प्रमोद बेड़िया की कविताएं
कविताएं
पिता का घर
अंतत: हमने बेच दिया
पिता का घर जिसमें गुज़रा था
हमारा बचपन,जवानी
और बुढ़ापा भी गुज़र सकता था
लेकिन बेच ही डाला
पिता का घर
पिता के घर में छोड़ दीहमने
उनकी घिसी- पिटी चप्पलें
वार्निश उतरी छड़ी,माँ कीजंग खाई
संदूक,जिसमें माँ ने कितने विलाप
जमा किए होंगे ,लेकिन अबवो
ख़ाली थी,पिता की जेबों की तरह
नहीं,माँ रोई कभी नहीं उसके आंसूं
पत्थर के हो गए थे ,जिसे पिता
देखते- देखते दिवंगत होगए
माँ तो अपने पथरीले आँसुओं के साथ पहले ही ,
होती भी क्यों नहीं ,जब मनुष्य बग़ैर कुछ कहे
चुपचाप देखता है ,वह पिता को सांत्वना
देना चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई
पिता अजीब- से असमंजसऔर अनिर्णय में
हमको देखते- देखते चले गए
हमने हमेशा सोचा,हमने याने तीनों भाई और
दो बहनों ने कि पिता कंजूस हैं ,कभी कुछ देते नहीं
हमेशा कसाले की बात करते हैं ,ख़ुद तो दो जोड़ी
कपड़ों में काम चलाते ही हैं,माँ भी बेचारी...
हम जवान थे। अघाए थे,मस्त थे,बदमस्त थे
पिता और माँ पस्त थे,उस ओर हमारी नज़रें नहीं गई
बहरहाल हमने पिता का घरबेच दिया
माँ के विलाप बेच दिए
छोड़ी तो टूटती चप्पलें
अलगनी पर टंगे कुछ चिथड़े
पिता हमें क्षमा करें ,हम नादान हैं
जिन्हें हर बात होने बाद समझ में आती है
आप पहले ही समझ लेतेथे
यह हमें बाद में समझ आई।
००
स्त्रियाँ आते- जाते
आते- जाते उन औरतों से
आँखों की पहचान होती गई
जानता था कि उनकी नज़रें मुझ पर
नहीं है,क्योंकि मैं तो गाड़ी में रहता था
लेकिन रोज देखते- देखते तो चिड़िया से ही
पहचान हो जाती है,ये तोऔरतें हैं
एक औरत सर पर टोकरी रखे ऐसे सधे क़दम
से ताल देते हुए पार करती थी कि मैं
गाड़ी के हिचकोले भूलजाता था,आश्चर्य होता था
कि यह औरत अपने गाँव से कितनी दूर है
फिर भी सलवटें आई साड़ी में ,बिना चप्पल
कैसी निश्चिंत चली जा रही है
जैसे पृथ्वी पर दूसरी पृथ्वी और मैं हूँ
कि गाड़ी में भी भी हिचकोले खा रहा हूँ,हतभाग
पहचान तो कई औरतों सेहोती रहती थी
वे,कभी आती मिलती,कभी जाती हुई
लेकिन उनकी ताल,छंदऔर लय एक जैसी
रहती ,जैसे किशोरी ताई का आलाप हो
एक बार एक औरत को देख कर मैंने ड्राइवर को
दांड़ाओ- दांड़ाओ कहा,उसने रोका तो मैं
दरवाज़ा खोल भागा उस औरत के पीछे
जो उसी क़दम-ताल से जारही थी
मैंने पुकारा- ओगो,सुन छो,उसके अनुमान के बाहर
था की इस ढलती उम्र में कोई पुकार सकता है
लेकिन उसने मुड़ कर देखा,तो मैंने रुकने का
इशारा किया,पास जा कर पूछा- तोर बड़ी कोतो दूर
वह,इस उम्र में भी शर्माई कि मैं निहाल हो गया
लगा जैसे ज़िंदगी में पहली बार हो रहा था
बोली- ऐ घंटा खाने के रास्ता,आर की !
