संजय कुमार अविनाश की कहानी:
परबतिया
संजय कुमार अविनाश
ज्योंही आंखें खुली, रोने की आवाज सुनाई पड़ी। चौंक गई, पता नहीं किसकी आवाज थी।बिछावन छोड़ इधर-उधर झांकने लगी, कहीं किसी की छाया तक नहीं मालूम पड़ी।
आखिर आवाज किसकी है, करूण स्वर में रोये जा रही थी। फिर उसी कमरे में पहुंच, आती आवाज को ढूंढ़ने लगी। सोची, कहीं मैं भ्रमित तो नहीं?
शौच व ब्रश के बाद, अलमीरा से कपड़े निकाली और बाथरूम की ओर चली गई। स्नान कर ही रही थी, फिर वही स्वर, इस बार पीड़ा से भरी थी। आश्चर्य हो सोची, अभी-अभी तो हर जगह ढूँढ़ कर आई हूँ, फिर है कहाँ? डरी-सहमी हुई, अधोवस्त्र में स्नानघर से बाहर निकल आई और आवाज लगाई, "कौन हो तुम? कहाँ छुपी हो, क्यों रोये जा रही हो? सामने आओ, मैं मदद करूंगी।"
प्रतिउत्तर में वही स्वर आई, "मुझे बचा लो। मैं मरना नहीं चाहती।मैं भी जीना चाहती हूँ, इस दुनिया को देखना चाहती हूँ।"
बारंबार एक ही बात सुनाई दे रही थी, "मुझे मत मारो, देश का भविष्य हूँ, मैं।"
मेरी परेशानी बढ़ने लगी। हिम्मत करके बोली, "तुम कहाँ हो, मुझे बताओ। मैं जरूर मदद करूंगी। विश्वास करो और सामने आओ।"
"मैं अंदर हूँ।मारोगी नहीं न---?" फिर आवाज के साथ रोने की आवाज।
अपने आप को संभाली और उसी समय संकल्प कर बैठी, "जो भी हो, इस मासूम को दुनिया की सैर करवाऊंगी। मरने नहीं दूंगी, प्रकृति से ही क्यों न लड़ना पड़े, कोई आंच नहीं आने दूँगी।"
अचानक सुरीली आवाज में खिलखिलाती हुई आवाज आई, "तुम मेरी सबसे अच्छी माँ हो।"
माँ शब्द सुनते ही मैं बलवती हो गई। एक अच्छी माँ की सार्थकता महसूस करने लगी।
दरअसल, मैं पास के ही जी.डी. काॅलेज में पढ़ती थी। काॅलेज में सराही जाती।खासकर खेलकूद में तो लड़कियों में अव्वल रहती ही थी। मेरी खुशी में दखलअंदाजी बढ़ गयी। बाहर तो बच जाती, पर घर में ही भेड़िया वास कर गया। माँ सब कुछ जानती हुई भी अनजान बनी रही। जब कभी जी मिचलाता या उल्टियां होती तो कोई दवाई मंगा, खिला देती। कई बार तो गर्भपात की गोली भी खिला चुकी थी। दवाई खाने के बाद पत्ते को पढ़ती तो नाम भी गजब, अनवानटेड किट। समझ नहीं पाती, यह अनवानटेड से क्या ताल्लुक, अब समझ में आई, वह अनचाहे गर्भ की दवा होती थी। अबकी बार गर्भ के विषय में किसी को नहीं बताई और न ही उबकाई। खुशी के साथ घिन भी आती, आखिर जन्म देने के बाद नाम क्या दूँगी।
मन का सुनूँ या समाज का--- किसी का भी सुनूँ, बिखड़ना तो तय है।
घर के बाहर आंगन में सीढ़ी के साथ हो, सोचने में तल्लीन हो गई कि अचानक गौरव की आवाज सुनाई पड़ी, "कहाँ खोई हो?"
उसकी आवाज सुन अचंभित हो गई। कहीं मेरी सोच तो नहीं समझ गया। अस्तव्यस्त मन को सुदृढ़ किया और गौरव की ओर मुखातिब हो बोली, "कब आये हो?"
