सत्येन्द्र पाण्डेय की कविताएं
कविताएं
जन में वही आग है
गीत सुना था कभी गुनगुनाते
अपनी दादी को एकांत में
जिसकी ऊर्जा से वह कूट दिया करती थी
कई दिनों के लिए धान
और पीस दिया करती थी गेहूँ को गुनगुनाते हुए
पता नहीं कहाँ से आती थी वह शक्ति
गीत से या गँवई मिट्टी से
पर इसे माँ ने भी सीख लिया था
दोहराते हुए दादी के साथ
भोजपुरी में फिर रोने लगती थी याद करके
अपने दिन जब घने वृक्षों की छाया में
एक भी आम मिल जाए तो
खुशियाँ हिलोरें लेने लगतीं
वह भागती सीधे घर
और लिपट जाती माँ से
हवाएँ तेज हो जातीं, बादल भागने लगते
चिड़ियाँ चहकने लगतीं
लेकिन अब नहीं रहे वे दिन और न कहीं वे रातें
अब गीत भी लोक से भागने लगे हैं
जैसे भागने लगा हो, जीवन शरीर से
वृक्ष कटने लगे हों जड़ों से
ललियाँ चमारिन छाया खोजती हुई
तर है पसीने से माथे पर बोझ लिए
जन्मा आज भी बटईया जोतता है
पेट के लिए, बच्चों के लिए
मगर घुन खाती व्यवस्था चुप है अपनी 'भँड़ुवई' पर
शायद वह भूलती जा रही है इतिहास
उस जन का, जिसके अंदर की आग
ले लेती है आकार पृथ्वी का।
००
चिलम की आग
आज भी जब सोचता हूँ
रघुआ के बारे में
हिमालय जैसे उढ़ल पड़ता है
मेरे ऊपर
हृदय गुहार लगाता है
जीने के लिए और साँसें
रिसने लगती हैं
अंधकारमय गुफाओं में
तुम्हें याद करना
जैसे 'मैं' को भूलना है
पर 'मैं' में रहना
तुमसे दूर होना है
जो विलोम है मेरी प्रकृति का
अपनी चिंता नहीं
मुझे तो चिंता है
उस रघुआ की
जिसकी चिलम खुलेआम जलाती है
लहराती शाम की उदासी को
मुझे डर है
कहीं चिलम की आग
पहचान न दे दें
रघुआ की।
००
जुबना अब नहीं दिखती
दिन काँप रहा है
अगहन का
धान की ठूठियाँ
पटी हैं दूर तक
दूर तक पटा है
सुनहला रंग
उसमें भरा है हरा चंग
फैला है जो दूर तक
भीनी-भीनी खुशबू उसकी
फैल गई है हर ओर
उसमें नंगे बदन
काला रंग चौकठ कद काठी का हरुआ
पीट रहा है धान
झाड़ रहा है एक-एक बाली
झाड़ रहा है एक-एक सपना
तक चुका है वह
झाड़ते-झाड़ते
लोगों की कराह
बार-बार गूँजने लगती है
सपनों जैसी
कल ही तो देखा था
जुबना को उसने, अकेली थी
माँ काम पर गई थी
एक-एक पत्ती तोड़कर
अनाज तो जुटाना था
माँ क्या करती अकेली
पसीने का एक-एक कतरा बहाती रहती
बच्चे और पति के लिए
पर कहाँ बचा पाई बच्ची को
जुबना अब नहीं दिखती खेलती
निगल लिया उसे पेट दर्द ने
सेंकती रही माँ गरम पानी से
सहलाती रही हाथ से
नहीं गया दर्द फिर भी
दर्द पत्थर हो गया था
पत्ती से बस अन्न आ सकता था
दवा नहीं।
००
सोचा नहीं था
एक
सोचा नहीं था
देखना पड़ेगा
वह भी
जो कल्पना से परे थी
सुन्दर, कोमल, कल्पना जैसी छवि
गढ़ी थी हृदय ने
भावनाओं का पंख लिए
उड़ता रहा आकाश में
सातों रंग में भीगना भी अच्छा लगा
स्त्री जैसे सपनों की मखमली दुनिया हो
दूब पर दमकती ओस हो
हक़ीक़त में जब छूना चाहा
जीवन को स्त्री के
शनिचरिया साकार नज़र आई
माथे पर लकड़ी का बोझ लिए
और पीठ पर बच्चे का
साँवले शरीर पर
पसीने की धार
चमक रही थी
और वृक्षों की फाँक से
झाँकता हुआ धूप
चूम रहा था उसके मस्तक को
पूछा-दीदी!
