम
गंतुआ के घर की ओर मुड़ गये .
**


वह हमेशा अपना दर्द छिपाती ही रही
वह तो दर्द ही था
जिसने अब छिपने से इनकार कर दिया
अन्यथा आज भी पता नहीं चलता
किसी को
**

अब की बार हालत
इतनी बिगड़ गयी उसकी
कि भर्ती कराना पड़ा अस्पताल में
आज पहली बार
उसका पति भी उसके साथ था

नहीं लौट पायी वह
अबकी बार पेन किलर लेकर
पति को उसकी लाश लेकर लौटना पड़ा.
**

वह आज अचानक नहीं मरी
हाँ आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गयी.

कुंअर रवीन्द्र


दो


किसे डर लगता है प्रश्नों के खड़े होने से

पिंगपोंग की गेंद की तरह
उछलते-कूदते रहते हैं प्रश्न
बच्चों के मन में
खाते रहते हैं -
क्यों ,क्या,कैसे के टप्पे
उम्र बढ़ने के साथ-साथ
झिझक , डर, घबराहट के पत्थरों तले
दब जाते हैं प्रश्न
बार-बार आमंत्रित करने पर भी
नहीं हो पाते हैं खड़े
जैसे टूट चुके हों घुटने
सोचा कभी
कौन है जो तोड़ रहा है
प्रश्नों के घुटने
कितनी गहरी हैं चोटें
किसे डर लगता है
प्रश्नों के खड़े होने पर
सोचा है कभी .



तीन


बदलाव के  विरोधी

नाम बदल देने से
दशा नहीं बदल जाती है
जैसे वस्त्र बदलने से
विचार
वे भी अच्छी तरह जानते हैं
इस बात को .
दरअसल
बदलाव के वे हमेशा से विरोधी रहे हैं
अहसास भर हो जाय
बदलाव का
बस इतना ही काफी है उनके लिए
प्रतीकों पर
गहरा विश्वास है उनका
बदलाव को भी
प्रतीकों में ही अंजाम देते हैं वे .




चार

लोक

मेरा क्या है
कुछ भी तो नहीं
सब कुछ
तुम्हारा ही है
मेरे तो केवल
तुम हो .




पांच

पता नहीं

यही तो सबसे बड़ा अंतर है
गर कोई बटन टूट कर गिर जाय
मैं उठाकर
ताख पर रख देता हूँ.
फिर
या तो उसे भूल जाता हूँ
या बटन कहीं खो जाता है.
लेकिन तुम हो
बटन के टूटते ही
निकाल लाती हो सुई-तागा
लगे हाथ टांक देती हो
पता नहीं अभी
और कितना समय लगेगा
मुझे
तुम जैसा बनने में.
और
विस्थापन की पीड़ा समझने में.

कुंअर रवीन्द्र


छः

तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ


मिलती हो गर
किसी अजनबी महिला से भी
आँखें मिलते ही
बातें शुरू हो जाती हैं तुम्हारी
घर-बार,बाल-बच्चों से शुरू होकर
सुख-दुःख तक पहुँच जाती हो
बच्चों की आदतें
सास-ससुर की बातें
एक दूसरे के पतियों की
पसंद-नापसंद तक जान लेती हो
भीतर की ही नहीं
गोठ की भी कि-
कितने जानवर है कुल
कितने दूध देने वाले
और कितने बैल
कब की ब्याने वाली है गाय
और भी बहुत सारी बातें
जैसे साडी के रंग
पहनावे के ढंग
पैर से लेकर नाक–कान में
पहने गहन-पात के बारे में
ऐसा लगता है जैसे
जन्मों पुराना हो
तुम्हारा आपसी परिचय
आश्चर्य होता है कि
तुम कहीं से भी कर सकती हो
बातचीत की शुरुआत
जैसे छोटे बच्चे अपना खेल
कैसे मिलते ही ढूंढ लेते हैं
कोई नया खेल.
दूसरी ओर मैं हूँ
पता नहीं कितनी परतों के भीतर
कैद किये रहता हूँ खुद को
चाहकर भी शुरू नहीं कर पाता हूँ
किसी अजनबी से बातें
पता नहीं क्यों
सामने वाला अकड़ा-अकड़ा सा लगता है
बातचीत शुरू भी हो जाय तो
वही घिसी-पीटी
क्रिकेट-फिल्म या राजनीति की
न्यूज चैलनों से सुनी-सुनाई
या अखबार में पढ़ी हुयी
उसमें भी
दूसरों की सुनने से अधिक
खुद की सुनाने की रहती है
ढलान में उतरती धाराओं की तरह
सुख-दुःख तक पहुँचने में
तो जैसे
दसों मुलाकातें गुजर जाती हैं
देखता हूँ –
मुझ जैसे नहीं होते हैं किसान-मजदूर
पहली ही मुलाकात में
बीडी-तम्बाकू निकाल लेते हैं
बढाते हैं एक–दूसरे की ओर
शुरू हो जाती हैं
गाँव-जवार और खेती-बाड़ी की बातें
मैं भी होना चाहता हूँ तुम्हारी तरह
खिलाना चाहता हूँ हंसी के फूल
खोल देना चाहता हूँ सारी गांठें
बिखेर देना चाहता हूँ स्नेह की खुशबू
बसाना चाहता हूँ दिल की बस्ती
पर समझ नहीं आता है
किस खोल के भीतर पड़ा हूँ
एक घेंघे की तरह



