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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 नवंबर, 2017

अनुराधा सिंह की कविताएँ:

भगवान के घर देर से भी ज्यादा अंधेर है 
अनुराधा सिंह

अनुराधा सिंह: मुंबई में रहती है और प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन पढ़ाती है। अनुराधा सिंह कविता के क्षेत्र में बहुत-बहुत नया नाम नहीं है। न ही बहुत-बहुत पुराना नाम है। अनुराधा सिंह की कविताएं देश भर के तमाम पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में  प्रकाशित हुई है और बहुत ही सम्मानजनक उपस्थित दर्ज कराई है। अनुराधा सिंह के अनुवाद व आलेख भी प्रकाशित होते रहते हैं। शीघ्र ही कविता संग्रह- ' ईश्वर नहीं नींद चाहिए, प्रकाशित होने वाला है। अनुराधा सिंह की नज़र में भगवान के घर देर से भी ज्यादा अंधेर है। इनकी कविताओं के बिम्ब बहुत ताज़ा,  तार्किक और  साहसी  हैं । कविताएं पढ़ते हुए हम नयी दृष्टि , रोशनी हासिल करते हैं और नमकीन संवेदना और तल्ख बेचैनी से भीग जाते हैं। मैं ज्यादा क्या कहूं !  आइए, ख़ुद ही पढ़कर देखिए ।


 कविताएँ


बेआवाज़ हो हर लाठी

मेरी आस्तिकता नहीं
मेरा आलस्य
विश्वास बनाये रखता है
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर
चूँकि भगवान सब देखता है तो
मुझे आँख खोल कर
अब और देखने की ज़रूरत नहीं
उसकी लाठी का बेआवाज़ होना ज़रूरी है
लाठियाँ ठीक वैसी ही बेआवाज़ होनी चाहिए
जैसे अन्याय चला आता है जीवन में दबे पाँव
आत्मीय चले जाते हैं दूसरी दुनिया में चुपचाप
जबकि हम रोते रहते हैं भीतर हाहाकार

भगवान के घर देर से भी ज़्यादा अंधेर है
यह मानते हुए भी चाहती हूँ कि
उसकी सत्ता के पक्ष में
गढ़े जाएँ कुछ और मुहावरे तुरंत
ज़रा भी देर न की जाये इस अंधेर में।


बस प्रेम नहीं ठहरा

बहेलिया आया
आया जाल
आयीं चिड़ियाँ
उड़ गयीं आतंक से
ले जायीं गयीं बाज़ार में, बस ठहरीं नहीं
कहीं नहीं गया, ठहरा ही रहा बहेलिया
आहट में उत्सव में निर्वात में घात में
सेंध लगाता
जैसे ठहरा रहा जाल
जैसे ठहर गया ताल
और भ्रष्ट कर दिया जलमंजनी ने
नहीं ठहरी नदी
थरथराती बहती रही व्याभिचारी दुनिया के बीच

ठहरा है सूर्य भी वहीं आकाश की कनपटी पर
जलता धधकता मेरे स्नायुओं सा
देखो नहीं ठहरा धवल चन्द्रमा
जिसकी निगहबानी में
कर पाए तुम प्रेम उजले पाख सा
ठहरा रहा बुरा वक़्त अक्सर
आदमी चलता रहा अच्छे की आस में/ नष्ट होता रहा
चलती रही धरती पाँवों के नीचे
और हमें पास आने का भ्रम होता रहा

ठहरी रहीं कुटिल कठ आत्माएं
न ठहर सका प्रेम
चला आया क्षत विक्षत संभावनाओं
हठी दौर्बल्य, सुनियोजित उपेक्षाओं से दूर
जबकि ठहरना ज़रूरी था प्रेम का ही।

अवधेश वाजपेई


तोड़ दो वह उंगली

(अ)सभ्यता वहीं शुरू हुई
जहाँ होश सम्हाला मैंने और दुपट्टा
कहा लोगों ने कि यह रेल पेल
हज़ारों वर्षों से मची है ऐसे
कि लोग जो लपकती आँखों से ताक रहे थे
लिखते अमृता की उँगलियों को
इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम
उन्हें ही नागवार है बेटियों का
मयफोटो फेसबुक प्रोफाइल
फिर भी गिनती हूँ
अमृता की उंगली पर
बरसते पत्थर
एक दो .......तीन सौ

मैं भी बहुत बड़ी बातों
यानि नोटबंदी या सीरिया हमलों तक पहुंचना चाहती हूँ एक दिन
एक दिन करना चाहती हूँ
कविता और आलोचना के नुक्ताचीं पर ज़ोरदार बहस
लेकिन एक बहुत आम औरत
अधिक से अधिक
साथ खड़ी दूसरी औरत की फटी आस्तीन को
सेफ्टीपिन से टांक भर सकती है बस।