क्यों मर रही हो धूप में?
और यह बोझ भी तो कम नहीं है!
नहीं बाबू!
भूख का बोझ बड़ा भारी होता है
उठा नहीं सकती उस बोझ को
यह तो बहुत हल्का है
जबसे धरती पर गिरी हूँ
माँ को पिटते देखा है
बाप से
केवल भूख के लिए
माँ उठाती रही बाप का बोझ
जीवन भर
ब्याही गई मैं भी
इसी शर्त पर
पति का बोझ उठाऊँगी
सो उठा रही हूँ
परम्परा भी तो यही कहती है
आदिवासियों की।
पर दीदी,
चलौनी,जुरन्ती, नागेश्वरी में तो
चाय की पत्तियाँ तोड़
जी सकती थी!
नहीं बाबू!
इन बगानों का क्या भरोसा
कब बंद हो जाए
बड़े लोगों का पेट भी तो बड़ा होता है न
ये बिना खून पीये नहीं भरता
तभी तो बंद होते हैं बगान
और भूख बनने लगती है ज़हर
भूख का ज़हर, जब फैलने लगता है
शून्य पड़ जाती है देवताओं की शक्ति
और बगानों में पत्तियों की जगह
अर्थियाँ उठने लगती हैं।
००
दो
सोचा नहीं था
सुन्दर प्रकृति की गोद में
डुआर्स का यह जीवन
इतना कठिन होगा
कठिन होगा स्त्री का जीना
आँसू और पसीने से तर
शनिचरिया की दुनिया से
कराह की लपटें उठेंगीं।
और सपनों का मखमली स्पर्श
छन्न से उड़ जाएगा।
सोचा नहीं था
सपनों की कमर ऐसे टूटेंगी
और शनिचरिया का असंख्य चेहरा
प्रश्नचिन्ह की तरह
खड़ा हो जाएगा
हमारी सभ्य संस्कृति पर।
००
तोड़ो मत,गिरने दो
पत्तों को तोड़ो मत
गिरने दो
गिरकर मिलने दो
मिट्टी में
जड़ तक जाना है
चढ़ना है तने तक
भूख मिट जाएगी
पेड़ की
पत्तों को जीने दो
पेड़ में
लहू बनकर
तोड़ो मत
गिरने दो।
००
काँस
एक
काँस फूल उगा है
मेरे सपनों में
तुम्हारा विश्वास बनकर ।
००
दो
समीर की लहरें
जब भी चलती हैं
हिलोर उठता है
स्मृतियों में
और तुम
ठीक क्षितिज पर
उभर आते हो
तुम्हारी उज्ज्वल काया
झलक उठती है
काँस के लहराते फूलों पर।
००
तीन
काँस का खिलना
भावों का कौंधना है
स्मृतियों की सीढ़ी पर
चढ़कर
तमाम मखमली
स्पर्शों से गुजरना है
कहीं लम्बी साँसें
भरनी हैं
कहीं यथार्थ की चुभन
सहते रहना है
यह चुभन
समाप्त नहीं होती
वक्त के नाज़ुक मोड़ पर
स्मृतियों में
गोखरू बनकर
उभर आती है
टीसती है जो
जीवन भर।
००
स्पर्श
तुम्हारा स्पर्श याद दिलाता है
मेरे गांव की
वहाँ की मिट्टी की
तड़के धूप में
गेहूँ के पौधों को सहलाते
पिता की
उनके मखमली सपनों की
जहाँ कहीं न कहीं
मेरे होने की संभावना होती है
और इसे भांपते ही उफन पड़ता है
मेरे भीतर का समुद्र
समाहित नहीं कर पाता मैं
तमाम प्रश्नों के वजूद को
तब लगता हूँ खोजने
तुम्हारे स्पर्श में अपनी ज़मीन !
