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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 नवंबर, 2017

अनुज लुगुन की कविताएं


अनुज लुगुन:  साहित्य की ज़मीन पर फैले कचड़घान में मजबूती से खड़ा और ख़ुशबू बिखेरता सूर्ख़ लाल फूल है। अनुज की कविताएं, लेख और टिप्पणियां बहुत समृद्ध और व्यापक दृष्टि सम्पन्न होती है। ख़ुद तो रोशन होती है। अपने आस पास को भी रोशन करती है। अनुज की रचनाओं में दबे -कुचले, पिछड़े-उपेक्षित, आदिवासी तबके की पीड़ा और संघर्ष बहुत तल्ख़ स्वर में प्रकट होता है । सवाल करता है। जवाब चाहता है। अनुज की रचनाओं के केन्द्र में वह सब है, जो व्यवस्था के हाशिए पर हैं। जो धरती को रहने लायक बनाते हैं। जिनकी मेहनत से पेड़ों में हरापन है। अनुज हमारे समय के बहुत साहसी और ज़िम्मेदार रचनाकार है। आज हम बिजूका के पाठक मित्रो के बीच अनुज लुगुन की कविताएं साझा कर रहे हैं। आशा है कि कविता का यह स्वर आपको पसंद आएगा।




 कविताएं




एक

अख़बार


मेरे कमरे में पुराना अख़बार

हवा के झोंके से फड़फड़ा रहा है


शायद वह कह रहा है

कि उसे पहुँचा दिया जाए

विज्ञापन कंपनियों के यहाँ

जिन्होंने उसके चेहरे पर

झूठ का रंगपोत दिया है

या, वह कह रहा है

किउसे पहुँचा दिया जाए

उन विद्रोहियों के यहाँ जंगल में

जिनसे मुठभेड़ की खबर छपी है



मैं चुपके से उठता हूँ

औरधीरे से अखबार को

काठ की तख्ती से दबा देता हूँ |
00


अवधेश वाजपेई


 दो

उनके कब्र पर जाते हुए

 (शहीद विलियम लुगुन को याद करते हुए )

