पड़ताल: मानवीय मूल्यों की प्रबल पक्षधर हैं अनुराधा सिंह की कविताएं
मीना पाण्डेय
आजादी के बाद जनचेतनावादी विचारों की आँधी में पृथक जीवन दृष्टि व यथार्थ के आग्रह ने नई हिंदी कविता की नींव रखी। आजादी की छाँव में हाथ लगी हताशा, किसानों -श्रमिकों के जीवन संघर्ष , बेरोजगारी, भ्रमित राजनीतिक मूल्य व अराजकता ने संवेदनशील रचनाकारों की विचार दृष्टि को झकझोरा। यहीं कहीं से कविता समकालीन संवेदना ग्रहण करती दिखाई पड़ती है।इस तरह कविता के धरातल पर समकालीनता का अर्थ समय सापेक्ष न होकर विशेषता मूलक है जो अपनी सार्थकता जनपक्षधरता के अर्थ में सिद्ध करती है। इस ओर अनुराधा सिंह जो मुम्बई से आती हैं समकालीन कविता के क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराती प्रतीत हुई हैं। अनुराधा जी की दस कविताएँ मेरे सम्मुख हैं। ये कविताएँ एक ओर समय की चुनौतियों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर पारम्परिक जीवन मूल्य को परखने की एक नई दृष्टि पाठक को सौंप जाती हैं। मानव मूल्यों व प्रकृति के प्रति संवेदनशील छटपटाहट व तार्किक सुझाव इन कविताओं की प्रमुख विशेषता है। कविता 'बेआवाज हो हर लाठी' आस्तिकता व अकर्मण्यता के विभेद को परिभाषित करने का साहसिक उपक्रम है। असत्य व अनैतिक के विरुद्ध खड़ा होना, अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाना मानव धर्म है।समाज अपनी दुर्बलता को ढाँपने के लिए धर्म या आस्तिकता का सहारा लेता है। परिस्थिति के आगे घुटने टेक देने की मानवीय प्रकृति पर कटाक्ष करती हुई पारम्परिक मुहावरों के लिए एक नई जीवन दृष्टि तलाशती हैं-
मेरी आस्तिकता नहीं,
मेरा आलस्य,
विश्वास बनाए रखता है,
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर।
अनुराधा सिंह की कविताएँ दिमाग से होती हुई दिल तक पहुँचती हैं। समय की विसंगतियों पर मुखर अनुराधा सिंह एक वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्वाह कविता दर कविता करती हैं। ''बस प्रेम नहीं ठहरा ' कविता की ये चिन्ता की झूठ,व्याभिचार व बुरे वक्त की तरह प्रेम के पल क्यों लम्बी उम्र नहीं लेकर आते। सच ही तो है उपेक्षाओं व दरकती सम्भावनाओं के काले बादल प्रेम को क्षत-विक्षत कर देते हैं और बुरा वक्त बीते नहीं बीतता--
ठहरा रहा बुरा वक्त अक्सर,
आदमी चलता रहा अच्छे की आस में,
नष्ट होता रहा।
स्वयं एक स्त्री होते हुए समाज के दोहरे मापदंड और हर नए दिन कसौटियों पर खरी उतरने को प्रस्तुत होने की पीड़ा में रचनाकार स्वयं को हर दूसरी औरत की साझेदार मानती है। लेखक,विचारक या कुछ और होने से पहले व बाद में केवल औरत भर होने की स्वीकार्यता कविता को स्त्री विमर्श के नवीन आयाम तक ले जाती है । 'तोड़ दो वह उंगली ' कविता की ये पंक्तियां-
लेकिन एक बहुत आम औरत,
अधिक से अधिक,
साथ खड़ी दूसरी औरत की फटी आस्तीन को,
सेफ्टीपिन से टाँक भर सकती है बस।
अनुराधा सिंह की कविताएं :
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html?m=1
--------
'तफ्तीश' कविता समय की शिला पर मूक असहाय दमतोड़ गई सिसकियों की नदी के बहाने शिनाख्त भर है।एक संवेदनशील हृदय ही उन पीड़ाओं को महसूस कर सकता है। समय की विसंगतियों के प्रति क्षोभ व नई पीढ़ी के भविष्य को लेकर उपजी असुरक्षा का भाव 'विरासत' कविता के मूल में है। मानव अपनी स्वार्थान्धता में प्रकृति के सभी उपागम दूषित कर गया है। हवा पानी पेड़ पौधे दुनिया समाज कुछ भी तो नहीं छोड़ पाए हम वैसा का वैसा। सामाजिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय प्रदूषण के इस दौर में नई पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित कल न सहेज पाने का दंश कवि को भीतर तक सालता है, और वह कहती है -