००
तिस्ता की लहरें
तिस्ता की लहरें कोमल हैं
कोमलता भरती है नभ में
मधुर ध्वनि की गूँज सुनाती
पेड़ों पर भी लहराती है
भोर भोर की नाजुक किरणें
इन लहरों की
सिन्दूरी रौनक
झंकृत कर जाती है मन को
बैठे अकेले
मैं निहारता
इन लहरों को
और सटे विस्तृत
फैले चट्टानों की धड़कन सुनता हूँ
घबड़ाता हूँ
छूट न जाये
ये बंधन भी
इसलिए हर बार
अकेले चला आता हूँ !
००
संशय
तुम उगने लगे हो
शाम की दहलीज़ पर
तारे जलने लगे हैं मद्धिम मद्धिम
आसमान में
वृक्ष स्तब्ध हैं
अपनी जगह
और टिड्डा चीख रहा है
सन्नाटे में
अभी पृथ्वी
घूम रही है
मन की धुरी पर
असमानता का भार लिए
अभी भी कोहरा घना है
दलदल ज़मीन पर
जब भी बढ़ाता हूँ कदम
धंसने लगता हूँ
पर इस अंधेरे झंझावत
को भी चुनौती देता है
एक जुगनू
वह जिंदा है
तो अपनी शर्त पर
नहीं तो थम गयी होती पृथ्वी !
००
चाय
कुल्हड़ में मिट्टी के
महक उठती है चाय
जैसे धरती की खुशबू
पोर-पोर में
समा गई हो उसके
महकती है वह कँटीली हथेली
जिसके कठोर स्पर्श से
खिल उठती है मिट्टी
जैसे खिल उठा हो गुलाब
काँटों की तीखी चुभन से
लाल हो गया हो लोहा
आग की गझिन लपटों से
अंधकार की स्याही को चीर
निकल आया हो
नया सूरज
इक्कीसवीं शताब्दी के क्षितिज पर ।
००
यूँ ही कोई नहीं छोड़ता
यूँ ही
कोई नहीं छोड़ता
अपना घर
अपने रिश्ते
अपनी धरती
और तुम
यूँ ही
छोड़ जाते हो मुझे
वृक्ष
क्या अपनी ज़मीन छोड़ते हैं
और परिन्दे अपना बसेरा
लहरें
क्या सूखे तट को देख
मुँह मोड़ लेती हैं
फिर तुम
क्यों मोड़ लेते हो
अपनी संवेदनशील आँखें
भावनाओं की ज़मीन
जब बंजर हो जाती है
तो नहीं फूटता उसमें
कोई अंकुर
पर तुम
यूँ ही
नहीं जाते मेरी स्मृति से
यह कैसी आँखें हैं
जो उभर आती हैं
हर वक़्त
मेरे इर्द-गिर्द
और मैं
जैसे पिघलने लगता हूँ
काँच होता तो
चनक गया होता
हृदय तो चनकता भी नहीं!