मैं उससे पूछना चाहता थाकि पहुँचते-पहुँचते
रात-सी हो जाएगी ,तुम्हारे घर में बाल- बच्चें भी होंगे ही
भतार क्या करता है,खेती बाड़ी है या नहीं
तुम्हें दुनिया से कोई शिकायत है क्या
ज़िंदगी से कोई गिला हैक्या
तब तक वह काफ़ी आगे निकल चुकी थी
नज़रों से ओझल हो चुकी थी
जैसे रोज औरतें होती थी
जैसे वे ओझल होने के लिए ही बनी हों ।
००
उस लड़की पर कविता
उस लड़की से मेरी पहचान थी
वह कभी- कभी भीख भी माँग लेती थी
जब कोई काम नहीं मिलता था
किसी दूर के मोहल्ले में, ताकि काम
देने वाले उसे पहचान नहीं सके
मैंने उसे भीख देते हुए पूछा था
उसके माँ- बाप के बारे में,तो उसकी
आँखें छलछलाने लगी और उसने मुझे
इस तरह देखा ,ज्यों मैं उसका बाप हूँ
बाद में पता चला कि वह दसवीं पास है
पढ़ना छूट गया,लेकिन पढ़ना जानती है
मेरी कई बार इच्छा हुई ,इसे स्कूल भेज दूँ
लेकिन ज़माने की हिकारतों ने ऐसा करने नहीं दिया
कल मैंने सोचा और कुछ नहीं तो उस पर
एक कविता ही लिखूँ,और लिख डालीऔर मोड़ कर
जेब में रख ली ,उससे मिलने गया ,जेब से वह काग़ज़
गिर गया,उसने उठाया होगा,पढ़ा होगा,मैं आगे जा चुका था
उसने आवाज़ लगा कर मुझे वापस बुलाया
कहा- बाबूजी ,आप भी !
मैं सन्न हो गया जैसे मैं पकड़ा गया हूँ
लेकिन आज भी समझ में नहीं आया ,क्यों !
जलाने के बाद
जब सारे लोग मेरी चिता में आग देकर ,मुझे जला कर जाने लगे
तब एक ने अपने दोस्त में कहा-लाश पर इबरत यह कहती थी अमीन
मैंने धीरे से कहा- आए थे दुनिया में इस दिन के लिए
मन हुआ कि कि उसका हाथ पकड़ कर रोक लूँ और पूछूँ
नहीं यह ग़लत कह रहे हो,गुज़रे समय को झुठला रहेहो
क्या पूरा जीवन ,इस दिन के लिए ही था,लेकिन मेरा हाथ
ठूँठ हो चुका था,वह उठानहीं ,मैं उससे पूछना चाहता था बहुत कुछ
बहुत कुछ पूछना चाहता था,कहना चाहता था कि आओ ,हिसाब करें
गुज़रे समय का ,जो हमने गुज़ारा था,कैसे गुज़ारा था
कितना लोगों के लिए किया,कितना अपने लिए किया
मुझे याद है बंधु ,हम दोनों ने एक साथ लड़ाइयाँ शुरु की थी
अस्तित्व की लड़ाई,बनेरहने की लड़ाई ,परिवार कोचला सकने की लड़ाई
समाज को बदलने की लड़ाई ,मानता हूँ कि कई विरोधाभासों का सामना
करते हुए,लेकिन लड़ी थी,फिर क्या हुआ कि तुम परास्त हो गए
मैं पस्त हो गया,और लंबी सांसे लेने लगे ,दोनों ही एक दूसरे को कहने लगे
ये क्या कि थक कर बैठगए,तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
तुम अपने बीबी- बच्चों मेंखोने लगे,मैं अकेले पन में गुम हो गया
हर बार ऐसा ही क्यों होता है बंधु ,कि हम सोच लेतें हैं
आए थे दुनिया में इस दिन के लिए ,जबकि हमें आने वाली सुबह का इंतज़ार
करना चाहिए था,अंधेरे को पहचानना था,उनमें छुपे दुश्मनों और उनके हथियारों को,
पहचान कर नए हथियारों पर सान देना था ,अपने को कमज़ोर और उन्हें
ताक़तवर नहीं समझना था,हर बार वे लड़ाई जीत जाते हैं ,हम जीतते-जीतते
हार जाते हैं ,सो तुम्हें यही कहना था बंधु कि भले ही आदमी इस दिन के लिए
आता है ,लेकिन फिर भी बहुत दिन मिलतें हैं ,अगर हम दुश्मन को पहचान लें
ख़ैर फिर भी तुमने साथ निभाया था ,आमीन !