बहुत नम हैं पेड़ों की पत्तियाँ

हवा भी गीली हो रही है

बरस जाना चाहते हैं सभी

खुद को नये आकार में ढालने के लिए

सखुआ और करम के चेहरे पर सार है

सदियों से संचित गुस्से का


यहाँ  पैरों पर छाले लेकर पहुंचे हैं लोग

वे जानते हैं

उनकी आँखों का सोता यहीं है

वे लौट जाना चाहते हैं अपने सोता में


कब्र पर सिसिकियों का सन्नाटा है

वहाँ खड़ी आकृतियाँ ही भाषा है

वे बात करती हैं कब्र के लोगों से


वे लौटाना चाहते हैं आगामी पीढ़ियों को

हवा, पानी, और जंगल

वे मांदल को गीत लौटाना चाहते हैं

बैलों को हल

वे पृथ्वी को वापस पृथ्वी लौटाना चाहते हैं

वे आदमी के आदमी होने को लौटाना चाहते हैं

बँटवारे के विरूद्ध वे

आदमी का एक रंग चाहते हैं

जैसे कि खून का रंग होता है

जैसे कि उन्होंने कहा था

आदिवासी हो या सदान, या चाहे जो भी हो इंसान

वेगरीब होने से कमजोर नहीं हो जाते

सहिया न जोड़ाने से वे बेज़ार हो जाते हैं


यह बात

कितनी अजीब लगती होगी कब्र के लोगों को

कि जीवित लोग लौटते हैं बार-बार

कब्र की ओर मृत्यु के विरूद्ध


वे खड़े हैं

उनकी आँखें नम हैं

उनकी आँखें बंद हैं

वे मौन हैं

यहशपथ है

अब तक हारे हुए लड़ाई के विरुद्ध / को जीतने के लिए

थोड़ी देर में उनमें से ही कोई

एक जगह निश्चित कर लेगा

अपने लिएउसी कब्र में

और यहाँ से जाते हुए लोगों की आँखों में नमी बची रह जाएगी
00


 तीन

ऑक्सीजन

ऑक्सीजन के बिना

सब कुछ थमने लगता है

मसलन, रेल

जहाज

यहाँ तक कि राज-पाट भी

औरजब दम घुटता है तो

सबसे पहले बच्चे ही मरते हैं


जब बच्चे मरने लगें

तो उस समय के

रसायनों को परख लेना चाहिए

हो सकता है कि

वहाँ बच्चों की मौत संक्रामक हो

ऐसा भी हो सकता है कि

बड़े भी उसकी चपेट में पहले से हों

और घुट रहे हों समय के समीकरणों में

ख़बरें छपती हैं बच्चों के मरने की

सड़कों पर

गड्डों में

स्कूलों में

यहाँ तक कि अस्पतालों में

उनकी सामूहिक मौत

नृशंस हत्या नहीं कहलाती

न ही उस देश के प्रधान सेवक को

इस बात का अफ़सोस होता है कि

बच्चे मर रहे हैं

इसका मतलब है कि

कहीं न कहीं

उसके समय में जीवन की संभवनाएँ घट रही हैं


ऑक्सीजन की सप्लाई बंद है

ऑक्सीजन ख़त्म हो रहा है

ऑक्सीजन न होने से बच्चे मर रहे हैं

ये ऐसे कथन हैं जो किसी समय में

हमारे होने को

कोई दूसरे तय करते हैं

जैसे कि इस ग्रह में

यहदुर्लभहै

उनके लिए जो जीना चाहते हैं


हमें बताया जाता है कि ऑक्सीजन जीवनदायिनी है

हमें सिखाया जाता है कि ऑक्सीजन संजीवनी है

हमसे छुपा लिया जाता है कि ऑक्सीजन शासन की कहानी है
00

नीलेश


 चार


औरत की प्रतीक्षा में चाँद


उस रात आसमान को एकटक ताकते हुए

वह जमीन पर अपने बच्चों और पति के साथ लेटी हुई थी

उसने देखा आसमान

स्थिर ,शांत और सूनेपन से भरा था

तब वह कुछ सोचकर

अपनी चूड़ियां ,बालियाँ ,बिंदी और थोड़ा-सा काजल

उसके बदन पर टांक आई

और आसमान

पहले से ज्यादा सुन्दर हो गया ,


रात के आधे पहर जंगल के बीच

जब सब कुछ पसर गया था

छोटी-छोटी पहाड़ियों की तलहटी में बसे

इस गाँव से होकर गुजरती हवाओं को

वह अपने बच्चों और पति के लिएतराश रही थी

उसी समय चाँद उसके पास चुपके से आया

और बोला-

“सुनो! हजार साल से ज्यादा हो गये

एक ही तरह से उठते –बैठते ,चलते,

खाते –पीते और बतियाते हुए

तुम्हारा हुनर मुझे नए तरीके से

सुन्दर और जीवन्त करेगा

तुम मुझे तराश दो”,

वह औरत अपने बच्चों और पति की ओर देख कर बोली –

“मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ

खेत से काम कर लौटी हूँ और

अभी –अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ

सब सो रहे हैं अब मुझे घर की पहरेदारी करनी है

इसलिए जब मैं खाली हो जाऊं

तब तुम्हारा काम कर दूंगी

अभी तुम जाओ”

और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में ,

चाँद आज भी उस औरत की प्रतीक्षा में है.