००
परिचय:
सत्येन्द्र पाण्डेय
जन्म -5 मार्च 1983, सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)
शिक्षा -एम. ए, पी.एचडी।
प्रकाशन-समीक्षा कृति 'साहित्य लोग और समकालीनता' प्रकाशित। आलोचना, वागर्थ, परिकथा, अनभै सांचा, आज कल, अक्षरा, वसुधा, अभिनव कदम, सापेक्ष, वर्तमान साहित्य, कृति ओर, आदि पत्रिकाओं में लेख ,कविता तथा साक्षात्कार प्रकाशित।
संप्रति-असिस्टेंट प्रोफेसर, बैरकपुर राष्ट्रगुरु सुरेंद्रनाथ कॉलेज।
संपर्क-C2M1-534,
Cmda Nagar, Barasat road,
Barrackpore,
Kolkata-700121
Mobile-9832558528
सत्येन्द्र पाण्डेय |
कविताएं
जन में वही आग है
गीत सुना था कभी गुनगुनाते
अपनी दादी को एकांत में
जिसकी ऊर्जा से वह कूट दिया करती थी
कई दिनों के लिए धान
और पीस दिया करती थी गेहूँ को गुनगुनाते हुए
पता नहीं कहाँ से आती थी वह शक्ति
गीत से या गँवई मिट्टी से
पर इसे माँ ने भी सीख लिया था
दोहराते हुए दादी के साथ
भोजपुरी में फिर रोने लगती थी याद करके
अपने दिन जब घने वृक्षों की छाया में
एक भी आम मिल जाए तो
खुशियाँ हिलोरें लेने लगतीं
वह भागती सीधे घर
और लिपट जाती माँ से
हवाएँ तेज हो जातीं, बादल भागने लगते
चिड़ियाँ चहकने लगतीं
लेकिन अब नहीं रहे वे दिन और न कहीं वे रातें
अब गीत भी लोक से भागने लगे हैं
जैसे भागने लगा हो, जीवन शरीर से
वृक्ष कटने लगे हों जड़ों से
ललियाँ चमारिन छाया खोजती हुई
तर है पसीने से माथे पर बोझ लिए
जन्मा आज भी बटईया जोतता है
पेट के लिए, बच्चों के लिए
मगर घुन खाती व्यवस्था चुप है अपनी 'भँड़ुवई' पर
शायद वह भूलती जा रही है इतिहास
उस जन का, जिसके अंदर की आग
ले लेती है आकार पृथ्वी का।
००
चिलम की आग
आज भी जब सोचता हूँ
रघुआ के बारे में
हिमालय जैसे उढ़ल पड़ता है
मेरे ऊपर
हृदय गुहार लगाता है
जीने के लिए और साँसें
रिसने लगती हैं
अंधकारमय गुफाओं में
तुम्हें याद करना
जैसे 'मैं' को भूलना है
पर 'मैं' में रहना
तुमसे दूर होना है
जो विलोम है मेरी प्रकृति का
अपनी चिंता नहीं
मुझे तो चिंता है
उस रघुआ की
जिसकी चिलम खुलेआम जलाती है
लहराती शाम की उदासी को
मुझे डर है
कहीं चिलम की आग
पहचान न दे दें
रघुआ की।
००
जुबना अब नहीं दिखती
दिन काँप रहा है
अगहन का
धान की ठूठियाँ
पटी हैं दूर तक
दूर तक पटा है
सुनहला रंग
उसमें भरा है हरा चंग
फैला है जो दूर तक
भीनी-भीनी खुशबू उसकी
फैल गई है हर ओर
उसमें नंगे बदन
काला रंग चौकठ कद काठी का हरुआ
पीट रहा है धान
झाड़ रहा है एक-एक बाली
झाड़ रहा है एक-एक सपना
तक चुका है वह
झाड़ते-झाड़ते
लोगों की कराह
बार-बार गूँजने लगती है
सपनों जैसी
कल ही तो देखा था
जुबना को उसने, अकेली थी
माँ काम पर गई थी
एक-एक पत्ती तोड़कर
अनाज तो जुटाना था
माँ क्या करती अकेली
पसीने का एक-एक कतरा बहाती रहती
बच्चे और पति के लिए
पर कहाँ बचा पाई बच्ची को
जुबना अब नहीं दिखती खेलती
निगल लिया उसे पेट दर्द ने
सेंकती रही माँ गरम पानी से
सहलाती रही हाथ से
नहीं गया दर्द फिर भी
दर्द पत्थर हो गया था
पत्ती से बस अन्न आ सकता था
दवा नहीं।
००
सोचा नहीं था
एक
सोचा नहीं था
देखना पड़ेगा
वह भी
जो कल्पना से परे थी
सुन्दर, कोमल, कल्पना जैसी छवि
गढ़ी थी हृदय ने
भावनाओं का पंख लिए
उड़ता रहा आकाश में
सातों रंग में भीगना भी अच्छा लगा
स्त्री जैसे सपनों की मखमली दुनिया हो
दूब पर दमकती ओस हो
हक़ीक़त में जब छूना चाहा
जीवन को स्त्री के
शनिचरिया साकार नज़र आई
माथे पर लकड़ी का बोझ लिए
और पीठ पर बच्चे का
साँवले शरीर पर
पसीने की धार
चमक रही थी
और वृक्षों की फाँक से
झाँकता हुआ धूप
चूम रहा था उसके मस्तक को
पूछा-दीदी!
