आईदान सिंह भाटी की कविताएं
कविताएं
सुख
(राजस्थानी से अनुवादित )
अवधेश वाजपेई |
कविताएं
सुख
सुख ‘आत्मा के रंग महल’
में नहीं
‘टिकुड़ी’ की आँख में महकता है
पीता है वह चिलम
गुड़गुड़ाता है हुक्का गवाड़ में |
‘फटी जेब से’ गुजारता है दिन
सुख
‘उमाराम की मीठी नींद|’
वह नहीं देखता कोई दु:स्वप्न |
उसकी लड़कियाँ
नहीं है अनाम, बदचलन, बदनाम |
सुख को छूने के लिए
जरूरत नहीं है पुल बनाने की |
वह तो चिड़कलियों का चोंच
खोलकर उजास पीना है
सुख
‘खुद की आँख को जीना है |’
००
कविता नहीं है प्रलयकाल का बरगद
कविता नहीं है ‘प्रलयकाल का बरगद’
जो प्रभुओं के पांवों तले बिछे |
वह तो ‘झर-झरकंथा’ कबीर की
थार में डहकती डग भरती गोडावण |
कविता एक फकीरी
अंगूठा दिखाती सीकरी को |
वह उमड़ती उतरादू-कालायण
जिसे देख रेत नाचती है , नगर हांफता है |
कविता ‘बेटा है बढई का’
तराशती है वह रोहीड़े तले
मिनखाजूण की सारंगी |
कविता पढ़ती है खुली आँखों से
लीर लीर जिन्दगी |
रचती है आखर-आखर ‘बाघों-भारमली’
भरती है ‘बाथांमें भूगोल’
नापती है
‘अंधार-पख के पांवडे’|
कविता – शब्दों की झलमलती ‘झळ’ |
हाँ, कुछ लोगों के लिए
फकत कोरी ‘इन्द्रजाल है कविता’ |
मेरे लिए आज भी दुनिया ने मगर
‘एक तीखा सवाल है कविता|’
००
थिरकती लड़की
पंजों के बल उचकती,
अंगुलियाँ नचाती, उडीकती,
लड़की कुछ ढूंढ रही है |
कौन पूछे उससे वह क्या ढूंढ रही है ?
क्या कभी मिला है उसे
माया की छाया सा ही मनवांछित |
लडकी ! जिसे तुम पंजों के बल
उचकती देखती हो,
नाचती हो सपनों में,
थिरकती हो चौबारे,
बतियाती हो थलकण से सांझ सवेरे |
अनमनी सी रूठती हो,
मनाती हो खुद को,
कभी हो जाती हो उदास,
‘किरत्यां के झूलरे सी’ तुम
अपनी इच्छाओं के बीच लडकी !
सचमुच तुम सुगंध हो
अगरु की अपनों के बीच |
आंगन के बाहर
एक आदिम-नारीगंध |
फिर अपने आस-पास
चिर- चिरायंधी-गंध
क्यों महसूसता हूँ मैं
अपने नथुनों में बार-बार |
लड़की तुम जीती हो
हजारों पल एक साथ
मैं सिहरता हूँ
सोचता हुआ लगातार |
००
ओ मेरे मानुषगंधी पाँव
युगों से तलाश रहा हूँ मैं
इन हथेलियों के बीच
एक अदद सुख-रेख |
ओ मेरी ‘घिरत-विरत की छांव’!
ओ मेरे ‘पलक-दरियाव’!
कहीं दिख जाय
थर की छाती में लेती साँस
स्वर लहरी ‘शंकर दमामी की |’
उग आये कभी
‘दक्खनी पठारों पर फोग’ |
दिखे कहीं चुगता कांकरे
‘पुरानी - पाल पर जूना बेली हंस’
महसूसो कभी
‘ऊँचे पर्वत लांघती दुखों की ठंडी- दाझ’|
‘बिजली के परलाटे सा ही सही’
दिख जाए कहीं
महानगर में गांवेड़ी
बालपने का मिंत |
शहराते कस्बे के आस-पास
बचा हो कोई
‘पगडंडी का मोड़’|
तो खबर करना मुझे
ओ मेरे मानुषगंधी पांव
ओ मेरी ‘घिरत-विरत की छांव’!
००
अवधेश वाजपेई |
शब्दों की सीमा में
बहुत दूर तक नहीं
दौड़ पाता है खरगोश
रूपगर्वित हरिण के सींग
कहीं पर अटक ही जाते हैं किसी झाड़ी में |
रेगिस्तान के बीच आखिर कब तक
प्यास ढ़ोता रहेगा ऊँट ?