००
पिता का हारमोनियम
दुछत्ति पर पड़ा था पिता का हारमोनियम
कभी- कभार देखा था पिता को बजाते हुए
गाते हुए ,क्योंकि वे गाते थे जब हम ,याने उनकी
संतानें घर में नहीं रहती,कभी समय से पहले लौटने पर
ही यह मौका मिलता था कि उनको गाते देखता
बजाते देखता ,तो लग ताकि हम लोगों के सामने
क्यों नहीं गाते हैं !
राग देश ,मालकोश याविहाग ज्यादा गाते ,यह भी
कभी- कभी जब में जल्द लौटता और वो गाते मिलजाते
तो बताते थे ,फिर धीरे- धीरेवे बीमार होते गए
और रियाज़ छूटता गया और वे बिस्तर पर
और हारमोनियम दुछत्ति पर और लौटने पर
वह सरगम नहीं सुनती ,फिर आदत पड़ गई ।
आज सालों बाद साफ-सफ़ाई के समय वह हारमोनियम
नीचे उतारा गया तो गर्दजमी हुई देखी ,लगा कि
पिता पर ही गर्द जमी है,झाड़- पोंछ कर बजाने की
इच्छा हुई तो लगा कि वह और कुछ कह रहा है
वह कह रहा है कि तुमलोगों की ज़िम्मेदारियों को
निबाहना था उन्हें ,तो कहाँ से पारंगत होते गायन में
लेकिन मन था ,जो बजाने,गाने वाध्य कर देता
कितना मन मसोसा होगा,पिता ने ,कितनी तमन्नाएँ
दबाई होगी ,इसको पड़े रहने देना ही ठीक है
इसे खोलना ख़तरे से ख़ाली नहीं है ,वरना
कई बातें खुल जाएगी ,कई दुख उफन पड़ेगें
सो उसे पुरानी चादर में बाँधकर रखना ही ठीक होगा ।
००
छत पर सुखाने के बाद
छत पर कपड़े सुखाती औरत
वह नहीं होती ,जो नीचे के तल्लें में थी
जो रसोईघर में थी,जो बच्चों को तैय्यार
करते वक़्त थी ,वह अबकोई
अलग ही औरत है ।
कपड़े नीचोड़ना जैसे खुद को नीचोड़ना है
जैसे कपड़ों को झाड़ना और रस्सी
पर सुखाना ,चुपचाप की एकाग्रता ,जैसे
कोई अलग दुनिया हो ,जैसे कोई
अंतरिक्ष ,जैसे कोई देव दूत की प्रतिक्षा हो
अभी वह कुछ नहीं सोच रही है ,ऐसे लगता है
लेकिन अभी ही वह सब कुछ सोच लेगी
ऐसा लगता है ,कब जो बचपन बीता
कब सतर्क जवानी और कब छूटा बाबुल का घर
कब हुआ पुराना ,बचपन का पड़ोस,पराया
कब भुला गया वह किशोर-सा लड़का
पड़ोस का ,कब स्कूल-कॉलेज के दोस्त
कब,कब,कब ,यह सब हुआ
सोचते हुए नीचे उतरती है वह औरत सब कुछ
छत पर सुखाने के बाद !