क्यों मर रही हो धूप में?
और यह बोझ भी तो कम नहीं है!
नहीं बाबू!
भूख का बोझ बड़ा भारी होता है
उठा नहीं सकती उस बोझ को
यह तो बहुत हल्का है
जबसे धरती पर गिरी हूँ
माँ को पिटते देखा है
बाप से
केवल भूख के लिए
माँ उठाती रही बाप का बोझ
जीवन भर
ब्याही गई मैं भी
इसी शर्त पर
पति का बोझ उठाऊँगी
सो उठा रही हूँ
परम्परा भी तो यही कहती है
आदिवासियों की।
पर दीदी,
चलौनी,जुरन्ती, नागेश्वरी में तो
चाय की पत्तियाँ तोड़
जी सकती थी!
नहीं बाबू!
इन बगानों का क्या भरोसा
कब बंद हो जाए
बड़े लोगों का पेट भी तो बड़ा होता है न
ये बिना खून पीये नहीं भरता
तभी तो बंद होते हैं बगान
और भूख बनने लगती है ज़हर
भूख का ज़हर, जब फैलने लगता है
शून्य पड़ जाती है देवताओं की शक्ति
और बगानों में पत्तियों की जगह
अर्थियाँ उठने लगती हैं।
००
दो
सोचा नहीं था
सुन्दर प्रकृति की गोद में
डुआर्स का यह जीवन
इतना कठिन होगा
कठिन होगा स्त्री का जीना
आँसू और पसीने से तर
शनिचरिया की दुनिया से
कराह की लपटें उठेंगीं।
और सपनों का मखमली स्पर्श
छन्न से उड़ जाएगा।
सोचा नहीं था
सपनों की कमर ऐसे टूटेंगी
और शनिचरिया का असंख्य चेहरा
प्रश्नचिन्ह की तरह
खड़ा हो जाएगा
हमारी सभ्य संस्कृति पर।
००
तोड़ो मत,गिरने दो
पत्तों को तोड़ो मत
गिरने दो
गिरकर मिलने दो
मिट्टी में
जड़ तक जाना है
चढ़ना है तने तक
भूख मिट जाएगी
पेड़ की
पत्तों को जीने दो
पेड़ में
लहू बनकर
तोड़ो मत
गिरने दो।
००
काँस
एक
काँस फूल उगा है
मेरे सपनों में
तुम्हारा विश्वास बनकर ।
००
दो
समीर की लहरें
जब भी चलती हैं
हिलोर उठता है
स्मृतियों में
और तुम
ठीक क्षितिज पर
उभर आते हो
तुम्हारी उज्ज्वल काया
झलक उठती है
काँस के लहराते फूलों पर।
००
तीन
काँस का खिलना
भावों का कौंधना है
स्मृतियों की सीढ़ी पर
चढ़कर
तमाम मखमली
स्पर्शों से गुजरना है
कहीं लम्बी साँसें
भरनी हैं
कहीं यथार्थ की चुभन
सहते रहना है
यह चुभन
समाप्त नहीं होती
वक्त के नाज़ुक मोड़ पर
स्मृतियों में
गोखरू बनकर
उभर आती है
टीसती है जो
जीवन भर।
००
स्पर्श
तुम्हारा स्पर्श याद दिलाता है
मेरे गांव की
वहाँ की मिट्टी की
तड़के धूप में
गेहूँ के पौधों को सहलाते
पिता की
उनके मखमली सपनों की
जहाँ कहीं न कहीं
मेरे होने की संभावना होती है
और इसे भांपते ही उफन पड़ता है
मेरे भीतर का समुद्र
समाहित नहीं कर पाता मैं
तमाम प्रश्नों के वजूद को
तब लगता हूँ खोजने
तुम्हारे स्पर्श में अपनी ज़मीन !