आखिर एक दिन लौटना ही पड़ता है
यात्री को यात्रा से |
कोई बसाता है चाँद तारों पर बस्तियां
कोई अभी भी खुले आसमान के नीचे
ताप रहा है अलाव |
आखिर शब्द कब तक
बरतेंगे एक सा बरताव |
झरने / पेड़ / पहाड़ / चांदनी रात
चमकता रेगिस्तान और
रात के पिछले पहर में
मार डाली जाती है
कोई बहू
कोई कन्या नवजात |
तब मुझे याद आता है
दौड़ता कंपकंपाता खरगोश
सींग उलझाये रूपाहत- हरिण
और रेगिस्तान में प्यासा दौड़ता ऊंट |
मैं सोचता हूँ बिसूरता हुआ इस तरह
शायद आप भी कभी ऐसा ही सोचते हों ?
००
रात
धरती की गोदी में
हुलराती आदिम बात |
बाखल की रेत
अलाव और आग
भागमभाग
रात एक जाग |
उतरता था
धरती पर आसमान
धरमजलां धरकूचां |
बोलों के साथ उतर आते
परी – पंखेरू – पेड़
चिड़िया-काग |
रात बालकों का जीवन
एक राग |
रात –
‘हूंकारों की होड़’
आंगन – गलियों की
उत्सुक दौड़ |
बुझती अलाव की आग
रात- अंधियारा अणथाग |
रात –
पाबूजी के थान पर
थिरकती ‘पड़’ की पुकार
रात – एक तान |
रात –
बड़गड़ां-बड़गड़ां
दौड़ती , हींसती
घोड़ी केसर-काळवीं|
रात –
पत्ते-पत्ते पर उतर आई
भूतों की बारात |
डरते दिलों में
‘चालीसे’ का जाप |
एक गहन गहर सन्नाटा
चढ़ता-उतरता ज्वार-भाटा
एक हांफ-रात |
रात – ‘उडीकती-देहरी
अलसायी-आँख
सुरमई मोर पांख |’
रात –
कभी नहीं आने वाले
कल की तैयारी
चोरी-चकारी-अय्यारी
उल्लुओं का भाग्य |
रात –
‘अँधेरे का अजीब-भूगोल
कहीं चौकोर कहीं गोल’
‘अँधेरी खाली परात—रात |’
‘एक भूखा नंगा घाव
मेहनत का पड़ाव –रात |’
रात –लीर-लीर ‘जिन्दगी’
चिथड़े बीनती,
पोस्टर उतारती-चेपती
बस्तियां बदनाम |
रात - खुद के हाथों जहरी जाम |
राक्षसी दांतों से निकलने का अहसास –रात |
रात –
बूढ़े बिसूरते हैं—काल-दुकाल
बच्चे नहीं सुनते हैं बात |
दड़बों में चीखते चित्रहार
एक इन्द्रजाल - रात |
एक लिजलिजी दीवार
नंगेपन की धार – रात |
रात –एक आह
रात – वाह वाह
००
क्या हुआ होगा फिर चिड़कलियों का
बकरियां खुद जा रही थी वध-स्थल |
छुरा नहीं था कसाई के हाथ |
बाड़ खा रही थी खेत |
क्या स्याह, क्या श्वेत |
पेड़ की दुश्मन थी उसकी डाल |
पारदर्शी-जाल और नाचते बहेलिए |
डरती, उड़ती – फिरती
धरती और आसमान के बीच चिड़कलियाँ |
मैं तुझे कहानी सुना रहा हूँ
मेरी लाडेसर !
और तू बीच में ही पूछ बैठी
‘क्या हुआ होगा फिर चिड़कलियों का?’
मेरी लाडेसर!
तुम्हारा सवाल वही देशकाल
वही बाड़-खेत, बकरियां,
बहेलिए
वही बिना छुरी के व्याध|
पेड़-शाखा –डालियाँ |
आज भी सब उसी तरह हैं
मेरी लाडेसर!
तुम ही बताना बड़ी होने के बाद
‘क्या हुआ होगा फिर चिड़कलियों का?’