कितना सँवारु अपना आज कि बिगड़े नहीं उसका कल,
कितनी छोड़ जाऊँ यह पृथ्वी उसके लिए,
जो बिना धक्का खाए खड़ी हो सके एक जगह ।
कविता 'स्वागत है नए साल में' एक योद्धा के रूप में दुराग्रह व अन्याय का प्रतिकार कर अपनी लङाई अब वो स्वयं लड़ना चाहती है। एक सशक्त, स्वाभिमानी स्त्री समाज की नयी परिभाषाएँ गढ़ने को आतुर है।
अब तय करना,
किस भाषा में मिलोगे मुझसे,
क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट,
परिभाषाएँ तोड़ कर मिलूंगी।
स्त्री स्वाभिमान को कविता दर कविता जीती रचनाकार जब प्रेम में उतरती है तब तमाम उपेक्षाओं के बावजूद तलवे में अमिट निशान के रूप में जुड़े रहने से भी गुरेज नहीं करती। यही प्रेम की परिकाष्ठा है और समर्पण का चरम -
टीसना चाहती हूं ताउम्र तुम्हारी करवटों के नीचे ,
और भर जाऊँ तो ,
बने रहना चाहती हूं ,
एक अमिट निशान ,
तलवे पर ही सही।
अनुराधा जी की कविताओं में नर्म संवेदना है तो स्वाभिमानपूर्वक अपने क्षितिज तलाशती सशक्त स्त्री भी। यहाँ पीड़ा से क्षत-विक्षत सिसकियाँ है तो समाज को उसकी दुर्बलताओं के लिए कोसती दृष्टि भी। बुढ़ापे की विभीषिका भोगती माँ के ईर्द -गिर्द से संवेदनाओं के तंतु एकत्र कविता 'उसके बिना' अत्यंत मार्मिक बन पड़ी है। माँ - बेटी के रिश्ते में असमानता के विविध बिंदु टटोलती कवियत्री का स्वीकार्य कथन -
तुम माँ ही निकली,
सब माँओं सी।
दिल में बहुत गहरे उतर जाता है। वृन्दावन की विधवाएं इन कविताओं में मेरी सबसे प्रिय कविता है। जहाँ समाज के बनाये मापदंडों से सौभाग्य की पृथक परिकल्पना कवियत्री उन तथाकथित अभागी व उपेक्षित स्त्रियों के लिए करती है।
अनुराधा सिंह की कविताओं में संवेदना का वह तंतु है जो पाठक के दिलो-दिमाग से उलझकर एक नया दृष्टिकोण विकसित करता है। इन कविताओं में कई ताज़ा बिम्बों का प्रयोग बड़ी कुशलता से हुआ है। यथा -
नई कोपले उग आती हैं ,
भूगर्भीय जल की तरह।
अनुराधा सिंह की कलम परिपक़्व और अन्तर्दृष्टि तर्कसंगत व वैज्ञानिक है। वे मानवीय मूल्यों की प्रबल पक्षधर हैं व जटिल संवेदनाओं को शब्दों में उतारने में सिद्धहस्त।
००
मीना पाण्डेय: अल्मोड़ा उत्तराखंड में जन्मी है और गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में रहती है।
हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से‘ का 2010 से निरन्तर संपादन कर रही है।
कला एवम संस्कृति की पत्रिका ‘लोक रंग‘ में उप - सम्पादक के रूप में कार्य करती है।
विभिन्न संस्थाओ में भागीदारी करती है।' संभावना ' काव्य संग्रह २००५ में प्रकाशित है। ‘मुक्ति‘ ‘मेरी आवाज सुनो‘ व् ‘सुनो हिन्द के रहने वालो‘ संयुक्त काव्य संग्रह प्रकाशित है। 'अतीत के पहरेदार' कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।
आप कृष्ण कला अकादमी, इंदौर, म.प्र. द्वारा सम्मानित है।
पांचाल पर्व 2014 फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में सृजन से पत्रिका सम्मानित हुई है।
पाँचवें मैत्री सम्मलेन 2017, अयोध्या में सम्मानित हुई है।
००
संपर्क:
मीना पाण्डेय
एम -3 ,सी -61 वैष्णव अपार्टमेंट,
शालीमार गार्डन एक्स -2
साहिबाबाद ,गाज़ियाबाद -201005
ई-मेल : srujanse.patrika@gmail.com
मीना पाण्डेय
