गणेश गनी की कविताएं
कविताएं वसुधा, बया, वागर्थ, पहल, हिमतरु, सेतु, विपाशा, लोकविमर्ष, आकंठ, अविराम, ब्यान, सदानीरा, गुंजन, समकालीन अभिव्यक्ति आदि में प्रकाशित। हिमतरु का विशेषंक गनेश गनी की कविताओं पर केंद्रित।
गणेश गनी: 4 विश्वविद्यालयों से 5 डिग्रियां, आदिवासी क्षेत्र पांगी का मूल निवासी, वर्तमान में कुल्लू में एक निजी स्कूल ग्लोबल विलेज स्कूल का संचालन।
गणेश गनी |
कविताएं
एक
यह समय नारों का नहीँ हो सकता
इन दिनों एक आदमी
नींद में बड़बड़ा रहा है
एक आदमी
हल चलाते हुए घनघना रहा है
एक आदमी
यात्रा करते हुए बुदबुदा रहा है
एक आदमी
कुँए में दरिया भर रहा है
एक आदमी
चिंगारी को हवा दे रहा है
और एक आदमी
नदी के किनारे पर ओस चाट रहा है।
एक लकड़ी अकेले ही जल रही है
धारों पर एक गडरिया
जोर की हांक लगा रहा है
और भेड़ें हैं कि
कर रही अनसुना
जब जीभ का हिलना बेमानी हो गया
और लगने भी लगा कि
बोलने के लिए
जीभ का होना जरुरी नही
तब एक आदमी ने
काट दी जीभ अपने ही दांतों से
इन दिनों कुछ मूक बधिर बालक
सड़कों पर घूम रहे हैं
यह समय नारों का नही हो सकता ।
००
दो
यह उत्सव मानाने का समय है
अचानक नहीँ हुआ यह सब
कि किताबों में रखे फूल
चुपके से खिल रहे हैं बाहर गमलों में
तितलियाँ सब रंग समेटे किताबों से निकल कर
फड़फड़ा रही हैं शाखों पर
एक बादल का टुकड़ा
पेड़ की छाया में बैठकर
प्यासे कौवे को सुनाना चाहता है कथा पानी की।
अचानक नहीं हुआ यह सब
कि कुछ अक्षर फल बाँट रहे हैं
तो कुछ औजार युद्ध के दिनों में
अ बाँट रहा है अनार
और क सफेद कबूतर
द बांट रहा है दराटियां
और ह हल और हथौड़े
बस केवल ब के पास नहीँ हैं
बांटने को गेहूं की बालियां
पर स नया सूरज उगाने की फिराक में है।
अचानक नही हुआ यह सब
कि उसकी छड़ी फिसल गई हाथ से
और बाहर मैदान में
पेड़ बनकर लहलहा रही है
वह हैरान है कि
ये बच्चे बदल गए हैं अक्षरों में
या अक्षर बच्चों में ?