००
अवधेश वाजपेई |
एक दिन ज़रूर लौट आयेगा मास्टर
‘वह मास्टर कितना भला है’—
‘हमारे खत लिखता है |
हमारे जैसा दिखता है|’
कह रहा था उस दिन –
रामू से रहीम, रहीम से दीनू
और दीनू से मातादीन |
वह मास्टर बच्चों को सुनाता है कहानियाँ –
चिड़ी-कौए की |
किस तरह गटक गया था
बिल्लियों की रोटी ‘कपटी बंदर’|
समझाता था वह मास्टर
अंतर सियाह सफेद का |
बताता था ऊँच-नीच,
लचक-धचक|
बांसुरी बजाता था सरे सांझ
पश्चिमी टीले पर जाकर |
घरों –झोंपड़ियों सपने बांटता
घूमता फिरता था वह मास्टर |
‘गाँव में बबूल उग आया है |’
‘गलियों में कांटे बिखर रहे हैं |’
’मुझे सलाम नहीं करता’
‘आँखें दिखता है मास्टर |’
कह रहा था उस दिन –
पटेल से सरपंच,
ठाकुर से ब्राह्मण
और ब्राह्मण से लठैत |
और एक दिन गाँव से
अलोप हो गया मास्टर |
धरती निगल गई या आसमान खा गया |
कोई नहीं जानता?
कोई नहीं बताता ?
कहाँ गया मास्टर ?
पर अभी भी इन्तजार करते हैं
पश्चिमी टीले पर जाकर
रामू, दीनू, रहीम और मातादीन के बच्चे
‘एक दिन ज़रूर लौट आयेगा मास्टर|’
००
कोहरा
कोहरे में सूरज चाँद हो जाता है |
चारों ओर कोहरा ही कोहरा
किलों, हवेलियों
और झोंपड़ियों से
कोहरा खेलता है आँखमिचौनी |
आँखमिचौनी ही तो खेलती है
साँसें
सारी उम्र आदमी से |
कोहरे की तरह ही डूबा रहता है
आदमी
कई कई प्रतिबिम्बों में |
कोहरे से आर्द्र हो जाती है
सारी चीजें |
कोहरे से आर्द्र हो जाते हैं अखबार |
अखबारों में तैरती खबरें |
‘भूख से कोई नहीं मरा |’
‘कम्पनियां लगायेंगी
थार में मिनरल-प्लांट|’
एक सपने की तरह तैरते हैं अक्षर |
थार में सपने की तरह
कभी कभी ही आता है कोहरा |
पर मन तो सारी-उम्र
धुंआता ही रहता है |
‘डूबी हुई पृथ्वी को तो
निकाल लाए थे अवतार’
पर बेशर्म कोहरे में डूबी हुई
इस काया को कौन बाहर निकालेगा ?
और कंचन-काया की तो बात ही कैसी ?
कोहरे में धूप का क्या काम ?
मन डरता है कंचन-धूप से |
डूबा रहता है धुंआता कोहरे में
आर्द्रता लिए
सारी उम्र ,
भले ही जीवन हो जाय गीला-सीला |
तिड़कने की की पीड़ा कैसे झेले मन ?
इस कारण मन आँखमिचौनी खेलता है
सारी उम्र कोहरे में |
००
निज़ार अली बद्र |
यह कविता है मेरी अपनी
सूरज चंदा की साखी में
नवलख तारों की निगरानी
इस अनंत में आओ देखो
समय काळ से सींग अड़ाए जो जूझे
यह नहीं तमाशा
यह कविता है मेरी अपनी
मरू माटी की देही वाली,
मन में सोये महा-समद सी |
जाने कितने ज्वार पचाए,
सोये जिसमें अनगिन भाटे अलख रूप के |
मेरी कविता पीछा करती
इस अकाल सी मीलों पसरी |
सूखी सेवण की जड़ जैसी,
काळ-झाळ में जलकर भी जो नहीं जली है |
यह अवधूत दिगम्बर जैसी
जैसे सूखा खड़ा खेजड़ा रिनरोही में
बिना पात के डालों वाल़े हाथ उठाये
धूनी तापे युगों युगों से
ऐसी यह अवधूती कविता |
यहाँ अड़े हैं दीपित आखर
जीवन के इस महाकाश में अर्थ ढूंढते
जैसे मानव ढूंढे है अपने होने को
इस जीवन की महादौड़ में |
मेरी कविता साखी है दूधों पूतों की
यह हलकू को चिलम थमाए
माघ पूस की ठंडी रातों
चिड़िया का इकलौता दाना मेरी कविता |
घर आंगन की गोरैया सी यह फुदके है
मृगछौने सी भरे चौकड़ी धोरों टीबों