आजादी के बाद जनचेतनावादी विचारों की आँधी में पृथक जीवन दृष्टि व यथार्थ के आग्रह ने नई हिंदी कविता की नींव रखी। आजादी की छाँव में हाथ लगी हताशा, किसानों -श्रमिकों के जीवन संघर्ष , बेरोजगारी, भ्रमित राजनीतिक मूल्य व अराजकता ने संवेदनशील रचनाकारों की विचार दृष्टि को झकझोरा। यहीं कहीं से कविता समकालीन संवेदना ग्रहण करती दिखाई पड़ती है।इस तरह कविता के धरातल पर समकालीनता का अर्थ समय सापेक्ष न होकर विशेषता मूलक है जो अपनी सार्थकता जनपक्षधरता के अर्थ में सिद्ध करती है। इस ओर अनुराधा सिंह जो मुम्बई से आती हैं समकालीन कविता के क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराती प्रतीत हुई हैं। अनुराधा जी की दस कविताएँ मेरे सम्मुख हैं। ये कविताएँ एक ओर समय की चुनौतियों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर पारम्परिक जीवन मूल्य को परखने की एक नई दृष्टि पाठक को सौंप जाती हैं। मानव मूल्यों व प्रकृति के प्रति संवेदनशील छटपटाहट व तार्किक सुझाव इन कविताओं की प्रमुख विशेषता है। कविता 'बेआवाज हो हर लाठी' आस्तिकता व अकर्मण्यता के विभेद को परिभाषित करने का साहसिक उपक्रम है। असत्य व अनैतिक के विरुद्ध खड़ा होना, अन्याय व शोषण के खिलाफ आवाज उठाना मानव धर्म है।समाज अपनी दुर्बलता को ढाँपने के लिए धर्म या आस्तिकता का सहारा लेता है। परिस्थिति के आगे घुटने टेक देने की मानवीय प्रकृति पर कटाक्ष करती हुई पारम्परिक मुहावरों के लिए एक नई जीवन दृष्टि तलाशती हैं-
मेरी आस्तिकता नहीं,
मेरा आलस्य,
विश्वास बनाए रखता है,
भगवान के लिए गढ़े मुहावरों पर।
अनुराधा सिंह की कविताएँ दिमाग से होती हुई दिल तक पहुँचती हैं। समय की विसंगतियों पर मुखर अनुराधा सिंह एक वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्वाह कविता दर कविता करती हैं। ''बस प्रेम नहीं ठहरा ' कविता की ये चिन्ता की झूठ,व्याभिचार व बुरे वक्त की तरह प्रेम के पल क्यों लम्बी उम्र नहीं लेकर आते। सच ही तो है उपेक्षाओं व दरकती सम्भावनाओं के काले बादल प्रेम को क्षत-विक्षत कर देते हैं और बुरा वक्त बीते नहीं बीतता--
ठहरा रहा बुरा वक्त अक्सर,
आदमी चलता रहा अच्छे की आस में,
नष्ट होता रहा।
स्वयं एक स्त्री होते हुए समाज के दोहरे मापदंड और हर नए दिन कसौटियों पर खरी उतरने को प्रस्तुत होने की पीड़ा में रचनाकार स्वयं को हर दूसरी औरत की साझेदार मानती है। लेखक,विचारक या कुछ और होने से पहले व बाद में केवल औरत भर होने की स्वीकार्यता कविता को स्त्री विमर्श के नवीन आयाम तक ले जाती है । 'तोड़ दो वह उंगली ' कविता की ये पंक्तियां-
लेकिन एक बहुत आम औरत,
अधिक से अधिक,
साथ खड़ी दूसरी औरत की फटी आस्तीन को,
सेफ्टीपिन से टाँक भर सकती है बस।
अनुराधा सिंह |
अनुराधा सिंह की कविताएं :
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/11/blog-post_13.html?m=1
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'तफ्तीश' कविता समय की शिला पर मूक असहाय दमतोड़ गई सिसकियों की नदी के बहाने शिनाख्त भर है।एक संवेदनशील हृदय ही उन पीड़ाओं को महसूस कर सकता है। समय की विसंगतियों के प्रति क्षोभ व नई पीढ़ी के भविष्य को लेकर उपजी असुरक्षा का भाव 'विरासत' कविता के मूल में है। मानव अपनी स्वार्थान्धता में प्रकृति के सभी उपागम दूषित कर गया है। हवा पानी पेड़ पौधे दुनिया समाज कुछ भी तो नहीं छोड़ पाए हम वैसा का वैसा। सामाजिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय प्रदूषण के इस दौर में नई पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित कल न सहेज पाने का दंश कवि को भीतर तक सालता है, और वह कहती है -