"मैं तो काफी देर से देख रहा हूँ, अपनी धुन में मगन हो। सुंदर दिख रही थी, देखता रहा।" उसने कहा।
"कैसी जरूरत पड़ी? क्यों आए हो? पिताजी को पता चला कि घर भी आते हो, पता नहीं और कितनी मुसीबतों से तालमेल करनी पड़ेगी। अभी निकल जाओ। काॅलेज आ रही हूँ।" डरती व इधर-उधर निहारती हुई एक साथ बोल गयी, वह समझ गया। वह कोई बच्चा तो था नहीं। साथ ही बी.ए. पार्ट टू, समाज शास्त्र का छात्र था।
***
K Thouki |
समय से कुछ मिनट पहले काॅलेज परिसर पहुंची ही कि वह हांफता हुआ आया, जैसे वर्षों से बिछुड़े हो। करीब पहुंचते ही बोला, "पारो, बहुत ही कीमती चीज खो गई है, तुम्हारी मदद चाहिए?"
देखने से तो ऐसा ही लगा। उसकी बेचैनी में खोना जैसा ही महसूस किया।
"ऐसा क्या?"
वह थोड़ा गंभीर होते हुए जवाब दिया, "तुम्हारी हँसी जो किसी अंधेरे में गुम होती जा रही है। बताओ कहाँ है?"
मैंने भी उसी गंभीरता में हँसी की पुट भरी और बताई, "मुझे नहीं मालूम, ढूँढ़ निकालो।"
उसने मेरे नाक पर अंगुली का स्पर्श करते हुए कहा, "ये रहा, मिल गई।"
उस हरकत से गुस्से में लाल हो गई। आसपास छात्र-छात्राओं की भीड़ जो थी।उसे डांटती हुई बोली, "बेमतलब की चुहलबाजी मत किया करो, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।"
उसने कुछ दूरी बनाते हुए संकोची बन कहा, "ऐसा ही है तो, यही प्रश्न तुमसे करता हूँ; आखिर हुआ क्या? न तो पढ़ाई पर ध्यान देती हो, न ही अपनी हँसी पर?"
क्षण भर के लिए मेरी चुप्पी बनी रही। कुछ भी जबाव देने से कतराती रही।
दरअसल, हमदोनों के मित्रता में पारदर्शिता के साथ प्रोत्साहन की भी अभिव्यक्ति थी।
गुमसुम रहना उसके अंतर्मन को झकझोर दिया। शायद सोचने लगा, कुछ तो ऐसा है, जो दूरियाँ बढ़ा रही है। उसने तरह- तरह से मेरी खुशी के लिए प्रयासरत रहा। फिर भी पता नहीं चल रहा था कि परेशानी कहाँ से उत्पन्न हो रही है।
एक दिन अनायास क्या सोचा या देखा कि वह अचेत हो गया। उसकी जब आंखें खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। इर्द-गिर्द अपनों-परायों की भीड़ लगी हुई थी। बुदबुदा रहा था, "मुझे छोड़ गई---।"
मालूम पड़ते ही मैं गौरव को देखने अस्पताल पहुंच आई। गौरव वह मुझे देख, मुँह फेरते हुए बोला, "चली जाओ, तुम्हें देखना नहीं चाहता।"
उसकी बात सुन अवाक रह गई। आखिर कैसी गलती हुई मुझसे।हिम्मत नहीं जुटा सकी, कुछ देर रूक जाएं। धीरे- धीरे उससे ओझल होती गई। हालात तो चलती- फिरती लाश जैसी हो गई थी। बिना जवाब-तलब किए गौरव को भी असमंजस में डाल दिया।
इधर जब-तब नहीं बल्कि हमेशा मेरे बारें में ही सोचना उसकी नियति बन गई। तबीयत में सुधार होने के बाद, नजदीक के ही बाजार में उससे मुलाकात हुई। अबोध की तरह जिद मचाते हुए कहा, "बताओ, सच्चाई क्या है? ऐसी हालात क्यों बनाई जा रही हो?"
