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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 नवंबर, 2017

स्मृति शेष रोमेश जोशी:

वे जल्द लौट कर आने का वादा करके गए थे.

जवाहर चौधरी


रोमेश जोशी इंदौर से पूरी तरह स्वस्थ गये थे. वह एक रुटीन यात्रा थी उनकी मुंबई के लिए. अच्छी तरह याद है उस रविवार वे बोले थे, ‘यार एक दो इतवार शायद ना आ पाऊं, तुम लोगों को बहुत मिस करूँगा. इतवार के दिन सुबह से ही तुम लोगों की याद आने लगाती है’. अनायास मेरे मुंह से निकला था ‘रुक जाओ ना, क्यों जाते हो ?’ इसके बाद उन्होंने वहां की कुछ व्यस्तताओं का जिक्र किया और हम लोग रुखसत हुए. यों वे भावुक नहीं होते हैं लेकिन उस दिन कुछ नरम पड़ गए थे.
रोमेश जोशी 
मैं बात कर रहा हूँ इंदौर रायटर्स क्लब (इराक) की जो पिछले दो ढाई साल से सक्रीय है. इसमें रोमेश जी की उपस्थिति नियमित रही है. दरअसल कवि राजकुमार कुम्भज, रोमेश जी और अर्जुन राठौर ने इराक को आरंभ किया है. वे क्लब के लिए रविवार का इंतजार शिद्दत से किया करते थे. यहाँ दोस्तों की उपस्थिति, रचनाओं का पाठ और उस पर चर्चा उनमें बच्चों की सी उमंग भर देता था. जाने क्या बात थी उनकी सख्शियत में कि उनकी उपस्थिति तब भी महसूस होती रही जब वे कॉफ़ी हॉउस की अपनी सीट पर पिछले लगभग तीन माह से दिखाई नहीं दे रहे थे. अपने खिलंदड़े और खुशमिजाज स्वाभाव के कारण हमारे बीच वे एक जरुरी व्यक्ति रहे हैं और अब उनका न रहना किसी को स्वीकार नहीं हो रहा है.  रोमेश जोशी की मौजूदगी केवल शारीरिक नहीं थी, वे हमेशा अपने साथ एक जिन्दादिली लिए होते थे और मित्रों में प्रसाद की तरह बांटते रहते थे. उनके ठहाके और खिलखिलाहट देर तलक इराक के बंकर में मशीनगन की तरह सुनाई देती थी. उदासी या मनहूसियत हमेशा उनसे छिटक कर बैठती थी. उनके आते ही ख़ुशी का जो बादल घुमड़ते तो भादौ सा बरसते ही रहते.
यों मेरा उनसे परिचय बतौर लेखक वर्षों से रहा है. हमने कई बार साथ में रचनापाठ भी किया है.  व्यंग्य को ले कर हममें खूब बहसें और असहमतियां होती रही हैं. हमने एक उपन्यास मिल कर लिखने का वादा भी किया था. हाल ही में उनका उपन्यास ‘हुजूरे आला’ ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है जिसको लेकर वे बहुत उत्साहित थे और इस समय अपने नए उपन्यास पर काम कर रहे थे, ऐसा उन्होंने बताया था. नियमित लेखन को उन्होंने साध लिया था, रोज लिख रहे थे. कहानियाँ भी खूब छप रही थीं. रोमेश जी अपने पाठकों के लिए दो व्यंग्य  संग्रह ‘यह जो किताब है’ और ‘व्यंग्य की लिमिट’ छोड़ गये हैं. इराक उनके लौटने का इंतजार कर रहा था. खुद उन्होंने कहा था कि एक माह बाद लौट आऊंगा. मैं जनता हूँ इराक को उनका इंतजार अभी रहेगा.

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