००
तिस्ता की लहरें
तिस्ता की लहरें कोमल हैं
कोमलता भरती है नभ में
मधुर ध्वनि की गूँज सुनाती
पेड़ों पर भी लहराती है
भोर भोर की नाजुक किरणें
इन लहरों की
सिन्दूरी रौनक
झंकृत कर जाती है मन को
बैठे अकेले
मैं निहारता
इन लहरों को
और सटे विस्तृत
फैले चट्टानों की धड़कन सुनता हूँ
घबड़ाता हूँ
छूट न जाये
ये बंधन भी
इसलिए हर बार
अकेले चला आता हूँ !
००
संशय
तुम उगने लगे हो
शाम की दहलीज़ पर
तारे जलने लगे हैं मद्धिम मद्धिम
आसमान में
वृक्ष स्तब्ध हैं
अपनी जगह
और टिड्डा चीख रहा है
सन्नाटे में
अभी पृथ्वी
घूम रही है
मन की धुरी पर
असमानता का भार लिए
अभी भी कोहरा घना है
दलदल ज़मीन पर
जब भी बढ़ाता हूँ कदम
धंसने लगता हूँ
पर इस अंधेरे झंझावत
को भी चुनौती देता है
एक जुगनू
वह जिंदा है
तो अपनी शर्त पर
नहीं तो थम गयी होती पृथ्वी !
००
चाय
कुल्हड़ में मिट्टी के
महक उठती है चाय
जैसे धरती की खुशबू
पोर-पोर में
समा गई हो उसके
महकती है वह कँटीली हथेली
जिसके कठोर स्पर्श से
खिल उठती है मिट्टी
जैसे खिल उठा हो गुलाब
काँटों की तीखी चुभन से
लाल हो गया हो लोहा
आग की गझिन लपटों से
अंधकार की स्याही को चीर
निकल आया हो
नया सूरज
इक्कीसवीं शताब्दी के क्षितिज पर ।
००
यूँ ही कोई नहीं छोड़ता
यूँ ही
कोई नहीं छोड़ता
अपना घर
अपने रिश्ते
अपनी धरती
और तुम
यूँ ही
छोड़ जाते हो मुझे
वृक्ष
क्या अपनी ज़मीन छोड़ते हैं
और परिन्दे अपना बसेरा
लहरें
क्या सूखे तट को देख
मुँह मोड़ लेती हैं
फिर तुम
क्यों मोड़ लेते हो
अपनी संवेदनशील आँखें
भावनाओं की ज़मीन
जब बंजर हो जाती है
तो नहीं फूटता उसमें
कोई अंकुर
पर तुम
यूँ ही
नहीं जाते मेरी स्मृति से
यह कैसी आँखें हैं
जो उभर आती हैं
हर वक़्त
मेरे इर्द-गिर्द
और मैं
जैसे पिघलने लगता हूँ
काँच होता तो
चनक गया होता
हृदय तो चनकता भी नहीं!
००
परिचय:
सत्येन्द्र पाण्डेय
जन्म -5 मार्च 1983, सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)
शिक्षा -एम. ए, पी.एचडी।
प्रकाशन-समीक्षा कृति 'साहित्य लोग और समकालीनता' प्रकाशित। आलोचना, वागर्थ, परिकथा, अनभै सांचा, आज कल, अक्षरा, वसुधा, अभिनव कदम, सापेक्ष, वर्तमान साहित्य, कृति ओर, आदि पत्रिकाओं में लेख ,कविता तथा साक्षात्कार प्रकाशित।
संप्रति-असिस्टेंट प्रोफेसर, बैरकपुर राष्ट्रगुरु सुरेंद्रनाथ कॉलेज।
संपर्क-C2M1-534,
Cmda Nagar, Barasat road,
Barrackpore,
Kolkata-700121
Mobile-9832558528
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें