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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 नवंबर, 2017

आदित्य शुक्ल की कविताएं

आदित्य शुक्ल
आदित्य शुक्ल: कविता और कहानी लेखन में रुचि है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग में रचनाएं प्रकाशित हुई है। विश्व साहित्य से गहरा जुड़ाव और अनुवाद भी  रुचि है।
आदित्य पेशे से सॉफ्टवेयर टेस्ट इंजीनियर है और  गुडगांव में रहते हैं।


कविताएं


एक अदद बंदूक की जरूरत.

मैं इतना अच्छा आदमी हूँ कि सनक गया हूं
अँधेरे में मुझे आता देख एक साठ साला औरत अपने आँचल सम्भालती है
ये शर्म की बात उससे अधिक मेरे लिए
मैं अपने सौ से भी ज़्यादा टुकड़े कर सकता हूं
मेरे मस्तक में कीड़ों का साम्राज्य उग आया है
उनकी टांगें मेरे सिर पर छोटे छोटे सिंग जैसे बढ़ रहे हैं
आप मुझे कुछ भी ऑफर कर सकते हैं
बीड़ी, गांजा या बन्दूक।

००


आलाप.

दोपहर है। आसमान में तीखी तीखी धूप। लोग बाग़ अपने काम-धाम निपटाकर अपने अपने घरों में बंद हो गए हैं। पेड़ों के पत्ते झर झर कर पेड़ों को हमेशा से कहीं अधिक के लिए अकेले कर गए है। पेड़ नए पत्तों की प्रतीक्षा में ऋतुओं का संगीत सुन रहे हैं। पेड़ों के ऊपर, बहुत ऊपर एक बाज है, स्थिर पंखों के साथ उड़ रहा है। उसके ऊपर अभी हाल ही में गुजरे किसी जहाज के धुएं का लकीर बच गयी है। इन लकीरों को बच्चे देखते हैं तो कहते हैं कि उनके गाँव से होकर कोई एक रॉकेट गुजरा है। आसमान में बादल फीके पड़ गए हैं। उनके इक-आध थक्के इधर उधर दिख जाते हैं। जहाजों में उड़ रहे लोग झाँककर नीचे देखते हैं तो उन्हें कोई पहचान नहीं आता। लेकिन कहीं कहीं पेड़ों के नीचे गिरे हरे लाल शहतूत के फल दिख जाते हैं। जहाज में से झांकती बच्ची खुश हो जाती है और शहतूत मांगने लगती है। सड़क पर एक बच्चा आ रहा है। उसके हाथ में एक चॉकलेट है। चॉकलेट पिघल रहा है। बच्चा जल्दी से अगर घर पंहुच जाता तो चॉकलेट फ्रिज में रख देता। कस्बे में एक दुखियारी लड़की के रिश्ता आया है। लोग बाग़ की यह मान्यता है कि विवाह कर लेने से दुःख कम हो जाता है। इसीलिए दुखियारी लड़की मुस्कुरा रही है। उसने तस्वीर देखी है। लड़का सरकारी स्कूल में मास्टर है। चालीस हजार तनख्वाह है। घर में सब मुस्कुरा रहे हैं। मेरा दोस्त बीमार हो गया है। हॉस्पिटल में भरती है। मेरी आँखों में कुछ नींद है जो रात से बचकर दिन में चली आई है। नींद को सपनों से डर लगता है। दोपहर उतर रही है। बीत जाएगी तो बच्चे पार्क में खेलने चले जाएंगे। बड़े लोग बाजार चले जाएंगे।

००

चित्र: अवधेश वाजपेई

ज्ञानपीठ के बारे में.

जब मैं साठ वर्ष का हो गया
मेरी त्वचायें झूल गयीं
जब मैं अपनी ही तस्वीरों पर झुंझलाने लगा था।

मुझे पुरस्कार देते हुए किसी ने मुझसे पूछा
आपने अपनी युवावस्था में इतनी सारी कविताएं कैसे लिख लीं?

ऐसा लगा किसी ने मेरी दोनों आँखों में चाकू मार दिया हो।
ऐसा लगा किसी ने मेरी हत्या करने की नाकाम कोशिश की हो।

माँ कसम मेरे पास करने के लिए कुछ भी और नहीं था
सच में।
करने के लिए जो कुछ थोडा बहुत था भी
मैं वह सब करने में असमर्थ था।

००

फ़ोन

मैं आपको फ़ोन करुंगा
इसी उम्मीद में कहता हूं
शाम को नौ बजे के बाद फ़ोन करुंगा।

कई बार नौ बजे से पहले नींद आ जाती है
फिर भी नहीं सोकर
मैं आपको यह दिलासा दिलाता हूं
नौ बजे के बाद किसी भी समय फ़ोन कर लूंगा
नींद आये भी तो नींद नहीं आएगी।

आप फ़ोन का इंतजार करते हैं छः बजे से नौ बजे के बाद तक।

मैं नौ बजे के बाद के उस पवित्र क्षण के लिए प्रतीक्षारत रहता हूं जब मैं आपको फ़ोन करुंगा।

००


पिता-पक्ष.