००
क़स्बे के कवि की मौत
वह क़स्बे का चूतिया कवि
अंतत: बिना आवाज केमारा गया
उसे महानगर की रस्में मालूम नहीं थी
कि जब तक बड़ा,अघाया,खाया धाया
खंकारता,डकारता संपादक,मय अपने
आलोचक समूह द्वारा उसे क्रांतिकारी
घोषित न कर दे,तानाशाह को खुजली
तक नहीं नहीं होती,वह वैसे ही उपस्थ
खुजाते हुये अध्यादेश जारी करता रहता है
सदी के नायकों के साथ हँसता रहता है
क़स्बे के नगर सेठ की तो कोई हस्ती ही
नहीं थी,जिसका,वह कवि विरोध करता रहा
वह बेचारा उसे ही साम्राज्यवाद का सबसे
बड़ा प्रतीक समझ कर सौओं कविताएँ लिख
चुका था,और उसका बाल भी उखाड़ नहीं पाया था
बिखरे,बिछड़े ग़रीब थेयहाँ,जिनकी मौतें ख़ामोश
गुजर जाती थी,वह बेचारा सभ्यता के विकास का
फ़ार्मूला तय नहीं कर पायाथा
उसे पता नहीं था कि एक लुच्चे से कविता संग्रह
के विमोचन के पीछे हजारों मिनमिनाति उम्मीदें रहती हैं
जमे हुए फटीचर आलोचकों और गुरु स्थानीय
संपादकों के कुटिल आश्रय रहते हैं
और किसी कंपनी का स्पांसर रहता है
उसने तो किसी तरह वह टुच्चा सा संग्रह
प्रकाशित करवा लिया थाऔर दर दर भटकता हुआ
आज सुबह क़स्बे कीकोठरी में बिना किसी
ऐलान के मारा गया,मरते मरते यह अफसोस लेकर ही
मरा कि वह महान कवि हो सकता था,या अंतत:
टुच्चा ही रहा और टुच्चा ही मारा गया ।
००
कविता जैसे बचना
कविता लिखते रहना
कविता पढ़ते रहना
यह कवियों और पाठकों से
अनुरोध है,क्योंकि कविताएं
डैने फैलाती हैं हर समय,गुज़रती हैं
हमारे इर्द-गिर्द,हौले से कुछ कहती हैं
कई बार हम उसे सुन नहीं पाते हैं,
कई बार नहीं,अक्सर ही,लेकिन वह बिना रुके
कुछ न कुछ कहती हीरहती है
बस,हम रुक कर सुनतेनहीं हैं
वह हर समय है,दिन रात चलती रहती है
वह सोती भी नहीं है,जागती ही रहती हैं,
हम सोतें हैं,तो सपनों में परेशान करती रहती है
पाठक भी पढ़ने से डरता रहता है
कि सपने में न आ जाए वह और सताए
हाँ,वे सपने अक्सर जगाने वाले होते हैं
सो कविता से घबराते हैं,कवि लिखने से
पाठक पढ़ने से,फिर वह गोंद की तरह
चिपकने भी लगती है
कविता से बचा है संसार,बची है ज़िंदगी
जितने दिनों की भीहो,बची हैं औरतें,बच्चे
और दुराचारी,वरना तो तुम अख़बारों से
उन्हें पहचान नहीं पाओगे।
पिता थे
पिता थे
वो लेमंजूश ला कर देते थे
पिता थे
वो अपने नहीं तो
हमारे कपड़े लाकर देते थे
पिता थे
बीमार होने पर बुखार देखते
दवा ला कर देते
पिता थे
बाहर की दुश्वारियों से
हमें अलग
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
कविताएं
पिता का घर
अंतत: हमने बेच दिया
पिता का घर जिसमें गुज़रा था
