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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 नवंबर, 2017


मत-मतांतर: हम
 देखेंगे – पद्मावती

नागेश्वर पांचाल

सवेरे से एक मन था कि इंकलाब के लहू को आवाज देने वाले फैज़ साहब के बारे में सोचा जाए | मैं सोचने के मामले में जॉन के कथन को ख़ुद के बेहद करीब पाता हूँ, उन्होंने कहा “मैं लिखता हूँ ये जानने के लिए कि मैं क्या सोचता हूँ”|
पद्मावती
शाम को एक स्कूल के कुछ अध्यापकों से मिलकर जब रूम लौटा और थोड़ा सुस्ताने के बहाने मोबाइल टटोला तो सामने आ निकले गत 3 सत्र और तक़रीबन 12 सालो से मध्यप्रदेश की सत्ता पर जमे मुख्यमंत्री शिवराजसिंह जी उर्फ़ मामाजी| मामाजी फुर्सत में मिले राजपूतो की किसी टोली से और फ़िर आने वाले चुनाव को मद्देनज़र रखते हुए कर बैठे एक घोषणा| उन्ही के शब्दों में

“तथ्यो से खिलवाड़ कर अगर राष्ट्रमाता पद्मावती जी उनके सम्मान के खिलाफ जिस फिल्म में दृश्य दिखाए गए या बात कही गई है उस फिल्म का प्रदर्शन मध्यप्रदेश की धरती पर नहीं होगा”

खैर घोषणावीर यहाँ भी नहीं रुके, उन्होंने साथ ही दो अन्य अवार्ड की भी बात कि एक अवार्ड रहेगा राणा प्रताप के नाम और दूसरा रहेगा माँ पद्मावती के नाम| खैर मध्यप्रदेश की प्रजा का वर्तमान हाल फैज़ साहब यूँ बयां कर गए

“तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे”

ये वही प्रदेश है जहाँ शिक्षाकर्मी जाने कितनी दफ़ा भोपाल में बैठे और उनके पीठ पर लाठिया बरसाई गई, जहां किसानों की आवाज को अनसुना कर उनपर गोलियाँ चल गई | सोयाबीन के दाम कोनों पूछो मत और बिजली बिल की तो मुं वातज नी करंगा| व्यापम, राम राम माफ़ी चाहूँ दादा, मने अतरी जल्दी मरनो कोणी|

खैर बहरहाल तो जिस शख्स के इतिहास से खिलवाड़ की बात की जा रही है उनका ख़ुद का इतिहास अभी शंका के दायरे में है| मुझे जायसी की रचना “पद्मावती” लुभाती है| कल्पित जी तो यहाँ तक कहते है कि जायसी, तुलसीदास से बड़े कवि थे|

ये तो भंसाली का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि नेताओं को वो किरदार याद आ रहे है वरना कभी उनकी जुबा इस बारे में बोलती नज़र नहीं आई| कृतज्ञ होना चाहिए था लोगो को तो लेकिन हुआ उल्टा|  भंसाली मार्केट के उस्ताद आदमी है वो सपने में भी चाहकर पद्मावती के खिलाफ़ ऐसा कुछ नहीं दिखायेंगे जिस से उसकी गरिमा में ऊँगली भर का अंतर आये, अब खिलजी को ताकतवर दिखाना तो जायज है, यहाँ जाने क्यों राग अलापा जा रहा है| ग़ालिब कहते है

“जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ"

बड़ी आसानी से मामाजी ने पुरे मुद्दे को वोटबैंक में बदल दिया और हज़ारो मुद्दे आयेंगे लेकिन ये राह फ़िर भी आसान तो ना होने वाली|

ये चंद करणी सेना के लोग {जो मोबाइल पर देखने वाले है फिल्म और घुमर तो इनके पास सेव होगा} और उसी आवाज की शक्ल में हज़ार (बे)मुद्धे अखबारों और टीवी की सुर्खियाँ बनेंगे और उनकी आवाज इतनी तेज होगी कि उज्जैन जिले की किसी तहसील को जब किसान सूखाग्रशित करने की आवाज़ उठाएंगे तो वो सुनी नहीं जायेगी|

“मसला आवाज खतम करने का नहीं
वो चाहते है कि कानों पर हो अधिकार”

मालवा, निमाड़,मेवाड़ मासूम लोगो की धरती कहलाती है, जहाँ इंदौर से निकलकर उदयपुर तक गर्मी में पानी कहकर आपकी ट्रेन के पास कोई सेठ या बच्चा आ जाता है और आपकी प्यास को वो सेवा से तृप्त करता हैं| मध्यप्रदेश के लोगो फैज़ के इस शेर पर गौर फरमा लिया जाए

“हम ऐसे सादा-दिलों की नियाज़-मंदी से
बुतों ने की हैं जहाँ में ख़ुदाइयाँ क्या क्या”

उछलना बंद करो दोस्तों, प्रेम पर सबका अधिकार है और तुम्हे बन्दर बनाया जा रहा है ताकि किसी दिन किसी भी चौराहे पर तुम्हारा तमाशा बनाया जा सकें|

खैर, हम देखेंगे, हम देखंगे, पद्मावती
००

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