उसकी जीभ तालु से चिपक गई
हथेली से खारापन फर्श पर टपक रहा है
बच्चों की हंसी वाली मीठी फुहार
कानों से पेट तक पहुँच रही है
हाँ यह सिद्ध हो गया अचानक
कि बालक और अक्षर जब
दांत काटी रोटी जैसे लगें
तो समझो कि यह उत्सव मनाने का समय है ।
००
अवधेश वाजपेई |
तीन
कन्धारी के चौबीस पौधे
हालांकि
तीन घंटे का समय कुछ नहीँ होता
पर पृथ्वी ने कर लिया तय
कम से कम आठवां हिस्सा
अपनी धुरी पर एक दिन की यात्रा का
जबकि
इसी समय -अंतराल में
पृथ्वी के एक बिंदु पर
तुम्हारे ही हाथों से मित्र
रोपे जाने थे
कंधारी के चौबीस पौधे।
हालांकि
मेरा तुम पर अटूट विश्वास है
उतना
जितना पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण पर
जबकि तुम्हारा
' बगीचा उगाने का मतलब भविष्य पर यकीन है '
इस बीच
तुम पृथ्वी से सम्वाद करते रहे
अपने सुंदर हाथों से
मिट्टी को और महीन करते हुए
स्थूल से सूक्ष्म की ओर
जड़ों को जमीन में
ठीक जमाते हुए
तुम डूबे रहे
और मैं अपने अंदर
तुम से बातें करता रहा।
तुमने जड़ों के कानों में
कुछ जरुरी बातें कही हैं
मैं जानता हूँ
तुम केवल जरुरी बातें ही करते हो
कल जब पेड़ बड़े होंगे
और उन पर खिलेंगे फूल
तब मैं करूँगा उनसे बातें
और पूछूँगा भी तुम्हारी बातें।
जिस वक्त फूल बनेंगे फल
अनार के सुर्ख लाल दानों से
टपकेगी मिठास मेरी जीभ पर
और उस क्षण का सवाद
ठीक उसी पल तुम भी करोगे महसूस ।
००
चार
पौधे रोपने का मन करता है
इन दिनों
न हँसना अच्छा लगता है
न पृथ्वी पर घूमना।
इन दिनों
न घर अच्छा लगता है
न पृथ्वी पर ठहरना।
इन दिनों
बस रोने का मन करता है।
इन दिनों
न अधूरी कविताएँ पूरी हो रही हैं
न नई कविता ही लिखी जा रही है।
इन दिनों
न पढ़ना अच्छा लगता है
न दोस्त से रूठना।
इन दिनों
बस गुस्सा छोड़ने का मन करता है।
इन दिनों
न लाल मफलर अच्छा लगता है
न पीली कमीज पहनना।
इन दिनों
न नारा अच्छा लगता है
न कहीं धरना।
इन दिनों
बस पौधे रोपने का मन करता है।
००
निज़ार अली बद्र |
पांच
रिक्त स्थान
कितनी आसानी से
भर देते हैं रिक्त स्थान बच्चे
चुनकर सही विकल्प ।
हम कितनी ही बार
चुनते हैं गलत विकल्प
और भर देते हैं
जीवन में रिक्त स्थानों को
जो फिर खाली हो जाते हैं
फिर भरे जाते हैं
फिर खाली हो जाते हैं
और हम फिर भरते हैं ।
विडम्बना यह भी है कि
सही सही भरे गए रिक्त स्थान भी
हमारी ही गलतियों से
अक्सर हो जाते हैं खाली ।
और फिर त्रासदी देखो कि
हम ही गलत विकल्प चुन लेते हैं
उन रिक्तियों को भरने के लिए ।
अगर जीवन पाठशाला है अनुभवों की
तो अब आप ही बताएं कि
कैसे चुन पाते हैं बच्चे
रिक्त स्थानों के लिए सही विकल्प ।
००
छः
काली और सफेद टोपी वाले
कई दिनों से
बच्चों ने चन्दा मामा नहीँ कहा
पिता कविता सुनाना भूल गए
और माँ लोरी गाना ।
कई दिनों से
देवता के प्रवक्ता ने
कोई घोषणा नहीँ की
लोग डरना भूल गए
और गूगल पर खोजबीन बढ़ गई ।
कई दिनों से
बहुरूपिया इधर से नहीँ गुजरा
भूल गए दोस्त
मुखौटों की पड़ताल करना ।
कई दिनों से