हमारा बचपन,जवानी
और बुढ़ापा भी गुज़र सकता था
लेकिन बेच ही डाला
पिता का घर
पिता के घर में छोड़ दीहमने
उनकी घिसी- पिटी चप्पलें
वार्निश उतरी छड़ी,माँ कीजंग खाई
संदूक,जिसमें माँ ने कितने विलाप
जमा किए होंगे ,लेकिन अबवो
ख़ाली थी,पिता की जेबों की तरह
नहीं,माँ रोई कभी नहीं उसके आंसूं
पत्थर के हो गए थे ,जिसे पिता
देखते- देखते दिवंगत होगए
माँ तो अपने पथरीले आँसुओं के साथ पहले ही ,
होती भी क्यों नहीं ,जब मनुष्य बग़ैर कुछ कहे
चुपचाप देखता है ,वह पिता को सांत्वना
देना चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई
पिता अजीब- से असमंजसऔर अनिर्णय में
हमको देखते- देखते चले गए
हमने हमेशा सोचा,हमने याने तीनों भाई और
दो बहनों ने कि पिता कंजूस हैं ,कभी कुछ देते नहीं
हमेशा कसाले की बात करते हैं ,ख़ुद तो दो जोड़ी
कपड़ों में काम चलाते ही हैं,माँ भी बेचारी...
हम जवान थे। अघाए थे,मस्त थे,बदमस्त थे
पिता और माँ पस्त थे,उस ओर हमारी नज़रें नहीं गई
बहरहाल हमने पिता का घरबेच दिया
माँ के विलाप बेच दिए
छोड़ी तो टूटती चप्पलें
अलगनी पर टंगे कुछ चिथड़े
पिता हमें क्षमा करें ,हम नादान हैं
जिन्हें हर बात होने बाद समझ में आती है
आप पहले ही समझ लेतेथे
यह हमें बाद में समझ आई।
००
स्त्रियाँ आते- जाते
आते- जाते उन औरतों से
आँखों की पहचान होती गई
जानता था कि उनकी नज़रें मुझ पर
नहीं है,क्योंकि मैं तो गाड़ी में रहता था
लेकिन रोज देखते- देखते तो चिड़िया से ही
पहचान हो जाती है,ये तोऔरतें हैं
एक औरत सर पर टोकरी रखे ऐसे सधे क़दम
से ताल देते हुए पार करती थी कि मैं
गाड़ी के हिचकोले भूलजाता था,आश्चर्य होता था
कि यह औरत अपने गाँव से कितनी दूर है
फिर भी सलवटें आई साड़ी में ,बिना चप्पल
कैसी निश्चिंत चली जा रही है
जैसे पृथ्वी पर दूसरी पृथ्वी और मैं हूँ
कि गाड़ी में भी भी हिचकोले खा रहा हूँ,हतभाग
पहचान तो कई औरतों सेहोती रहती थी
वे,कभी आती मिलती,कभी जाती हुई
लेकिन उनकी ताल,छंदऔर लय एक जैसी
रहती ,जैसे किशोरी ताई का आलाप हो
एक बार एक औरत को देख कर मैंने ड्राइवर को
दांड़ाओ- दांड़ाओ कहा,उसने रोका तो मैं
दरवाज़ा खोल भागा उस औरत के पीछे
जो उसी क़दम-ताल से जारही थी
मैंने पुकारा- ओगो,सुन छो,उसके अनुमान के बाहर
था की इस ढलती उम्र में कोई पुकार सकता है
लेकिन उसने मुड़ कर देखा,तो मैंने रुकने का
इशारा किया,पास जा कर पूछा- तोर बड़ी कोतो दूर
वह,इस उम्र में भी शर्माई कि मैं निहाल हो गया
लगा जैसे ज़िंदगी में पहली बार हो रहा था
बोली- ऐ घंटा खाने के रास्ता,आर की !
मैं उससे पूछना चाहता थाकि पहुँचते-पहुँचते
रात-सी हो जाएगी ,तुम्हारे घर में बाल- बच्चें भी होंगे ही
भतार क्या करता है,खेती बाड़ी है या नहीं
तुम्हें दुनिया से कोई शिकायत है क्या
ज़िंदगी से कोई गिला हैक्या
तब तक वह काफ़ी आगे निकल चुकी थी
नज़रों से ओझल हो चुकी थी
जैसे रोज औरतें होती थी
जैसे वे ओझल होने के लिए ही बनी हों ।
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
उस लड़की पर कविता
उस लड़की से मेरी पहचान थी
वह कभी- कभी भीख भी माँग लेती थी
जब कोई काम नहीं मिलता था
किसी दूर के मोहल्ले में, ताकि काम
देने वाले उसे पहचान नहीं सके
मैंने उसे भीख देते हुए पूछा था
उसके माँ- बाप के बारे में,तो उसकी
आँखें छलछलाने लगी और उसने मुझे
इस तरह देखा ,ज्यों मैं उसका बाप हूँ
बाद में पता चला कि वह दसवीं पास है
पढ़ना छूट गया,लेकिन पढ़ना जानती है
मेरी कई बार इच्छा हुई ,इसे स्कूल भेज दूँ
लेकिन ज़माने की हिकारतों ने ऐसा करने नहीं दिया
कल मैंने सोचा और कुछ नहीं तो उस पर
एक कविता ही लिखूँ,और लिख डालीऔर मोड़ कर
जेब में रख ली ,उससे मिलने गया ,जेब से वह काग़ज़
गिर गया,उसने उठाया होगा,पढ़ा होगा,मैं आगे जा चुका था
उसने आवाज़ लगा कर मुझे वापस बुलाया
कहा- बाबूजी ,आप भी !
मैं सन्न हो गया जैसे मैं पकड़ा गया हूँ
लेकिन आज भी समझ में नहीं आया ,क्यों !
जलाने के बाद
जब सारे लोग मेरी चिता में आग देकर ,मुझे जला कर जाने लगे
तब एक ने अपने दोस्त में कहा-लाश पर इबरत यह कहती थी अमीन
मैंने धीरे से कहा- आए थे दुनिया में इस दिन के लिए
मन हुआ कि कि उसका हाथ पकड़ कर रोक लूँ और पूछूँ
नहीं यह ग़लत कह रहे हो,गुज़रे समय को झुठला रहेहो
क्या पूरा जीवन ,इस दिन के लिए ही था,लेकिन मेरा हाथ
ठूँठ हो चुका था,वह उठानहीं ,मैं उससे पूछना चाहता था बहुत कुछ
बहुत कुछ पूछना चाहता था,कहना चाहता था कि आओ ,हिसाब करें
गुज़रे समय का ,जो हमने गुज़ारा था,कैसे गुज़ारा था
कितना लोगों के लिए किया,कितना अपने लिए किया
मुझे याद है बंधु ,हम दोनों ने एक साथ लड़ाइयाँ शुरु की थी
अस्तित्व की लड़ाई,बनेरहने की लड़ाई ,परिवार कोचला सकने की लड़ाई
समाज को बदलने की लड़ाई ,मानता हूँ कि कई विरोधाभासों का सामना
करते हुए,लेकिन लड़ी थी,फिर क्या हुआ कि तुम परास्त हो गए
मैं पस्त हो गया,और लंबी सांसे लेने लगे ,दोनों ही एक दूसरे को कहने लगे
ये क्या कि थक कर बैठगए,तुम्हें तो साथ मेरा दूर तक निभाना था
तुम अपने बीबी- बच्चों मेंखोने लगे,मैं अकेले पन में गुम हो गया
हर बार ऐसा ही क्यों होता है बंधु ,कि हम सोच लेतें हैं
आए थे दुनिया में इस दिन के लिए ,जबकि हमें आने वाली सुबह का इंतज़ार
करना चाहिए था,अंधेरे को पहचानना था,उनमें छुपे दुश्मनों और उनके हथियारों को,
पहचान कर नए हथियारों पर सान देना था ,अपने को कमज़ोर और उन्हें
ताक़तवर नहीं समझना था,हर बार वे लड़ाई जीत जाते हैं ,हम जीतते-जीतते
हार जाते हैं ,सो तुम्हें यही कहना था बंधु कि भले ही आदमी इस दिन के लिए
आता है ,लेकिन फिर भी बहुत दिन मिलतें हैं ,अगर हम दुश्मन को पहचान लें
ख़ैर फिर भी तुमने साथ निभाया था ,आमीन !