मेरे पिता एक पक्षी हैं।
यह मुझे उसी वक़्त पता चल गया था
जब एक परिंदा बागीचे के पेड़ों के ऊपर से उड़कर गुजर गया।
वो बागीचा जो हमारा नहीं है
जिसमें आम, अमरुद और अनार के वृक्ष हैं
जिनपर बहुधा कोई फल नहीं उगता
फूल बनकर ही सूख जाता है।
एक परिंदा इन पेड़ों के ऊपर से गुजर जाता है
एक पल के आत्मबोध से प्रेरित हम चीख उठते हैं
मेरे पिता तो एक पक्षी हैं।
देखो, ठीक उस परिंदे की तरह
मेरे पिता एक पक्षी हैं।
जिसका पता नहीं क्या तात्पर्य है-
आखिर एक पक्षी होने के अर्थ को हम कैसे जान सकते हैं?

हमारे ये सब कथन किसी क्षण विशेष की
विक्षिप्तता और एक अर्थहीन आत्मबोध का परिणाम था
जिसके बारे में निश्चित रूप से कोई भी कुछ नहीं जानता।
लेकिन, यही सच है, यही यही और सिर्फ यही सच है
मेंरे पिता एक पक्षी हैं।

००

चित्र: अवधेश वाजपेई

किसी अदृश्य में तुम.

एक अदृश्य में तुम्हारी
प्रतिछाया मिली
एक अदृश्य के साथ
शहर के हर रेस्तरां में गया
हर अनबैठे कुर्सियों पर बैठने
हर अनकही बात बताने के लिए
हर अनखाया व्यंजन खाने के लिए।

सारा अनहुआ, हुआ हो गया।
पृथ्वी पर कोई जगह नहीं बची
जहाँ हमारे पदचिन्ह न हों।

सारा अनकिया घटित हुआ

- जिस अदृश्य में तुम्हारी प्रतिछाया थी।

००


रेशमी नींद, एक बारिश दिन

अधखुली आँखों से नींद टपकता,
बिस्तर रेशमी होता जाता है। तुम्हे आधा देखते और आधा छूते मैं पूछता हूँ
देखो तो सुबह हो आई है क्या, यह झुटपुटा सा क्यों है, सूरज लाल है क्या क्षितिज पर देखो तो।
मानसून की पहली बारिश है, हो रही। सड़कें भीग गयी है। कोई दो प्रेमी इस मिट्टी के रस्ते से गुजरे हैं
बारिश हो रही है।
आँखों से टपकती है नींद बिस्तर रेशमी होता जाता है तुम कहती हो
चलो कहीं चले चलते है।
दूर।
तो क्या तुम मेरे साथ गाँव चलोगी, वहां हम खेतों में काम करेंगे और गन्ने और मक्के उगाएंगे
गाँव के लोगों ने कामचोरी में आकर ऐसी खेती करनी बन्द कर दी है या शायद वे उम्मीद करते करते ऊब गए हैं अब कुछ और नहीं, अब ईश्वर ही उनका एकमात्र सहारा है। वे अब मंदिरों और प्रार्थनाओं में अधिक मान्यताएं रखने लगे है। बजाए इसके कि वे खेती करते।
गाँव चलोगी क्या
या अगर मन बदल जाए तो मैं तुम्हारे साथ गाँव को जाने के लिए बैठे ट्रक पर से अचानक उतरकर कहूँ
कि नहीं, नहीं। मैं अब गाँव नहीं जाना चाहता। चलो पहाड़ों पर चलते हैं जहाँ हमें कोई भी जानता नहीं। तो फिर भी तुम चलोगी क्या?
तुम मौन हो स्वप्न में मौन हो। पर तुम्हारी आँखें खुली हैं। पूरी की पूरी। तुम्हारी आँखों में दृश्य चल रहा होगा। दृश्य हमें मौन कर देते हैं फिर तुम कहती हो:
हाँ, चलो न। चलो कहीं भी। कहीं से उतर कर कहीं भी चले चलेंगे। मैं थोडा बहुत जितना भी जीना चाहती हूं वो बस तुम्हारे साथ। अगर हम पहाड़ों पर चले तो वहां एक स्कूल चलाएंगे। अब मुझे कभी-कभी बच्चों को पढ़ाने का मन करता है।
यह कहकर अकस्मात् तुम्हारी आँखों से नींद टपकती है बिस्तर किसी विशाल समुद्र में तब्दील हो जाता है।
मानसून की पहली बारिश है अलसुबह, अखबार बेचने वाला पुराने रेनकोट में आधा भीगते और चिल्लाते हुए कहीं से आ रहा है और कहीं को ओर चला गया। अखबारों में पता नहीं कैसी-कैसी ख़बरें हैं। कोई अच्छी खबर होती तो वह मेरे घर की बालकनी में भी अखबार फेंक जाता या पिछले महीने का बकाया मांगने आ जाता जब मैं या तुम अधखुली नींद में एक घण्टे बाद आने को कह देते।
नींद ऐसी टपकती है कि सब कुछ रेशम हो जाता है शहतूत के पौधे पर लगे फल मीठे हो जाते हैं और हम तोड़ते बीनते खाते जाते हैं। नींद टपकती आँखों के सामने न जाने किस फूल के पौधे पर तितलियाँ मंडरा रही हैं तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ जान पड़ती हैं वे।