"तुम भी एक वजह हो।एक तो है ही, उसे खोना नहीं चाहती।" रुआँसी हो उससे मैंने कहा।
"मुझे क्यों नहीं पता?" उसका फिर एक एक प्रयास था।
"मैं नहीं चाहती कि जिस दलदल में पांव जा चुकी है, छींटे किसी औरों के दामन पर जा गिरे?" मैंने कहा।
"अच्छा! यह दोस्ती है? सुना करता हूँ, दोस्ती तो आईना है।" उसने दार्शनिक अंदाज में बयां किया।
"आईना होता तो देखा क्यों नहीं कि पारो में दाग है। मेरी चुप्पी को क्यों नहीं परख पाया। सच यही है कि आज भी तुम अबोध हो।" वह सुनता रहा, मैं बोली जा रही थी, "पारो को जानते हो? न-न, तनिक भी नहीं जानते। जानते तो पता होता, कोशिश भी नहीं करोगे। समुद्र की गहराई मापने से, डूबने के सिवाय और कुछ नहीं। आंकना, संभव नहीं गौरव?"
"हाँ, मेरी हार हुई।" हँसते हुए उसने मेरी बात टाल गया।
पलक झपकते हीउसकी भी हँसी निकल आई। मन का बोझ जो दूर फेंक दिया। घड़ी की सुई देख, अचंभित हो गई। आनन-फानन में घर पहुंचने को व्याकुल दिखी। वह भी समय से दूर नहीं, मेरे निकलने के बाद वह भी घर के लिए निकल पड़ा।
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अवधेश वाजपेई |
पिता को दरवाजे पर देख सहम गई। कुछ देर पहले की खुशी और आत्मसम्मान को दरकिनार करने की नौबत आने वाली थी। मन ही मन कोसने लगी, जब माँ ने ही पिता का हक नहीं दिया तो जन्म ही क्यों दिया। मेरी तरह वह भी तो मार सकती थी---- इतने में मीठी स्वर कानों से टकराई, "ऐसा नहीं सोचते, हरेक गर्भ में पलने वाला बच्चा कर्णधार होता है। इसे मत मारो! मत कोसो! अपनी जिंदगी से प्यार करो! सब ठीक हो जाएगा।"
जब-जब नन्हीं की आवाजें सुनाई देती, हिम्मत हिलोरें मारने लगती। दुनियावी से लड़ने को तैयार हो जाती--- तब तक मजबूत हाथों ने खींच लिया। गुस्से से लाल हो गई, बगल में पड़ी रड को उठाकर उसपर प्रहार कर दिया। न जाने कहाँ से अपार शक्ति का आगमन हुआ। मानो, सैकड़ों लोग भी विफल हो जाए।इस रूप से भयभीत हो, वह अमानुष पीछे हटता गया। गुस्सा सीमा लांघ चुकी। सामने उसकी पत्नी आई, वह भी देख दंग रह गई। सिर से बहते खून देख सहम-सी गई--- परमेश्वर जो लहूलुहान थे!
मन ही मन सोच रही होगी, अगर हिम्मत करती तो आज पार्वती ऐसी नहीं होती।उसने मुझे गले से लगा फफकती हुई बोली, "जो मैं देखती आई, तुम कभी मत देखना।"
शोर-शराबे सुन आसपास के लोग इकट्ठे होने लगे। शहर की ओर जाती सड़क होने के कारण आते-जाते लोग भी एक नजर जरूर देते। कानों में आवाजें आती, "बाहर में गुलछर्रे उड़ाती होगी, बाप ने ही जरूरत का ख्याल रखा और पूरा कर दिया।दोनों की मिलीभगत होगी।चलो, क्यों समय बर्बाद करें।" आती आवाज को गले तक घुटती रही।
मदद के लिए कोई नहीं तैयार। हर कोई अनसुने कर निकलते रहे। एक युवा कुछ बोलना भी चाहा तो साथ वाले टपक पड़े, "काहे फालतू के चक्कर में पड़ते हो, अपने विषय में सोचो।" वह भी युवक चलता बना।
भीड़ की ओर आंखें तरेर कर बोली, "अरे! आपलोग क्यों अपने जमीर को गिरवी रख दिये हो, मदद तो करके देखो? तुम्हारी भी माँ-बहन मुसीबत में पड़ेगी तो कोई न कोई मददगार आ ही जाएंगे। क्यों इक स्त्री को कमजोर करने पर तुले हो?" अंधेरे में तीर चलाती रही। किसी की जुबान खुलती नहीं देख, फिर धिक्कारती हुई चिल्लाई, "सदियों से एक औरत ही मिली? जानवरों से भी बदतर जाति सुकून की सांसे लिए जा रहे हो। खुद की गलती को महसूस न कर, औरतों पर लांछन लगाने में शर्म नहीं आती? कब तक ऐसा करते रहोगे? कब तक सहेगी? शोषण भी करते हो और चुप रहने की तहजीब भी सिखाते हो? इसीलिए न, पुरूष होने का गुरूर मिट न जाए और सीना तान कर ताल भी ठोंकते फिरो, जिसमें कोई गलती नहीं, वह मुँह छुपाये किसी कोने में सिसकती रहे?"
"आखिर ऐसा क्यों? मुझे भी आजादी चाहिए। हरेक साल आजादी के नाम ढ़ोल-नगाड़े पीटते रहे हो, इस जश्न में कि अपनी माँ को गोरों से आजाद कर लाया हूँ; लेकिन वही माँ उजागर करने में असमर्थ मालूम पड़ रही है, मैं पुरूषों की गिरफ्त में हूँ।शर्म आनी चाहिए, मेरे बिना तुम कहाँ?"
मैं पागलों की भांति बकी जा रही थी। भीड़ की ओर से निगाहें पलटकर फिर शुरू हो गई, "सुन, तुम्हारी ही तरह औरतों को भी भूख लगती है, पर सहनशील होने का तमगा दे रखे हो। अब तो आदी हो गई है।"
"सुनो, जब तक अपनी ताकत को छुपाई हूँ, अपनी साख और झूठी शान बघार रहे हो। सोचो, एक नारी शिशु के माथे पर काला टीका लगाती कि अमानत रहो, किसी की नजर न लगे, लेकिन वही काला टीका नंगा करने के लिए भी पर्याप्त है--- उस समय तुम क्या, तुम्हारी रूह भी कांप उठेगी, तब एक जज्बाती रूह से तुलना करोगे, सहवास के समय भी कांपोगे, उसके बिना पुरूषपन भी बेईमानी होगी।"
बोलती हुई थक-सी गई। भीड़ भी छंटती गई।जमी भीड़ की निगाहों में विक्षिप्त करार दी गई।
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उस भीड़ में गौरव भी था जो अपनी उबाल को दबाये रखा था, उसने सही निर्णय लिया था। अपनी पारो को देख, वीरांगना याद आ रही होगी। सोच रहा होगा, कोई तो है जो काल रूप धारण करने में तौहीनता नहीं समझ रही है। मामला शांत देख, वह भी बिखरती भीड़ के साथ हो गया।
इस दौरान कईयों के दरवाजे खटखटाई। किसी ने दुत्कार कर भगा दिया तो कोई धंधेबाज बोल तृप्त होता रहा। पुलिस के पास जाने से पहले गांठ बांध ली, वहाँ भी मनुष्यता की बलि ही चढ़ेगी।
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आखिरी महीने के पड़ाव से पहले नन्हीं सी जान दस्तक दी घर में।लाज-हया को दरकिनार कर, छुपाई रखी थी माँ ने। कोई फर्क नहीं पड़ा।कई बार गर्भपात के लिए भी खरोंची गई, वासनारत था, भोगी। समय मिलते ही नन्हीं सी जान को गोद में लेकर उसने पुचकारने लगा, "उसका भी बाप हूँ और तुम्हारा भी।"
प्रसव पीड़ा से उबर भी नहीं पाई थी, ऐसी बातें सुन झपट पड़ी नन्हीं जान के लिए और उसे ले निकल पड़ी घर से। यही सोचकर कि इस मासूम के साथ कुछ नहीं होने दूँगी। किसी तरह गौरव तक पहुंचकर उससे बोली, "गौरव! अब मुझसे सहन नहीं होता। इस नायाब को अच्छी शुरुआत देना चाहती हूँ, तुम्हारी जरूरत आ पड़ी है?"