सात


मुझे विश्वास नहीं होता

क्षेत्र का  कुआं
भाषा  का कुआं
धर्म का कुआं
जाति का कुआं
गोत्र का कुआं
रंग का कुआं
नस्ल का कुआं
लिंग का कुआं
कुएं के  भीतर कुएं बना डाले हैं तुमने
एक कुआं
उसके भीतर एक और कुआं
फिर एक और कुआं
ख़त्म ही नहीं होता है यह सिलसिला
सबसे भीतर वाले कुएं में
जाकर बैठ गए हो तुम
खुद को सिकोड़कर
जहाँ कुछ भी नहीं दिखाई देता है
मुझे शक है
कि तुम खुद को भी देख पाते हो या नहीं
लोग कहते हैं तुम जिन्दा हो
पर मुझे विश्वास नहीं होता है
एक जिन्दा आदमी
इतने संकीर्ण कुएं में
कैसे रह सकता है भला!



आठ

ग्रेफ़ीटी

प्रश्नों से भरे बच्चे
तब अपने जवाब लिखने में व्यस्त थे
उन्हें फुरसत नहीं थी सिर उठाने की
मेरे पास फुरसत ही फुरसत
इतनी कि ऊब के हद तक
मेजों/दीवारों/बेंचों में
लिखी इबारत पढने लगा
कहीं नाम लिखे थे पूरी कलात्मकता से
लग रहा था अपना पूरा मन
उड़ेल दिया होगा लिखने वाले ने
कहीं आई लव यू
या माई लाईफ.... जैसे वाक्य
पता नहीं
जिसके लिए लिखे गए हों ये वाक्य
उनका जीवन में
कोई स्थान बन पाया होगा कि नहीं
कहीं फ़िल्मी गीतों के मुखड़े
कहीं दिल का चित्र
खोद-खोदकर
जिसके बीचोबीच तीर का निशान
जैसे अमर कर देना चाहो हो उसे
कहीं फूल-पत्तियां और डिजायन
कहीं गलियां भी थी
कुछ उपनामों के साथ
कुछ धुंधला गयी थी
और कुछ चटक
कुछ गडमड नए पुराने में
आज कुछ यही हाल होगा
उनकी स्मृतियों
और भावनाओं का
यह कोई  नयी  बात नहीं
इस तरह की कक्षाएं
आपको हर स्कूल में मिल जायेंगी
यह स्कूल से बाहर भी
मैं पकड़ने की कोशिश कर रहा था
कि ये कब और क्यों लिखी गयी होंगी
ये इबारतें
क्या चल रहा होगा
उनके मन-मष्तिष्क में उस वक्त

क्या ये उनकी ऊब मानी जाय
या प्रेम व आक्रोश जैसे भावों की तीव्रता
जिसे न रख पाये हों दिल में

या किसी तक अपने मन की
बात को पहुंचाने का एक तरीका
लेकिन मैं नहीं पकड़ पाया
जब बच्चे जवाब लिखने में व्यस्त थे
मेरे मन में
अनेक सवाल उठ रहे थे –
क्या दुनिया के उन समाजों में भी
इसी तरह भरे होते होंगे
मेजें और दीवारें
जहाँ प्रेम और आक्रोश की
सहज होती होगी अभिव्यक्ति
जहाँ बच्चों को
जबरदस्ती न बैठना पड़ता होगा
बंद कक्षाओं में ......
या कुछ और है इसका मनोविज्ञान ?