00


पांच

गरीब मंच की औरतें


ये गरीब मंच की औरतेंहैं

ये बहुत ही खूबसूरती के साथ

हवा में लहराकर

हंसुए से लिख सकती हैं

ईमान की बात

एक साथी कहता है

ये कैथर कला की औरतें हैं

(इनकी बाजुओं से ही दुनिया की सूरत बदलेगी )


ये अभी-अभी जुलूस से लौटी हैं

इन्होंने डीएम का घेराव किया है

भू-माफियाओं की साजिशों के खिलाफ


ये अब बैठी हैं विचार गोष्ठी में

और पूरे ध्यान से सुन रही हैं वक्ताओं को

कविताओं को गुन रही हैं अपने अर्थ के साथ

इनमें से अधिकाँश पढ़ना भी नहीं जानती

लेकिन वे जानती हैं लड़ने के दाँव-पेंच


वे विचारों को माँज रही हैं

एक युवा उनसे सीखने की बात करता है

उनके जीवन अनुभवों को वास्तविक ग्रन्थ कहता है

उसकी बातों सेउनकेरोम-रोम में

दौड़ती है बिजली की लहर

औरउनकी सिकुड़ती चमड़ी में

चमकपैदाहोती है समर्थन के शब्द सुनकर


गरीब मंच की औरतों में

गरीबी का रुदन नहीं है

कहींनहीं है भिक्षा का भाव

उल्लास है उनकी भंगिमाओं में

वेहँसती हैं, बोलती हैं, पूछती हैं

उनकी सोच में नहीं है

बिकने का भाव औरसुविधाओं की सेंध

वे पूरी ताकत के साथ

सलाम की मुद्रा में अपनी मुट्ठियाँ उठा देती हैं |

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कुंअर रवीन्द्र

छः


गोह की कविता



एक



इसका नाम तोरो:द भी है

शायद तुम इस नाम को नहीं जानते

मुंडा ऐसे ही कहते हैं

गोह को अपनी भाषा में


ऐसी ही कई भाषाएँ हैं

जिसमें गोह को कहा जाता है

इस तरह तुम कह सकते हो

गोह एक नहीं है

कई गोह हैं तुम्हारे ही आस पास

लेकिन तुम कहते हो

गोह विलुप्त हो रहे हैं


मुझे तुमसे इतना ही कहना है कि

भाषाएँ यूँ ही नहीं मरती

एक गोह मरता है

और एक भाषा मर जाती है |
००


दो


पुराने समय में जिनके राजा थे

उनकी प्रजा कहती है गोह की कथा

वे कहते हैं गोह दीवार से चिपक जाता है

और उसकी पूंछ पकड़ कर

उसके सैनिक किला भेद लेते थे


पुराने समय की बात

आज भी सच है

गोह अब भी अपनी ताकत में पहले जैसे ही हैं

उसी की पूंछ पकड़ कर

होता है हमेशा तख्तापलट


सवाल यह है कि तुम किला भेदना चाहते हो या नहीं

किले तो अब भी हैं औरगोह भी |
००


तीन


एक गाँव का नाम है गोह

यह बिहार में है

अस्सी के दशक में जाओ उस गाँव में

या नब्बे के दशक में

याआजादी के बाद किसी भी तारीख में

तुम्हें दिखाई देंगी उजड़ी हुई झोपड़ियाँ

बिखरे हुए खेत

सड़कों में चलते हुए मजदूर

जूतों में कील ठोंकते मोची

या ऐसे ही कई कारीगरों को देख सकते हो

स्त्रियों के सिर से सरक रहे आँचल को देख कर

तुम कह सकते हो

गोहमहजएकगाँव का नाम नहीं

यहएक समाज है

जिसका टोटेम गोह है

और गोह सदियों से उनकी स्मृतियों में हैं

यानीकिवे अपना इतिहास जानते हैं

अपने पूर्वजों को पहचानते हैं

औरये कभी भी अपनी ऊँची आवाज में

कह सकते हैं लाल सलाम का नारा |
००


चार



तुम बहुत रोमानियत महसूस करते होगे

एक गोह को देखकर

गूगल तुम्हें बहत सहजता के साथ

दिखा देता है गोह की तस्वीर


लेकिनक्या तुमने सचमुच गोह देखा है ?


शायद तुमने गोह नहीं देखा है

वह रेंगता हुआ निकलता है अपनी बांबी से

बहुत आराम तलब है वह

अपने खाने भर का जुटाता है

उसके यहाँ फ्रिज नहीं होता है

न ही उसे अपने चलने को लेकर फ़िक्र होती है

और इसलिए उसे कभी मेट्रो की जरूरत ही नहीं पड़ी

सोचो कितना हँसता होगा वह मेट्रो को देख कर

जरुर वह सोचता होगा कि

इंसान रेंगने से ज्यादा आगे बढ़ ही नहीं सके

और बढ़े भी तो लौटे गुफा की ही तरफ

तुमने सचमुच गोह नहीं देखा

वह तो तुम पर हँसता है |
००


पांच



तुम कहते हो

गोह तो गिरगिट प्रजातिके जीव हैं

जीव विज्ञानियों से पूछो

तो वे तुमको यही जवाब देंगे


लेकिन तुम शायद नहीं जानते

कि गोह रंग नहीं बदलते गिरगिटों की तरह

तुम नाहक गोह को बदनाम करते हो

यह तुम्हारी गलती नहीं है

और न ही जीव विज्ञानियों की

यह तुम्हारे अभ्यास का हिस्सा बन गया है

चुनाव के दिनों में वोट डालते-डालते |

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अवधेश वाजपेई

       
सात
                  

सहोदर



घोड़े अब नहीं रहे

जिन्हें हम घोड़े कहते हैं

वे खच्चर हैं

और गंदुरा खच्चरों को हांक कर लेरहा है


खच्चर उन जगहों के लिए बोझा ढोते हैं

जहाँ ट्रेक्टर, ट्रोली या ट्रक नहीं पहुँचता

कभी कभी ये खच्चर

अपनी पीठ पर

सेना केगोला बारूद भी ढोते हैं

खच्चर ऐसे ही सड़कों पर

अपने होने को दर्ज करते हैं



कई बार सोचता हूँ

क्या खच्चर अपने सहोदरों का इतिहास जानते हैं

क्या वे यह जानते हैं कि

कभी हरे घास का मैदान था

जहाँउनकी आँखें पागुर करती थी

क्या वे यह जानते हैं कि

बोझा ढोने वालों की प्रजाति

इतिहास में हमेशा सुरक्षित की गई है



शाम होते ही खच्चर लौट रहे हैं अपनी लीक पर

गंदुरा उन्हें हांक रहा है इतिहास के एक दूसरेमोड़ पर

मैं भी लौट रहा हूँ उसी रास्ते

सबके कंधे पर बोझा है

लेकिन खच्चरों का क्या कहना

वे तो रोज उसी भाव से लीक पर चल रहे हैं



खच्चर घोड़े नहीं हैं

खच्चर घोड़ों के सहोदर हैं

सब बोझा ढोने वाले सहोदर हैं

जैसे कि कुछ इतिहास में दर्ज हैं

जैसे कि कुछ विलुप्त हैं

जैसे कि कुछ अभी चल रहे हैं |
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आठ


शहर के दोस्त के नाम पत्र


हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बॉक्साईट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
थोक और खुदरा दोनों भावों से
मण्डियों में रोज़ सजाए जाते हैं
यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं,

शहर के मेरे दोस्त
ये बेमौसम के फूल हैं
इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती
अपने जूड़े के लिए गजरे
मेरी माँ नहीं बना सकती
मेरे लिये सुकटी या दाल
हमारे यहाँ इससे कोई त्योहार नहीं मनाया जाता,

यहाँ खुले स्कूल
बारहखड़ी की जगह
बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं

बाज़ार भी बहुत बड़ा हो गया है
मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता
यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है

कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब ख़बर फैल रही है कि
मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है ,

शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें
तो उनका ख़याल ज़रूर रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ !
उन्हें शहर का रीति -रिवाज़ भी तो नहीं आता,

मेरे दोस्त
उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ ।
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1 टिप्पणी:

  1. अनुज की कविताए हमेशा आकर्षित करती है।यहां गंव उसके लोग,उनकी संस्कृति और इतिबसबोध हाजिर होता है।अनुज के यहां क्रान्ति की यादें और आहतें भी ंऔजुद है और जुझने का का हौसला भी।शुभकामनाये। आभार बिझूका।

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