वह भी बिना लाग-लपेट लिए कहा, "उससे बचने का रास्ता तो कई है, सुगम एक ही; मेरी हो जाओ। बेटी को ले कहीं दूर चले जाएंगे, जहाँ कोई कीड़े तक न हो।"
"नहीं गौरव! ऐसा नहीं चाहती, घसीटना नहीं चाहूंगी। पहले भी अपनी सोच उजागर कर चुकी हूँ। ऐसे भी मुझमें है क्या।विवाह क्या है, दो शरीरों का सिर्फ मिलन ही न? वह तो सामने है, अब आत्माओं का मिलन, वह कहने की आवश्यकता नहीं। शरीर के साथ आत्मा की भी छलनी हो चुकी है।" मैंने उससे कहा। उसकी बात से भी संतुष्टि नहीं मिली। उसके पास समय देना उचित नहीं समझी और उल्टे पांव नन्हीं को साथ लिए बाहर निकल आई। रास्ते भर सोचती रही। अनाप-शनाप बातें दिमाग में कौंधती रही, कभी मर जाऊं तो कभी बेटी को भी साथ ले चलूं। फिर खुद को रोक लेती, आखिर में वही ठौर, बाप के घर पहुंच गई।पहर का इंतजार खत्म होने वाली थी। नींद भी हमेशा अधूरी रहती थी।
वह जिस्मखोर मासूम को उठा बोले जा रहा था, "जल्दी बड़ी हो जा, मेरे ही साथ रहना। अभी तो काम---- (बातें पूरी भी नहीं हुई) मेरी आंखें खुल गई। भेड़िया को सामने देख क्षण भर के लिए सकुचाई, फिर उसे जोर का धक्का दे मारी। जमीन पर गिरते हुए उसने बोला, "इसे फेंक दूंगा। जितनी जल्दी करीब आओगी, इसे लोगी।"
ममत्व ने समर्पण करने के लिए कहा और प्रसव होने के पखवाड़े दिन बाद ही रौंदी गई।
सुबह फिर उसी एक का सहारा लेना जरूरी समझी। सारी बातें बता दी उसे।उसकी दलील भी समझ नहीं पाई। आखिरकार उससे बोली, "गौरव! जा रही हूँ। दुःख बांटने में भी दुख ही मिलता है। किसी को विपत्ति मंजूर नहीं।"
"मैंने भी तो ऐसा नहीं कहा। इतना तो जरूर कहूँगा, अब तो संभालो, उठाओ खड़ग और कूद पड़ो जंग के लिए।" उसकी बातों में मेरी भी सहमति बनी और उससे बोली, "गौरव! आज मेरी आखिरी नींद हो सकती है। तब तक इस मासूम पर ख्याल रखना।" नन्हीं परी को गौरव के हाथों देती हुई, कठोरता को आत्मसात कर चल दी, भेड़िया की मांद में ।
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अवधेश वाजपेई |
मानसिक रूप से तैयारी पूरी थी। दरिंदगी मिटाने के लिए नींव डाल चुकी थी। मेरी चुप्पी उसने सहमति समझ लिया। उसे पौरूष शक्ति पर गुमान था। मेरी आंखों के सामने एक अलग चमक मालूम पड़ने लगी।असीम उर्जा से पल्लवित हो चुकी थी। वह तो हमेशा भूखा ही रहता था, हरियाली देख मुँह मारना उसकी नियति में था।
उजाले में रौशनी की आहट देख वह भी पास आई और मेरी खुशी देख अचंभित हो गई। शायद उसकी आत्मा अनहोनी की ओर इशारा करने लगी होगी। उस समय तो पतिव्रता मालूम पड़ी, दुनिया का सबसे अच्छा इंसान, हाँ! उसका पति। वह समझ चुकी, अंदर कुछ है। वह समझाने लगी, "पार्वती, उसे नुकसान पहुंचाई तो तुम क्या करोगी?" संभवतः एक से दो का ख्याल आया होगा।
बंद दरवाजे के ठीक बाहर मुस्तैदी के साथ खड़ी थी, मैं। उसकी बातों पर आखिरी बार निर्मात्री का ओहदा दिया, "माँ, अब उसे कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा, हाँ! एक मेरे सिवाय।"