कितना सँवारु अपना आज कि बिगड़े नहीं उसका कल,
कितनी छोड़ जाऊँ यह पृथ्वी उसके लिए,
जो बिना धक्का खाए खड़ी हो सके एक जगह ।
कविता 'स्वागत है नए साल में' एक योद्धा के रूप में दुराग्रह व अन्याय का प्रतिकार कर अपनी लङाई अब वो स्वयं लड़ना चाहती है। एक सशक्त, स्वाभिमानी स्त्री समाज की नयी परिभाषाएँ गढ़ने को आतुर है।
अब तय करना,
किस भाषा में मिलोगे मुझसे,
क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट,
परिभाषाएँ तोड़ कर मिलूंगी।
स्त्री स्वाभिमान को कविता दर कविता जीती रचनाकार जब प्रेम में उतरती है तब तमाम उपेक्षाओं के बावजूद तलवे में अमिट निशान के रूप में जुड़े रहने से भी गुरेज नहीं करती। यही प्रेम की परिकाष्ठा है और समर्पण का चरम -
टीसना चाहती हूं ताउम्र तुम्हारी करवटों के नीचे ,
और भर जाऊँ तो ,
बने रहना चाहती हूं ,
एक अमिट निशान ,
तलवे पर ही सही।
अनुराधा जी की कविताओं में नर्म संवेदना है तो स्वाभिमानपूर्वक अपने क्षितिज तलाशती सशक्त स्त्री भी। यहाँ पीड़ा से क्षत-विक्षत सिसकियाँ है तो समाज को उसकी दुर्बलताओं के लिए कोसती दृष्टि भी। बुढ़ापे की विभीषिका भोगती माँ के ईर्द -गिर्द से संवेदनाओं के तंतु एकत्र कविता 'उसके बिना' अत्यंत मार्मिक बन पड़ी है। माँ - बेटी के रिश्ते में असमानता के विविध बिंदु टटोलती कवियत्री का स्वीकार्य कथन -
तुम माँ ही निकली,
सब माँओं सी।
दिल में बहुत गहरे उतर जाता है। वृन्दावन की विधवाएं इन कविताओं में मेरी सबसे प्रिय कविता है। जहाँ समाज के बनाये मापदंडों से सौभाग्य की पृथक परिकल्पना कवियत्री उन तथाकथित अभागी व उपेक्षित स्त्रियों के लिए करती है।
अनुराधा सिंह की कविताओं में संवेदना का वह तंतु है जो पाठक के दिलो-दिमाग से उलझकर एक नया दृष्टिकोण विकसित करता है। इन कविताओं में कई ताज़ा बिम्बों का प्रयोग बड़ी कुशलता से हुआ है। यथा -
नई कोपले उग आती हैं ,
भूगर्भीय जल की तरह।
अनुराधा सिंह की कलम परिपक़्व और अन्तर्दृष्टि तर्कसंगत व वैज्ञानिक है। वे मानवीय मूल्यों की प्रबल पक्षधर हैं व जटिल संवेदनाओं को शब्दों में उतारने में सिद्धहस्त।
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मीना पाण्डेय: अल्मोड़ा उत्तराखंड में जन्मी है और गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश में रहती है।
हिंदी त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘सृजन से‘ का 2010 से निरन्तर संपादन कर रही है।
कला एवम संस्कृति की पत्रिका ‘लोक रंग‘ में उप - सम्पादक के रूप में कार्य करती है।
विभिन्न संस्थाओ में भागीदारी करती है।' संभावना ' काव्य संग्रह २००५ में प्रकाशित है। ‘मुक्ति‘ ‘मेरी आवाज सुनो‘ व् ‘सुनो हिन्द के रहने वालो‘ संयुक्त काव्य संग्रह प्रकाशित है। 'अतीत के पहरेदार' कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।
आप कृष्ण कला अकादमी, इंदौर, म.प्र. द्वारा सम्मानित है।
पांचाल पर्व 2014 फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश में सृजन से पत्रिका सम्मानित हुई है।
पाँचवें मैत्री सम्मलेन 2017, अयोध्या में सम्मानित हुई है।
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संपर्क:
मीना पाण्डेय
एम -3 ,सी -61 वैष्णव अपार्टमेंट,
शालीमार गार्डन एक्स -2
साहिबाबाद ,गाज़ियाबाद -201005
ई-मेल : srujanse.patrika@gmail.com
बेहतरीन👌
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