तफ़्तीश

नदियाँ पहाड़ों से उतरीं थीं
यह बात सरल नहीं थी
पहाड़ों ने उनके दुःख देख रखे थे
नदियाँ इसी लोकापवाद भय में घुल घुल कर
क्षीण हो गयीं
क्षीण होते होते लुप्त हो गयीं
लेकिन पहाड़ के कपोल पर रह गए
वे शोकचिन्ह
हवाओं में घुला रह गया आँसुओं का नमक
ये दुःख और आँसू सरल नहीं थे
नदियाँ नष्ट होते समय भूल जाना चाहती हैं
घुल घुल कर मरने के चिन्ह

दुःख समाप्त हो जाते हैं एक दिन
आँसू बहने बंद हो जाते हैं
ज्ञात दुःख नष्ट नहीं होते
जानने वालों के भीतर अन्तःसलिला बहते हैं.

एक दिन भूगर्भ शास्त्री आते हैं
हाइग्रोमीटर और ड्रिल लेकर
पढ़ते आँसुओं की परतें
कुरेदते पहाड़ का सीना
चखते हवाओं का नमक

करते हैं मुनादी
यहाँ कभी किसी के होने के दुःख बहे थे
यहाँ से गिरा तो बंट गया कोई प्यास-प्यास
अनासक्त समय ने मिटा दिए हैं सभी साक्ष्य
फिर भी, यहाँ एक नदी की हत्या की गयी थी।


विरासत

दुनिया में हवा पानी कम
बालकनी में धूप कम
गमलों में मिट्टी गुज़ारे लायक
मुझे कम के पक्ष में खड़े रहना पड़ा है अब तक
जानती भी हूँ कि कम से
बहुत अधिक नहीं चला पाऊँगी मैं काम
लज्जा और लिहाज़ तो होने ही चाहिए
आँख ढँकने लायक
भले ही उघड़ी रहे आत्मा

फिर कुछ तो छोड़ कर भी जाना है मुझे
बच्चों की खातिर पुरखों की इस ज़मीन पर
विरासत जैसा महान विचार नहीं मेरा
एक बेटी है
जो रहेगी बूची पृथ्वी पर मेरे बाद भी
मंदिर की महंत नहीं जो दान पेटी की चाबी डोरी छोड़ जाऊँ
सात पीढ़ी बैठ कर खाएं ऐसा उद्यम नहीं नीयत में
खून में हुनर नहीं कि गा बजाकर लोक ही निभाएँ
घर के मर्द जुटे रहे दो जून की जुगाड़ में जीते जी
कभी कभी औरतें भी भिड़ गयीं रोज़नदारी में

इधर हमने निगल ली है हर पचाई जा सकने वाली चीज़
लकड़ी कोयला हवा पानी की बात नहीं
भाषा को खा रहे हैं
कितने ही शब्द हड़प गए, कितने क़तर ओछे कर दिए
जो कहीं का रास्ता भी पूछे यह लड़की किसी से
तो कम से कम एक हिफ़ाज़ती शब्द तो यह ओट दे
कि वह धरती की लुप्तप्राय प्राणी है .
मेरे भी दो ही हाथ हैं सबकी तरह
कितना सँवारूँ अपना आज कि बिगड़े नहीं उसका कल
कितनी छोड़ जाऊँ यह पृथ्वी उसके लिए
जो बिना धक्का खाए खड़ी हो सके एक जगह।

अवधेश वाजपेई

 स्वागत है नए साल!

खेद, कि इस बार भी नहीं मिलूंगी
पीठ पर वार खाये योद्धा की तरह
जिसकी वर्दी हो चटख निकोर
फिर भी हों तरकश में सारे तीर सलामत
नहीं मिलूंगी भग्न स्वप्न सी विफल
जो डरता हो नींद से
रात नयी वांछा न लाती हो जिसके लिए
कहो मुझे दुराग्रही
पर क्यों मिलूँ उस अस्त्र सी
जो साधता हो लक्ष्य कहीं/ खेलता हो किन्हीं और हाथों
जिसकी धार में जंग लग जाती हो बिन पिए प्रतिशोध रक्त  
तुम्हें वह औरत बन कर तो कभी नहीं मिलूंगी
जो चोट खाने पर रोती
मारने पर मर जाती
छले जाते ही व्यर्थ हो जाती है

शायद मिलूँ उस शाख सी
जिसके घाव की जगह ही
नयी कोंपलें उग आती हैं
भूगर्भीय जल की तरह
नष्ट होते होते
बढ़ आऊँगी हर बारिश में
और उस दाने की तरह
जो पेट की आग न बुझा पाये
तो उग आता है अगली पीढ़ी
का अन्न बन कर