नौ

परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े मोज़े-जूते

चल रही हैं बर्फीली हवाएं
तुम्हें हमारी सबसे अधिक जरूरत है अभी
हम परीक्षा कक्ष के बाहर पड़े-पड़े
सुन रहे हैं -
धडधडाते /हार्न बजाते गुजरते हुए
डंपरों और कक्षा-कक्ष में
इधर से उधर चहलकदमी करते बूटों की आवाज
हमें दिखाई दे रही है –
गर्मी पैदा करने की कोशिश में
तुम्हारे पैरों की आपस की रगड़
बार-बार टूट रही है तुम्हारी तन्मयता
हमें महसूस हो रही है –
ठण्ड कैसे तुम्हारे पैरों के पोरों से
पहुँच रही है हाथों की
अँगुलियों तक
लगता है जैसे बर्फीली हवाएं भी
ले रही हैं तुम्हारी परीक्षा
पता नहीं तुम पर गढ़ी दो-दो जोड़ी आँखें
ये सब देख पा रही हैं या नहीं
या फिर देखकर भी अनदेखा कर रही हैं
किसी मजबूरी में
गर्म कपड़ों में लदे-फदे उड़न दस्ते
ढूंढ रहे हैं नक़ल
लेकिन इस ठण्ड को नहीं ढूंढ पा रहे हैं
या ढूंढना नहीं चाहते हैं
भेजेंगे रिपोर्ट कंट्रोल रूप तक
सब कुछ चुस्त-दुरस्त बताया जाएगा
हम सोच रहे हैं –
क्या यह ठण्ड
या परिसर में गूंजती आवाजें नहीं प्रभावित करती है
किसी परीक्षा परिणाम को
कैसे हैं ये लोग
जिन्हें इतनी सी बात समझ नहीं आती
अवधेश वाजपेई


दस


जिन्दा होने का सबूत

घबराइए मत
इन क्रूर दिनों में
ब्लड प्रेशर का बढ़ना ,
आपके
जिन्दा होने का सबूत है.




ग्यारह


किससे कहूं

किससे कहूं
क्या कहूं
इन दिनों बार-बार
अपने ही दांतों के बीच
अपने ही होंठ आ जा रहे हैं
मैं घावों पर
जीभ सहला के रह जा रहा हूँ.




बारह


बना सकें ऐसी दुनिया

मैं छोटा आदमी
बहुत बड़ा नहीं सोच सकता हूँ
बस इतना काफी है
कि बना सकें ऐसी दुनिया
घर से बाहर गए हों बच्चे
देर भी हो जाय
गर घर लौटने में उन्हें
हम घर पर निश्चिन्त रह सकें




तेरह

आनंद

गर कोई पूछे मुझ से
आनंद क्या होता है
मैं इतना ही कहूँगा
उनकी आँखों में
डूब जाओ
 उनके शब्दों में
तैरकर आओ
जो
सृजन पथ के पथिक हैं
तुम्हें आनंद का
एक पारदर्शी सागर लहराता
दिखाई देगा वहां .
न चढ़ी हो अगर दिल में कोई परत
पता ही नहीं चलेगा
तुम खुद
उसमें कब डूब गये हो
यह कोई किताबी ज्ञान नहीं
जीवन से निकली एक कविता है


चौदह

 सोया हुआ आदमी

कितना दयनीय लगता है
बस के सफ़र में
सोया हुआ आदमी
पैन्दुलम की तरह झूलती हुयी उसकी गर्दन
बांयी ओर से घूमती हुयी अक्सर दांयी ओर लटक जाती है
कभी-कभी टकरा जाती है अगल-बगल के
अपने ही जैसे अन्य सोये हुए लोगों के सिरों से
फिर कभी एक –दूसरे के कंधे का सहारा पाकर
 स्थिर हो जाती है
अचानक ब्रेक लगने पर टकराती है अगली सीट से
बगल वाले के धकियाने या अगली सीट से टकराने पर
अपने को संभालते हुए गर्दन को एकदम सीधा कर
बैठ जाता है वह
जैसे कुछ हुआ ही न हो
यह जतलाना चाहता है
कि वह पूरे होशो-हवाश में सफ़र का आनंद ले रहा है
लेकिन कुछ ही देर बाद
फिर आँखें बंद और गर्दन लटकने लगती है
जैसे उसके वश में कुछ भी नहीं
हो सकता है रात को पूरी नींद न ले पाया  हो बेचारा
पता नहीं दुनिया के किन झंझटों फंसा रहा हो
वैसे भी इस पेचीदा दुनिया में सबकुछ कहाँ किसी के वश में.