वह सन्न रह गई।अंदर से चीख भरी आवाज आ रही थी। वह चुड़ैल गुस्सा में आ गई और बोली, "तुम क्यों जिंदा हो, तू भी मर जा" और दरवाजा तोड़ डाली। उसकी चीख में अब भी कोई कमी नहीं। चीखते जा रहा था। उसकी चीख में मदद की मांग थी।
अब मैं पार्वती नहीं रही, उसी मांसल देह से रौंदी जा चुकी थी। समय को अपने पक्ष में करती हुई, माँ ने मुझे भी घर के अंदर धकेल दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर चिल्लाने चली गई।
धुआं की लपटें व उस महिला की आवाजें सुन आसपास के लोगों में उत्सुकता जगी और क्षण भर में ही लोग इकट्ठे हो गए। बंद दरवाजे के अंदर से मेरी आवाजें बाहर जा रही थी, "तुम मर्दों का कभी मन नहीं भरेगा, जब तक मांस रहेगा। अब तू भी मरेगा और मैं भी, फर्क भी सामने, तुम्हारी जीत होगी और मेरी हार--- फिर भी तुम तड़पोगे, इसलिए कि तुममें भोगने की लालसा बनी हुई है, लेकिन यह अग्नि, अंग-अंग जलाएगा, जिन्दगी की भीख के बदले बद्दुआ मिलेगी और तुम्हारा समाज भी ऐसी ही भाषा समझने में माहिर है।"
बाहर लोगों की जमघट बढ़ती गई।आपस में कानाफूसी शुरू थी। सब कोई दलील देने में ही मशगूल थे। शायद किसी एक को सहन नहीं हुआ और बच्ची को संभाले दरवाजा में जोर का धक्का दिया, दरवाजा टूट गया। टूटते ही, आग की जलन और जीने की चाह ने उसे बाहर निकलने को मजबूर किया, आग की लपटें लिए सड़क की ओर दौड़ पड़ा। बेरहम हैवान और आग की लपटें भी साथ-साथ। उस लपटों से भी आवाजें आ रही थी, "बचा लो---कोई मुझे बचा लो।"
वही समाज के विकृत सोच वाले मर्दों ने हवा के अनुकूल मुहावरे दुहरा रहे थे, "जैसी करनी, वैसी भरनी।"
मैं तबतक दृढ़ बनी रही, जब तक दूषित मांस जल नहीं गया। आखिर में मैं भी लड़खड़ाती हुई बोली, पिता का नहीं, जिस्मखोर का दहन किया। वरना, न जाने कितनी बेटियाँ शिकार होतीं, अब मुझे कोई परवाह नहीं; जिऊँ या मरूं।"
भीड़ में से सिर्फ एक जानी-पहचानी आवाजें सुनाई पड़ी, "ये तुम क्या कर बैठी?"
मासूम की ओर इशारा करती हुई बोलना चाही, " मेरी प्रति--छा-----या।"
अचानक मेरी आवाजें कहाँ गुम होती चली गई, मालूम नहीं। हाँ! वही स्वर कानों तक पहुंच रही थी, "माँ मत रो! मुझमें ही तुम हो!!"
संभवतः मासूम का स्वर ही लक्ष्य की ओर धकेल दिया और मेरी आंखें मंद-मंद आश्रय ढूंढने लगी।
भीड़ से आवाजें आ रही, "बेचारी परबतिया थी, भले मर गई------ भला रखैल माय------! "
जिन बातों से अनजान थी, किसी की आवाज ने पुष्टि किया और मेरी आँखें क्षण भर के लिए खुल गई।
उसकी निगाहें गोद में मासूम पर टिकी हुई थी।
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संजय कुमार अविनाश: जन्मतिथि 02/02/1976।शिक्षा- इंटरमीडिएट (जीवविज्ञान)।प्रकाशित पुस्तकें-1. अंतहीन सड़क (उपन्यास), 2. नक्सली कौन? (उपन्यास), 3. कोठाई शुरूआत (उपन्यास), पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट कहानी व आलेख प्रकाशित।
वाह्ह.....
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बहुत बढ़िया।
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