००

जनजीवन का संगीत.

बारिश, जनजीवन पर संगीत की तरह
जिस समय
मैं अपने प्रयासों में और अधिक मानव होने का
यत्न कर रहा होता हूं
कि तुम अब तो घर चली जाओ
मेरी नाक पर लगी चोट तो फिर भी ठीक हो जायेगी

जबकि मेरे लिये
बारिश में केंचुए, मेंढक, सर्प, मछलियां
गड्ढों में भरा हुआ पानी
सड़कों पर गिरे-पड़े पेड़
कुछ भी
नास्टैल्जिया का विषय हो सकते हैं,
सुदूर पहाड़ों पर बैठे
शिरीष कुमार मौर्य के लिए
बारिश के भीतर बारिश है
जिसका पता नहीं क्या मतलब
पता नहीं क्या मतलब
मेरे भीतर
कहीं बहुत अधिक भीतर तक
धँसा हुआ

पता नहीं किस नजर से तुम्हें देखता मैं
कहता हूँ अब तो घर चली जाओ
रास्ते सब बन्द हैं लेकिन,
बड़े-बड़े पेड़ सड़कों पर टूटकर गिर गए हैं
क्षत-विक्षत जीवन भी सुंदर है
जब बारिश है
बिजली नहीं है
सड़कों पर पानी भरा है

फिर भी कुछ लोग पेड़ों पर
चढ़कर
इस ओर से उस दुनिया की ओर जा रहे हैं।

००

चित्र: अवधेश वाजपेई


मुझे, ये चींटियाँ.
अंधेरे का एक कोई दीवार
चौकोर,

चार तीखे कोनों वाला
और ये चींटियां
बारिश रिसे दीवारों पर।

ये चींटियां,

अंधेरा तोड़ तोड़ ले आती हैं
उनमें अपने घर बनाती
गहरे, बहुत गहरे सुराख कर
दो दुनिया के रास्ते तय कर लेतीं
ये चींटियां छोटी छोटी।

मुझे ये
मेरे चारों तरफ घेर लेतीं
किसी रात के उजाले में
रखे होते जहां अंधेरे अनाज के टुकड़े,
मुझे ये चींटियां मरी हुई लाश समझकर
कभी कभी मुझपर उजाले उगल देतीं।

मुझे ये चींटियां
कभी कभी
महीने-साल का राशन दे जातीं,

अंधेरी जमीन को खोद
कहीं उस पार
अगली बारिश तक के लिए चलीं जातीं।

मुझे ये चींटियां फिर अक्सर याद आतीं!

००



बस स्टैंड पर

बस-स्टैंड पर लोग-बाग बातें कर रहे हैं
और हो रही है बारिश.
हवाएं उड़ा लाईं हैं कुछ हरे पत्ते
कागज के टुकड़े
जो ठिठक गए हैं आकर पोल के पायताने जमे पानी में

लोग-बाग बाते कर रहें हैं
उनकी बातों में हैं तमाम बातें
बस की अब नहीं है उन्हें कोई चिंता
बस आएगी अपने नियत समय पर
बादल गरजेंगे
बारिश होगी
रास्ते में लग जाएगा जाम
पोल के पायताने जमा रहेगा पानी.
दूर रेडियो पर बजती रहेगी जानी-पहचानी धुन
बादल गरजते रहेंगे.

लोग-बाग बातें करते रहेंगे
बस-स्टैंड एक दृश्य बनकर लटक जाएगा सड़क किनारे.
लोगों की बातों में इन बातों का नहीं होगा कोई जिक्र
नहीं होगा कोई जिक्र कि कैसे कौन हवाएं उन्हें यहां लाकर ठिठका देती हैं
और फिर यकायक उड़ा भी ले जातीं हैं
वे तो जानते तक नहीं
अपना रुकना, ठहरना, दृश्य बन जाना

बस के आने तक होगा दृश्य
टूट जाएगा फिर
लोग हंसते-मुस्कुराते इधर उधर चले जाएंगे
अपनी अपनी छतरियां खोले
फिर कहीं और ठिठक जाने के लिए।

००


सम्पर्क: shuklaaditya48@gmail.com

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