बस के भीतर होने वाले किसी भी हलचल से
अनभिज्ञ रहता है सोया हुआ आदमी-
जेब कतरा कब जेब साफ करके निकल गया
या कंडक्टर के बगल में बैठी लड़की
क्यूँ बस की सबसे पीछे वाली सीट पर जा बैठी
उसे इस बात का अहसास भी नहीं रहता है
कि
बस किस गति से भाग रही है?
क्यूँ पिछले ढाबे में खाना खाने के बाद
अचानक बस की गति बढ़ गयी?
नींद की गोद में बैठे
हिचकोले खाते हुए
एक अलग ही स्वप्नलोक में तैर रहा होता है वह
अपने ही दांतों के बीच
कब जीभ आ गयी
पता ही नहीं चलता उसे
माना जाता है कि किसी भी दुर्घटना में
मारे जाने की
सबसे अधिक आशंका
सोये  हुए  आदमी की ही होती है
 फिर भी
सोये रहने में ही
सबसे अधिक आनन्द पाता है
सोये रहने को विवश आदमी
उसे जगाये रखना आसान नहीं .

अवधेश वाजपेई



पन्द्रह

मत बताना

एक प्रार्थना है दोस्तो
उस आमा को मत बताना
कि उनका गांव भी
आ रहा है डूब क्षेत्र में
जो
पिछले दिनों
अपनी बीमारी के चलते
इलाज करवाने
शहर आई थी अपने बेटे के पास
जितने दिन रही वहां
माँ-बाप से बिछुड़ी किसी बच्ची की तरह
कलपती रही


गांव को लौटते वक्त
जिसकी चाल में
बहुत दिनों बाद गोठ से खोले गये
बछिया की सी गति देखी गयी.


मत कहना उस से
आमा! तुम्हारा गांव भी
पंचेश्वर बांध में डूबने वाला है.




सोलह


मृत्युदंड

मुझे मालूम है
कि
मेरे बोलने की सजा
मृत्युदंड भी हो सकती है
लेकिन
मैं चुप नहीं रहूँगा
क्यूंकि
मुझे यह भी मालूम है
कि
मुर्दे बोलते नहीं हैं
मैं जीते जी मुर्दा नहीं बनना चाहता हूँ.



सत्रह


गाँव में सड़क

अब पहुंची हो सड़क तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है
सड़क मुस्कराई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खड़िया तो बची है न !




अठारह


यूँ ही नहीं मिल जाती किसी को कोई पहचान

कितनी बड़ी बात है
कि मैं खिम्दा की चाय कहता हूँ
मेरे शहर को जानने वाले कहते हैं-
नहीं-नहीं, ‘खिम्दा की जलेबी’ कहिये
मैं गुप्ता चौराहे की बात करता हूँ
वे कह उठते हैं –
वाह! साहब ‘गुप्ता समोसे’ की तो बात ही कुछ और है
उनके कहने पर आप
उस स्वाद को महसूस कर सकते हैं
मैं ‘पकोड़ी गुरु’ की दूकान कहता हूँ
फोन रिसीव करने वाला समझ जाता है
मैं स्टेशन से नई बाजार जाने वाली गली पर खड़ा हूँ
‘चंजी चायवाला’ सुनते ही
सिमलगैर का नुक्कड़ आँखों के सामने आ जाता है
दरअसल ये केवल कोई जगहें मात्र नहीं हैं
स्वाद हैं ये
घुली हैं जो लोगों की जीभ में
व्यवहार है
बसा है जो लोगों के दिल में
कभी किसी ने समारोहपूर्वक घोषित नहीं किये
इन जगहों के नाम
फिर भी जाने जाते हैं गली,चौराहे ,नुक्कड़
इन ख़ास नामों से
जो आम लोगों के हैं
आपके शहर में भी होंगी अवश्य ऐसी जगहें
ऐसे लोग
बहुत सारी ऐसी जगहें भी होंगी शहर में
बकायदा शिलापट्ट अनावृत कर नामकरण किया होगा जिनका
किसी बड़े मंत्री या नेता ने
नाम लो अगर उनका तो
लोग पूछ बैठते हैं– कहाँ पर कहा?
थोडा ठीक-ठीक लोकेशन तो बताना.
००