अब तय करना
किस भाषा में मिलोगे मुझसे
क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट
परिभाषाएँ तोड़ कर मिलूँगी।

तुमविहीन


तुम जिरह करोगे कि भला यह कैसा प्रेम
कि उम्मीद ही तोड़ दी मैंने
मैं कहूँगी सबसे कठिन अपनी उम्मीद तोड़ना ही था
तो यह अनुकूल ठहरा प्रेम के विकट विधान के

पहला आपराधिक मामला मुझ पर बनता है
कि नहीं आता गुस्सा तुम्हारे अपराधों पर
कबूला नहीं है अब तक कुछ
बस ज़रा रियायत रखी है ख़ुद पर
कि जब कुरेदने हैं अपने घाव
तो तारीख ज़रा आगे बढ़ा दूँ

मैं, तुम्हारे कुएँ में लटकती वह रस्सी
दुःख से बाहर आते ही
गिरा आये जिसे अंधकूप में
अब रस्सी नहीं कुआँ
बन जाना चाहती हूँ
चाहती हूँ डूब जाओ ऐसे कि
बाहर आने का बहाना ना मिले तुम्हें

मैं तुम्हारे दुखों पर बंधी वह पट्टी
तय था जिसका उतरना घाव भरते ही
अब घाव बनकर
टीसना चाहती हूँ ताउम्र तुम्हारी करवटों के नीचे
और भर जाऊँ तो
बने रहना चाहती हूँ
एक अमिट निशान
तलवे पर ही सही .

इतने सब अपराध हैं मेरे
और मैंने नहीं पढ़ी
कानून की वही किताब
जिसमें दुख की मियाद बताई गयी है
मैं तो तुम्हारी अदालत में भी करना चाहती हूँ
प्रेम की उम्र /ताउम्र वाली घिसी पिटी अपील
अर्दली लगाता ही नहीं कभी नाम की गुहार
कहता है इस अदालत में नहीं बाकी मेरा कोई मुकदमा
फिर भी नहीं होती तुम पर गुस्सा
इतनी हो गयी हूँ मैं तुमविहीन।

अवधेश वाजपेई


उसके बिना


अब और लड़ा नहीं जाता मुझसे तुमसे
अब और गुरेज नहीं मुझे तुम्हारी बेसिर पैर की बातों से
मैंने कल ही जाना है कि हमेशा नहीं रहोगी मेरे साथ
सबकी माँएं मर जाती हैं एक दिन

बेतरतीब हो गयी हैं तुम्हारी माँसपेशियाँ
और याददाश्त
शायद हड्डियाँ घिसने से कुछ और छोटी हो गयी हो
बाल भी कहीं हल्के कहीं थोड़े कम हल्के हैं
साँस लेती हो
तो दूर बैठी भी सुन लेती हूँ घरघराहट
फिर भी जब जाओगी
तब मैं
रेशा रेशा बिखर जाऊँगी
तुम्हारे बिना

रात भर मैं तुम्हारे छोटे छोटे भरे होंठों
के गीले चुंबन चिपकाती रही
अपनी हथेली से माथे और गालों पर
जो पोंछ कर रख दिये थे मैंने
झुँझला कर एक दिन हड़बड़ी में
मुझे हमेशा खला कि
तुम और माँओं जैसी नहीं थीं
साधारण और  शांत
तो क्यों तुम माँ ही निकलीं
सब माँओं सी

जानती थी कि
माँ का मरना बहुत बुरा होता है
शायद दुनिया में सबसे बुरा
नहीं जानती थी
कि यह अपनी देह से बिछड़ना था
मैं कितना अधिक जानती हूँ
इस दुनिया को तुम्हारे बनिस्बत
तुम कितना कम जानती हो इन दिनों
रास्ते नहीं मालूम ज़्यादा कहीं के
कितना डरती हो हर बात से आज कल
मरने से भी
फिर भी दूसरी दुनिया की देहरी पर तुम्हें
अकेला भेज दूँगी मैं
बिलकुल अकेला
रुग्ण दुर्बल और भ्रांत।



वृन्दावन की विधवाएँ


प्रतीक्षा की है
उनके झुके शीशों के उठने की
मैंने ना जाने कितने युगों, कितनी अंतहीन प्रतीक्षा की है
प्रभु के चरणों में रगड़ खाते शीश उठने की
धवल धोती के फंदे में कसी
एक श्वास के मुक्त हो जाने की

कुंठित सोचों ने ढाये हैं जो पाप
उनकी भी क्षमा माँगतीं अविराम
किन्हीं निरुपाय क्षणों में जी उठने का पश्चाताप
कामना के समक्ष घुटने टेक देने का पश्चाताप
अजाने देह बन जाने का पश्चाताप
औरत हो आने की झुरन