काली और सफेद टोपी वाले बेचैन हैं
धरना बन गए प्रार्थना सभाएं
और नारे प्रार्थनाएँ लगने लगी हैं ।
कई दिनों से
पुजारी परेशान है
मंदिर के चौखट पर कोई मेमना नहीँ रोया
शहद चोरी होने पर भी
मधुमक्खी ने नहीँ की आत्महत्या ।
कई दिनों से
सपनें आते हैं मगर
बाढ़ और भूकम्प की खबर के साथ
जन्म और मृत्यु का डंका बजाते हुए
जागते रहो की बुलंद बांग के साथ ।
कई दिनों से
यह भी हो रहा है कि
बादलों के मशक छलछला रहे हैं
बीज पेड़ बनने का सपना देख रहा है
कोयल से रही है अंडे
अपने ही घोंसले में
कई दिनों से
एक कवि जाग रहा है रातों में ।
००
अवधेश वाजपेई |
सात
घुट रही है हवा
आज बरसों बाद
गमले से झांकते हुए
एक पौधे ने कहा -
आज ज्यादा पानी देना भाई
मेरी गांठों से कोंपलें फूटने को हैं
कल और फूल खिलेंगे
और प्रेम बरसेगा धरती पर।
सुबह पाठशाला को तैयार होते जहीन ने कहा
पापा पक्की गांठें लगाना
खुल न पाएं तसमे और टाई दिन भर
और शाम को खोल सकें दादू
ऐसी आसान भी हों गांठें।
मेरे पास कुछ तरकीबें थीं
कुछ उपदेश थे
गांठों से जरुरी थीं
जुलाहे की उँगलियों में समाई आर्द्रता
ताने और बाने की लड़ियाँ
और खड्डीयों के भयावह पेट।
जहाँ लामबंद होने लगे थे
कमीज और पतलून से उतरे हुए धागे
जिनके बारे में कोई अभिलेख नहीं हैं
कहीं कोई काना- फूसी नहीं है
बस धागे और गाँठ के बीच
व्यर्थ में घुट रही है हवा ।
००
आठ
बच्चे कर लेते हैं
कहाँ कर पाते बड़े
जो बच्चे कर लेते हैं
बच्चे जानते हैं दोस्ती करना
धूल और धरती से
बात कर सकते हैं तितलियों से
दोस्तों को दे सकते हैं
अपना सबसे कीमती खिलौना
या खोने पर भी
नहीँ करते विलाप
नहीं रूठते देर तक ।
बच्चे जानते हैं
कैसे किया जाता है माफ
बच्चे ही नाप सकते हैं आकाश
हाथ उठाकर छू सकते हैं चाँद
और चल सकते हैं
चाँद तारों के साथ।
बच्चे सुना सकते हैं कहानी
बिना प्लॉट के
हंसा सकते हैं दुःख में भी
बच्चे ही कर सकते हैं
घुड़सवारी पिता की
बच्चे भीगना चाहते हैं
ठीक वैसे ही जैसे
बड़े बचना चाहते हैं बारिश से।
नौ
एक आदमी जश्न मना रहा है
टी वी पर एक आदमी
कई किस्म के ताबीज बेच रहा है
जिनके साथ अन्धविश्वास मुफ़्त हैं
एक आदमी
अलग अलग रंगों का का पानी बेच रहा है
जिनके साथ नशे एकदम मुफ़्त हैं ।
संविधान की कुर्सी पर बैठा
एक आदमी ईमान बेच रहा है
एक आदमी धर्म बेच रहा है
एक आदमी पृथ्वी को टुकड़ों में बेच रहा है ।
अपने खेत की मेड़ पर बैठा
एक आदमी अपने खेत बेचने की सोच रहा है
एक आदमी कर्ज चुकाने के वास्ते
अपने प्राणों की सौदेबाजी कर रहा है ।
उधर इण्डिया गेट पर बैठा
एक आदमी बेच कुछ नही रहा
पर खरीदने की फिराक में है -
जनता का समय
वह सौदागर पक्का है
बदले में सपनें देता है चमकदार
वह जश्न मनाना चाहता है ।
इस देश के 'मालिक' हैरान हैं
कि उनके बच्चों की जेबों में
नहीँ भरे गए चाँद तारे
पटवारी अब भी लेता है चाय-पानी
डी सी का दफ्तर बंद रहता है
आम आदमी के
आज भी विधायक अपने एरिया का थाणेदार है
प्रधानमंत्री को लगता है कि
जश्न मनाना जरुरी है !