महेश चन्द्र पुनेठा:
जन्म तिथि - 10 मार्च 1971

जन्म स्थान-उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ में।

शैक्षिक योग्यता -प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा जनपद में ही ग्रहण करते हुए
                एम0ए0 ( राजनीति शास्त्र) किया।

प्रकाशित पुस्तक-  भय अतल में (कविता संग्रह ) प्रकाशक - आलोक प्रकाशन इलाहाबाद ।
                 पंछी बनती मुक्ति की चाह (कविता संग्रह)- साहित्य भडार इलाहाबाद
                  दीवार पत्रिका और रचनात्मकता ( शैक्षिक अनुभव)        
                 बोधि प्रकाशन से प्रकाशित  संयुक्त कविता संकलनों- स्वर एकादश, कवि द्वादश,स्त्री होकर
                   सवाल करती है, लिखनी ही होगी एक कविता, में कविताएं संकलित।
                  त्रैमासिक पत्रिका‘  ‘संकेत’ का एक कविता केंद्रित अंक।
     अन्य -
        शिक्षा पर केंद्रित पत्रिका का ‘शैक्षिक दखल’ का संपादन
      Û एस0सी0ई0आर0टी0 उत्तराखंड द्वारा स्कूली शिक्षा हेतु तैयार करवाई जाने
         वाली पाठ्पुस्तकों का लेखन व संपादन ।
      0बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ाने और पढ़ने की आदत को विकसित करने के लिए ‘दीवार पत्रिकाःएक  अभियान’ का संचालन, जो आज देश भर में काफी लोकप्रिय हो रहा है। देश के लगभग एक हजार स्कूलों तक पहुंच चुका है। इसके चलते बच्चों में लेखन कौशल का काफी विकास देखा गया है।
  -0बच्चों में पढ़ने की आदत को बढ़ाने के लिए ‘पढ़ने की संस्कृति अभियान‘ की शुरूआत। इसके तहत गांव-गांव में स्कूली बच्चों की पहल से पुस्तकालयों की स्थापना करना। अभी तक लगभग एक दर्जन गांवों में पुस्तकालय की स्थापना की जा चुकी है।    
संप्रति- रा इ का देवलथल -पिथौरागढ़ में अध्यापन।



संपर्क-  शिव कालोनी पियाना पो0 डिग्री कालेज  जिला-पिथौरागढ़ 262501 (उत्तराखंड)। मो0-9411707470

9 टिप्‍पणियां:

  1. पहली ही कविता ने स्तब्ध कर दिया ।दर्द ही दर्द फिर भी बेदर्द



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  2. पहली ही कविता ने स्तब्ध कर दिया ।दर्द ही दर्द फिर भी बेदर्द



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  3. ये अठारह कवितायेँ आकी रचनाशीलता के आगे जाने का प्रमाण हैं |आपके अनुभव अनूठे ही नहीं , अछूते भी हैं|जि न सम्बन्धों के साथ आप जीते हैं उनकी सचाई इनकी शक्ति है | इनका सबसे बड़ा गुण है सादगी |इनमें जीते तो अनेक लोग हैं किन्तु उनमें कविता कहाँ है , यह हरेक को मालूम नहीं होता | आप उसको खोज लाते हैं और पाठक की हथेली पर लाकर रख देते हैं |ये सब आपके आसपास की चीजें हैं |चाहे फिर वे अंधविश्वास हों , उनकी वजह भी आप बतला देते हैं कि गंतुआ की बभूत में अभी उन गरीबों--असहायों और लाचारों का क्यों विश्वास बना हुआ है | सच रो यह है कि यह उनकी अंधविश्वास नहीं , जरूरत है |वे इसी से अपने जीवन को बचाए रहते हैं | एक झूठ सर्वत्र पसरा हुआ है किन्तु उसकी वजहें भी हैं |दरअसल, इसी कार्य--कारण सम्बन्ध को और ज्यादा समझने और उसे तीव्र बनाने की जरूरत है | आपकी कविताओं की सादगी और सहजता सबसे अधिक प्रभावित करती है |मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें |

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  4. आपकी कविता जैसे शरीर मे दौड़ते रक्त की तरह होती है। सहजता के कायल हूँ मैं। जीवन सिंह सर की बातों से पूरी तरह सहमत।