प्रतीक्षा की है मैंने
आत्म ग्लानि से लबालब
अक्षि सरोवरों के उमड़ आने की
तलहटी के कातरतम बिन्दु को स्पर्श करते हुए
अवसर देखा कह देने का
मत खोजो मेरी देह में आलता, सिंदूर और बिछिए
बस देख लो एक बार
उन्मुक्त हास्य से खिला यह तन
चेहरे का रक्तिम उछाह
थैली भर कंचे बिखर जाने सी यह आवाज़

मेरी आँखों की दिप दिप तरलता
बाँहों मे भर लेना चाहती है उन्हें एक बार
देखो, मैं हूँ मेरा सौभाग्य
देखो, स्वयं से प्रेम करती स्त्री कितनी सुंदर लगती है

तुम्हारे किंचित सुख से कालचक्र नहीं रुका
नहीं हिले पीठ, मठ और अखाड़े
नहीं आने वाला कम्प बाँके विहारी जी के मंदिर में
नहीं आएगी प्रलय कालीयदह घाट पर आज
क्या इतना अप्राकृत था तुम्हारा तुम हो जाना

प्रभु की प्रभुताई नहीं
पराभव देखती हूँ
जब जब देखती हूँ वृन्दावन की प्रेतात्माओं को रगड़ते
घुटे शीश उनके पाषाण चरणों पर
माँगते निशब्द क्षमा अहर्निश
तब गायें क्यों न मीराबाई अनथक
‘प्रभु तुम कैसे दीनदयाल॥
मथुरा नगरीमों राज करत हैं बैठे, नंद के लाल।
Kyriakos Thouki

दूरबीन/ खुर्दबीन


मुझसे बहुत दूर
पूरब की ओर
एक बालकनी में जो दूरबीन रखी है
मैं जानती हूँ कि
मुझ पर नज़र रखती है वह दिन रात
उसे क्या मालूम कि
मैं भी रखती हूँ उस पर नज़र
अक्सर

हालाँकि मुझे नहीं पड़ता है फर्क
ऐसी किसी भी दूरबीन तोप या आँख से अब
जिसमें मैं
आकर्षक अनाकर्षक
शालीन अशालीन
होती ही रहती हूँ गाहे बगाहे
हम तो चली फिरी सोयी जागी ही हैं
तमाम तैनात तैयार तोपों के सामने आजन्म
वे जो तनी हैं दुनिया की
साढ़े तीन अरब औरतों पर हर समय

फिर एक रात
जब चीज़ें चमकती हैं अंतर के दाह से
या चंद्रमा के प्रकाश में
मैंने देखा उस तोप को
तने हुए आसमान की छाती पर
ओह! तो वह दूरबीन नहीं खुर्दबीन है !!
एक अदृश्य दुपट्टा सम्हाल लिया
मैंने हकबका कर भंगुर अस्मिता पर
घर के बेशर्म पर्दे खींच कर ठोंक दिये
पेशानी और खिड़कियों पर
क्योंकि यह खुर्दबीन है
जो क़ुव्वत रखती है
आसमान की हजार प्रकाशवर्ष लंबी ओढनी चीर
सितारों को भेद देने की
मैं तो फिर नाचीज़ हूँ
बस साढ़े चार सौ मीटर दूर
दुनिया की साढ़े तीन अरब औरतों में से एक।


  स्मृतिलोप


स्मृतिलोप बड़ा शस्त्र था
विसंगतियों विषमताओं अन्याय के विरुद्ध
भूल जाना बड़ी शक्ति
विभव था
पराक्रम
बल था
था ज़हरमार
रीढ़ को निगलती पीड़ा झटक देने
कबूतर की तरह आँखें पलट लेने
पत्थर पहाड़ पार्क बेंचें
उन पर बैठे
अब और न बैठे लोग
भुलाए बिना जीवन असंभव था
चादर ओढ़ने से रात नहीं कटती
करवट बदलने से दुस्वप्न कहाँ टलते हैं
मुड़े हुए पृष्ठ सीधे किए बिना पढ़ना दुष्कर
सूखे गुलाबों को एक अनाम कोने में विस्मृत कर आना ही श्रेयस्कर था
तुम्हारे नाखूनों और आँखों का रंग भूल जाना
अनिवार्य शर्त थी अगली एक श्वास के लिए।
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संपर्क:
अनुराधा सिंह
बी 1504, ओबेरॉय स्प्लेंडर,
मजास बस डिपो के सामने
जोगेश्वरी ईस्ट
मुंबई 400060
anuradhadei@yahoo.co.in
9930096966




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