००
चित्र :अवधेश वाजपेई |
पिता का हारमोनियम
दुछत्ति पर पड़ा था पिता का हारमोनियम
कभी- कभार देखा था पिता को बजाते हुए
गाते हुए ,क्योंकि वे गाते थे जब हम ,याने उनकी
संतानें घर में नहीं रहती,कभी समय से पहले लौटने पर
ही यह मौका मिलता था कि उनको गाते देखता
बजाते देखता ,तो लग ताकि हम लोगों के सामने
क्यों नहीं गाते हैं !
राग देश ,मालकोश याविहाग ज्यादा गाते ,यह भी
कभी- कभी जब में जल्द लौटता और वो गाते मिलजाते
तो बताते थे ,फिर धीरे- धीरेवे बीमार होते गए
और रियाज़ छूटता गया और वे बिस्तर पर
और हारमोनियम दुछत्ति पर और लौटने पर
वह सरगम नहीं सुनती ,फिर आदत पड़ गई ।
आज सालों बाद साफ-सफ़ाई के समय वह हारमोनियम
नीचे उतारा गया तो गर्दजमी हुई देखी ,लगा कि
पिता पर ही गर्द जमी है,झाड़- पोंछ कर बजाने की
इच्छा हुई तो लगा कि वह और कुछ कह रहा है
वह कह रहा है कि तुमलोगों की ज़िम्मेदारियों को
निबाहना था उन्हें ,तो कहाँ से पारंगत होते गायन में
लेकिन मन था ,जो बजाने,गाने वाध्य कर देता
कितना मन मसोसा होगा,पिता ने ,कितनी तमन्नाएँ
दबाई होगी ,इसको पड़े रहने देना ही ठीक है
इसे खोलना ख़तरे से ख़ाली नहीं है ,वरना
कई बातें खुल जाएगी ,कई दुख उफन पड़ेगें
सो उसे पुरानी चादर में बाँधकर रखना ही ठीक होगा ।
००
छत पर सुखाने के बाद
छत पर कपड़े सुखाती औरत
वह नहीं होती ,जो नीचे के तल्लें में थी
जो रसोईघर में थी,जो बच्चों को तैय्यार
करते वक़्त थी ,वह अबकोई
अलग ही औरत है ।
कपड़े नीचोड़ना जैसे खुद को नीचोड़ना है
जैसे कपड़ों को झाड़ना और रस्सी
पर सुखाना ,चुपचाप की एकाग्रता ,जैसे
कोई अलग दुनिया हो ,जैसे कोई
अंतरिक्ष ,जैसे कोई देव दूत की प्रतिक्षा हो
अभी वह कुछ नहीं सोच रही है ,ऐसे लगता है
लेकिन अभी ही वह सब कुछ सोच लेगी
ऐसा लगता है ,कब जो बचपन बीता
कब सतर्क जवानी और कब छूटा बाबुल का घर
कब हुआ पुराना ,बचपन का पड़ोस,पराया
कब भुला गया वह किशोर-सा लड़का
पड़ोस का ,कब स्कूल-कॉलेज के दोस्त
कब,कब,कब ,यह सब हुआ
सोचते हुए नीचे उतरती है वह औरत सब कुछ
छत पर सुखाने के बाद !