वायरिये सी रमती रहती रेत-बेकळू
यह सूरज की साख गुलाबी
जब उतरे है जन-मन अंगना
तब जीवन की तपती रेती चौमासा हो
शीतल झरने झरझर झरते शब्द शब्द में
ऊजल पंखी हंस अर्थ की भरे उड़ाने |
मेरी कविता खुणखुणिया है इस बचपन का
यह बूढों का बतियाना है बड़े बाग़ का
जहाँ मिले हैं अनजाने वे इधर उधर से
आज यहाँ पर सांय सांय है शब्द शब्द में
जैसे सूने धोरों में लूएँ चलती हो |
इनकी सूरत उखड़ी उखड़ी समय घाव से
उस सुनसान हवेली जैसी वीरानी सी
जहां कभी रहता था राजा |
मेरी कविता खाटी खोदे / रेत उलीचे / जूंणें भुगते
सुबह शाम की डांडी नापे
जै जै कारों और प्रचारों की आंधी में
सपने बोए ‘रंग सावणिया’ |
सदा अंधारे इस आशा में खूँटी ताने
शायद जीवन यहीं कहीं है |
डिगती डिगती डोकरड़ी सी / जब यह ठिठके
हकलाती हरफों में ऐसे अर्थ भरे है
भलों भलों की कलाबाजियां / बगलें झांके , पीठ दिखाए |
यह धरती की साखी है / यह बतियाती है तामझाम से |
मेरी कविता जन-अगत्स्य सी
सोखे जिसने अनगिन सागर
इस अन्यायी जन्म-जन्म के
जिसकी साखी नत पड़ा है
यह विन्द्याचल युगों युगों से |
ऐसी है अवधूती कविता
ऐसी है राखोड़ी कविता
ऐसी है सावणिया कविता |
००
डॉ॰ आईदानसिंह भाटी आत्मज—श्री रघुनाथसिंह भाटी
एम. ए. हिंदी (सौन्दर्य-शास्त्र) पी.एचडी. (नई कविता के प्रबंध: वस्तु और शिल्प)
शोध निदेशक : प्रो. विमलचन्द्रसिंह --जोधपुर विश्वविद्यालय , जोधपुर
पुरस्कार-सम्मान
1 * साहित्य अकादेमी नई दिल्ली - & साहित्य-अवार्ड 2012
कृति - आँख हींयै रा हरियल सपना ( कविता-संग्रह )
2 * साहित्य अकादेमी नई दिल्ली - अनुवाद –पुरस्कार -2006
कृति –गांधीजी री आत्म-कथा
3* राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर
--सूर्यमल्ल मीसण शिखर पुरस्कार --2012
कृति - आँख हींयै रा हरियल सपना ( कविता-संग्रह )
4 *राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर
साहित्य सेवी सम्मान -2002
5* साहित्य – राजस्थानी –काव्य
• हंसतोड़ा होठां रौ साच ,
• रात कसूंबल,
• आँख हींयै रा हरियल सपना ,
• खोल पांख नै खोल चिड़कली
6 * हिंदी-साहित्य ---
• थार की गौरव-गाथाएं(इतिहास-कथाएँ)
• शौर्य-पथ ( ऐतिहासिक-उपन्यास )
• राजस्थान की सांस्कृतिक-कथाएँ,
• समकालीन साहित्य और आलोचना
7* अनुवाद साहित्य ---
• राईनोसोर्स –यूजिन आइनेस्को ( गैंडौ )-साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ,
• गांधीजी री आत्मकथा ---राज. भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर
• रबीन्द्रनाथ री कविताएँ --साहित्य अकादेमी नई दिल्ली
8 * साक्षरता साहित्य –
• बैरंग लिफाफा –नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली
• रामसुखी का आंगन -- राज्य संदर्भ केंद्र जयपुर
• समझदारी के हजार हाथ – राज्य संदर्भ केंद्र जयपुर
• बाबा रामदेव पीर -- राज्य संदर्भ केंद्र जयपुर
स्थायी पता ---
8—बी / 47 , तिरुपतिनगर , नांदड़ी –जोधपुर (342015)
मोबाईल –(-9414325867 )( 7597950129 )
भाई आईदान जी, बेहतरीन कविताएँ , पढ़ कर आनंद आ गया ...डॉ नरेन्द्र निर्मल
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