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  6. हमने सुख सुविधाओं की तमाम चीजें अपने आस-पास खड़ी कर ली हैं.. मंगल पर पानी की खोज में मंगल यान भेजा है.. हम चांद पर जीवन बसर करने की बातें करने लगे हैं, लेकिन आज भी धरती पर ऐसी असंख्य ज़िंदगियाँ वर्षों से संघर्ष कर रही हैं जिनके पास जीने की मूलभूत सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं हैं और हम और हमारी सरकारें इस बेहद ज़रूरी सवाल का उत्तर देने में पूरी तरह असफल रही हैं.. ‘आज भी दर्द निवारक गोलियाँ और गंतुआ के भभूत’ में हमारे अधिकांश लोग अपने बड़े से बड़े मर्ज़ का इलाज ढूंढने को अभिशप्त है और उनके असमय काल-कवलित हो जाने को ‘तर’ जाना कहते हैं..
    आज बच्चों एवं किशोरों के समय से पहले बड़े होने और असंवेदनशील होने में हम समय, सोशियल मीडिया और नये जमाने में हो रहे लगातार बदलाओं-आविष्कारों को कोसते रहते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनके ‘बिगड़ने’ में हम बड़ों का सबसे बड़ा हाथ है. हमें उनके स्वाभाविक –स्वत:स्फूर्त प्रश्नों के उत्तर देने की फुरसत ही नहीं और न ही हम उस ओर सोचते ही हैं. हम सब अपने कथित प्रगति के सवालों में इतने उलझे हुए हैं कि बच्चों की अतार्किक एवं नकारात्मक आलोचना को ही अपने काम की इतिश्री समझ बैठे हैं... बिजूका ब्लाग पर छपी महेश जी जो स्वयं तरह-तरह के समाजोपयोगी कार्यों खासकर बच्चों के सरोकारों से जुड़े हैं, की कई कविताएँ पाठकों को बच्चों के मनोविज्ञान के रेशे-रेशे से परिचय कराती हैं, सोचने पर मज़बूर करती हैं;.
    चौथी, पाँचवी और छटीं आत्ममंथन और आत्मावलोचन की ये कविताएँ मुझे बहुत अच्छी लगी.. मुझे हमेशा से ही लगता है कि हमारी कविताएँ हमारी कमज़ोरियों का आइना है या होनी चाहिए.. वे यदि हमें हमारी कमज़ोरियों से रूबरू नहीं कराती और अच्छा मनुष्य बनने को प्रेरित नहीं करती तो उनके कोई मायने नहीं हैं.. ऐसे में आप रूप या सौंदर्य से भरपूर सैकड़ों की संख्या में कविताएँ लिखते रहें लेकिन वे न तो दिल को गहरे छूती हैं और न ज़ेहन में लम्बे समय तक ठहरती ही हैं। ‘किस खोल के भीतर पड़ा हूँ / एक घेंघे की तरह’ जैसी पंक्तियाँ कवि महेश भाई के बेहतर मनुष्य बनने के लिए ज़रूरी शर्त के रूप में नानाप्रकार की कमज़ोरियों से बने ‘खोल’ को तोड़ कर बाहर निकलने की छटपटाहट को प्रकट करती हैं।
    ‘एक जिन्दा आदमी / इतने संकीर्ण कुएं में / कैसे रह सकता है भला!’ सचमुच हम सिमटे-सिकुड़े कुएँ में ही तो बैठे हुए हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, गोत्र, रंग, नस्ल, लिंग आदि की संकीर्णता के गहरे कुएँ में हम खुद को ही छिपाए बैठे हैं जहाँ से बाहर निकलने का रास्ता हमें मालूम तो है पर हमें उस पर चलने से परहेज़ है.. हमें स्विटज़रलैंड की सड़कों की प्रशंसा करना तो आता है पर अपनी सड़कों के साफ होने का हमें बस इंतज़ार है.. हम किस भगवान या किसी खुदा के भरोसे कुएँ में छिपे बैठे हैं ? महेश जी की कविताएँ जीते जी मुर्दा न बनने के लिए संघर्षरत कवि-लेखकों, चित्रकारों, नाट्यशिल्पियों, दिहाड़ी मज़दूरों, शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, चंद नेताओं और उन तमाम मनुष्यों की आवाज़ हैं जो मनुष्य के किसी भी तरह के शोषण के खिलाफ हैं और जो धरती को सुंदर बनाने के बारे में अनवरत सोचते और कर्मरत रहते हैं..
    बिजूका की बेहतरीन प्रस्तुति के लिए पूरी टीम को हार्दिक बधाई एवं शुभ्कामनाएँ

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  7. Gaw m sadak sir this is the one of the best lines I have read and feel in my short life

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