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
क़स्बे के कवि की मौत
वह क़स्बे का चूतिया कवि
अंतत: बिना आवाज केमारा गया
उसे महानगर की रस्में मालूम नहीं थी
कि जब तक बड़ा,अघाया,खाया धाया
खंकारता,डकारता संपादक,मय अपने
आलोचक समूह द्वारा उसे क्रांतिकारी
घोषित न कर दे,तानाशाह को खुजली
तक नहीं नहीं होती,वह वैसे ही उपस्थ
खुजाते हुये अध्यादेश जारी करता रहता है
सदी के नायकों के साथ हँसता रहता है
क़स्बे के नगर सेठ की तो कोई हस्ती ही
नहीं थी,जिसका,वह कवि विरोध करता रहा
वह बेचारा उसे ही साम्राज्यवाद का सबसे
बड़ा प्रतीक समझ कर सौओं कविताएँ लिख
चुका था,और उसका बाल भी उखाड़ नहीं पाया था
बिखरे,बिछड़े ग़रीब थेयहाँ,जिनकी मौतें ख़ामोश
गुजर जाती थी,वह बेचारा सभ्यता के विकास का
फ़ार्मूला तय नहीं कर पायाथा
उसे पता नहीं था कि एक लुच्चे से कविता संग्रह
के विमोचन के पीछे हजारों मिनमिनाति उम्मीदें रहती हैं
जमे हुए फटीचर आलोचकों और गुरु स्थानीय
संपादकों के कुटिल आश्रय रहते हैं
और किसी कंपनी का स्पांसर रहता है
उसने तो किसी तरह वह टुच्चा सा संग्रह
प्रकाशित करवा लिया थाऔर दर दर भटकता हुआ
आज सुबह क़स्बे कीकोठरी में बिना किसी
ऐलान के मारा गया,मरते मरते यह अफसोस लेकर ही
मरा कि वह महान कवि हो सकता था,या अंतत:
टुच्चा ही रहा और टुच्चा ही मारा गया ।
००
कविता जैसे बचना
कविता लिखते रहना
कविता पढ़ते रहना
यह कवियों और पाठकों से
अनुरोध है,क्योंकि कविताएं
डैने फैलाती हैं हर समय,गुज़रती हैं
हमारे इर्द-गिर्द,हौले से कुछ कहती हैं
कई बार हम उसे सुन नहीं पाते हैं,
कई बार नहीं,अक्सर ही,लेकिन वह बिना रुके
कुछ न कुछ कहती हीरहती है
बस,हम रुक कर सुनतेनहीं हैं
वह हर समय है,दिन रात चलती रहती है
वह सोती भी नहीं है,जागती ही रहती हैं,
हम सोतें हैं,तो सपनों में परेशान करती रहती है
पाठक भी पढ़ने से डरता रहता है
कि सपने में न आ जाए वह और सताए
हाँ,वे सपने अक्सर जगाने वाले होते हैं
सो कविता से घबराते हैं,कवि लिखने से
पाठक पढ़ने से,फिर वह गोंद की तरह
चिपकने भी लगती है
कविता से बचा है संसार,बची है ज़िंदगी
जितने दिनों की भीहो,बची हैं औरतें,बच्चे
और दुराचारी,वरना तो तुम अख़बारों से
उन्हें पहचान नहीं पाओगे।
पिता थे
पिता थे
वो लेमंजूश ला कर देते थे
पिता थे
वो अपने नहीं तो
हमारे कपड़े लाकर देते थे
पिता थे
बीमार होने पर बुखार देखते
दवा ला कर देते
पिता थे
बाहर की दुश्वारियों से
हमें अलग
००
प्रमोद बेड़ियां |
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