ऐसे में इण्डिया गेट से दूर
बाघ को मालूम है कि
उसकी सुरक्षा पिंजरे में नहीँ
बल्कि जंगल में है
घोड़ा जानता है कि
नाल से बनी अंगूठी नहीँ बदलती किस्मत
चाबुक का खेल चलता ही रहता है
बच्चे उम्मीद से टटोलते हैं
अपनी जेबों में चाँद तारे
और पिता तलाशते हैं अच्छे दिन ।
००
दस
अब भगवान क्रोधित होंगे
तुम्हारा खेल चलता रहेगा
तब तक केवल
जब तक अंधेरा
तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं हो जाता।
यह भी सुन लो -
तुम्हारा मंच
तुम्हारे नाटक
तुम्हारा किरदार
तुम्हारे मुखौटे
बचे रहेंगे तब तक केवल
जब तक अंधेरा नहीं लिखता आत्मकथा।
अभी तो कर दिए स्थगित
सारे शोध
सुर और संगीत साधकों ने
क्योंकि
खानगीर पत्थर पर घन मारते मारते
घन की आवाज में एक नया सुर साध रहा है
चिरानी स्लीपर चीरते चीरते
आरी की आवाज में
एक नई हरकत डाल रहा है।
फिर भी दीवार पर चिपकी घड़ी बता रही है
कि समय जैसी कोई चीज नहीं होती
पृथ्वी का लोकनृत्य करना ही
वास्तव में एक खगोलीय घटना है।
एक साजिश रची जा रही है निरंतर
डर के मारे लोग भाग रहे हैं
घर छोड़कर
बच्चे डरे हुए घर लौट रहे हैं
भविष्यवाणी करने वाले
स्टूडियो में बैठे इंटरव्यू दे रहे हैं
जो रोकना चाहता है वो मारा जाता है।
फिर भी कुछ बातें भूली नहीं गई हैं
ठंडे रेगिस्तान में
चन्द्र और भागा के प्रथम मिलन का क्षण
हवा को याद है
जब उसने बधाइयां गायी थीं
तितलियों को पता है
उनके पैर केवल स्वाद चखने के काम आते हैं।
और यह भी हो रहा है इधर
नन्हा बालक मूर्ति को खिलौना समझ रहा है
पुजारी पिता उसे समझा रहा है
कि देवता की इस मूर्ति में विराट शक्ति है
बच्चा परखने के लिए मूर्ति को पटक देता है
पुजारी टुकड़े समेटते हुए कहता है -
अब भगवान क्रोधित होंगे
और बच्चे को डांट देता है।
००
बिजूका के लिए रचनाएं भेजिए: bizooka2009@gmail.com, सत्यनारायण पटेल
बेहतरीन कवितायें
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं हैं गणेश गनी जी की
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाएँ नए रूपक,बिम्ब के साथ हमेशा ही एक ताज़गी का एहसास देती हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायेँ :)
जवाब देंहटाएंगणेश गनीजी,आपकी कविताएँ अच्छी हैं।इधर,लगातार आपको और हिमाचल के अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ रहा हूँ और कविता के भविष्य को लेकर आश्वस्त हूँ, बावज़ूद इसके कि दिल्ली की परिस्थितियाँ बहुत निराश करनेवाली है।आपने जो सवाल उठाये हैं उनसे टकराये बग़ैर हम आगे का रास्ता नहीं निकाल सकते।दुख इस बात का नहीं कि कविता में बभनखेल चल रहा है, दुखद यह है कि यह सब प्रगतिशीलता और जनवाद के नाम पर हो रहा है।वैसे मंगलेशजी का यह मुख्य स्वर नहीं है।लेकिन....
जवाब देंहटाएंआभार आपका।
हटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २८ मई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
वास्तविकता के धरातल पर सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएं